विविध विषय

अंतर्निहित प्रयोगों में जोखिम

  • Blog Post Date 19 मई, 2022
  • दृष्टिकोण
  • Print Page
Author Image

Jean Drèze

Ranchi University; Delhi School of Economics

jaandaraz@riseup.net

शोधकर्ताओं और नीति-निर्माताओं द्वारा एक टीम के रूप में किये जा रहे 'अंतर्निहित प्रयोगों' में रुचि बढ़ रही है। क्षमता के  पैमाने के अलावा,इन प्रयोगों का मुख्य आकर्षण किये गए शोध को शीघ्र ही नीति में परिवर्तित करने की सुविधा वाले प्रतीत होना है बिहार में किये गए एक केस स्टडी पर चर्चा करते हुए, ज्यां द्रेज़ तर्क देते हैं कि ऐसे दृष्टिकोण से नीति और अनुसंधान दोनों बिगड़ जाने का खतरा है।

साक्ष्य-आधारित नीति की तीव्रता यहां तक है कि झारखंड के गांव के लोग भी (जहां मैं रहता हूं)कभी-कभी इसके महत्व के बारे में जोर देकर बताते हैं, जिसे वे 'एभिडेन्स' कहते हैं। निश्चित रूप से, जब तक साक्ष्य को व्यापक अर्थों में समझा जा रहा है और यह निर्णय लेने का एकमात्र मध्यस्थ नहीं बनता है, तब तक कोई भी सार्वजनिक नीति में साक्ष्य को अपनाने के महत्व से इनकार नहीं करेगा। हालांकि, कभी-कभी साक्ष्य-आधारित नीति में एक अजीब तरीका अपनाया जाता है जिसके अंतर्गत यादृच्छिक नियंत्रित परीक्षणों (आरसीटी) का उपयोग किया जाता है, और 'क्या काम करता है' का पता लगाते हुए फिर ‘जो भी काम करता है’, को 'स्केल अप' किया जाता है। इससे दीर्घ प्रक्रिया संक्षिप्त हो जाती है जो साक्ष्य को नीति से दूर करती है। ठोस नीति में साक्ष्य को न केवल व्यापक रूप से समझे जाने की आवश्यकता है- बल्कि उसमें मुद्दों की अच्छी समझ,मूल्य निर्णय और समावेशी विचार-विमर्श (ड्रेज़ 2018ए, 2020ए) की भी आवश्यकता होती है।

कठोर साक्ष्य की खोज में बहुत मेहनत की गई है, तथापि साक्ष्य को नीति में परिवर्तित करने वाली प्रक्रिया की अखंडता पर बहुत कम। जैसा कि आइडियाज फॉर इंडिया (ड्रेज़ एवं अन्य 2020) के पिछले लेखों में दर्शाया गया है,आरसीटी के वैज्ञानिक निष्कर्षों को महत्व देना असामान्य नहीं है। इसी क्रम में यह अनुवर्ती लेख एक और केस स्टडी प्रस्तुत करता है जो समस्या को समझाने में मदद कर सकता है। यह साक्ष्य से नीतिगत सलाह तक के आकस्मिक बदलाव से संबंधित खतरे को भी दर्शाता है। 'अंतर्निहित प्रयोगों' में शॉर्ट-सर्किट का जोखिम विशेष रूप से गंभीर होता है, जहां अनुसंधान दल 'भीतर से' भागीदार सरकार के रूप में नीति-निर्माताओं के साथ सीधे सहयोग में काम करता है।

यह केस स्टडी बिहार में वर्ष 2012-2013 में किए गए एक प्रयोग से संबंधित है और इसे  बनर्जी, डफ्लो, इम्बर्ट, मैथ्यू और पांडे (2020)1 में रिपोर्ट किया गया है। वास्तव में, यह आरसीटी बदलाव से जुडी कुछ प्रमुख हस्तियों द्वारा बड़े पैमाने पर किया गया एक प्रभावशाली प्रयोग है, जिसे भारत के सबसे प्रतिभाशाली सिविल सेवकों में से एक,संतोष मैथ्यू द्वारा सशक्त बनाई गई प्रथम श्रेणी के अर्थशास्त्रियों की एक दुर्जेय चौकड़ी द्वारा किया गया है। इस अध्ययन के उच्च तकनीकी मानकों और इसके लेखकों की प्रामाणिकता के बारे में कोई संदेह नहीं हैं। फिर भी, मैं यह तर्क दूंगा कि इस अध्ययन के निष्कर्षों और नीतिगत निहितार्थों के बारे में उनके वर्णनों में कुछ गड़बड़ है।

एक प्रयोग,जो उल्टा पड़ गया

संक्षेप में,उक्त प्रयोग में भारत के महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा)2, जिसे आशावादी रूप से 'जस्ट-इन-टाइम' वित्तपोषण कहा जाता है, के संदर्भ में नई वित्तीय प्रबंधन प्रणाली का परीक्षण शामिल है। पुरानी व्यवस्था के अनुसार, ब्लॉक और जिला कार्यालयों के माध्यम से प्राप्त किये गए अनुरोधों के आधार पर ग्राम पंचायतों को मनरेगा कार्य के लिए राज्य सरकार से अग्रिम रूप में धनराशि प्राप्त होती थी। नई प्रणाली में, काम पहले आता है,और फिर प्रत्यक्ष इलेक्ट्रॉनिक चालान3 के उत्तर में अपेक्षित धन (पहले की तरह, राज्य सरकार से ग्राम पंचायत को)स्थानांतरित किया जाता है। इस नवाचार को 'ई-गवर्नेंस' के अनुप्रयोग के रूप में लागू किया गया है। आगे मैं इसे 'बिहार प्रायोगिक हस्तांतरण प्रणाली'(एक दूसरे के स्थान पर, बीईटीएस या बीईटी प्रणाली के रूप में) के रूप में संदर्भित करूंगा।

इस नई प्रणाली का घोषित उद्देश्य बिहार में मनरेगा खर्च को बढ़ावा देना था, जहां आधारभूत व्यय बहुत कम था। जैसा कि इस योजना के पंजीकरण दस्तावेज़ में कहा गया है: "यह योजना एक अभिनव नीति हस्तक्षेप का मूल्यांकन करती है जिसका उद्देश्य बिहार में सार्वजनिक रोजगार को बढ़ाना है यदि यह हस्तक्षेप खर्च4 को सफलतापूर्वक बढ़ाता है, तो हम इसका उपयोग लोगों के जीवन5 पर नरेगा के प्रभाव का मूल्यांकन करने के एक तरीके के रूप में करेंगे”। तथापि, हस्तक्षेप का विपरीत प्रभाव पड़ा: 'नियंत्रण' क्षेत्रों (कोई हस्तक्षेप नहीं) की तुलना में ‘उपचार’ क्षेत्रों (हस्तक्षेप के अधीन) में मनरेगा खर्च में 24% की गिरावट आई। इसके कारण मजदूरी के भुगतान में बहुत अधिक देरी हुई: नियंत्रण क्षेत्रों में 64 दिन के साथ, हस्तक्षेप की अवधि के दौरान ‘उपचार’ क्षेत्रों में अतिरिक्त 47 दिन (बनर्जी एवं अन्य 2020, तालिका 5)6 ये एक सौ ग्यारह दिन उन लोगों ने अनंत काल की तरह महसूस किये होंगे जिनके पास अपनी अल्प मजदूरी के अलावा निर्वाह का कोई अन्य साधन नहीं है।

यह योजना ‘गो’7 शब्द की खराब अभिव्यक्ति से गुजर गई। दो महीने की 'सेटअप अवधि' थोड़ी गड़बड़ी वाली थी, जिसकी उम्मीद बिहार सरकार के तरीकों से परिचित किसी ने भी की होगी। "हस्तक्षेप अवधि" (सितंबर-दिसंबर 2012) के पहले चार महीनों में, वस्तुतः कोई ‘उपचार’ नहीं था- बिहार को मनरेगा निधि जारी करने पर केंद्र सरकार की रोक के कारण बीईटी प्रणाली कमोबेश निष्क्रिय ही थी। उसके बाद,‘उपचार’ शुरू हुआ, लेकिन बाधाएं बनी रहीं। जिला समन्वयक "अक्सर अप्रभावी" रहे। एक महत्वपूर्ण सॉफ्टवेयर पैच (दो मंत्रालयों के बीच "समन्वय की कमी" के कारण) अमल में नहीं आया, जिसके चलते बीईटीएस को दोहरे डेटा प्रविष्टि की बोझिल प्रणाली में पुनः काम करने के लिए मजबूर होना पड़ा। बीईटीएस की समान रूप से बोझिल प्रणाली- टुकड़ों में भुगतान की सलाह के साथ बैंक "तालमेल नहीं बिठा सके"। "नई वित्तीय प्रणाली के कारण होने वाली देरी के बारे में जिला अधिकारियों की बार-बार शिकायतें" जाती रहीं। केवल तीन महीने के सक्रिय ‘उपचार’ (जनवरी-मार्च 2013) के बाद बिहार सरकार द्वारा यह प्रयोग बंद कर दिया गया- यह इस तरह के हस्तक्षेप का मूल्यांकन करने के लिए बहुत ही छोटा दायरा8 था।

यह प्रयोग मनरेगा मजदूरी के भुगतान के इतिहास के संदर्भ में और भारत में सामाजिक कार्यक्रमों के ई-गवर्नेंस की दिशा में हालिया अभियान के संदर्भ में सबसे अच्छा माना गया है।

समय पर भुगतान की तलाश

मनरेगा में मजदूरी भुगतान का इतिहास बेहद खराब है। मनरेगा श्रमिकों को 15 दिनों के भीतर भुगतान प्राप्त करने का कानूनी अधिकार है,लेकिन व्यवहार में, मजदूरी में नियमित रूप से हफ्तों या महीनों की देरी होती है। जब से श्रमिकों को नकद भुगतान के स्थान पर उनके बैंक खातों में भुगतान शुरू किया गया है तब से यह 10 से अधिक वर्षों से इस कार्यक्रम का अभिशाप रहा है। मनरेगा श्रमिकों के भुगतान में देरी के कारण उनको बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, साथ ही इसका बुरा प्रभाव पूरे कार्यक्रम पर पड़ता है, क्योंकि इसमें श्रमिकों की रूचि कम हो जाती है। मनरेगा की भलाई इसमें परियोजना के चयन, कार्य अनुप्रयोग, संपत्ति निर्माण, सामाजिक परीक्षण,और अन्य कई स्तर पर श्रमिकों की सक्रिय भागीदारी पर निर्भर करती है। मजदूरों की रूचि जैसे ही खत्म हो जाती है, तो मनरेगा की गति थम-सी जाती है।

वर्ष 2012 तक, समय पर मजदूरी का भुगतान सुनिश्चित करने के मामले में एक राज्य जो अपेक्षाकृत सफल रहा, वह आंध्र प्रदेश9 था। राज्य ने भुगतान प्रक्रिया के हर चरण के लिए समय-सीमा तय की थी, और देरी पर कड़ी निगरानी रखी गई थी। कई अन्य डोमेन की तरह, इसमें भी आंध्र प्रदेश ई-गवर्नेंस पहलों में सबसे आगे रहा। वर्ष 2009 के बाद से, इसने "इलेक्ट्रॉनिक फंड मैनेजमेंट सिस्टम" (ई-एफएमएस) नामक एक भुगतान प्रणाली को तैनात करना शुरू कर दिया। इसे समय के साथ कदम दर कदम किया गया- एक जानकार पर्यवेक्षक के अनुसार, "ई-एफएमएस को कारगर बनाने में आंध्र प्रदेश को लगभग दो साल लग गए"। वर्ष 2012 तक, ई-एफएमएस को एक सफल प्रणाली माना गया और इस प्रणाली का विस्तार पूरे भारत में करने हेतु केंद्र के ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा कारवाई शुरू कर दी गई। ई-एफएमएस बीईटीएस की तुलना में अधिक उन्नत प्रणाली थी- इसमें श्रमिकों के बैंक खातों (ग्राम पंचायत खातों को नहीं) में सीधे भुगतान शामिल था, इससे बीईटीएस के भारी 'डबल डेटा-एंट्री' बोझ से निजात मिली,और सामग्री के साथ-साथ श्रम व्यय कम था।

हम आंध्र प्रदेश के अनुभव के महत्व पर पुनः ध्यान देंगे। इस बीच, भारत में ई-गवर्नेंस और डिजिटल भुगतान के हालिया इतिहास में कई समस्याग्रस्त या यहां तक ​​​​कि काउंटर-उत्पादक पहल10 को देखते हुए, यह ध्यान देने-योग्य है कि आंध्र प्रदेश में ई-एफएमएस की तैनाती को संभवतः सफल ई-गवर्नेंस के एक मामले के रूप में माना जा सकता है। बहुत कुछ डिजिटल तैयारी के स्तर-सहित संदर्भ पर निर्भर करता है- यही वह स्थिति है जहां आंध्र प्रदेश ने बड़ी शुरुआत की थी।

वर्ष 2012 में जब बीईटीएस प्रयोग शुरू हुआ था, उसकी तुलना में यह सब आज बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। लेकिन उस समय यह अनुमान लगाने के लिए पर्याप्त था कि बिहार जैसे राज्य (केवल दो महीने की स्थापना अवधि के साथ) में इस नई प्रणाली को जल्दबाज़ी में लाने से मजदूरी के भुगतान में देरी हो सकती है। वास्तव में, चाहे मनरेगा के "प्रबंधन और सूचना प्रणाली" (एमआईएस) के डेटा या लेखकों द्वारा किये गए पारिवारिक सर्वेक्षण (बनर्जी एवं अन्य 2020, तालिका 4 और 5) से डेटा देखें तो अतिरिक्त देरी की अवधि बहुत थी। सांख्यिकीय महत्व के संदर्भ में भी देखें तो, मजदूरी के भुगतान में देरी ने हस्तक्षेप की सम्पूर्ण अवधि के दौरान अन्य ‘उपचार’ प्रभावों को कम कर दिया। यह एक असली समस्या थी।

भ्रष्टाचार में कमी?

हालाँकि,लेखक इस समस्या की ओर बहुत कम ध्यान देते हैं। अपने श्रेय हेतु, वे भुगतान में देरी के बारे में स्पष्टता तो रखते हैं, लेकिन वे इस मामले को बहुत आगे नहीं बढ़ाते,और न ही यह उल्लेख करते हैं कि श्रमिकों को 15 दिनों के भीतर भुगतान का कानूनी अधिकार है। बजाय इसके, वे एक अलग राह का अनुसरण करते हैं- उनका तर्क है कि ‘उपचार’क्षेत्रों में मनरेगा के खर्च में कमी करने से "भ्रष्टाचार" में कमी आएगी। इस दृष्टिकोण से, ऐसा लग सकता है कि हस्तक्षेप का काफी अच्छा असर हुआ है।

लेखक "कम भ्रष्टाचार" की परिकल्पना के पक्ष में तीन ठोस प्रमाणों की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं। जैसे कि लेख का सार संक्षेप कहता है: “कार्यक्रम व्यय में 24 प्रतिशत की गिरावट आई, जबकि रोजगार में थोड़ी वृद्धि हुई; आधिकारिक डेटाबेस में नकली परिवार कम थे; और कार्यक्रम अधिकारियों की निजी संपत्ति में 10 प्रतिशत की गिरावट आई है।" ये तीन प्रमाण निश्चित रूप से बहुत ठोस हैं, यदि यह दावा करने के लिए पर्याप्त नहीं है कि "हमने भ्रष्टाचार में कमी के सबूत की तलाश की, और हमें बहुत कुछ मिला" (डफ्लो 2017, पृष्ठ 6)।

मेरा मानना ​​है कि ‘उपचार’ क्षेत्रों में मनरेगा व्यय में कमी के अन्य संभावित स्पष्टीकरण हैं (जिनमें मजदूरी के भुगतान में देरी शामिल है), लेकिन चलिए इसे हम एक तरफ छोड़ दें। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि मुझे लगता है कि भले ही हस्तक्षेप की अवधि के दौरान भ्रष्टाचार में कुछ कमी आई हो, यह ‘उपचार’के कारण हो भी सकता है और नहीं भी। दरअसल, जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, सात महीने की "हस्तक्षेप अवधि"11 के पहले चार महीनों के दौरान वस्तुतः कोई ‘उपचार’नहीं था। दिलचस्प बात यह है कि वास्तव में हस्तक्षेप के अनुमानित प्रभाव दोनों चरणों- ‘उपचार’ से पहले और बाद में तुरंत बहुत समान थे-(बनर्जी एवं अन्य 2020, चित्र 2 और तालिका 2-5)। ‘उपचार’ क्षेत्रों में ‘उपचार’ के अलावा अन्य बहुत कुछ हो रहा था: प्रशिक्षण, निगरानी, ​​क्षेत्र का दौरा, क्षति नियंत्रण, तथा सामग्री और मानव संसाधनों में एक बड़ा निवेश (ग्राम पंचायत स्तर तक "कंप्यूटर, डेटा एंट्री ऑपरेटर, बिजली की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए जनरेटर, इंटरनेट एक्सेस, स्कैनर और प्रिंटर")12 नियंत्रण और ‘‘उपचार’’ क्षेत्रों के बीच के परिणामों में अंतर हस्तक्षेप के सभी पहलुओं को दर्शाता है, तथापि यह ‘उपचार’ बीईटी प्रणाली है- जिसे इसका श्रेय जाता है। अधिक विशिष्ट रूप से, यह संभव है कि ‘उपचार’ क्षेत्रों में हस्तक्षेप से उत्पन्न 'भनभनाहट' का बदमाशों पर ठंडा प्रभाव पड़ा हो, जो कि नई भुगतान प्रणाली से संबंधित नहीं है। इससे उपरोक्त सभी तीन ठोस प्रमाण स्पष्ट होंगे, और यह तथ्य भी सामने आएगा कि हस्तक्षेप का ‘उपचार’ सहित और बिना ‘उपचार’ के समान प्रभाव था।

ऐसा कहने के बाद, यह संभव है कि बीईटी प्रणाली ने भ्रष्टाचार को कम करने में मदद की हो। आइए, मान लें कि यह निदान सही है। इसका प्रशंसनीय निष्कर्ष इस प्रकार होगा: "अध्ययन से हस्तक्षेप की अवधि में भ्रष्टाचार में कमी के कुछ सबूत सामने आये। हालाँकि, नई प्रणाली के कारण वेतन भुगतान में भी देरी हुई। ऐसा प्रतीत होता है कि बिहार राज्य इसके लिए तैयार नहीं है, अतः जब तक भुगतान संबंधी मुद्दों का समाधान नहीं हो जाता, तब तक नई प्रणाली को लागू नहीं किया जाना चाहिए। इस बीच, मजदूरी के भुगतान में हुई देरी के लिए श्रमिकों को कानून के अनुसार मुआवजा दिया जाना चाहिए।” बजाय इसके, भ्रष्टाचार में देखी गई गिरावट अखबार का मुख्य फोकस और संदेश बन गई।

चूँकि बीईटी प्रणाली में सुधार हुआ है, अतः बढ़ी हुई देरी की समस्या शायद समय के साथ दूर हो गई होगी। इसके बारे में हम कभी नहीं जान पाएंगे,क्योंकि सिर्फ तीन महीने के सक्रिय ‘उपचार’ के बाद प्रयोग बंद कर दिया गया। इसके लिए कोई समर्थन नहीं था, क्योंकि बीईटी प्रणाली संभवतः केंद्र सरकार जिसने पैसे की बचत की, को छोड़कर "कुछ भी हासिल कराने में विफल रही"(बनर्जी एवं अन्य 2020, पृष्ठ 66)। ब्लॉक तथा जिला अधिकारियों ने यह तर्क देते हुए कि यह मनरेगा को "नष्ट" कर रही है, नई प्रणाली का सक्रिय रूप से विरोध किया (पृष्ठ 42)। लेखकों के अनुसार, यह विरोध स्वतःपूर्ण था: उक्त अधिकारियों के पास "कार्यक्रम को नकारने के स्पष्ट कारण थे" (पृष्ठ 42),यानी वे भ्रष्ट अधिकारी थे जो अपनी भ्रष्ट कमाई की रक्षा करने की कोशिश कर रहे थे। हालांकि, क्या ऐसा हो सकता है कि उनमें से कुछ- जो भ्रष्ट थे या नहीं थे,का इससे वास्तव में कोई मतलब था? क्योंकि भारत में मनरेगा के पदाधिकारियों को, यहां तक ​​कि भ्रष्ट लोगों को भी, इस कार्यक्रम के सभी व्यावहारिक पहलुओं के बारे में अमूल्य जानकारी है। इस बात का कोई संकेत नहीं कि इस स्थिति में उन्हें निष्पक्ष सुनवाई मिली होगी।

प्रसार का विवरण 

मैंने अब तक, प्रयोग के अकादमिक विवरण पर ध्यान केंद्रित किया है (बनर्जी एवं अन्य 2020)। वह विवरण बहुत गहन,सटीक और बारीक है। हालाँकि,परेशान करने वाले मुद्दे तब उत्पन्न होते हैं जब हम प्रसार उद्देश्यों के लिए विभिन्न मंचों में प्रस्तुत निष्कर्षों के सारांश विवरणों पर विचार करते हैं- उन्हें हम "प्रसार का विवरण" कहेंगे। इनमें से कई विवरणों में मजदूरी के भुगतान में देरी का उल्लेख नहीं है। उदाहरण के लिए, यह मामला एस्थर डफ्लो के प्रभावशाली रिचर्ड टी.एली व्याख्यान (डफ्लो 2017, पृष्ठ 5-7) में प्रयोग के शानदार विवरणों के साथ-साथ,सेंटर फॉर ग्लोबल डेवलपमेंट में अभिजीत बनर्जी द्वारा 6 दिसंबर 2016 को दी गई मौखिक प्रस्तुति का है, जिसे जे-पाल (अब्दुल लतीफ जमील पॉवर्टी एक्शन लैब) वेबसाइट13 पर पोस्ट किया गया है। उसी कार्यक्रम में संतोष मैथ्यू की अनुवर्ती टिप्पणी और प्रयोग के उनके सारांश (मैथ्यू और गोस्वामी 2016) में भी मजदूरी के भुगतान में हुई देरी पर कोई बात नहीं कही गई है। तो इस अध्ययन के बारे में यू-ट्यूब पर क्लेमेंट इम्बर्ट का तीन मिनट का डाइजेस्ट है, जिसे आयोजकों द्वारा "एक सरल कार्रवाई के जरिये भारत में भ्रष्टाचार को कैसे ख़त्म करें" कहा गया है।

जे-पाल वेबसाइट पर प्रस्तुत प्रयोग का सारांश भी भ्रामक है। इसमें कहा है: "नई प्रणाली [!] के तहत एक साल के बाद, मूल्यांकन में दो प्रमुख आयामों के साथ महत्वपूर्ण प्रभाव पाए गए"- ये हैं "भ्रष्टाचार में कमी" और "अधिक कुशल तरीके से निधि का वितरण"14 इसके आधार पर, सुधार को "सफलता" के रूप में सराहा गया है। केवल वे लोग जो "अधिक विवरण" के लिए अनुवर्ती लिंक पर क्लिक करना चाहते हैं, मजदूरी के भुगतान में हुई देरी के बारे में जानकारी हासिल करते हैं। अंत में जब देरी का उल्लेख किया जाता है, तो एक ऐसी धारणा बनाई जाती है कि यह "कार्यक्रम के प्रारंभिक कार्यान्वयन चरणों के दौरान" एक अस्थायी समस्या थी- वास्तव में, यह हस्तक्षेप अवधि के दौरान बनी रही। प्रयोग के एक और जोरदार जे-पाल सारांश (वॉल्श और कार्टर 2018) में भी मजदूरी के भुगतान में हुई देरी पर पूरी तरह से चुप्पी साधी गई है।

प्रमाण से लेकर नीति तक

बीईटीएस प्रयोग के कुछ प्रसार विवरणों में, यह भी कहा गया है कि उपचार को राष्ट्रीय स्तर पर सुचारू रूप से "स्केल अप" किया गया था। जैसा कि जे-पाल वेबसाइट में कहा गया है: "बिहार के अध्ययन से प्रभावित होकर, भारत सरकार ने सभी राज्यों को मनरेगा मजदूरी के भुगतान हेतु इसी तरह के फंड-फ्लो सिस्टम को अपनाने के लिए कहा।"

पहली बार में यह स्टेटमेंट दिलचस्प लगता है। जैसा कि बनर्जी एवं अन्य (2020) में सही ढंग से उल्लेख किया गया है, यह ई-एफएमएस है, बीईटीएस नहीं, जिसे वर्ष 2012 और 201515 के बीच धीरे-धीरे पूरे देश में विस्तारित किया गया था। याद रहे, आंध्र प्रदेश में ई-एफएमएस का वर्ष 2009 से धैर्यपूर्वक परीक्षण किया गया था, और इसे बिहार प्रयोग शुरू होने से पहले ही, राष्ट्रीय स्तर पर कार्यान्वित करने के लिए वर्ष 2012 के मध्य तक सक्रिय कदम पहले से उठाये गए थे।

स्केल-अप स्टेटमेंट के आधार की करीब से जांच करने पर,यह तथ्य सामने आता है कि कैबिनेट को जून 2015 में प्रस्तुत एमओआरडी नोट में बीईटीएस अध्ययन को उद्धृत किया गया था, जिसमें मंत्रालय मनरेगा के लिए एक नई भुगतान प्रणाली का प्रस्ताव करता है (डफ्लो 2017, फुटनोट 9; बनर्जी एवं अन्य 2020, पृष्ठ 42)। यह नई भुगतान प्रणाली एक अधिक केंद्रीकृत ई-एफएमएस प्लेटफॉर्म (जिसे राष्ट्रीय ई-एफएमएस या एनई-एफएमएस के रूप में जाना जाता है) और तथाकथित प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (डीबीटी)16 प्रोटोकॉल पर आधारित है। दिलचस्प बात यह है कि इस नई व्यवस्था हेतु कैबिनेट नोट का मुख्य तर्क यह है कि इससे मजदूरी का समय पर भुगतान सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी। लेकिन यह नोट भ्रष्टाचार में कमी सहित "ई-गवर्नेंस आधारित फंड फ्लो" के अन्य संभावित लाभों को भी संदर्भित करता है, और यह उस संदर्भ में बीईटीएस अध्ययन का हवाला देता है। यह मानते हुए कि एनई-एफएमएस-सह-डीबीटी प्रणाली को कुछ अर्थों में बीईटी प्रणाली के स्केल-अप के रूप में माना जा सकता है, कोई यह मान सकता है कि "इस कार्यक्रम को सभी राज्यों में लागू करने में प्रयोग वास्तव में महत्वपूर्ण था" (डफ्लो 2017, पृष्ठ 7)17

हालाँकि,यह नजरिया एक दिलचस्प सवाल उठाता है। जैसा कि जे-पाल वेबसाइट में कहा गया है, बीईटीएस का स्केल-अप एक अच्छी बात क्यों होगी,जैसा कि डफ्लो का तात्पर्य है, "नीतिगत सफलता" की तो बात ही छोड़िए? यहां तक ​​कि अगर हम स्वीकार करते हैं कि बीईटीएस के कारण भ्रष्टाचार को कम करने में मदद मिली,तो यह तथ्य फिर भी रहता है कि इससे मजदूरी के भुगतान में देरी हुई। यहां थोड़ा ट्रेड-ऑफ है। शायद यह धारणा कि देरी सिर्फ एक तरह की 'शुरुआती समस्या' थी, लेकिन अध्ययन में इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता है। यह प्रमाण से लेकर नीतिगत सलाह तक आकस्मिक छलांग का एक अच्छा उदाहरण है (ड्रेज़ 2018ए)।

जैसा कि जे-पाल वेबसाइट में कहा गया है, यह वेबसाइट स्पष्ट रूप से इस तरह की लंबी छलांग, या 'अनुसंधान अंतरण प्रयासों' के लिए प्रतिबद्ध है (जे-पाल, 2018)। हमें इस मामले में बताया गया है कि इन प्रयासों में ग्रामीण विकास मंत्रालय (जे-पाल, 2021) में एक पूर्णकालिक "नीति सलाहकार" की तैनाती और उनको भुगतान शामिल है। सलाहकार के कार्यों में "नीति सम्बन्धी ज्ञापन लिखना और स्केल-अप हेतु बाय-इन उत्पन्न करने के लिए समन्वय बैठकें" आयोजित करना शामिल था। वास्तव में इस बात का आश्चर्य होता है कि कैसे इस सलाहकार ने बीईटीएस अध्ययन में प्रस्तुत तथ्यात्मक साक्ष्य को नीतिगत नुस्खे में 'अंतरित' किया।

जैसे ही इसमें बदलाव हुआ, वर्ष 2015 के बाद से एनई-एफएमएस-सह-डीबीटी में परिवर्तन के चलते वर्षों तक भारी भ्रम की स्थितियां पैदा हुई और इसमें भुगतान संबंधी कुछ नई समस्यायें हुई- केवल मजदूरी के भुगतान में निरंतर देरी ही नहीं, बल्कि भुगतान अस्वीकार किया जाना, भुगतान बदल जाना और भुगतान रुक जाना18 जैसी समस्यायें सामने आई। चौंका देने वाली बात है कि एमओआरडी के अनुसार19, वर्ष 2016-2017 में मनरेगा मजदूरी के भुगतान में 16% केवल अस्वीकृत भुगतानों का था। पिछले कुछ वर्षों में, कई मनरेगा श्रमिकों को तकनीकी जटिलताओं के कारण उनकी मजदूरी बिल्कुल नहीं मिली। कुछ गड़बड़ियां वास्तव में बहुत विचित्र हैं, जैसे मनरेगा मजदूरी को एयरटेल वॉलेट में पुनर्निर्देशित किया जा रहा है, जिसके बारे में श्रमिकों को कुछ भी नहीं पता है (ड्रेज़ 2018सी)। भ्रष्टाचार के नए रूप- जिसे 'ई-भ्रष्टाचार' कहा जा सकता है- भी इस अवधि में फले-फूले हैं। यह सब यथासमय हल हो सकता है (या नहीं भी हो सकता है),और अगर ऐसा होता भी है तो आज की स्थिति में बीईटी प्रणाली के स्केल-अप का जश्न मनाने का कोई ख़ास औचित्य नहीं है।

एक मौका, जो चूक गया 

इसमें इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि बीईटीएस अध्ययन से बहुत कुछ सीखने को मिलता है। हालांकि, मजदूरी के भुगतान में होने वाली देरी पर गंभीरता से ध्यान देने से यह और भी ज्ञानवर्धक हो जाता। वास्तव में, यह प्रयोग नाजुक सेटिंग्स में नई प्रौद्योगिकियों के जल्दबाजी में रोलआउट के खतरों की ओर ध्यान आकर्षित करने का एक अच्छा अवसर था। मनरेगा श्रमिकों के हित को दांव पर लगाते हुए मनरेगा भुगतान संबंधी प्रौद्योगिकियों में बार-बार बदलाव की लंबी अवधि के शुरुआती समय में यह बहुत ही हितकर चेतावनी होती वर्षों से मनरेगा मजदूरी का भुगतान इससे संबंधित नई प्रणालियों की एक पूरी श्रृंखला से गुजरा है, लेकिन सरकार अभी भी अधिनियम के अनुसार निर्धारित 15 दिनों के भीतर मजदूरी का भुगतान सुनिश्चित करने के सरल कार्य को नियमित नहीं कर सकी है। विशेष रूप से आधार भुगतान ब्रिज सिस्टम- जैसे नवीनतम नवाचारों से कुछ सुधार हुए हैं, लेकिन कई नई समस्याओं20 को भी जन्म दिया है। ये समस्याएं अस्थायी हो सकती हैं, लेकिन चूंकि प्रत्येक नई प्रणाली से कुछ अस्थायी समस्याएं निर्माण होती हैं- जो कई मामलों में वर्षों तक चलती है, इनसे समय पर मजदूरी का भुगतान पाने के मनरेगा श्रमिकों के अधिकार से लगातार वंचित किया जा रहा है।

समापन टिप्पणी

इस केस स्टडी से जो तस्वीर उभरती है वह थोड़ी परेशान करने वाली है। कुछ महीनों के भीतर निरस्त कर दिया गया एक प्रति-उत्पादक प्रयोग, साक्ष्य-आधारित नीति में एक आदर्श अभ्यास के रूप में माना जाने लगा।

मैं अपनी बात न केवल इस केस स्टडी पर, बल्कि साथी अध्ययन (ड्रेज़ एवं अन्य 2020) पर भी अपनी कुछ सामान्य टिप्पणियों के साथ समाप्त करता हूं। यदि आपके पास दोनों को पढ़ने का सब्र होता, तो शायद आपने दो फोकस प्रयोगों के बीच कुछ समानताएं देखी होती- पहला झारखंड में सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) पर (मुरलीधरन एवं अन्य 2020), तो दूसरा बिहार में मनरेगा पर (बनर्जी और अन्य 2020)। दोनों ही मामलों में,अध्ययन बहुत गहन है,तथापि कुछ प्रसार विवरण में निष्कर्षों को गलत तरीके से प्रस्तुत किया गया था। साथ ही, दोनों मामलों में, प्रसार का विवरण एक ही दिशा में है: ‘उपचार’ के भ्रष्टाचार-विरोधी प्रभावों को निभाना और इच्छित लाभार्थियों पर प्रतिकूल प्रभाव को कम करना- एक मामले में पीडीएस कार्डधारक और दूसरे मामले में मनरेगा वर्कर। 

'कोई नुकसान न करें' को अक्सर आरसीटी का एक महत्वपूर्ण नैतिक सिद्धांत माना गया है। दोनों प्रयोगों ने बड़ी संख्या में गरीब लोगों पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है। बीईटीएस प्रयोग में नुकसान का स्पष्ट अनुमान लगाया जा सकता था: लेखक खुद स्पष्ट करते हैं कि क्यों कोई यह उम्मीद कर सकता है कि नई प्रणाली से मजदूरी के भुगतान में देरी हो सकती है (बनर्जी एवं अन्य 2020, पृष्ठ 47), और एक साधारण मनरेगा वर्कर भी इसे भांप जाएगा। इन प्रयोगों का एक संभावित बचाव यह है कि वैसे भी संबंधित सरकारें हस्तक्षेप की योजना बना रही थीं,और यह कि शोध दल महज इसका मूल्यांकन कर रहा था। यदि किसी हस्तक्षेप का हानिकारक प्रभाव है,तो हमें भी इसके बारे में पता चल सकता है। तथापि,इस बचाव का तात्पर्य सरकार और अनुसंधान दल के बीच जिम्मेदारियों के स्पष्ट अंतर की स्वीकारोक्ति है। कम से कम एक मामले (बिहार आरसीटी) में, यह अंतर थोड़ा अधिक अस्पष्ट21 था।

दोनों प्रयोग आरसीटी की एक शैली से संबंधित हैं जिन्हें 'अंतर्निहित प्रयोग' कहा जा सकता है- एक शोध दल द्वारा किए गए बड़े पैमाने पर प्रयोग जो सीधे एक सरकारी विभाग से जुड़ते हैं। उनके संभावित महत्त्व को नकारे बिना,मुझे ऐसा लगता है कि ऐसे प्रयोग खतरों से भरे हुए हैं। इनमें- भागीदार सरकार के दृष्टिकोण को आत्मसात करना, उसकी प्राथमिकताओं को बदलना, वरिष्ठ अधिकारियों की प्राथमिक जिम्मेदारियों को बदल देना, अनुसंधान निष्कर्षों पर कुछ नियंत्रण स्वीकार करना, जवाबदेही के बगैर शक्तियों का प्रयोग करना,सरकारी क्षमता को कम करके आंकना, राज्य के दबाव (उत्पीड़न) को कम करके आंकना,अनुचित यादृच्छिकरण, सहमति मानदंडों का उल्लंघन, विशेषाधिकार प्राप्त पहुंच का दुरुपयोग, हितों में संघर्ष, परिक्रामी प्रभाव, विचलित करने वाले प्रोत्साहन और संदूषण शामिल हैं। विकास अर्थशास्त्र22 में आरसीटी की नैतिकता के बारे में उपलब्ध सीमित साहित्य में इन मुद्दों पर  अधिक लेखन देखना अच्छा रहेगा।

इन मुद्दों में से किसी एक को संक्षेप में आगे बढ़ाने हेतु, बड़े पैमाने पर 'अंतर्निहित प्रयोगों में सूचित सहमति सुनिश्चित करना स्पष्ट रूप से कठिन है। बिहार आरसीटी के पंजीकरण दस्तावेज में दावा किया गया है कि "सभी मामलों में सूचित सहमति सुनिश्चित की जाएगी", लेकिन संभवत: यह सर्वेक्षण किए जा रहे परिवारों के छोटे अल्पसंख्यक को संदर्भित है, बीईटी प्रणाली से प्रभावित सभी लोगों के लिए नहीं। इस मामले में सूचित सहमति अव्यावहारिक थी, लेकिन फिर यह आश्वस्त होना अधिक महत्वपूर्ण है कि ‘उपचार’ से कोई नुकसान नहीं होगा। यदि लोगों की आजीविका या कल्याण को बाधित करने की क्षमता वाले एक चर (जैसे मजदूरी भुगतान प्रणाली) को यादृच्छिक बनाना बिल्कुल भी उचित ठहराया जा सकता है, तो इसके लिए सबसे मजबूत संभावित सुरक्षा उपायों की आवश्यकता होगी।

जब शोध दल बिहार और झारखंड जैसी भ्रष्टाचार से ग्रस्त सरकारों के साथ कार्य कर रहा है, तो 'अंतर्निहित प्रयोगों के खतरे विशेष रूप से गंभीर हो जाते हैं। निस्संदेह इन सरकारों के वरिष्ठ अधिकारी दौरा करने वाले शोधकर्ताओं पर एक अच्छा प्रभाव डालना जानते हैं,और उनमें से कुछ (संतोष मैथ्यू सहित) बेहतर शासन के लिए सच्ची प्रतिबद्धता रखते हैं। लेकिन बिहार और झारखंड राज्य में सरकारी अधिकारियों का सामान्य रवैया विशेष रूप से वंचितों के प्रति दयालु नहीं है। यह 'अंतर्निहित’ प्रयोगों के खतरों को बढ़ाता है, जिसमें नुकसान करने का जोखिम भी शामिल है।

'अंतर्निहित’ प्रयोग साक्ष्य और नीति के बीच के अंतर को भी धुंधला करते हैं (एक वैज्ञानिक मामला, तो दूसरा राजनीतिक मुद्दा)। जब एक शोध दल किसी सरकारी विभाग से जुड़ता है, तो इसके समय-समय पर नीतिगत मामलों में शामिल होने या कम से कम परामर्श किए जाने की संभावना होती है। यह किसी ऐसे व्यक्ति के लिए अच्छी बात लग सकता है जो यह मानता है कि सार्वजनिक नीतियों को सही करने के लिए अर्थशास्त्रियों को "राजनीतिक निर्वाचन क्षेत्र उनके इर्दगिर्द प्रबल होने से पूर्व" अपने मित्रवत नौकरशाहों के साथ उपयुक्त रूप से रखा गया है,(मुरलीधरन और नीहॉस 2017)। हालाँकि, नीतिगत सलाह की परिभाषा आर्थिक अनुसंधान के सन्दर्भ में बहुत अलग है, और स्वतः अर्थशास्त्रियों के लिए इससे कोई प्रत्यक्ष उपहार नहीं है।

'अंतर्निहित’ प्रयोग, और सामान्य रूप से 'अंतर्निहित’अनुसंधान, निकट भविष्य में बढ़ने की संभावना है। एक तरफ, शोधकर्ताओं पर 'नीतिगत प्रभाव' (मेरे विचार में यह कोई बहुत स्वस्थ प्रवृत्ति नहीं है) प्रदर्शित करने के लिए फंडिंग एजेंसियों के दबाव बढ़ रहे हैं। तो दूसरी ओर, नीति-निर्माताओं के पास संसाधनपूर्ण अनुसंधान टीमों को आमंत्रित करने और ऐसा करने के लिए तेजी से स्वतंत्र महसूस करने के अपने कारण हैं। सुविधा के फलदायी गठजोड़ की   ध्वनियाँ सुनाई दे रही हैं। यह रचनात्मक साझेदारी को रोकता नहीं, परन्तु इससे 'अंतर्निहित’ प्रयोगों के लिए संभावित सुरक्षा उपायों के बारे में कुछ कठिन सोच की अपेक्षा है।

शुरुआत के रूप में, मैं कुछ बुनियादी सुरक्षा उपायों का प्रस्ताव करता हूं। सबसे पहला, किसी 'अंतर्निहित’ प्रयोग में शामिल सिविल सेवकों के लिए कोई व्यक्तिगत पुरस्कार नहीं होना चाहिए। दूसरा,अपनी पूरी कार्यप्रणाली को लागू कराने में विफल किसी 'अंतर्निहित’ प्रयोग के निष्कर्षो को पूर्णतः सही नहीं मानना चाहिए। तीसरा,बड़े पैमाने पर प्रयोग से पहले किसी प्रकार के सुरक्षा परीक्षण किए जाने चाहिए। चौथा,नुकसान होने की स्थिति में मुआवजे की जिम्मेदारी पहले से स्पष्ट की जानी चाहिए। अंत में, किसी 'अंतर्निहित’ प्रयोग के निष्कर्षों को समावेशी परामर्श के बिना नीति में अंतरित नहीं किया जाना चाहिए।

अब मैं अपनी बात पर विराम लगाता हूं और लेखकों, मेरे सभी दोस्तों को- मेरे इस दृष्टिकोण के सिद्धांतों को मजबूत करने का आवाहन करता हूं। अगर मुझसे कुछ छूट गया है, तो उसे सही करने में मुझे खुशी होगी। मुझे उम्मीद है, ये केस स्टडी कम से कम उपयोगी प्रश्न पूछने में मदद करेंगे- इनमें से कुछ मुद्दों को बहुत लंबे समय तक छोड़ दिया गया है।

लेखक विस्तृत स्पष्टीकरण के लिए क्लेमेंट इम्बर्ट के आभारी हैं, और उपयोगी सलाह के लिए हेरोल्ड एल्डरमैन, अमित बसोले, क्रिस्टोफर बैरेट, डायने कॉफ़ी, एंगस डीटन, निखिल डे, स्वाति ढींगरा, रीतिका खेड़ा, अशोक कोतवाल, जे वी मीनाक्षी, के राजू, मार्टिन रावलियन, अनमोल सोमांची और अंकुर सरीन के आभारी हैं।

क्या आपको हमारे पोस्ट पसंद आते हैं? नए पोस्टों की सूचना तुरंत प्राप्त करने के लिए हमारे टेलीग्राम (@I4I_Hindi) चैनल से जुड़ें। इसके अलावा हमारे मासिक समाचार पत्र की सदस्यता प्राप्त करने के लिए दायीं ओर दिए गए फॉर्म को भरें।

टिप्पणियाँ:

  1. उस लेख के पहले के संस्करण यदि पहले नहीं हैं तो वर्ष 2014 से सार्वजनिक डोमेन में हैं। यह केस स्टडी अंतिम संस्करण पर आधारित है, जिसमें उन विवरणों को छोड़ दिया गया है जो मेरे उद्देश्य के लिए आवश्यक नहीं हैं।
  2. मनरेगा ग्रामीण क्षेत्रों में किसी भी वयस्क को स्थानीय सार्वजनिक कार्यों पर रोजगार की गारंटी प्रदान करता है, जो प्रति वर्ष प्रति परिवार 100 दिन तक निर्धारित मजदूरी पर मैनुअल काम करने को तैयार है।
  3. अधिक जानकारी के लिए, बनर्जी एवं अन्य देखें (2020), पृष्ठ 44-46। सच पूछिये तो, यह सब मनरेगा व्यय के मजदूरी घटक पर लागू होता है। इस केस स्टडी में सामग्री घटक के बारे में कोई दिलचस्पी नहीं है।
  4. इटैलिक जोड़ा गया है।
  5. इसके अलावा, सार में उल्लेख किया गया है कि "हस्तक्षेप भ्रष्टाचार को भी कम कर सकता है" और लेखकों ने "अज्ञात(आभासी) श्रमिकों और भ्रष्टाचार के अन्य उपायों पर संभावित प्रभावों" का अध्ययन करने का प्रस्ताव दिया है।
  6. ये आंकड़े पारिवारिक सर्वेक्षण के आंकड़ों से लिए गए हैं। मनरेगा के सार्वजनिक डेटा पोर्टल से संबंधित आंकड़े 20 दिन और 53 दिन हैं। हालाँकि, पोर्टल मजदूरी के भुगतान में कम देरी को दर्शाता है (नारायणन एवं अन्य 2019)।
  7. इस पैराग्राफ में तथ्य और उद्धरण बनर्जी एवं अन्य से लिए गए हैं (2015), पृष्ठ 16-19।
  8. परियोजना के पंजीकरण दस्तावेज के अनुसार, "परीक्षण" (संभवतः पूरी परियोजना का अर्थ) शुरू में जून 2014 तक जारी रहने के कारण था।
  9. उदाहरण के लिए, चोपड़ा और खेरा (2012) देखें। लेखकों ने पाया कि वर्ष 2012 के पहले छह महीनों में, आंध्र प्रदेश में मनरेगा मजदूरी भुगतान 14 दिनों के भीतर 85% किया गया था- एक समयरेखा जिसे आज शानदार माना जाएगा।
  10. 10.कुछ उदाहरणों के लिए, दत्ता (2016, 2018),अग्रवाल (2017बी), ड्रेज़ एवं अन्य देखें। (2017), जे-पाल (2017), मल्होत्रा ​​और सोमांची (2018), मोहन (2018), धोराजीवाला एवं अन्य (2019), ड्रेज़ एवं अन्य (2020),और लिबटेक इंडिया (2020, 2021)।
  11. अधिक स्पष्ट करने के लिए: उस चार महीने की अवधि के अंत तक, ‘उपचार’ क्षेत्रों में केवल 20% ग्राम पंचायतों ने बीईटी प्रणाली का उपयोग किया था (बनर्जी एवं अन्य 2020, पृष्ठ 51)। लेखक स्वयं मानते हैं कि, व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए, "हस्तक्षेप अपने प्रारंभिक चरण में लागू नहीं किया गया था"(बनर्जी एवं अन्य 2015, पृष्ठ 17)।
  12. बनर्जी एवं अन्य पृ. 50 (2020); बनर्जी एवं अन्य पृष्ठ 16-19 भी देखें (2015)।
  13. संतोष मैथ्यू को छोड़कर सभी लेखक जे-पाल सहयोगी हैं।
  14. अभिव्यक्ति "नई प्रणाली के तहत एक वर्ष" चौंकाने वाली है। शायद यह सेटअप (जुलाई-अगस्त 2012) और पोस्ट-इंटरवेंशन सर्वे (अप्रैल-जून 2013) सहित पूरी परियोजना अवधि को संदर्भित करता है।
  15. बनर्जी एवं अन्य (2020), पृष्ठ 66-67। जून 2015 तक, देश में 92% ग्राम पंचायतों को ई-एफएमएस (भारत सरकार, 2015) के अधीन कवर किया गया था।
  16. इस असाधारण जटिल प्रणाली की रूपरेखा के लिए भारत सरकार (2017) देखें।
  17. गिववेल (2019) ने जे-पाल मल्टी-मिलियन-डॉलर के अनुदान आवेदन के अपने मूल्यांकन में उस धारणा को खारिज कर दिया, जो बिहार आरसीटी को एक सफलता की कहानी के रूप में प्रस्तुत करता है और कैबिनेट नोट को इसके नीति प्रभाव के प्रमाण के रूप में प्रस्तुत करता है। यह असंबद्ध है कि गिववेल ने अनुदान को एक मिलियन डॉलर तक सीमित रखने की सलाह दी।
  18. देखें ड्रेज़ (2018b, 2020b); अग्रवाल (2017a, 2017b), धोराजीवाला एवं अन्य भी। (2019), दत्ता (2019), जौहरी (2019), नारायणन एवं अन्य (2019), और लिबटेक इंडिया (2021), अन्य।
  19. 13 जुलाई 2018 की प्रेस विज्ञप्ति (ड्रेज़ 2018डी भी देखें)। अस्वीकृत भुगतानों के अनुपात में बाद में गिरावट आई, लेकिन यह आज भी एक बड़ी समस्या बनी हुई है; उदाहरण के लिए देखें, लिबटेक इंडिया (2021)।
  20. पूर्व में उद्धृत साहित्य देखें (नोट 18); और साथ ही ड्रेज़ और खेरा (2021) और आगे की रिपोर्टों को देखें।
  21. संतोष मैथ्यू ने अपनी सीजीडी प्रस्तुति में सरकार और अनुसंधान दल के बीच के सहजीवी संबंध को अच्छी तरह से बताया था, जिसका उल्लेख पहले किया गया था: "... उनके (जे-पाल) पास एक समर्पित टीम है जिसका एकमात्र काम मेरे जैसे लोगों को आगे बढ़ाने में मदद करना है- इसलिए जब हमें एक नए दस्तावेज़ की आवश्यकता होती है, तो उसे फिर से तैयार किया जाता है, जब मुझे एक प्रस्तुति देने की आवश्यकता होती है तो वे ही मेरे लिए प्रस्तुति तैयार करते हैं, जब मुझे आकर आपसे बात करने की आवश्यकता होती है, तो वे ही मुझे इस बात के लिए प्रेरित करते हैं कि मैं किस दिशा में मुझे अपनी बात रखनी चाहिए”। जब बीईटीएस प्रयोग शुरू हुआ तब संतोष मैथ्यू बिहार के ग्रामीण विकास विभाग में प्रधान सचिव थे, और जे-पाल के 'अनुसंधान अंतरण प्रयासों' के समय केंद्र में एमओआरडी में संयुक्त सचिव थे।
  22. इनमें से कुछ मुद्दों पर बिडेकार्रट्स एवं अन्य (2020), डीटन (2020), खेरा (2021) और विश्व विकास "विकास और गरीबी उन्मूलन में प्रायोगिक दृष्टिकोण पर संगोष्ठी", मार्च 2020, में चर्चा (अंतर्निहित (एम्बेडेड) प्रयोगों का विशिष्ट संदर्भ दिए बिना) की गई है।

लेखक परिचय:  ज्यां द्रेज़ रांची विश्वविद्यालय में विजिटिंग प्रोफेसर के साथ-साथ दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में मानद प्रोफेसर हैं।

No comments yet
Join the conversation
Captcha Captcha Reload

Comments will be held for moderation. Your contact information will not be made public.

संबंधित विषयवस्तु

समाचार पत्र के लिये पंजीकरण करें