शैक्षिक उपलब्धि और स्वास्थ्य परिणामों में उल्लेखनीय प्रगति के बावजूद, महिलाओं की आर्थिक भागीदारी को बढाने में भारत पीछे है, जिसके चलते तेज़ और समावेशी आर्थिक विकास का लक्ष्य बाधित हो रहा है। इस लेख में दर्शाया गया है कि अंशकालिक रोज़गार को औपचारिक बनाने तथा पुरुषों और महिलाओं के बीच अवैतनिक देखभाल कार्य को पुनर्वितरित करने से श्रम-बल में महिलाओं की भागीदारी छह प्रतिशत अंकों से बढ़कर, 37% से 43% हो सकती है।
यह अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस 2025 के उपलक्ष्य में हिन्दी में प्रस्तुत आलेखों की श्रृंखला का पहला आलेख है।
भारत की तेज़ आर्थिक वृद्धि और सामाजिक समानता की तलाश एक स्पष्ट लेकिन कम आंकी गई ताकत पर टिकी है- वह है महिलाओं का कार्यबल। शैक्षिक उपलब्धि और स्वास्थ्य परिणामों में उल्लेखनीय प्रगति के बावजूद, देश महिलाओं की आर्थिक भागीदारी को बढाने में पिछड़ रहा है। भारत की कामकाजी उम्र की 60% महिलाएँ श्रम-बल से बाहर हैं, जिससे भारत की अर्थव्यवस्था में उनका योगदान कम हो जाता है (आवधिक श्रम-बल सर्वेक्षण, 2024)।
महिला श्रम-बल भागीदारी दर (एफएलएफपीआर) को बढ़ाना सिर्फ लैंगिक समानता का मामला नहीं है बल्कि, यह एक आर्थिक अनिवार्यता है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के शोध का अनुमान है कि श्रम-बल भागीदारी में लैंगिक अंतर को कम करने से भारत की जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) में 27% की वृद्धि हो सकती है (ओस्ट्री एवं अन्य 2018)। बढ़े हुए एफएलएफपीआर से पारिवारिक आय में वृद्धि होगी, जीवन स्तर में सुधार होगा और आर्थिक उत्पादकता में वृद्धि होगी- गोल्डिन (2006) ने इस बात पर बल दिया कि 20वीं शताब्दी के दौरान महिला श्रम-बल में भागीदारी में वृद्धि ने संयुक्त राज्य अमेरिका में, विशेष रूप से मध्यम वर्गीय परिवारों में, घरेलू आय को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस वृद्धि के चलते शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और पोषण में अधिक निवेश सम्भव हुआ, जिससे उत्पादकता में प्रत्यक्ष योगदान हुआ और अर्थव्यवस्था पर व्यापक गुणक प्रभाव पड़ा (विश्व विकास रिपोर्ट, 2012)। इसके प्रभाव अर्थव्यवस्था से परे तक फैले हुए हैं। महिलाएं जब कार्यबल में शामिल होती हैं, तो इससे लैंगिक भूमिकाओं के बारे में सामाजिक धारणाएं बदलती हैं, युवा पीढ़ी को प्रेरणा मिलती है और समानता की संस्कृति को बढ़ावा मिलता है। इसके अलावा, महिलाओं की वित्तीय स्वतंत्रता से उनके परिवारों के लिए बेहतर स्वास्थ्य और शिक्षा परिणामों में योगदान मिलता है, जिससे विकास का एक अच्छा चक्र तैयार हो जाता है (अफरीदी एवं अन्य 2016)।
हमने अपने एक नए अध्ययन (देव और सहाय 2025) में, महिलाओं की श्रम बल भागीदारी में आने वाली दो प्रमुख बाधाओं पर विचार किया है : अवैतनिक देखभाल कार्य का असमान बोझ और औपचारिक अंशकालिक रोज़गार के अवसरों की कमी। हमारे निष्कर्ष नीति-निर्माताओं को भारत की अप्रयुक्त कार्यबल क्षमता का लाभ उठाने के लिए कार्रवाई योग्य अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं।
वर्तमान परिदृश्य
भारत का एफएलएफपीआर मात्र 32.8% है, जो वर्ष 2023 तक के वैश्विक औसत 48.7% (अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन, 2024) और वर्ष 2024 के ओईसीडी औसत 67% से काफी कम है। इसके कई कारण हैं, जिनमें वो विभिन्न बाधाएं शामिल हैं जिनका सामना महिलाओं को करना पड़ता है। एक प्रमुख बाधा अवैतनिक पारिवारिक ज़िम्मेदारियों जैसे कि बच्चों का पालन-पोषण, बुजुर्गों की देखभाल और घरेलू काम से संबंधित है जो महिलाओं पर असमान रूप से बोझ डालती हैं। ‘टाइम यूज़ इन इंडिया रिपोर्ट’ (2019) के अनुसार, भारतीय महिलाएं पुरुषों की तुलना में अवैतनिक देखभाल कार्यों में दोगुने से अधिक समय देती हैं, जिसके चलते उनके लिए सशुल्क रोज़गार के अवसर सीमित हो जाते हैं।
महिलाओं के सामने दूसरी बाधा औपचारिक अंशकालिक कार्य विकल्पों का न होना है। उन्नत अर्थव्यवस्थाओं के विपरीत, जहाँ अंशकालिक रोज़गार कानूनी रूप से विनियमित और सामाजिक रूप से स्वीकार्य है, भारत में अंशकालिक काम का कोई औपचारिक प्रावधान नहीं हैं। पेशेवर और पारिवारिक कर्तव्यों के बीच संतुलन बनाने के लिए लचीलेपन की तलाश करने वाली महिलाएँ अक्सर अनौपचारिक, अनिश्चित काम में पहुँच जाती हैं, जहाँ उन्हें न तो नौकरी की सुरक्षा मिलती है और न ही सामाजिक लाभ। वेतनभोगी और अवैतनिक कार्य का यह दोहरा बोझ न केवल महिलाओं के करियर की संभावनाओं को सीमित करता है, बल्कि भारत की अर्थव्यवस्था में योगदान करने की उनकी क्षमता को भी प्रभावित करता है।
हमारा अध्ययन
इन दो बाधाओं का समाधान हो होने के बाद हम एफएलएफपीआर में वृद्धि की गणना करते हैं। हम अंशकालिक रोज़गार को औपचारिक बनाने और पुरुषों तथा महिलाओं के बीच अवैतनिक देखभाल कार्य को पुनर्वितरित किए जाने के प्रभाव को समझने के लिए ‘मैककॉल-मॉर्टेंसन जॉब सर्च मॉडल’ (मैककॉल 1970) का उपयोग करते हैं। हम पाते हैं कि महिलाओं के सामने आने वाली केवल दो बाधाओं को दूर करने से एफएलएफपीआर में छह प्रतिशत अंकों की वृद्धि हो सकती है, जो 37% से बढ़कर 43% हो जाएगी।
अध्ययन में दो प्रमुख हस्तक्षेपों की पहचान की गई :
अंशकालिक रोज़गार को औपचारिक बनाना : आनुपातिक वेतन और लाभ के साथ, औपचारिक रूप से मान्यता प्राप्त, अंशकालिक कार्य अनुबंधों को शुरू करने से महिलाओं को वह प्रगतिशीलता मिलेगी जिसकी उन्हें आवश्यकता है। वैश्विक स्तर पर, पुरुषों की तुलना में महिलाओं के अंशकालिक रोज़गार में शामिल होने की संभावना अधिक होती है, ऐसा प्रायः इन भूमिकाओं में मिलने वाले लचीलेपन के कारण होता है। हालाँकि, भारत में अंशकालिक काम के लिए औपचारिक मान्यता की कमी का मतलब है कि महिलाओं को अक्सर शोषण और अनिश्चित रोज़गार का सामना करना पड़ता है।
अवैतनिक देखभाल कार्य का पुनर्वितरण : महिलाओं को श्रम-बल में भाग लेने में सक्षम बनाने के लिए देखभाल सम्बन्धी ज़िम्मेदारियों में लैंगिक समानता महत्वपूर्ण है। इसके लिए नीतिगत उपायों, जैसे कि भुगतान सहित मातृ-पितृत्व अवकाश और बाल देखभाल के बुनियादी ढांचे में सार्वजनिक निवेश और सांस्कृतिक परिवर्तन जो पारंपरिक लिंग भूमिकाओं को त्यागते हैं, दोनों की आवश्यकता होती है।
एक तुलनात्मक दृष्टिकोण
हम उन्नत अर्थव्यवस्थाओं की उन सर्वोत्तम प्रथाओं पर प्रकाश डालते हैं जिन्हें भारत अपना सकता है। उदाहरण के लिए, स्कैंडिनेवियाई देशों में अंशकालिक कार्य, मातृ-पितृत्व अवकाश तथा सब्सिडीयुक्त बाल देखभाल की मज़बूत नीतियाँ हैं, जिससे कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। फ्रांस में, अंशकालिक कर्मचारियों को पूर्णकालिक कर्मचारियों के समान सुरक्षा और लाभ प्राप्त होते हैं, जिससे न्यायसंगत व्यवहार सुनिश्चित होता है। 1990 के दशक के अंत में अपनाए गए अंशकालिक काम पर यूरोपीय संघ के निर्देशों में अंशकालिक कर्मचारियों के लिए समान वेतन और सामाजिक सुरक्षा का प्रावधान किया गया है। जैसा कि नीचे दी गई तालिका में देखा जा सकता है, इसके विपरीत, भारत के श्रम कानून में इन मुद्दों पर कोई अलग व्यवस्था नहीं है, जिससे प्रणालीगत असमानताएँ बनी रहती हैं।
तालिका-1. अंशकालिक रोज़गार की वैधानिक/सांख्यिकीय परिभाषा
देश |
अंशकालिक रोज़गार के लिए साप्ताहिक कट-ऑफ |
पूर्णकालिक रोज़गार के लिए अधिकतम साप्ताहिक कार्य घंटे |
फ्रांस स्पेन यूनाइटेड किंगडम जापान नॉर्वे स्वीडन भारत |
24 घंटे < कार्य घंटे < 35 घंटे कार्य घंटे < 40 घंटे कार्य घंटे < 40 घंटे 20 घंटे < कार्य घंटे < 30 घंटे कार्य घंटे < 37.5 घंटे कार्य घंटे < 40 घंटे श्रम कानूनों में व्यवस्था नहीं |
35 घंटे 40 घंटे 35-40 घंटे 40 घंटे 37.5 घंटे 40 घंटे 48 घंटे |
नीतिगत सिफारिशें
हमारे निष्कर्ष बहुआयामी नीति दृष्टिकोण की आवश्यकता को रेखांकित करते हैं :
अंशकालिक कार्य को औपचारिक बनाना : भारत को अंशकालिक रोज़गार को परिभाषित और औपचारिक बनाना चाहिए। इसमें प्रति घंटे न्यूनतम मज़दूरी निर्धारित करना (वर्तमान में भारत में न्यूनतम मज़दूरी को परिभाषित करने के लिए सबसे छोटी इकाई प्रति घंटा नहीं बल्कि प्रति दिन है), नौकरी की सुरक्षा सुनिश्चित करना और सामाजिक सुरक्षा लाभों तक पहुँच प्रदान करना शामिल है। अंशकालिक कार्य को औपचारिक बनाने से महिलाओं के लिए कार्य-बल में प्रवेश करने के लिए एक संरचित मार्ग तैयार होगा, साथ ही देखभाल सम्बन्धी ज़िम्मेदारियों में संतुलन भी स्थापित होगा।
देखभाल के बुनियादी ढांचे में निवेश : जैसा कि अंतर्राष्ट्रीय अध्ययनों से पता चला है, किफायती बाल देखभाल और बुजुर्ग देखभाल सुविधाओं में सार्वजनिक और निजी निवेश से निजी कंपनियों और मैक्रोइकॉनमी को कई लाभ मिलते हैं (आर्थिक सलाहकार परिषद, यूएस)। ऐसे उपायों से महिलाओं पर न केवल देखभाल का बोझ कम होगा, बल्कि देखभाल सम्बन्धी अर्थव्यवस्था में रोज़गार के नए अवसर भी पैदा होंगे।
देखभाल में लैंगिक समानता को बढ़ावा देना : माता-पिता दोनों के लिए भुगतान वाली मातृ-पितृत्व छुट्टी और साझा देखभाल ज़िम्मेदारियों के लिए कर प्रोत्साहन जैसी नीतियाँ अवैतनिक देखभाल कार्य को पुनर्वितरित करने में मदद कर सकती हैं। सामाजिक मानदंडों को चुनौती देने और लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के लिए जागरूकता अभियान भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं।
कार्य सम्बन्धी लचीली नीतियाँ : नियोक्ताओं को कर्मचारियों की देखभाल सम्बन्धी ज़िम्मेदारियों में सहयोग देने के लिए लचीली कार्य व्यवस्था, जैसे कि दूरस्थ कार्य और लचीली कार्ययोजनाओं को अपनाना चाहिए। यह कदम कंपनियों के हित में भी होगा क्योंकि उनके उत्पादन और उत्पादकता में वृद्धि की उम्मीद की जा सकती है (बैनब्रिज और टाउनसेंड, 2020)।
कार्यान्वयन सम्बन्धी चुनौतियाँ- और कार्रवाई का आह्वान
यद्यपि इन हस्तक्षेपों के लाभ स्पष्ट हैं, फिर भी इनके कार्यान्वयन में महत्वपूर्ण चुनौतियाँ मौजूद हैं। गहराई से जड़ जमाए सांस्कृतिक मानदंडों की वजह से अक्सर बदलाव के प्रति विरोध होता है, जिससे देखभाल सम्बन्धी ज़िम्मेदारियों को पुनर्वितरित करना कठिन हो जाता है। नियोक्ता सरकारी विनियमन के बिना लचीली कार्य नीतियों को अपनाने के लिए अनिच्छुक हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त, भारत के श्रम बाजार की अनौपचारिक प्रकृति, जहाँ 80% से अधिक श्रमिक कार्यरत हैं, अंशकालिक कार्य को औपचारिक बनाना जटिल बना देती है।
इन चुनौतियों का समाधान करने के लिए नीति-निर्माताओं, नियोक्ताओं और नागरिक समाज के समन्वित प्रयासों की आवश्यकता होगी। सरकार को श्रम सुधारों को औपचारिक रूप देकर और देखभाल के बुनियादी ढांचे में निवेश अग्रणी भूमिका निभानी चाहिए, जैसा कि कई उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में आम बात है। नियोक्ताओं को विविधता और लचीलेपन के व्यावसायिक मामले को पहचानना चाहिए, जिससे कर्मचारी प्रतिधारण और उत्पादकता में सुधार देखा गया है (चोई 2019)। नागरिक समाज संगठनों को जागरूकता बढ़ाने और लैंगिक समानता का समर्थन करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी जारी रखनी चाहिए।
चूंकि देश की वर्ष 2047 तक एक विकसित राष्ट्र बनने की आकांक्षा है, अतः इसकी महिला कार्य-बल की क्षमता का दोहन किया जाना आवश्यक है। अंशकालिक रोज़गार को औपचारिक रूप देकर, अवैतनिक देखभाल कार्य को पुनर्वितरित करके और लैंगिक समानता को बढ़ावा देकर, भारत अपने वर्तमान समाज तथा भावी पीढ़ियों के लिए एक उज्जवल, अधिक समावेशी मार्ग प्रशस्त कर सकता है। इन पहलुओं पर कार्य करने का यही उचित समय है।
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लेखक परिचय : आकाश देव नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च (एनसीएईआर) के सेंटर ऑन जेंडर एंड मैक्रोइकॉनॉमी (सीजीएम) में एसोसिएट फेलो हैं। वह शिव नादर इंस्टीट्यूशन ऑफ एमिनेंस से अर्थशास्त्र में अपनी पीएचडी पूरी करने वाले हैं। उनका डॉक्टरेट अनुसंधान श्रम मैक्रोइकॉनॉमिक्स के क्षेत्र में है। उन्होंने दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर और दिल्ली विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में स्नातक (ऑनर्स) किया है। रत्ना सहाय एनसीएईआर में मानद प्रोफेसर हैं और वाशिंगटन डीसी स्थित सेंटर फॉर ग्लोबल डेवलपमेंट में नॉन-रेज़िडेंट फेलो हैं। वह जी-20 और विश्व आर्थिक मंच के कार्यसमूहों में भी कार्यरत हैं तथा अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष में लिंग पर बाह्य सलाहकार पैनल की सदस्य हैं।
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