ड्यूएट: औद्योगिक नीति के दृष्टिकोण से
- 09 नवंबर, 2020
- दृष्टिकोण
ज्यां द्रेज़ के शहरी रोजगार कार्यक्रम हेतु ‘ड्यूएट’ प्रस्ताव पर अपना दृष्टिकोण प्रदान करते हुए स्वाति धींगरा का कहना है कि कोविड-19 महामारी से उत्पन्न बेरोजगारी की तात्कालिक एवं बड़ी समस्या का हल निकालने के लिए मितव्ययिता को त्यागने और औद्योगिक नीति के आधुनिकीकरण की आवश्यकता है ताकि उपयुक्त रोजगार पर ध्यान केंद्रित किया जा सके। एक राष्ट्रीय शहरी रोजगार गारंटी- भले ही अस्थायी हो - सीधे नौकरी संकट का हल निकालना शुरू कर देगी और सुधार प्रक्रिया को शुरू करने के लिए अन्य नीतिगत समर्थन मांग-पक्ष को गति प्रदान कर सकते हैं।
इस लेख में मैं भारत की व्यापक औद्योगिक नीति के प्रकाश में शहरी नौकरी की गारंटी को संबोधित करते हुए पांच प्रमुख बिंदुओं में एक अलग दृष्टिकोण प्रस्तुत करती हूं।
पहला, भारत का सुधार पैकेज एक मितव्ययिता की नीति रही है। मौजूदा संकट का सामना करते समय इसे छोड़ दिया जाना चाहिए और लोगों को दीर्घकालिक बेरोजगारी में डूबने से बचाने के लिए नीतिगत प्रोत्साहनों को लागू किया जाना चाहिए। दुनिया भर में उन्नत और मध्यम आय-वाली अर्थव्यवस्थाओं ने इसे मान्यता दी है और रोजगार को प्राथमिकता देने वाली औद्योगिक नीतियों को अपनाने के लिए राजकोषीय अनुशासन को छोड़ दिया है (देखें वेरवे एवं अन्य 2020, मोट्टा एवं और पीत्ज़ 2020)।
दूसरा, नौकरी की गारंटी श्रम बाजारों को संकट से उबारने में सहायता प्रदान करने के लिए एक महत्वपूर्ण नीतिगत प्रोत्साहन हो सकती है - विशेष रूप से इसलिए क्योंकि कम आय-वाले शहरी क्षेत्रों में बड़ी संख्या में श्रमिकों के लिए कार्य के न्यूनतम दिनों की गांरटी द्वारा प्रदान किए जाने वाले कार्य और सुरक्षा बहुत महत्वपूर्ण है। हाल ही में एक क्षेत्र सर्वेक्षण से पता चलता है कि औसतन ये श्रमिक इसके लिए अपनी दैनिक मजदूरी का एक चौथाई हिस्सा तक भी छोड़ने को तैयार हैं और वे महामारी (धींगरा और माचिन 2020) से उत्पन्न होने वाले आजीविका संकट के कारण नौकरी की गारंटी अधिक चाहते हैं।
तीसरा, अंततः विस्थापित व्यक्तियों को उत्पादक रोजगार में लाने की आवश्यकता होगी, जबकि राहत हस्तांतरण निश्चित रूप से आर्थिक कठिनाई को कम कर सकता है। इस समय निजी क्षेत्र से यह अपेक्षा करना कि वह सभी शिथिल श्रम का दायित्व स्वयं ही अपने ऊपर ले ले, लगभग एक असंभव कार्य है और केंद्र सरकार द्वारा दीर्घकालिक बेरोजगारी को रोकने के लिए उठाए जाने वाले कदमों की तुलना में अधिक कठिन है। सामान्य समय में भी जब अर्थव्यवस्था समग्र रूप से बढ़ रही हो, तब भी ऐसे कई मामले हैं जहां भारत, ब्रिटेन, अमेरिका और ब्राजील जैसे देश इतनी नौकरियां सृजित नहीं कर पाए हैं जो विस्थापित श्रमिकों को समाविष्ट कर सकें और आर्थिक झटकों से प्रभावित समुदायों के हालातों को सुधार सकें (ह्यूमेलसे एवं अन्य 2018)। एक चिंता की बात यह है कि नौकरी की गारंटी निजी क्षेत्र के रोजगार को सीधे विस्थापित कर देगी, लेकिन ये सैद्धांतिक तर्क कठिन श्रम बाजारों के दौरान भी प्रचलन में नहीं आ सके हैं (जैसा कि दुनिया भर में न्यूनतम मजदूरी के कई मामलों में दिखाया गया है और जैसा कि संदीप सुखटणकर द्वारा मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम) के बारे में चर्चा की गई है।
चौथा, भारत की प्राचीन और कठिन औद्योगिक नीतियों, जिनका सर्वश्रेष्ठ रिकॉर्ड भी मिश्रित ही रहा है, को भी आधुनिक रूप देने की जरूरत है। एक ऐसी औद्योगिक नीति की आवश्यकता है जिसका ध्यान मुख्य रूप से मानव-पूंजी संचय पर केंद्रित हो। दुनिया भर में औद्योगिक नीति विभिन्न कारणों से श्रम बाजारों के महत्व को समझने की सोच के साथ विकसित हुई है जैसे श्रम हिस्सेदारी में गिरावट, बढ़ती असमानता और कम मजदूरी वृद्धि (ब्लांचार्ड और रोड्रिक 2019)। भारत की कठोर औद्योगिक नीतियां जैसे कि क्षेत्रीय सब्सिडी अपने समय से अधिक समय तक टिकी रही हैं और कुछ तो अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन भी करती हैं (ढींगरा और मेयर 2020)। किसी भी अन्य औद्योगिक नीति की तरह सक्रिय श्रम बाजार की नीतियां भी आसान नहीं हैं, लेकिन वे अब अत्यंत महत्वपूर्ण हो गई हैं।
पांचवां, जैसा कि देबराज रे इसे सरल रखने पर जोर देते हैं। एक राष्ट्रीय न्यूनतम वेतन पर एक राष्ट्रीय रोजगार गारंटी नीति के लिए उच्च आकांक्षा होना आवश्यक है। सीधे शब्दों में कहें, मनरेगा से 'र' (R) को निकाल दिया जाए। पिछले कुछ दशकों में क्षेत्रीय श्रम बाजारों पर हुए शोध से पता चला है कि खंडित राष्ट्रीय श्रम बाजार उन्नत अर्थव्यवस्थाओं और भारत एवं ब्राजील जैसे मध्यम आय वाले देशों में अक्सर विस्थापित श्रमिकों और पिछड़े क्षेत्रों की दुर्दशा में और वृद्धि कर देते हैं (गोल्डबर्ग और पावनिक 2016)। इस संकट ने इस बात को और उजागर कर दिया है कि इसे ग्रामीण-शहरी संकट में बांटना गलत है। राष्ट्रीय श्रम बाजारों को आगे नीति के माध्यम से विभाजित करने से राष्ट्रीय सामाजिक संबंध टूट जाते हैं।
कुल मिलाकर शहरी नौकरी की गारंटी में यह डर बहुत कम है कि स्थानीय नगरीय निकाय परियोजनाओं पर ठीक प्रकार कार्य नहीं करेंगे क्योंकि शहरी निवासी सार्वजनिक सेवाओं की बेहतर तरीके से निगरानी रख सकते हैं। यह डर अधिक है कि केंद्र सरकार ऐसी मितव्ययिता नीति जारी रखेगी जिसमें नौकरियों को प्राथमिकता नहीं दी जाती। ज्यां का प्रस्ताव सरकार को इस ज़िम्मेदारी से बचने के लिए एक प्रारंभिक बिंदु प्रदान करता है - सार्वजनिक संस्थानों में रखरखाव के काम के लिए बड़े स्टार्ट-अप निवेश की आवश्यकता नहीं होती है। अंत में निश्चित रूप से, यदि नौकरी की गारंटी के परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर लाभ जैसे कौशल संवर्धन, आवश्यक सेवा प्रावधान और सार्वजनिक स्वास्थ्य या बुनियादी ढांचा परियोजनाएं प्राप्त किए जाने हैं, तो शहरी स्थानीय निकाय परियोजना चयन और निगरानी की प्रक्रिया को लोकतांत्रिक बनाने का एक बेहतर तरीका प्रदान कर सकते हैं, जिसकी चर्चा दिलीप मुखर्जी और प्रणब बर्धन भी करते हैं।
ये सामान्य समय नहीं हैं और हम पुरानी स्थिति में जल्द ही वापस नहीं आने वाले हैं। कोविड-19 महामारी से उत्पन्न बेरोजगारी की तात्कालिक एवं बड़ी समस्या का हल निकालने के लिए मितव्ययिता को त्यागने और औद्योगिक नीति के आधुनिकीकरण की आवश्यकता है ताकि उपयुक्त रोजगार पर ध्यान केंद्रित किया जा सके। एक राष्ट्रीय शहरी रोजगार गारंटी - भले ही अस्थायी हो - सीधे नौकरी संकट का हल निकालना शुरू कर देगा और सुधार प्रक्रिया को शुरू करने के लिए अन्य नीतिगत समर्थन मांग-पक्ष को गति प्रदान कर सकते हैं।
लेखक परिचय: स्वाति धींगरा लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स एंड पॉलिटिकल साइंस के डिपार्टमेंट ऑफ इक्नोमिक्स अँड सेंटर फॉर इकनॉमिक परफॉर्मेंस में अर्थशास्त्र की असोसिएट प्रोफेसर हैं।
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By: Dr Akhilesh Singh 12 December, 2020
वर्तमान वैश्विक महामारी covid-19 के दौर में लेखिका ने बहुत ही सटीक समीक्षा करते हुए रोजगार नीति और उसकी आम जनता के लिए उपलब्धता पर एक सम सामयिक लेख प्रस्तुत किया है। यद्यपि इस संदर्भ में विस्तार पूर्वक अध्ययन एवं विश्लेषण की महती आवश्यकता है ताकि जनकल्याण में रोजगार प्रभावी कुंजी में परिवर्तित हो सके।