स्टडीज में पब्लिक फंड्स के प्रवाह को दिशा देने में चुनावी प्रतिस्पर्धा की भूमिका को रेखांकित किया गया है। भारत के आंकड़ों का विश्लेषण करते हुए इस लेख में पाया गया है कि लगभग बराबरी की प्रतिस्पर्धा वाले निर्वाचन क्षेत्रों में आय संबंधी असमानता और ध्रुवीकरण कम होता है जिसका अर्थ हुआ कि चुनावी प्रतिस्पर्धा में गरीब लोगों को संपन्न लोगों की तुलना में अधिक लाभ होता है।
उत्तरदायित्व लोकतंत्र की अवधरणा का केंद्रीय तत्व है। चुने गए राजनेता अपने निर्वाचन क्षेत्रों के प्रति जवाबदेह होते हैं। साथ ही, उनके पास निर्वाचन क्षेत्रों के नागरिकों की आर्थिक स्थितियों को प्रभावित करने का अधिकार और साधन भी होता है। ऐसा इसलिए कि राजनीतिक सत्ता अनिवार्यतः सरकारी योजनाओं के लक्ष्य निर्धरण (चाहे वह कल्याण हो या रोजगार सृजन या गरीबी निवारण), और स्थानीय सार्वजनिक वस्तुओं एवं सेवाओं (स्वास्थ्य केंद्र, विद्यालय, सड़क निर्माण, सार्वजनिक प्रकाश व्यवस्था आदि) के प्रावधान से संबंधित धनराशियों पर कुछ नियंत्रण के साथ ही आती है। जहां सरकारी योजनाओं के लक्ष्य निर्धारण का नागरिकों की आर्थिक उन्नति पर सीधा प्रभाव पड़ सकता है, वहीं स्थानीय सार्वजनिक वस्तुओं एवं सेवाओं के प्रावधान के जरिए यह प्रभाव अधिक अप्रत्यक्ष और जटिल तरीकों के जरिए होता है।1
यह तथ्य विश्वसनीय लगता है कि निर्वाचित राजनेताओं द्वारा सार्वजनिक योजनाओं का क्रियान्वयन उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों से होने वाले चुनाव संबंधी भय की धरणा के लिहाज से संवेदनशील मामला होता होगा। की गई स्टडीज (लिंडबेक और वीबुल 1987, दीक्षित और लोंद्रेगान 1996, 1998) में पब्लिक फंड्स के फ्लो को डायरेक्ट करने में चुनावी प्रतिस्पर्धा की भूमिका पर जोर दिया गया है : इस बात पर व्यापक सहमति है कि चुनाव के लिहाज से अधिक प्रतिस्पर्धा वाले (या ‘स्विंग’) निर्वाचन क्षेत्रों को कुल मिलाकर अधिक लक्षित संसाधन प्राप्त होते हैं।
लेकिन उसके बाद किसी भी निर्वाचन क्षेत्र में नागरिकों की आयों के बीच अंतर भी होता है। तो, किसी ‘अस्थिर’ निर्वाचन क्षेत्र में सबसे अधिक फायदे में कौन रहते हैं : अमीर या गरीब? अधिक चुनावी प्रतिस्पर्धा से अधिक आर्थिक लाभ होने का विश्लेषण करने के प्रयास में यह मुख्य मुद्दा है।
नजदीकी हार-जीत वाले चुनाव आय वितरण को कैसे प्रभावित करते हैं
कम अंतर से हार-जीत वाले चुनावों में एक मत का ज़्यादा महत्व होता है। अतः अधिकाधिक मत प्राप्त करने के प्रयास में सभी प्रतिस्पर्धी प्रत्याशी द्वारा धनी लोगों की अपेक्षा कम आय वाले समूहों को लक्षित करने की अधिक संभावना रहती है। ऐसा इसलिए कि सार्वजनिक बजट से अधिक रुपए की पेशकश करने का महत्व गरीबों के लिए अधिक होता है, अमीरों के लिए नहीं। निम्न आय समूहों के लिए यह एक तरह से बड़ा अवसर होता है। इसके परिणामस्वरूप आय संबंधी असमानता में कमी होती होगी जिसके कारण कुछ गरीब निम्न-मध्यम आय समूह में शामिल हो जाते होंगे
सिद्धांत में तो यह विश्वसनीय लगता है, लेकिन व्यवहार में यह वास्तव में खरा उतरेगा या नहीं, इसके लिए अनुभवसिद्ध प्रमाणीकरण की जरूरत है। आगे इसी बात पर चर्चा की गई है।
भारत से प्राप्त आंकड़े
हाल के एक शोध में हमने भारत के संसदीय चुनावों (1977, 1980, 1984-85, 1991-92, 1996, 1998, और 1999) के आंकड़ों और परिवार-स्तरीय उपभोग व्यय के राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण (एनएसएस) के 1987-88 और 2004-05 के आंकड़ों को मिलाकर जांच की (मित्रा एवं मित्रा 2016)।
हालांकि भारत में 1950 के दशक से ढेर सारे राजनीतिक दल रहे हैं, लेकिन कुछ दशकों में (1950 के दशक से लेकर 1970 के दशक के आरंभिक वर्षों तक) संसदीय चुनावों में भारतीय राष्ट्रीय कॉंग्रेस का ही दबदबा रहा।2 परंतु 1980 के दशक में राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक दलों में काफी वृद्धि दिखी। 1990 के दशक में अनेक चुनावों की परिणति ‘त्रिशंकु संसदों’ में हुई, अर्थात कोई भी अकेला दल स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं कर सका, और उसके कारण भारत में गंठबंधन की राजनीति का युग शुरू हुआ। हमारे अध्ययन का समय राजनीतिक क्षेत्र में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अर्ध-एकाधिकार समाप्त हो जाने के बाद का है। अतः हमने उस चरण का अध्ययन किया है जब राष्ट्रीय चुनाव बहुत ताकत लगाकर लड़े गए थे।
भारत में निर्वाचन क्षेत्रों के बीच और उनके अंदर में आय के वितरण के मामले में काफी भिन्नता है। इसका आंशिक कारण यह है कि संसदीय निर्वाचन क्षेत्र बड़े और अधिक जनसंख्या वाले हैं। देश की पूरी आबादी को 543 लोक सभा3 निर्वाचन क्षेत्रों में बांटा गया है और जाति व्यवस्था जैसी जारी सामाजिक संस्थाओं के कारण समाज में अनेक ऐतिहासिक असमानताएं बची हुई हैं। हमारी परिकल्पना की जांच के लिए भारत को उपयुक्त प्रत्याशी बनाने में इन कारकों का अच्छा-खासा योगदान है।
यह पाया गया कि चुनाव में जिस निर्वाचन क्षेत्र में हार-जीत का अंतर कम रहता है उनमें कम प्रतिस्पर्धा वाले चुनाव क्षेत्रों की अपेक्षा आय की असमानता कम होने का रुझान होता है। आय संबंधी ध्रुवीकरण के बारे में भी यही बात है : ‘नजदीकी’ हार-जीत वाले निर्वाचन क्षेत्रों में अपेक्षाकृत बड़ा मध्य वर्ग होता है।
हमने अपने प्रारंभिक जांच परिणामों को अनेक कसौटियों पर परखा। हमने चुनावी प्रतिस्पर्धा की हद को मापने के लिए विभिन्न विधियों का उपयोग किया है जिनमें ‘जीत का अंतर’ का बेसलाइन पैमाना निर्वाचन क्षेत्र के शीर्ष दो प्रत्याशियों को प्राप्त मतों के हिस्सों में अंतर है। हमने आय संबंधी असमानता के विभिन्न पैमानों का उपयोग किया जिसमें गिनी गुणांक4 बेसलाइन माप थी। इसके अतिरिक्त, हमने इस तथ्य को भी ध्यान में रखा कि निर्वाचन क्षेत्रों के बीच जनसंख्या, शहरीकरण की दर, और नृतात्विक तथा धार्मिक संरचना जैसे विभिन्न गैर-आर्थिक आयामों के लिहाज से भी अंतर होता है। इन वैकल्पिक पैमानों का उपयोग कर निर्वाचन क्षेत्रों के बीच होने वाले अंतरों का लेखाजोखा तैयार करने पर हमारे मुख्य निष्कर्ष अपरिवर्तित रहते हैं।
इसका क्या अर्थ हुआ
कुल मिलाकर, हमारे विश्लेषण का सुझाव है कि राजनीतिक प्रतिस्पर्धा और आय वितरण के बीच मजबूत संबंध है। हमारा विश्वास है कि हमारे विश्लेषण का मुख्य तर्क सभी लोकतांत्रिक सेट-अप पर लागू होता है।
राजनीतिक प्रतिस्पर्धा का विनियमन करने का प्रयास करने वाली किसी भी नीति (जैसे कि आरक्षण या आनुपातिक प्रतिनिधित्व संबंधी ज़रूरतें5 को सबसे पहले आय वितरण और मध्य वर्ग पर होने वाले संभावित प्रभाव का मूल्यांकन करना चाहिए और उसके अनुसार उसका लेखाजोखा तैयार करना चाहिए।
लेखक परिचय: शबाना मित्रा इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट बैंगलोर के सेंटर फॉर पब्लिक पालिसी में असिस्टैंट प्रॉफेसर हैं। अनिर्बान मित्रा यूनिवर्सिटी ऑफ़ केंट में इकोनॉमिक्स के असिस्टैंट प्रॉफेसर हैं।
नोट्स:
- एक कारण यह हो सकता है कि गरीब लोगों की जीविका स्थानीय सार्वजनिक वस्तुओं और सेवाओं के प्रावधान पर अधिक निर्भर होती है। संपन्न लोग संभवतः इन सुविधओं के बिना भी काम कर सकते हैं। इसलिए यह गरीबों के लिए एक तरह की सब्सिडी होती है। इसकी बजाय अधिक कुत्सित रूप में स्थानीय सार्वजनिक सुविधाओं से जुड़े भ्रष्टाचार के बारे में भी सोचा जा सकता है। ऐसे भ्रष्टाचार में आम तौर पर विभिन्न कर्ताओं को अवैध भुगतान करना, ठेके देने के लिहाज से गलत आबंटन करना आदि चीजें शामिल होती हैं।
- संभवतः आजादी तक और भारतीय उप-महाद्वीप के विभाजन के दौरान कांग्रेस पार्टी द्वारा निभाई गई नेतृत्वकारी भूमिका को देखते हुए यह प्रत्याशित भी है। उस समय के भारतीय लोगों के मन पर पर व्याप्त महात्मा गांधी के अति महत्वपूर्ण प्रभाव की तो बात ही करने की जरूरत नहीं है (देखें गुहा (2007) तथा अन्य)।
- लोक सभा भारत की संसद का निम्न सदन है।
- गिनी गुणांक असमानता को मापने के लिए उपयोग में लाया जाने वाला सबसे आम पैमाना है। गुणांक का मान पूर्ण समानता व्यक्त करने वाले 0 से लेकर पूर्ण असमानता व्यक्त करने वाले 1 के बीच होता है।
- आम तौर पर इसका अर्थ होता है कि किसी विधायी निकाय में प्रतिस्पर्धी दलों का प्रतिनिधित्व कुल मतों में उनको प्राप्त मतों के हिस्सों पर आधारित होता है – न कि मतों में हर निर्वाचन क्षेत्र सबसे अधिक हिस्सा पाकर जीतने वाले विजेता पर आधरित होता है। यह अर्जेंटीना, बेल्जियम, इटली, फिनलैंड और नीदरलैंड जैसे अनेक देशों की आम व्यवस्था है।
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