ज्यां द्रेज़ के ड्यूएट प्रस्ताव पर अपने विचार रखते हुए फर्ज़ाना आफ्रीदी यह तर्क देती हैं कि हमें सामान्य समतुल्यता कार्य संरचना के अंदर सरल आय आश्वासन योजना की बजाय, संभवत: प्रशासनिक रूप से जटिल शहरी रोजगार आश्वासन कार्यक्रम को अपनाने के लिए उससे संबंधित लागत एवं लाभ का मूल्यांकन करना होगा।
कोविड-19 वैश्विक महामारी ने अभूतपूर्व हालात पैदा कर दिए हैं और भारतीय अर्थव्यवस्था चुनौतीपूर्ण दौर से गुजर रही है। मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार आश्वासन अधिनियम) के अंतर्गत ग्रामीण इलाकों में रोजगार की मांग, वैश्विक महामारी से पहले के समय की अपेक्षा काफी अधिक रही है, विशेषकर लॉकडाउन के शुरूआती दिनों में जब प्रवासी अपने-अपने गाँव वापस लौटे थे। शहरी इलाकों में रोजगार सृजन के लिए ज्यां द्रेज़ का एक ऐसे ही कार्यक्रम (ड्यूएट) का प्रस्ताव उचित है क्योंकि जैसे-जैसे बेरोजगारी बढ़ती जाती है प्रवासी पुन: शहरों की ओर रुख करने लगते हैं।
परंतु, इससे पहले कि हम ऐसे कार्यक्रम के डिजाइन की चर्चा में उलझें, हमें इसके उ्देश्य की पूर्ण जानकारी होनी चाहिए। क्या ऐसे कार्यक्रम का लक्ष्य केवल रोजगार का सृजन है या अधिक व्यापक रूप में, सामाजिक सुरक्षा है? क्या यह कार्यक्रम केवल एक उद्देश्य की प्राप्ति पर लक्षित होना चाहिए या बहु-उद्देश्यात्मक होना चाहिए (उदाहरणार्थ, रोजगार सृजन के साथ-साथ आधारभूत संरचना विकास)? उद्देश्य के निर्धारण में, कुशलता के नजरिए से, कार्यक्रम का सबसे किफायती डिजाइन कैसा होगा?
यदि रोजगार सृजन ऐसे कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य है तो सार्वजनिक इनफ्रास्ट्रक्चर कार्यक्रम, अकुशल एवं अर्ध-कुशल श्रमिकों हेतु (संभवत: समानांतर रूप से कौशल प्रशिक्षण कार्यक्रम की आवश्यकता के बिना) कार्य उत्पन्न करने का सबसे प्रभावी तरीका हो सकता है। सार्वजनिक इनफ्रास्ट्रक्चर जैसे सड़कें, स्वच्छता एवं अन्य सुविधाओं के सृजन, उन्नयन एवं अनुरक्षण की अत्यधिक आवश्यकता है, जैसा कि दिलीप मुखर्जी ने अपनी टिप्पणियों में उल्लेख किया है। मनरेगा के विपरीत, जहां ग्रामीण टिकाऊ परिसंपत्तियों के सृजन पर साक्ष्य अत्यंत कमजोर हैं और उन पर रोजगार सृजन से भी काफी कम शोध हुआ है, तथा इसकी आय सहयोग भूमिका - एक ऐसी खाई है जिसे पाटना होगा - शहरी रोजगार कार्यक्रम में इन दोनों पहलुओं पर बल दिए जाने की आवश्यकता है। इस सीमा तक कार्यों की पहचान करने तथा कार्यक्रम के कार्यान्वयन में शहरी स्थानीय निकायों की भूमिका अहम हो जाती है (जैसा मनरेगा में ग्राम पंचायत की भूमिका होती है)। ऐसे कार्यक्रम की एक संभावित चिंता यह है कि ग्रामीण इलाकों से शहरों में वर्धित प्रवास पर इसका प्रभाव पड़ सकता है। इस संबंध में, इस कार्यक्रम में श्रम हेतु निर्धारित मजदूरी दरों को पीपीपी (पर्चेसिंग पावर पैरिटी या क्रय सामर्थ्य की समानता) के संदर्भ में ग्रामीण मनरेगा मजदूरी दरों के समतुल्य रखना जाना चाहिए। भ्रष्टाचार के संभावित खतरे से निपटने के लिए जांच एवं समरूपता को लागू करना इस कार्यक्रम के डिजाइन से संबंधित एक अन्य मुद्दा होगा, जैसा कि मनरेगा के कार्यान्वयन के मामले में हुआ, विशेषकर प्रारंभिक चरणों में।
तथापि, मेरे हिसाब से ऐसे कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य सामाजिक सुरक्षा या न्यूनतम आय उपलब्ध कराना होना चाहिए। राष्ट्रव्यापी सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रम जैसे सार्वभौमिक आधारभूत आय (यूबीआई) जैसे विचारों पर व्यापक चिंतन का समय आ गया है। प्रणब बर्धान ने अन्य लोगों के बीच ऐसे कार्यक्रम के डिजाइन और इसके वित्तपोषण पर विस्तृत चर्चा की है। वैश्विक महामारी ने ऐसे कार्यक्रमों की जरूरत को, चाहे उनके रहने का स्थान, पेशा या वर्तमान आय कुछ भी हो, उससे परे अब तक सबसे ज्यादा रेखांकित किया है ताकि परिवारों को इस तरह की घटनाओं से बचाया जा सके। इसके अतिरिक्त, यूबीआई आय से संबन्धित सहयोग के उद्देश्य को अधिक कुशलता से पूर्ण करेगा, अर्थात, यह भ्रष्टाचार और खामियों के प्रति अल्प ग्रहणशील होगा, जैसा कि किसी को रोजगार कार्यक्रम में होने की आशंका रहती है। देश ने पहले ही ऐसे कार्यक्रमों के लिए कई कदम उठाए हैं, उदाहरणार्थ, जन धन योजना के अंतर्गत वैश्विक महामारी के आरंभ से रु.500 प्रति माह की राशि महिलाओं के खाते में जमा की गई (वैश्विक महामारी से बुरी तरह प्रभावित मॉंग को पुन: सुदृढ़ करने के लिए कई अर्थशास्त्रियों द्वारा संस्तुत न्यूनतम आवश्यक आय से बहुत कम)। अत: न्यूनतम या आधारभूत आय सहयोग कार्यक्रम जारी करने के लिए सरकार के पास कमोबेश एक आधारभूत तंत्र विद्यमान है।
कुल मिलाकर हमें सामान्य समतुल्यता कार्य संरचना के अंदर आसान आय आश्वासन योजना की बजाय संभवत: प्रशासनिक रूप से जटिल शहरी रोजगार आश्वासन कार्यक्रम को अपनाने के लिए उससे संबंधित लागत (प्रत्यक्ष और परोक्ष, दोनों, अर्थात कुशलता पहलु) एवं लाभ (व्यापक रूप में सामाजिक कल्याण के संबंध में जिसमें शहरी परिसंपत्तियों का संभावित सृजन एवं शहरी पुन:सुदृढि़करण शामिल हो) का मूल्यांकन करना होगा।
लेखक परिचय: फ़रज़ाना आफरीदी भारतीय सांख्यिकी संस्थान दिल्ली के अर्थशास्त्र एवं योजना विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।
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