गरीबी तथा असमानता

भ्रष्टाचार और बहिष्करण को संतुलित करना: आधार को पीडीएस में शामिल करना

  • Blog Post Date 09 मई, 2020
  • लेख
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Karthik Muralidharan

University of California, San Diego

kamurali@ucsd.edu

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Paul Niehaus

University of California, San Diego

pniehaus@ucsd.edu

सार्वजनिक रूप से प्रदान की जाने वाली वस्तुओं और सेवाओं के लाभार्थियों को इन लाभों को प्राप्त करने के लिए अपनी पहचान कैसे साबित करनी चाहिए? यह लेख, झारखंड राज्य में सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) में बायोमेट्रिक प्रमाणीकरण के आधार पर अधिक कड़ी पहचान आवश्यकताओं के प्रभावों के अध्ययन को हमारे सामने रखता है। यह अध्ययन झारखंड राज्य में 1.5 करोड़ लाभार्थियों के बड़े पैमाने पर एक प्रयोग के तौर पर किया गया है इसमे यह पाया गया है कि भ्रष्टाचार को कम करने के प्रयासों में, इस प्रक्रिया के कारण कुछ कम आय वाले परिवार अपने लाभ से वंचित हो गए हैं।

 

1974 में, स्‍वयं को अवध के ऐतिहासिक साम्राज्य का उत्तराधिकारी घोषित करने वाले एक परिवार ने नई दिल्ली रेल स्टेशन के वीआईपी प्रतीक्षा कक्ष (वेटिंग रूम) में एक दशक से भी लंबे समय तक धरना दिया। यह दावा करते हुए कि उनके पहचान दस्‍तावेज किसी आग में खो गए हैं, "अवध की बेगम" विलायत बट्ट और उसके दो बच्चों वहां तब तक अड़े रहने का इरादा रखते थे जब तक कि भारत सरकार उनकी ज़मीन (जिसे 1856 में अंग्रेज़ों ने ज़प्त कर लिया था) और बाकी संपत्ति लौटा नहीं देती। उन्होंने वहां "एक पूरा घर बसा लिया: कालीन, गमले में लगे ताड़ के पौधे, चांदी का चाय सेट, पोशाकधारी नेपाली नौकर"। अंत में, भारत सरकार विलायत के दावे की जाँच करने में नाकामयाब रही, लेकिन तब तक आम जनता में से कई लोग उन पर विश्वास करने लगे थे। सांप्रदायिक हिंसा के डर के कारण भारत सरकार ने इस परिवार को दिल्ली के बीचों-बीच एक हंटिंग लॉज में रखा। दुनिया से दूर वे रहस्यमयी रूप में तब तक वहीं रहे जब तक कि उनमें से प्रत्येक की मृत्यु नहीं हो गई, और पिछले साल न्यू यॉर्क टाइम्स द्वारा एक चौंकाने वाली रिपोर्ट में इस अविश्वसनीय धोखे का खुलासा हुआ।

आज के समय में विलायत बट्ट कोऐसी कहानी गढ़ने में अत्‍यंत कठिनाई होगी। डिजिटल पहचान में हुए वैश्विक क्रांति में भारत 125 करोड़ से भी अधिक (जनसंख्या का 91 प्रतिशत) के साथ सबसे आगे है। ऐसा करने के लिए भारत ने बॉयोमीट्रिक रिकॉर्ड से जुड़ी एक राष्ट्रीय विशिष्ट पहचान (आईडी) योजना (आधार) की स्थापना की है। इसी तरह की योजनाएं दुनिया भर में लागू की गई हैं, लगभग हर विकासशील देश ने राष्ट्रीय पहचान कार्यक्रमों की शुरुआत की है। इन कार्यक्रमों में से, दो-तिहाई कार्यक्रम बायोमेट्रिक तकनीक पर निर्भर हैं जो कम साक्षरता और संख्यात्मकता (गेल्ब एवं मेत्झ 2018) वाले स्थानों में काम कर सकती हैं।

पहचान सत्यापन प्रणाली और सामाजिक नीति

हम में से जो शाही वंश का दावा नहीं कर रहे हैं, उन्हें भी अगर हवाई जहाज में बैठना हो, मतदान करना हो, या (गरीब एवं पीड़ित समुदायों द्वारा आवश्यक) सरकारी लाभ प्राप्त करना हो, तो अपनी पहचान साबित करना एक महत्वपूर्ण कार्य है। सरकारें अपनी सामाजिक योजनाओं को नए पहचान कार्यक्रमों के साथ जोड़ रही हैं क्योंकि वे बेहतर लक्ष्यीकरण, और भ्रष्टाचार एवं धोखाधड़ी को कम करने की संभावना रखते हैं। फिर भी यह राय विवादास्पद रही है। मुख्य बहस यह हैकि क्या बायोमेट्रिक प्रमाणीकरण की आवश्‍यकता अनजाने में (जैसे कार्ड खो जाने पर या तकनीकी विफलता के कारण) वास्तविक लाभार्थियों को योजनाओं से बाहर रखती हैं।

भारत में, सामाजिक कल्याण योजनाओं में आधार का जोड़ा जाना इतिहास में सामाजिक नीति के सबसे महत्वाकांक्षी परिवर्तनों में से एक है। लाभ पहुंचाने में आधार की आवश्यकता पर बहस सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच चुकी है, जहां सितंबर 2018 में सरकार को सार्वजनिक योजनाओं की उपलब्धता या उसके प्राप्ति के लिए आधार के उपयोग को अनिवार्य करने की अनुमति मिली। उदाहरण के रूप में, अमेरिका में मतदान के लिए आईडी की जरूरतों पर इसी तरह की बहस छिड़ी हुई है। भारत के सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के मामले में, जिसके द्वारा गरीबों को अत्यधिक सब्सिडी वाला राशन वितरित किया जाता है, यह वास्तव में जीवन या मृत्यु का मामला हो सकता है। दुनिया में कुपोषित लोगों की सबसे बड़ी संख्या भारत में है, और पीडीएस भूख और खाद्य असुरक्षा से निपटने का प्रमुख प्रयास है जिसमें सालाना जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) का कुल 1 प्रतिशत खर्च होता है। आलोचकों का दावा है कि कुछ लाभार्थियों को सब्सिडी वाले राशन से आधार कार्ड ना होने के कारण वंचित कर दिया गया, और वे भूख से मर गए। आलोचक मानते हैं कि इस योजना में आधार के आने से “लाभ नहीं हुआ, लेकिन दर्द बढ़ा है” (ड्रैज़ एवं अन्य 2017)। दूसरी ओर, आधार के समर्थकों ने दावा किया है कि आधार और कल्याणकारी प्राप्तकर्ताओं को प्रत्यक्ष हस्तांतरित लाभ दे पाने से भारी राजकोषीय बचत हुई है।

आधार को पीडीएस से जोड़ना: प्रयोग एवं परिणाम

हमने बड़े पैमाने पर एक अध्ययन (रैनडमाइज़्ड कंट्रोल ट्राइल - आरसीटी) के माध्यम से लागत और लाभों की जांच की, जिसमें हमने झारखंड राज्य (भुखमरी से होने वाली मृत्युओं वाले राज्‍य) में पीडीएस से आधार को जोड़ने के प्रभाव का मूल्यांकन किया (मुरलीधरन एवं अन्य 2020)। 10 जिलों में 132 ब्लॉकों तथा 1.51 करोड़ लोगों में यह नीति दो चरणों में लागू हुई:

  • पहले चरण में राशन की दुकानों (एफपीपी) पर इलेक्ट्रॉनिक पॉइंट-ऑफ-सेल (ई-पॉस) उपकरण उपलब्‍ध होना शुरू किया गया, जिसके तहत राशन प्राप्‍त करने का प्रयास करने वाले लाभार्थियों के द्वारा आधार-सम्बंधित बायोमेट्रिक प्रमाणीकरण (एबीबीए) को सक्षम किया।
  • दूसरे चरण (‘सुलह’) में, सरकार ने प्रामाणिक लेनदेन के इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड के आधार पर नए अनाज की मात्रा को समायोजित करके, एफपीएस को मासिक राशन वितरण निर्धारित करने के लिए ई-पॉस उपकरणों से डेटा का उपयोग किया। पिछड़े राज्य की अपनी छवि का खंडन करते हुए, झारखंड सरकार ने सुधारों को तेजी से और पूरी तरह से लागू किया, और हमारे प्रायोगिक प्रोटोकॉल का पूरी तरह से अनुपालन किया। हमें रिपोर्ट मिली कि चुने गए क्षेत्रों में इस कार्यक्रम की शुरुआत के 6 से 8 महीनों बाद 91 प्रतिशत लाभार्थियों ने एबीबीए का उपयोग किया।

लगभग 16,000 मूल घरेलू सर्वेक्षणों से संवितरण पर प्रशासनिक डेटा को मिलाने पर हमने देखा कि केवल एबीबीए के उपयोग से भ्रष्टाचार या प्राप्‍त किए गए राशन के मूल्य पर औसतन कुछ प्रभाव नहीं पड़ा है। हालांकि, शून्य औसत प्रभाव कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्य छुपाता है - उन 23 प्रतिशत लाभार्थियों के लिए लाभ में 10 प्रतिशत की कमी आयी, जिन्होंने लाभ नामावली से अपना आधार कार्ड नहीं जोड़ा था, तथा 2.8 प्रतिशत को कोई लाभ नहीं मिला। इसके अलावा, लाभार्थियों ने अनाज प्राप्त करने के लिए कई बार आवा-जाही की, जिसके कारण उनके लागत में उन्हें 17 प्रतिशत (7 रुपये) की औसत वृद्धि की कीमत चुकानी पड़ी।

दूसरी ओर, सुलह ने सरकार द्वारा वितरित तथा घरों द्वारा प्राप्त अनाज के मूल्यों में बड़ी कटौती की, और यह दोनों के बीच के अंतर (‘रिसाव’) का कारण बनी। जहां एबीबीए देर से लागू किया गया, वहां वितरित किए गए अनाज का मूल्य 18 प्रतिशत तक गिरा (और जहां जल्दी लागू था वहां 36 प्रतिशत), जिसमे 22 प्रतिशत (एवं 34 प्रतिशत) लाभार्थियों के मूल्य में कटौती दिखाता है और शेष 78 प्रतिशत (एवं 66 प्रतिशत) रिसाव में गिरावट दिखाता है। जल्दी एबीबीए लागू करने वाले क्षेत्रों की गिरावट अधिक थी क्योंकि यहां डीलरों के पास लंबी अवधि के लिए लेन-देन का रिकॉर्ड था, और उम्मीद की गयी थी कि उनके पास अनाज के अधिक स्टॉक होंगे। यह देखते हुए कि अनाज को अन्‍य स्‍थानों पर बेचने की उनकी क्षमता अब कम हो गई है, इन क्षेत्रों में एफपीएस मालिकों ने पीडीएस लाइसेंस प्राप्त करने के लिए दी जाने वाली संभावित रिश्‍वत कीमत में 72 प्रतिशत की कमी की सूचना दी।

समझौतों से जूझने के लिए नीतिगत पाठ

हमारे परिणाम कम भ्रष्टाचार और लाभार्थियों में अधिकबहिष्करण के बीच के समझौते को दिखाते हैं। इसलिए, इस प्रकार के कार्यक्रमों के साथ हमारे अनुभव के आधार पर हम ऐसे दो विशिष्ट, एवं तीन सामान्य अनुशंसाओं का प्रस्ताव रखते हैं, जो इन समझौतों से जूझने में मदद कर सकती हैं।

विशेष रूप से पीडीएस के मामले में, बहिष्करण के खिलाफ उन मामलों में उपायों का निर्माण करना अनिवार्य है जहां प्रमाणीकरण विफल रहता है, या लाभार्थियों के राशन कार्ड (अभी तक)आधार से जोड़े नहीं गए हैं। आंध्र प्रदेश में दो अन्य कल्याणकारी योजनाओं पर भुगतान के लिए बायोमेट्रिक स्मार्टकार्ड के प्रभाव पर पिछले अध्ययन में हमें बहिष्करण का कोई प्रमाण नहीं मिला, जो संभावित तौर से ऑफ़लाइन प्रमाणीकरण विकल्पों, तथा के साथ-साथ बैक-अप विधियों (ऐसी विधियां जो प्रमुख विधि के काम ना करने पर लागू हो सकें) परिणामस्‍वरूप है (मुरलीधरन एवं अन्य 2016)। इसके अलावा, सुलह चरण में दोनों तरह के क्षेत्रों के बीच के अंतर के आधार पर हमारी गणना बताती है कि डीलरों को पिछले विचलन के लिए जवाबदेह नहीं ठहराना – सुलह को 'नए सिरे से' शुरू करना - लाभार्थियों के लिए मूल्य को कम किए बिना रिसाव को कम कर सकता।

हम आईडी प्रणाली और सामाजिक नीति पर हमारे 10 से अधिक वर्षों के कार्य के आधार पर निम्नलिखित तीन सामान्य नीतिगत सबक भी लेते हैं:

  1. भले ही विकास के लिए प्रौद्योगिकी का उपयोग बहुत उत्तेजना पैदा करता है , योजनाओं का विस्तार और विवरण बहुत महत्वपूर्ण है। अगर झारखंड और आंध्र प्रदेश की तुलना करें, राज्य सरकार की क्षमता का प्रभाव प्रौद्योगिकी एकीकरण के विवरण के प्रभाव से बहुत काम था। आंध्र प्रदेश में लाभार्थी के अनुभव पर ध्यान केंद्रित किया गया था, भुगतानों को लाभार्थी के पास लाया गया, और समय पर भुगतान करना सुनिश्चित किया गया; रिसाव में कमी एक अतिरिक्त ‘बोनस’ था, जिसका लाभ भी लाभार्थियों को दे दिया गया। झारखंड में प्राथमिकता तीव्र कार्यान्वयन और राजकोषीय बचत थी, जिसे बेशक अंत में लाभार्थियों को दिया जा सकता है, लेकिन यह बहिष्करण और अंततः कार्यक्रम के वापस लिए जाने का कारण बना।1
  2. नीतिगत सुधारों के कड़े, स्वतंत्र, प्रतिनिधिक मूल्यांकन अनिवार्य हैं। आंध्र प्रदेश में, अत्यधिक सफल ‘स्मार्टकार्ड्स कार्यक्रम’ को लगभग बंद कर दिया गया था क्योंकि निजी स्वार्थों के कारण लोगों ने वरिष्ठ अधिकारियों को कार्यक्रम पर नकारात्मक राय दी गई थी। परन्तु, हमारे परिणामों ने कार्यक्रम के व्यापक लाभ के साथ-साथ प्रतिनिधिक और लगभग सार्वभौमिक अनुमोदन को प्रदर्शित किया, और वरिष्ठ अधिकारियों को कार्यक्रम के लाभों के बारे में आश्वस्त किया। झारखंड में, हमारे प्रतिनिधिक अध्ययन ने आलोचकों द्वारा प्रदान किए गए बहिष्करण त्रुटियों के उपाख्यानों की पुष्टि की; मगर यह भी पता चला की रिसाव असल में कम हुआ, और लाभार्थियों को कम दर्द देते हुए रिसाव को कम करने के तरीकों की पहचान की।
  3. अंत में, लाभार्थियों पर योजनाओं के प्रभाव को सीधा लाभार्थियों से ही, और नियमित तौर पर समझ पाना अनिवार्य है। तेलंगाना में, हमने एक बड़े नकद अंतरण कार्यक्रम के लाभार्थियों को कॉल करने के लिए कॉल सेंटरों के माध्यम से यह पूछा कि क्‍या उन्हें उनके पैसे मिले, और अगर मिले तो कैसे मिले; इस तरीके से कार्यक्रम की निगरानी करने से परिणामों में सुधार हुआ और यह लागत के सम्बन्ध में बेहद सस्ता था (मुरलीधरन एवं अन्य 2019)। यह प्रथा आसानी से बड़े पैमाने पर लागू हो सकती है, और यह सार्वजनिक सेवा वितरण की अंतिम व्‍यक्ति तक पहुँचने में उल्लेखनीय सुधार लाने की क्षमता रखती है।

इस लेख का मूल संस्करण वौक्सडेवके साथ सहभागिता में अंग्रेज़ी में प्रकाशित हुआ है।

नोट्स:

  1. शिक्षा प्रौद्योगिकी पर शोध में दिलचस्प और करीबी समानताएं हैं, जहां प्रौद्योगिकी द्वारा शिक्षा को बाधित करने और बदलने की क्षमता के बारे में बहुत अधिक प्रचार किया गया है। हालांकि, व्यवहार में, परिणामों को उच्च-गुणवत्ता वाले अध्ययनों के साथ मिलाया गया है, जो अत्यधिक सकारात्मक से लेकर नकारात्मक तक के परिणाम प्रदर्शित करते हैं (जिसमे कई बिना प्रभाव वाले भी शामिल हैं)।

लेखक परिचय: कार्तिक मुरलीधरन, सैन डिएगो स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हैं, और वे अर्थशास्त्र में टाटा चांसलर एनडोव्ड़ चैर भी हैं। पॉल नीहाउस, सैन डिएगो स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के एसोसिएट प्रोफेसर हैं, वे सामाजिक कार्यक्रमों के कार्यान्वयन में सुधार के लिए उभरते बाजारों में सरकारों की भूमिका पर काम करते हैं। संदीप सुखटणकर , वर्जीनिया विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं, और साथ हीं वे ब्यूरो ऑफ रिसर्च एंड इकोनॉमिक एनालिसिस ऑफ डेवलपमेंट (बीआरईएडी) तथा जमील पौवर्टी एक्शन लैब (जे-पाल) के साथ सहबद्ध हैं।

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