माना जाता है कि शहरी क्षेत्रों में रहने वाली महिलाओं को उनके ग्रामीण समकक्षों की तुलना में अधिक सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अवसर और स्वतंत्रता प्राप्त होती है। साथ ही, शोध से यह पता चलता है कि शहरी वातावरण में महिला सशक्तिकरण में कई बाधाएँ भी हैं। इस लेख में भारत के तेज़ी से बढ़ते शहरीकरण और लैंगिक असमानता की निरंतरता को ध्यान में रखते हुए, महिलाओं के परिणामों पर शहरीकरण के प्रभाव का विश्लेषण किया गया है और उसके मिलेजुले परिणाम प्राप्त हुए हैं।
अन्य प्रमुख एशियाई देशों की तुलना में भारत में शहरी विकास की दर पिछले दशक के अंत तक काफी मामूली थी, हालाँकि, अब यह तेज़ी से बढ़ रही है। संयुक्त राष्ट्र भारत के अनुसार, अनुमान है कि वर्ष 2030 तक, भारत में 40 करोड़ से अधिक लोग शहरों में रह रहे होंगे। विश्व शहरीकरण सम्भावना रिपोर्ट 2018 के अनुसार, वर्ष 2018 और 2050 के बीच, भारत में शहरी क्षेत्रों में 41 करोड़ 60 लाख लोगों की वृद्धि होने की उम्मीद है। रिपोर्ट में यह भी अनुमान लगाया गया है कि वर्ष 2050 तक भारत की 53% आबादी शहरी होगी (वर्तमान आंकड़ा 34% का है)।
चूंकि भारत में लैंगिक असमानता व्यापक रूप से व्याप्त है और अनेक महिलाएं समाज के हाशिए पर हैं, इसलिए यह समझना महत्वपूर्ण है कि शहरीकरण महिलाओं को कैसे प्रभावित करता है। इसके मद्देनज़र, हम अपने हाल के एक अध्ययन (धमीजा एवं अन्य 2023) में, महिला सशक्तीकरण पर शहरीकरण के अल्पकालिक प्रभावों की जांच करते हैं।
सैद्धांतिक रूपरेखा
सैद्धांतिक रूप से, शहरीकरण महिलाओं को सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह से प्रभावित कर सकता है। माना जाता है कि शहरी क्षेत्रों में रहने वाली महिलाओं को, उनके ग्रामीण समकक्षों के विपरीत, अधिक सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अवसर और स्वतंत्रता प्राप्त होती है। टैकोली और सैटरथवेट (2013) ने अपने एक संपादकीय लेख में उल्लेख किया है कि शहरी महिलाओं को "परिवार के बाहर वेतनभोगी रोज़गार में शामिल होने के बेहतर अवसर मिलते हैं, सेवाओं तक उनकी बेहतर पहुँच होती है, प्रजनन दर कम होती है और उन्हें उन कठोर सामाजिक मूल्यों और मानदंडों में कुछ छूट मिलती है जिनमें महिलाओं को उनके पतियों तथा पिताओं- आम तौर पर पुरुषों के अधीन माना गया है।“ फिर भी, इन महिलाओं के लैंगिक भेदभाव का सामना करते रहने की सम्भावना होती है। जैसा कि यूएन-हैबिटेट की शहरों में महिलाओं की स्थिति 2012-13 रिपोर्ट में उल्लेख है कि शहरी परिवेश में, "श्रम और रोज़गार, 'सभ्य कार्य', वेतन, कार्यकाल अधिकार, परिसंपत्तियों तक पहुँच और संचय, व्यक्तिगत सुरक्षा और संरक्षा, तथा शहरी शासन की औपचारिक संरचनाओं में प्रतिनिधित्व में उल्लेखनीय लैंगिक अंतर [मौजूद] है।" इससे पता चलता है कि शहरी वातावरण में महिला सशक्तिकरण की बाधाएँ व्यापक बनी हुई हैं।
महिला सशक्तिकरण और शहरीकरण को मापना
महिला सशक्तिकरण एक बहुआयामी और बहु-स्तरीय प्रक्रिया है जिसे व्यक्तिगत और साथ ही पारिवारिक स्तर पर अनुभव किया जाता है। जैसा कि कबीर एवं अन्य (2011) और गोला एवं अन्य (2011) में उल्लेख किया गया है, यह समझना अनिवार्य है कि महिला सशक्तिकरण के अंतर्गत कार्य, आय, शिक्षा और संपत्ति के सन्दर्भ में महिलाओं की आर्थिक स्थिति से परे अन्य सामाजिक और राजनीतिक आयामों को भी शामिल किया गया है। अधिक विशेष रूप से, इसके लिए आवश्यक है कि महिलाओं के पास बाज़ार में प्रतिस्पर्धा करने के लिए कौशल और संसाधन हों, आर्थिक संस्थाओं तक निष्पक्ष और समान पहुँच हो, तथा निर्णय लेने और उन पर कार्य करने की क्षमता हो, तथा शक्ति और अधिकारों के प्रयोग के सन्दर्भ में संसाधनों और लाभों पर नियंत्रण हो। हम अपने शोध में, महिला सशक्तिकरण को समझने के लिए कई आर्थिक परिणामों का उपयोग करते हैं। इनमें श्रम बाज़ार में महिलाओं की भागीदारी, उनकी गतिशीलता, परिवार के भीतर उनके अधिकार, सूचना तक पहुँच, वित्तीय स्वायत्तता, तथा जीवन-साथी द्वारा हिंसा (आईपीवी) के प्रति दृष्टिकोण और जोखिम के संकेतक शामिल हैं। हमने इन उपायों पर डेटा दो हाल ही में दोहराए गए क्रॉस-सेक्शन, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) 2015-16 और 2019-21 के दौरों से प्राप्त किया है। ये भारत के व्यापक रूप से उपयोग किए जाने वाले राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण हैं, जो वैश्विक जनसांख्यिकी स्वास्थ्य सर्वेक्षण (डीएचएस) कार्यक्रम का भी एक हिस्सा हैं। एनएफएचएस सर्वेक्षण के इन दो दौरों से हमें 12 लाख से अधिक भारतीय महिलाओं के डेटा की जानकारी मिलती है।
हम रात्रिकालीन रोशनी (नाईटटाइम लाइट) के बारे में जिला-स्तरीय उपग्रह डेटा का उपयोग करके शहरीकरण को मापते हैं। इस धारणा के आधार पर कि प्रति इकाई क्षेत्र में प्रकाश की तीव्रता शहरीकरण की डिग्री के एक उचित माप के अनुरूप है, नाईटटाइम लाइट को शहरीकरण और शहरी बस्तियों का एक वैध मार्कर माना जाता है (स्टोरीगार्ड 2016, एबे और अमारे 2018, अमारे एवं अन्य 2020, चेन एवं अन्य 2022, एबे एवं अन्य 2023)। इस प्रकार, किसी क्षेत्र में नाईटटाइम लाइट की तीव्रता उसके शहरीकरण के स्तर का संकेत हो सकती है (नाईटटाइम लाइट की तीव्रता का उच्च मान शहरीकरण के उच्च स्तर को दर्शाता है)। आकृति-1 में दो दौरों में रात्रिकालीन रोशनी के जिला-स्तरीय वितरण को दर्शाया है।
आकृति-1. रात्रिकालीन रोशनी का जिला-स्तरीय मान चित्र (लॉग ऑफ)
स्रोत- लेखकों द्वारा भारतीय सर्वेक्षण विभाग से जिला निर्देशांकों तथा भारत पर एसएचआरयूजी (सामाजिक-आर्थिक उच्च-रिज़ॉल्यूशन ग्रामीण-शहरी भौगोलिक) डेटासेट से नाईटटाइम लाइट का उपयोग करके किया गया संकलन 1
मिलेजुले परिणाम
हम पाते हैं कि शहरीकरण से महिलाओं की गतिशीलता (इस अर्थ में कि शहरी महिलाओं को गतिशीलता पर कम प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता है) और वित्तीय स्वायत्तता (जैसा कि उनके द्वारा धारित बैंक खातों से मापा गया है) में सुधार होता है। हालाँकि, शहरीकरण का महिलाओं की श्रम बाज़ार भागीदारी, सूचना तक पहुँच और महिलाओं की लैंगिक मान्यताओं (जैसे कि विभिन्न कारणों से महिलाओं द्वारा आईपीवी- जीवन-साथी द्वारा हिंसा को स्वीकार करना) पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। इसके अलावा, शहरीकरण महिलाओं के परिवार के भीतर अधिकारों को कम करता है और आईपीवी के प्रति उनके जोखिम को बढ़ाता है। हम यह भी पाते हैं कि शहरीकरण पुरुषों के श्रम बाज़ार के परिणामों को सकारात्मक रूप से प्रभावित करता है।
शहरी क्षेत्रों में रहने वाली महिलाओं को संभवतः ऐसे क्षेत्रों में आवागमन की सुविधा और दक्षता के कारण अपने आवागमन में कम बाधाओं का सामना करना पड़ सकता है। इसके अलावा, यह देखते हुए कि शहरी क्षेत्रों में पुरुष ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में अधिक कार्यरत हैं, शहरी जीवन की चुनौतियों के कारण, वे महिलाओं को घर से बाहर जाने तथा बाहरी गतिविधियों में शामिल होने की अनुमति देने के लिए बाध्य हो सकते हैं, जिन्हें वे स्वयं अकेले नहीं कर सकते। ग्रामीण समकक्षों की तुलना में शहरी महिलाओं के बीच बैंक खातों की बढ़ी हुई पहुँच भी उनकी गतिशीलता पर कम प्रतिबंधों का परिणाम हो सकती है। इसके अतिरिक्त, शहरी क्षेत्रों में बैंक शाखाएँ अधिक आसानी से उपलब्ध होने की सम्भावना है, जिससे महिलाओं को वित्तीय सेवाओं प्राप्त करने में और भी आसान हो जाएगी।
महिलाओं की गतिशीलता और वित्तीय स्वायत्तता से परे डोमेन पर शहरीकरण के शून्य और नकारात्मक प्रभावों को कई कारकों के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है। शहरीकरण महिलाओं के सामाजिक नेटवर्क को बाधित कर सकता है, जो सूचना प्रसार और नौकरी की खोज के लिए महत्वपूर्ण हैं। इसके अलावा, शहरी क्षेत्रों में उपलब्ध रोज़गार के अवसर महिलाओं के लिए उपयुक्त नहीं भी हो सकते हैं, जिससे उनके लिए रोज़गार हासिल करना चुनौतीपूर्ण हो जाता है। इसके अतिरिक्त, शहरी परिवेश में आवश्यक होने के बावजूद गतिशीलता में वृद्धि से पुरुषों में असंतोष उत्पन्न हो सकता है, जिससे शहरी परिवेश में महिलाओं में आईपीवी (जीवन-साथी द्वारा हिंसा) की दर बढ़ सकती है तथा परिवार के भीतर उनकी भागीदारी का स्तर कम हो सकता है।
हमने कुछ रोचक विविधताओं को दर्ज किया है। उदाहरण के लिए, हम पाते हैं कि वेतन वाली नौकरी में शामिल होने की सम्भावना पर शहरीकरण का प्रभाव गरीब परिवारों की महिलाओं, वंचित जातियों की महिलाओं और उत्तर भारत तथा आर्थिक रूप से पिछड़े राज्यों (जैसे बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश या बीमारू राज्य) में रहने वाली महिलाओं के सन्दर्भ में अधिक है। भारत में शहरीकरण मुख्य रूप से महिलाओं के लिए अनौपचारिक क्षेत्र में कम कौशल वाली नौकरियों के सृजन से जुड़ा हुआ है और समाज के अपेक्षाकृत निचले स्तर की महिलाओं को उनके धनी समकक्षों की तुलना में ऐसी नौकरियों में नियोजित होने की अधिक सम्भावना है। चूंकि बीमारू राज्य अपेक्षाकृत कम विकसित और आर्थिक रूप से पिछड़े हैं, इसलिए इन राज्यों में रहने वाली महिलाओं का एक बहुत बड़ा हिस्सा समाज के निचले तबके से संबंधित होने के साथ-साथ अधिक वंचित जातियों की महिलाओं से भी संबंधित है। इस प्रकार, शहरीकरण का श्रम बाज़ार में महिलाओं की भागीदारी की सम्भावना पर सकारात्मक प्रभाव हो सकता है। तथापि, शहरीकरण के कारण इन समूहों में लैंगिक दृष्टिकोण में कोई सकारात्मक बदलाव नहीं देखा गया है, जिसके कारण इन समूहों की महिलाएं वेतनभोगी कार्यों में भाग लेने के लिए अधिक इच्छुक हो सकती हैं। बल्कि, गरीब महिलाओं और आर्थिक रूप से पिछड़े राज्यों की महिलाओं का आईपीवी के प्रति रवैया उनके समकक्षों की तुलना में अधिक खराब है।
कुल मिलाकर, ये परिणाम दर्शाते हैं कि भारतीय महिलाओं को शहरीकरण से कम लाभ मिलता है और शहरीकरण के प्रभाव लिंग-आधारित हो सकते हैं। ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि भारत में शहरी नियोजन लिंग-संवेदनशील नहीं रहा है और/या शहरीकरण पितृसत्तात्मक लैंगिक मानदंडों को बदलने में विफल रहा है।
लिंग-संवेदनशील शहरीकरण की ओर
उपलब्ध शोध ने दर्शाया है कि भारत में लैंगिक असमानता बहुत अधिक है और समुदाय में महिलाएँ हाशिए पर हैं। हमारे निष्कर्ष इस बात संकेत देते हैं कि यह लैंगिक असमानता बढ़ सकती है और भारत में वर्तमान में हो रहे तेज़ शहरीकरण के कारण भारतीय महिलाएँ और भी हाशिए पर जा सकती हैं। नीति-निर्माताओं को इस सम्भावना का संज्ञान लेना चाहिए और ऐसे हस्तक्षेपों को डिज़ाइन और लागू करने पर विचार करना चाहिए जो संभावित रूप से इससे निपट सकें। इनमें शहरीकरण को बढ़ावा देने वाली नीतियों और कार्यक्रमों का पुनःअभिविन्यास शामिल हो सकता है। उदाहरण के लिए, कायाकल्प और शहरी परिवर्तन के लिए अटल मिशन (अमृत), स्मार्ट सिटीz मिशन (एससीएम), प्रधानमंत्री आवास योजना- शहरी (पीएमएवाई-यू) इत्यादि ताकि महिलाओं की विशिष्ट ज़रूरतों और चुनौतियों पर विचार किया जा सके।
इसके अलावा, शहरी क्षेत्रों में महिलाओं के लिए रोज़गार के अवसरों तक समान पहुँच सुनिश्चित करने के लिए पहल होनी चाहिए, ऐसे हस्तक्षेप होने चाहिए जो सांस्कृतिक मानदंडों को बदल सकें जो शहरी जीवन में महिलाओं की भागीदारी को प्रतिबंधित कर सकते हैं। साथ ही ऐसे कार्यक्रम होने चाहिए जो शहरी विकास से संबंधित योजना और निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में विशेष रूप से महिलाओं को शामिल करते हुए, सामुदायिक सहभागिता और भागीदारी को प्रोत्साहित करें। इसके अतिरिक्त, चल रहे अनुसंधान और डेटा संग्रहण से शहरी क्षेत्रों में महिलाओं की उभरती जरूरतों के आधार पर नीतियों को परिष्कृत और अनुकूलित करने में मदद मिल सकती है।
टिप्पणी :
- एसएचआरयूजी के बारे में अधिक जानने के लिए, एशर एवं अन्य (2020) को देखें, जिसमें आर्थिक विकास पर शोध हेतु मौजूदा डेटासेट पर इसके निर्माण और लाभों का वर्णन किया गया है।
अंग्रेज़ी के मूल लेख और संदर्भों की सूची के लिए कृपया यहां देखें।
लेखक परिचय : गौरव धमीजा भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान हैदराबाद के लिबरल आर्ट्स विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं। पुनर्जीत रॉयचौधरी शिव नादर विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के सहायक प्रोफेसर हैं। बिनय शंकर शिव नादर इंस्टीट्यूशन ऑफ एमिनेंस में अर्थशास्त्र विभाग में पीएचडी कर रहे हैं।
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