गरीबी तथा असमानता

ड्यूएट: 'कैसे' से पहले 'क्यों' को संबोधित करना

  • Blog Post Date 29 सितंबर, 2020
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Ashok Kotwal

University of British Columbia

ज्यां द्रेज़ के ड्यूएट प्रस्ताव और इससे संबंधित विचारों पर टिप्पणी करते हुए अशोक कोटवाल यह तर्क देते हैं कि हमें इस तरह के शहरी निर्माण कार्यक्रम के डिज़ाइन के विवरण का गहन अध्‍ययन करने से पहले इसके औचित्‍य पर विचार करने की आवश्यकता है।

हालांकि प्रस्ताव के पहले अनुच्‍छेद में कोविड-19 के प्रसार को रोकने हेतु अचानक लागू किए गए लॉकडाउन के कारण नौकरियों में आई अभूतपूर्व कमी का उल्लेख किया गया है परंतु जिस उपाय का प्रस्ताव दिया जा रहा है वह एक अस्थायी नहीं बल्कि स्थायी उपाय है। कोविड-19 लॉकडाउन के कारण हुई कठिनाई इतनी भयावह है कि अस्थायी राहत के उपाय के रूप में भी नौकरियों के सृजन रूपी किसी उपाय का स्वागत किया जाएगा। ज्यां के प्रस्ताव और देबराज की टिप्पणियों, दोनों से यह संकेत मिलता है कि वे इसे भारत में रोजगार के अधिकार को नागरिकता के अधिकार के रूप में बनाने की दिशा में एक कदम के रूप में देख रहे हैं। इसलिए, मैं ड्यूएट को स्थायी उपाय के रूप में माने जाने के परिप्रेक्ष्‍य से इस प्रस्ताव की जांच करूंगा। नागरिकता के अधिकार के रूप में रोजगार, एक आकर्षक विचार है। हालांकि इससे पहले कि हम इसकी डिजाइन के विवरणों पर आएँ, मैं कुछ बुनियादी सवाल उठाना चाहूंगा जिनका उत्‍तर कई पाठक जानना चाहेंगे।

ड्यूएट, मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम) की तरह एक रोजगार सृजन कार्यक्रम है, लेकिन दोनों में कुछ प्रमुख अंतर हैं। मनरेगा पूरी तरह से सम्मोहक था क्योंकि यह कृषि के क्षेत्र में एक बीमा की तरह काम करता, जहां उत्पादन मौसम के अनुसार होता है। इसने कम कारोबार के समय में या सूखे के वर्ष में उत्‍पादन में होने वाली गिरावट के लिए एक आकस्मिक विकल्प दिया। शहरी उत्पादन मौसमी नहीं है।

फिर हमें ड्यूएट की आवश्यकता क्यों है? ड्यूएट का उद्देश्य क्या है? जैसा कि मैं समझता हूँ, शहरी बेरोजगारी और शहरी क्षय की दोहरी समस्याओं से निपटने के लिए इसकी कल्पना की जा रही है। दरअसल, जैसी स्थिति अभी है, शहरी बुनियादी ढांचे में काफी गुंजाइश है और शहरी बेरोजगारी जीवन का एक तथ्य है। फिर नगर-पालिकाएं मरम्मत, सफाई और बुनियादी ढांचे का निर्माण करने के लिए बेरोजगारों को क्यों नहीं नियुक्त करती हैं? शायद उनके पास आवश्यक संसाधनों की कमी है क्योंकि उनका कर आधार काफी छोटा है। ठीक है, तो फिर क्यों न शहरी स्थानीय सरकारों (नगर-पालिकाओं) को केंद्र सरकार द्वारा अधिक संसाधन उपलब्ध करवाया जाए? इसका एक उत्तर यह हो सकता है कि नगर पालिकाएं बेरोजगारी से निपटने के उद्देश्य को नजरअंदाज कर सकती हैं। अधिक श्रमिकों को रोजगार देने पर खर्च करने के बजाय वे अधिक पूंजी खरीदने या किराए पर लेने का विकल्प चुन सकती हैं। क्या यह ड्यूएट का औचित्य है?

यह पूछना उचित है कि सब से पहले शहरी बेरोजगारी पैदा करने के लिए कौन से कारक जिम्मेदार हैं? यह एक तथ्य है कि शहरों में ग्रामीण क्षेत्रों से आने वाले प्रवासी श्रमिकों की बड़ी संख्‍या यह इंगित करती है कि शहरी क्षेत्रों में श्रम की अधिक मांग है। यदि ऐसा है, तो क्या देखी गई बेरोजगारी का प्रमुख कारण उपलब्ध नौकरियों के लिए उपलब्ध कौशल तथा कौशल आवश्यकताओं के बीच का मेल नहीं होना है? अगर यह सच है, तो हमें एक कौशल निर्माण कार्यक्रम बनाना होगा। या, हमें ड्यूएट को उपलब्ध कौशल के अनुरूप नौकरियों के सृजन के प्रयास के रूप में देखना चाहिए?

ध्यान दें अभी तक भी मैंने यह सवाल नहीं उठाया है कि क्या केंद्र सरकार के संसाधनों के लिए अन्‍य दावों जैसे 'ग्रामीण बुनियादी ढाँचा’ या 'सार्वजनिक शिक्षा’ या 'सार्वजनिक स्वास्थ्य’ के बजाय ‘शहरी कार्यों’ को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

ड्यूएट प्रस्ताव के लिए एक और संभावित तर्क है। इसे एक तरह की बेरोजगारी बीमा योजना की तरह मान लिया जाए। सभी विकसित देशों में ऐसी बेरोजगारी बीमा योजनाएं हैं। यह एक अत्यंत वांछनीय सुरक्षा तंत्र है। लेकिन भारत में 90% से अधिक रोजगार असंगठित क्षेत्र में है जिसमें बेरोजगारों की पहचान करना मुश्किल है। हमें एक ऐसी योजना की आवश्यकता है जो स्व-चयन का उपयोग करे - दूसरे शब्दों में, एक वर्कफ़ेयर (काम के बदले पैसे) योजना। काफी हद तक असंगठित (अनौपचारिक) अर्थव्यवस्था में क्या ड्यूएट एक बेरोज़गारी बीमा कार्यक्रम के रूप में काम कर पाएगा? शायद! लेकिन इसमें कुछ आंतरिक कठिनाइयाँ हैं। सबसे पहले, वर्कफ़ेयर प्रोग्राम में स्व-चयन केवल तभी काम कर सकता है जब आवश्यक कार्य विशुद्ध रूप से शारीरिक हो। यदि किसी कार्य में विशिष्ट कौशल की आवश्यकता हो तो अधिकतर आकांक्षी लाभार्थी इस तक नहीं पहुंच पाएंगे। दूसरा, कई असंगठित नौकरियों में निर्धारित न्यूनतम वेतन से कम भुगतान किया जाता है। हालांकि, सरकार द्वारा प्रायोजित योजना, ड्यूएट के अंतर्गत मजदूरी का भुगतान उसी प्रकार करना होगा जिस प्रकार मनरेगा मजदूरी पर कर्नाटक उच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार निर्धारित न्‍यूनतम मजदूरी का भुगतान किया जाता है। इस मामले में आप इसे श्रम को अपने सामान्य व्यवसायों से खींचने से कैसे रोक सकते हैं, और क्या होगा जब काम के लिए खुद को प्रस्‍तुत करने वालों की संख्या विद्यमान वाउचरों की संख्या से काफी अधिक हो?

साथ ही, शहरी बेरोजगारों से हम किस तरह के शहरी कार्य किए जाने की उम्मीद कर सकते हैं? मेरी समझ के अनुसार श्रम ठेकेदारों द्वारा लाए गए श्रमिकों की टीमों द्वारा हीं बहुत सारे निर्माण कार्य किए जाते हैं। उनमें से कई ग्रामीण क्षेत्रों से आए हुए प्रवासी श्रमिक हैं। प्रणब बर्धन द्वारा उल्लिखित कुछ नौकरियों के बारे में ऐसा लगता है कि उनके लिए इतने ज्यादा कौशल की आवश्यकता है जिसकी अप्रशिक्षित शहरी युवाओं से बहुत कम उम्मीद की जा सकती है1। कम से कम उन्हें नियोक्‍ता द्वारा काम पर रखने से पहले एक अनुभवी प्रशिक्षक के तहत प्रशिक्षण लेने की आवश्‍यकता होगी। ड्यूएट (डी.यू.ई.टी.) अपनी संक्षिप्ति के 'टी’ (ट्रेनिंग) को कार्यरत करने की योजना कैसे बना रहा है? वास्तव में जो लोग कौशल की कमी के कारण बेरोजगार हैं, उन्हें रोजगार तब हीं मिलेगा जब वे ड्यूएट के साथ या इसके बिना रोजगार योग्य कौशल प्राप्त कर लेते हैं। ड्यूएट की जरूरत तब हीं होगी जब कुशल श्रमिकों को कोई नौकरी न मिले। या, हमें ड्यूएट के बारे में मुख्‍यत: एक प्रशिक्षण और कौशल कार्यक्रम के रूप में सोचना चाहिए? यदि प्रशिक्षण के लिए अकुशल श्रमिकों को लेने हेतु संभावित नियोक्ताओं को जॉब स्‍टांप दिए जाते हैं, तो यह अन्यथा अकुशल श्रमिकों के कौशल स्तर को बढ़ाने में मदद कर सकता है।

क्या ड्यूएट, शिथिल स्थानीय सरकारों के खिलाफ कारगर होगा? नगर पालिकाओं का निर्माण शहरी रखरखाव को बनाए रखने के लिए किया जाता है। इसके तहत नगरपालिका पार्षद के चुनावों सहित एक पूरी प्रणाली स्थापित की जाती है जिसमें, यदि वे क्षेत्र के मतदाताओं को असंतुष्ट छोड़ देते हैं तो सत्ता से बाहर हो जाते हैं। यदि नगरपालिका सरकारें सामाजिक कल्याण को आगे बढ़ाने के क्षेत्र में अच्छा कार्य नहीं कर रही हैं, तो ड्यूएट बेहतर कार्य क्यों करेगा? शायद, जरूरतमंद बेरोजगारों द्वारा उन पर डाले गए दबाव के कारण? लेकिन मनरेगा के विपरीत, ड्यूएट एक मांग-संचालित कार्यक्रम के रूप में प्रस्तावित नहीं है। यह क्षेत्र में बेरोजगार श्रमिकों को कोई सामूहिक सौदेबाजी की शक्ति नहीं देता है। मनरेगा ऐसे श्रमिकों का निर्वाचन क्षेत्र बनाता है जो एक-दूसरे को जानते हैं और जिनकी बेरोजगारी एक दूसरे से जुड़ी है। वे परियोजनाओं के लिए ग्राम पंचायत पर दबाव डाल सकते हैं और अपने रोजगार के नागरिकता अधिकार का प्रयोग कर सकते हैं। ड्यूएट में शहरी बेरोजगारों द्वारा ऐसी कोई सामूहिक कार्रवाई करने की संभावना नहीं है। फिर शहरी संपत्ति बनाने या रोजगार पैदा करने में ड्यूएट नगरपालिकाओं की तुलना में बेहतर कार्य कैसे करेगा?

अंतिम में मैं यह कहना चाहूँगा कि लक्ष्य अधिक रोजगार सृजित करने का होना चाहिए न कि शहरी बेरोजगारी कम करने का। शहरी बेरोजगारी का कौन-सा हिस्सा हैरिस-टोडारो बेरोजगारी है? दूसरे शब्दों में, क्या शहरी बेरोजगार ग्रामीण प्रवासी इस उम्‍मीद से कई शहरी केंद्रों में आ रहे हैं कि उन्‍हें संगठित क्षेत्र में अच्छी नौकरी मिलेगी? यदि ऐसा है, तो इस तरह की बेरोजगारी दूर नहीं होगी। ड्यूएट, अगर इस प्रकार की न्यूनतम मजदूरी की नौकरियों का सृजन करने में सफल होता है, तो अधिक संख्‍या में ग्रामीण प्रवासियों को आकर्षित करेगा क्योंकि इससे एक अच्छी नौकरी मिलने की संभावना बढ़ जाती है।

यह अच्छा होगा कि हम इसकी डिजाइन विवरण का गहन अध्‍ययन करने से पहले इन सवालों का जवाब हासिल करें।

आभार: मैं अश्विनी कुलकर्णी, भरत रामास्वामी, दिलीप मुखर्जी, ज्यां ड्रेज़, मिलिंद मुरुगकर, परीक्षित घोष, प्रणब बर्धन, और प्रोनाब सेन के साथ बातचीत से लाभान्वित हुआ हूँ।

टिप्‍पणियां

  1. "परियोजनाओं पर निर्णय लेने के लिए हमें इन चीजों को प्राथमिकता देनी चाहिए - (i) विशेषकर श्रम-प्रखर परियोजनाएं, तथा ऐसी परियोजनाएं जो (ii) पर्यावरण एवं (iii) स्‍वास्‍थ्‍य लक्ष्‍यों की पूर्ति करती हों। उदाहरणार्थ (क) सड़क निर्माण तथा मरम्मत, सार्वजनिक आवास का निर्माण, इत्यादि जैसी निर्माण परियोजनाएं, (ख) कचरा छांटना तथा उसे रीसाइकल करना, आस-पास के सार्वजनिक स्‍थानों एवं उद्यानों की मरम्‍मत, सामूहिक यातायात का निर्माण, सोलर सेल की फिटिंग, जलाशयों का पुन: निर्माण एवं सफाई, वर्षा जल संचयन, इत्‍यादि (ग) मच्‍छर मारने की दवा का छिड़काव, गटर के नालों को ढकना, सार्वजनिक शौचालयों का निर्माण (विशेषकर झुग्‍गी-झोपडि़यों में), प्राथमिक स्‍वास्‍थ्‍य केंद्रों हेतु स्टाफ़, अधिक संख्‍या में आशा कार्यकर्ताओं (अधिकृत सामाजिक स्‍वास्‍थ्‍य कार्यकर्ता) को मजदूरी पर रखना, आदि।”

लेखक परिचय: अशोक कोटवाल आइडियास फॉर इंडिया के प्रधान संपादक और यूनिवरसिटि ऑफ ब्रिटिश कोलंबिया में अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर एमेरिटस हैं।

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