अनौपचारिक अनुमानों से पता चलता है कि दुनिया की 60% आबादी भिखारियों को भीख देती है। इस लेख में एक आर्थिक गतिविधि के रूप में भीख मांगने का सैद्धांतिक और अनुभवजन्य विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। दिल्ली में वास्तविक भिखारियों और उन्हें भीख देने वालों के साथ किए गए अवलोकन और प्रयोगात्मक सर्वेक्षणों के आधार पर, इस लेख में भिखारियों और दानदाताओं की दिहाड़ी वाले काम, मुफ्त में पैसे कमाने, ईमानदारी और काम करने की क्षमता की प्राथमिकताओं और धारणाओं के बारे में अंतर्दृष्टि प्रस्तुत की गई है।
भीख मांगना, अर्थात सार्वजनिक स्थानों पर भीख मांगने का कार्य वैश्विक स्तर पर एक व्यापक मुद्दा है। हालांकि भिखारियों की संख्या का अनुमान लगाना कठिन है, लेकिन पिछले वर्ष दुनिया की 60% आबादी ने ‘किसी अजनबी’ (अक्सर किसी भिखारी) की मदद करने की बात कही है, जिससे पता चलता है कि दुनिया भर में भीख मांगने का चलन बड़े पैमाने पर व्याप्त है (चैरिटी एड फाउंडेशन, वर्ल्ड गिविंग इंडेक्स, 2023)। भीख मांगने को अक्सर सामाजिक और आर्थिक दोनों तरह की समस्या के रूप में देखा जाता है। भिखारी उत्पादक आर्थिक गतिविधि में शामिल नहीं होते हैं, और भीख मांगने को अक्सर सडकों पर होने वाले अपराध, चोरी, डकैती, गरीबों के अधिक गरीबी और हाशिए पर जाने, हिंसा और शोषण से जुड़ा हुआ माना जाता है। परिणामस्वरूप, भिक्षावृत्ति को कम करने में काफी नीतिगत रुचि है और भारत सहित विश्व भर में इसकी रोकथाम के विभिन्न पैमाने के कानून मौजूद हैं। लेकिन उनके प्रभाव स्पष्ट नहीं हैं। अर्थशास्त्रियों ने अध्ययन के इस क्षेत्र की काफी उपेक्षा की है और परंपरागत रूप से इसे समाजशास्त्र के दायरे में ही रखा है।
हम हाल के शोध (शर्मा और मलिक, 2024) में, आर्थिक गतिविधि के रूप में भीख मांगने का पहला सैद्धांतिक और अनुभवजन्य विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं। हम भीख मांगने का बाज़ार के रूप में विश्लेषण करने के लिए एक नया आर्थिक दृष्टिकोण अपनाते हैं, जिसमें व्यवहारिक (बिहेवियरल) और विकास (डेवलपमेंटल) अर्थशास्त्र से प्राप्त अंतर्दृष्टि को एकीकृत किया जाता है। भिखारियों की संख्या का अनौपचारिक और क्षणिक स्वरूप मानक डेटा संग्रह तथा आर्थिक शोध के लिए विशेष चुनौतियाँ पेश करता है। उनका कोई निश्चित पता या उनके पास फोन नहीं होता है और वे अक्सर पारंपरिक सर्वेक्षणों, जनगणना प्रयासों से छूट जाते हैं, जिससे वे काफी हद तक एक अदृश्य समूह बन जाते हैं। इसके अलावा, भिखारी अत्यधिक हाशिए पर हैं इसलिए, सामान्य आबादी की प्राथमिकताओं एवं व्यवहार का अध्ययन करने के मौजूदा सर्वेक्षण उपाय और प्रयोगात्मक उपकरण भिखारियों की आबादी के सन्दर्भ में उपयुक्त नहीं हैं। इस लेख में हम दिल्ली में भिखारियों की पृष्ठभूमि और आर्थिक प्राथमिकताओं तथा भिखारियों को दान देने वाले संभावित लोगों की सामान्य आबादी का अध्ययन करने के एक अनूठे प्रयास की रिपोर्ट प्रस्तुत कर रहे हैं।
सैद्धांतिक मॉडल
हम भीख मांगने को औपचारिक श्रम बाज़ार के विकल्प के रूप में देखते हैं, जहाँ भिखारियों को भीख से लाभ मिलता है और कलंक या उत्पीड़न के कारण वे सामाजिक या आर्थिक रूप से उपयोगी नहीं रहते। इसके विपरीत, श्रम बाज़ार में श्रम और अवकाश के बीच एक समझौता होता है। भिखारियों को श्रम बाज़ार में भुगतान वाला काम न मिलने के कारण उन्हें भीख मांगनी पड़ सकती है (दुर्भाग्यवश भीख मांगना) या क्योंकि उन्हें भुगतान वाला काम पसंद न हो (पसंद से भीख मांगना)। कोई दानकर्ता यह उचित मानता हो कि जो भिखारी इच्छुक हैं, लेकिन भुगतान वाला काम नहीं पा रहे हैं, उन्हें अधिक दान दिया जाए। इसे देखते हुए, भिखारी गतिविधियों के माध्यम से ऐसे प्रयास दर्शाने को प्रोत्साहित होते हैं जो काम करने की इच्छा को प्रदर्शित करे।
मॉडल का अनुमान है कि प्रयास के संकेत भिखारियों की काम करने की इच्छा, काम करने की क्षमता और दान की पात्रता के बारे में दानदाताओं की धारणाओं को बेहतर बनाते हैं, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें अधिक दान राशि प्राप्त होती है। यदि दान से बुनियादी उपभोग की जरूरतें पूरी हो जाती हैं तभी केवल वे भिखारी जो भुगतान वाले काम करना पसंद करते हैं (दुर्भाग्य से भिखारी) वस्तुएं प्रदान करने वाले संकेत देते हैं (सिग्नलिंग)। हालांकि, जब दान न्यूनतम उपभोग की जरूरतें को पूरा करने में अपर्याप्त होता है, तो भिखारी श्रम बाज़ार से बचने या कलंक या उत्पीड़न से वंचित होने से कोई उपयोगिता प्राप्त करने में सक्षम नहीं होते हैं, क्योंकि उनके लिए अपनी भूख मिटाना ही सबसे बड़ा मूल्य होता है। इसलिए, काम की प्राथमिकताएं भीख मांगने की शैली को सूचित नहीं करती हैं। बल्कि, भीख मांगने की शैली अन्य कारकों जैसे ‘सिग्नलिंग’ की अपेक्षित लाभप्रदता या सिग्नलिंग उपकरणों तक पहुंच द्वारा निर्धारित की जाती है।
अनुभवजन्य डिजाइन
भीख मांगने के बाज़ार का अध्ययन करने और अपने मॉडल के पूर्वानुमानों का परीक्षण करने के लिए, हम अपना ध्यान दिल्ली के भीड़भाड़ वाले क्षेत्रों जैसे कि प्रमुख मंदिरों, स्टेशनों और बाज़ारों के पास की सड़कों पर केंद्रित करते हैं। हम औसतन प्रत्येक भीड़-भाड़ वाली सड़क पर आठ भिखारियों को पाते हैं, जिनमें से 2-3 लोग भीख मांगते समय पेन या स्टिकर जैसी सस्ती व कम मूल्य की वस्तुएं भी देते हैं। हालांकि इन वस्तुओं का राहगीरों के लिए बहुत कम आर्थिक मूल्य होता है, लेकिन वे भिखारी की योग्यता के बारे में उनकी धारणा को बदल सकते हैं। वस्तुओं के साथ भीख मांगना बाज़ार जैसी गतिविधि में शामिल होने के प्रयास का संकेत हो सकता है, जिससे भिखारी को केवल भीख मांगने के बजाय कुछ करने की कोशिश करने वाले व्यक्ति के रूप में पेश किया जा सकता है। हमारा मानना है कि यह व्यवहार काम करने की इच्छा और दुर्भाग्य से भीख मांगने को दर्शाता है, तथा धारणाओं और दान को प्रभावित करता है।
हम भिखारियों की प्राथमिकताओं और दानदाताओं के व्यवहार का अध्ययन करने के लिए चार अभ्यासों के माध्यम से डेटा एकत्र करते हैं। सबसे पहले हम इन क्षेत्रों में भिखारियों का निरीक्षण करते हैं, उनकी जनसांख्यिकी ब्योरे नोट करते हुए यह देखते हैं कि वे किन लोगों से भीख मांगते हैं, और उन्हें पैसे दिए जाते हैं या नहीं। इससे हमें वस्तुओं के साथ और बिना वस्तुओं के भिखारियों की प्रार्थना और सफलता दर की तुलना करने में मदद मिलती है। दूसरे, हम दान के तुरंत बाद भिखारियों और दानदाताओं का सर्वेक्षण करते हैं। एक सर्वेक्षणकर्ता भिखारी से पूछता है कि उन्हें कितना मिला, जबकि दूसरा सर्वेक्षणकर्ता दानकर्ता से पूछता है कि उन्होंने कितना दिया, जिससे हमें भिखारियों को दी गई दान राशि की तुलना, वस्तुओं के साथ और बिना वस्तुओं के, करने का अवसर मिलता है। वस्तुएं देने या न देने से दान प्रभावित होता है या नहीं हम इसके बारे में सामाजिक-आर्थिक और धारणाओं से जुडी जानकारी एकत्रित करते हैं।
इसके बाद, हमने 1,200 भिखारियों के, जिनमें से आधों के पास वस्तुएं थीं और आधों के पास नहीं थीं, व्यापक सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण के एक भाग के रूप में, उनके द्वारा भुगतान वाले कार्य पसंद किए जाने वाले प्रोत्साहनों के बारे में जानकारी एकत्र की। हमने उन्हें 50 रुपये मुफ्त नकद देने या चने को छाँट कर डिब्बों में भरने का काम करने का विकल्प दिया, जिससे उन्हें प्रति डिब्बा 25 रुपये की कमाई होगी और वे 100 रुपये तक कमा सकते हैं। इससे हमें यह निर्धारित करने में मदद मिलती है कि कितने लोग भुगतान वाले काम की तुलना में मुफ्त नकदी को प्राथमिकता देते हैं। इसके अलावा, हम मुफ़्त खोरी, बेईमानी के लिए भिखारियों की क्षमताओं और वरीयताओं के साथ-साथ इन लक्षणों के बारे में दाताओं की धारणाओं के निष्कर्षों को मापते हैं।
अंत में, हमने सबसे गरीब और सबसे अमीर 10% को छोड़कर, दिल्ली के विभिन्न आय समूहों के 1,200 परिवारों का सर्वेक्षण किया। उत्तरदाताओं ने चार भिखारियों- एक वयस्क पुरुष, एक वयस्क महिला, एक लड़का और एक लड़की, के फोटो कोलाज देखे और अनुमान लगाया कि हमारे द्वारा सर्वेक्षण किए गए भिखारियों में से कितने प्रतिशत ने मुफ़्त की नकदी या छंटाई का काम चुना। हम एक ‘बिटवीन सब्जेक्ट’ डिज़ाइन का उपयोग करते हैं ताकि प्रत्येक उत्तरदाता को समान रूप से समान भिखारियों के कोलाज देखने की संभावना हो, चाहे उनके हाथ में वस्तुएं हों या न हों (ताकि वस्तुओं की पेशकश को छोड़कर बाकी सब स्थिर रहे)। यदि उनका उत्तर 10% त्रुटि सीमा के भीतर सही है तो वे एक राशि जीतते हैं, जिससे उनके अपने सच्चे विश्वासों के बारे में सोचने और उन्हें बताने की संभावना बढ़ जाती है। अंत में, प्रत्येक उत्तरदाता यादृच्छिक रूप से चयनित भिखारियों (एक के पास वस्तुएँ होती हैं तथा एक के पास नहीं होती) में 100 रुपये वितरित करने के एक आवंटन में भाग लेता है, जो इस बात के बारे में उनकी धारणा को मापता है कि कौन अधिक दान का हकदार है।
निष्कर्ष
हम पाते हैं कि जिन भिखारियों के पास वस्तुएं हैं, उन्हें भी बिना वस्तुओं वाले भिखारियों के समान ही भीख मिलने की संभावना है, लेकिन उन्हें औसतन 35% अधिक भीख मिलती है। यह अंतर बड़ा और महत्वपूर्ण बना रहता है, भले ही हम नमूने को उन लोगों तक सीमित कर दें, जिन्होंने वस्तु नहीं ली या तुरंत उसका निपटान नहीं किया, या फिर हम भिखारियों द्वारा वस्तु की स्वयं बताई गई लागत को घटा दें। हालांकि हमें भिखारियों की भीख मांगने की शैली (वस्तुओं के साथ और बिना वस्तुओं के) के आधार पर उनकी वास्तविक प्राथमिकताओं में कोई महत्वपूर्ण अंतर नहीं मिलता, हम पाते हैं कि दानदाताओं को लगता है कि वस्तुओं वाले भिखारियों के मुफ़्त नकद चुनने की संभावना काफी कम है, जैसा कि आकृति-1 में दर्शाया गया है। दिलचस्प बात यह है कि जिन भिखारियों ने मुफ्त नकदी का विकल्प चुना, उनमें से 13% वे लोग भी थे जो ऐसी नौकरी नहीं करना चाहते थे जिसमें उन्हें भीख मांगने के बराबर वेतन मिलता हो, और ये केवल बहुत बूढ़े भिखारी थे। लगभग सभी युवा भिखारी काम करने के लिए तैयार दिखे, लेकिन उनमें से लगभग आधे अनिच्छुक माने गए।
इसके अलावा, आवंटन कार्य में उत्तरदाताओं ने वस्तुओं के साथ एक भिखारी को आधे से अधिक धनराशि आवंटित की (औसतन, वस्तुओं के साथ एक भिखारी को 100 रुपये में से 58 रुपये)। इससे पता चलता है कि वस्तुओं के साथ भीख मांगने जैसे प्रयास के संकेत, किसी भिखारी को भीख के अधिक योग्य बनाते हैं। हालांकि वास्तविकता में, जो भिखारी मानते हैं कि वस्तुओं की पेशकश लाभदायक होती है वे इस रणनीति को अपनाते हैं, जबकि जो जो लोग इसे दिखावटी या अप्रभावी मानते हैं, वे ऐसा नहीं करते हैं।
आकृति-1. भिक्षा की शैलियों के अनुसार, भुगतान वाले काम के बजाय मुफ्त-नकद चुनने वाले भिखारियों का कथित हिस्सा (बाएं पैनल) बनाम वास्तविक हिस्सा (दाएं पैनल)
नीतिगत निहितार्थ
दानकर्ता दुर्भाग्य से भीख मांगने आए भिखारियों के अनुपात को कम आंकते हैं, जिससे वे इष्टतम दान से कम दान करते हैं। परिणामस्वरूप, भीख मांगने पर प्रतिबंध लगाने या इसे अपराध घोषित करने जैसी नीतियाँ अप्रभावी हैं, क्योंकि इन नीतियों के कारण पकड़े जाने या पुलिस द्वारा परेशान किए जाने का खतरा रहता है, जिससे भीख मांगने की लागत बढ़ जाती है। भीख मांगने से मिलने वाला लाभ पहले से ही बहुत कम है और कई भिखारी दुर्भाग्य से भीख मांग रहे हैं। ऐसे परिदृश्य में भीख मांगने को कम करने में कानूनी विनियमनों की तुलना में कल्याणकारी नीतियाँ जैसे नकद हस्तांतरण और कौशल उन्नयन, या कार्य-भत्ता नीतियाँ जो भिखारियों को काम के बदले भुगतान करती हैं, अधिक प्रभावी होंगी। जहाँ तक कल्याण और कार्य-भत्ता सम्बन्ध है, कार्य-भत्ता नीतियों को ऐसे समाजों में कल्याणकारी नीतियों की तुलना में आम जनता से समर्थन मिलने की अधिक संभावना है जहाँ लोग दान के लिए पात्रता की धारणाओं के बारे में अधिक परवाह करते हैं जो काम करने की इच्छा और क्षमता से जुड़ी होती हैं। वास्तव में, हमारे 80% उत्तरदाता (दानकर्ता) बिना शर्त नकद हस्तांतरण के बजाय अनुत्पादक कार्य-भत्ता पसंद करते हैं।
अंग्रेज़ी के मूल लेख और संदर्भों की सूची के लिए कृपया यहां देखें।
लेखक परिचय : समरीन मलिक न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय, अबू धाबी में अर्थशास्त्र की सहायक प्रोफेसर हैं। उन्होंने कॉर्नेल विश्वविद्यालय से फुलब्राइट स्कॉलर के रूप में पीएचडी प्राप्त की है। उनकी प्राथमिक शोध और शिक्षण रुचियाँ अंतर्राष्ट्रीय वित्त और खुली अर्थव्यवस्था मैक्रोइकॉनॉमिक्स में हैं। निष्ठा शर्मा भी इसी विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग में एक पोस्ट डॉक्टरल स्कॉलर हैं। वह व्यवहार, विकास, श्रम और राजनीतिक अर्थव्यवस्था में प्रश्नों का अध्ययन करने के लिए लागू सूक्ष्म आर्थिक सिद्धांत और प्रयोगों के संयोजन का उपयोग करती हैं।
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