कृषि

प्रोद्योगिकी में लैंगिक परिवर्तन: कृषि मशीनीकरण से साक्ष्य

  • Blog Post Date 03 अगस्त, 2021
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Farzana Afridi

Indian Statistical Institute, Delhi Centre

fafridi@isid.ac.in

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Monisankar Bishnu

Indian Statistical Institute, Delhi Centre

mbishnu@isid.ac.in

भारतीय कृषि में बढ़ते मशीनीकरण के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में विशेषकर महिलाओं के लिए कृषि रोजगार में कमी आई है। यह लेख दर्शाता है कि 1999-2011 के दौरान मशीनीकरण में 32 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई, जो कृषि में महिलाओं के ग्रामीण रोजगार में हुई 30% की समग्र गिरावट में से 22% गिरावट का कारण हो सकती है। यह गिरावट भूमि की जुताई के बाद किये जाने वाले निराई के कार्य हेतु लगाए जाने वाले श्रम में एक महत्वपूर्ण गिरावट के कारण है।

 

1999 और 2011 के बीच भारत के ग्रामीण कृषि क्षेत्र में कार्यरत कामकाजी उम्र के वयस्कों के अनुपात में 11 प्रतिशत अंक की गिरावट आई है (राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसएस) 1999, 2011)। चित्र 1 समय के साथ खेती की गई प्रति हेक्टेयर कृषि भूमि के श्रम उपयोग में परिवर्तन को दर्शाता है। स्पष्ट रूप से, समय के साथ महिला श्रम उपयोग में गिरावट आई है जबकि पुरुष श्रम उपयोग में ज्यादा बदलाव नहीं आया है। महिलाओं की स्थिति ख़राब हुई है, न केवल उनके कृषि क्षेत्र के रोजगार में गिरावट के साथ हुई, बल्कि पिछले तीन दशकों (अफरीदी, डिंकेलमैन और महाजन 2017) में ग्रामीण भारत में उनकी समग्र श्रम-शक्ति भागीदारी में भी लगातार गिरावट आई है - 1999 के 49% से 2011 में 40% तक, और 2017 में 28% तक (आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण, 2019)।

चित्र 1. भारतीय कृषि में श्रम उपयोग में रुझान

स्रोत: लेखक द्वारा की गई गणना एनएसएस के 55वें, 64वें और 68वें दौर पर आधारित है।

नोट: श्रम उपयोग का तात्पर्य सामान्य स्थिति1 में कृषि क्षेत्र में काम करने वाले 15-65 आयु वर्ग के व्यक्तियों की कुल संख्या को स्त्री/पुरुष के अनुसार जिले में खेती किए गए कुल क्षेत्रफल से विभाजित करना है। इस चर का मान वर्ष 1999 में 100 पर अनुक्रमित किया गया है, और 2007 तथा 2011 में मानों की गणना स्त्री/पुरुष के अनुसार 1999 में मान के सापेक्ष की गई है।

भारत में कृषि मशीनीकरण

ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं के श्रम के उपयोग में गिरावट का कारण पिछले दो दशकों में भारतीय कृषि क्षेत्र में तेजी से हुआ मशीनीकरण है। 1999 और 2011 के बीच, भारत में अधिकांश कृषि मशीनरी को चलाने हेतु उपयोग में लाये जाने वाले ट्रैक्टरों की संख्या तीन गुना हो गई - जो कुल मिलाकर 20 से 60 लाख या प्रति 1,000 हेक्टेयर में 16 से लगभग 40 ट्रैक्टर हुई है। चित्र 2, 1999-2011 के दौरान मशीनी स्रोतों के जरिये चलाए गए उपकरणों में वृद्धि दर्शाता है, जबकि मानव और पशु शक्ति का उपयोग करने वाले उपकरणों में गिरावट आई है। संचालन-वार विश्लेषण से पता चलता है कि मशीनी शक्ति के उपयोग में सबसे अधिक वृद्धि जुताई के कार्यों में हुई है।

चित्र 2. भारतीय कृषि में औजारों के उपयोग का रुझान

स्रोत: कृषि उपकरणों और खेती वाले क्षेत्र के लिए इनपुट सर्वेक्षण (1995-97, 2007-08, और 2011-12) पर आधारित लेखकों द्वारा की गई गणना। अन्य इनपुट पर डेटा कृषि मंत्रालय की इनपुट-आउटपुट जनगणना (1997-99, 2006-07 और 2011-12, 1999, 2007 और 2011 के रूप में संदर्भित है, जो नवीनतम वर्ष है जिसके लिए जिला स्तर के आंकड़े उपलब्ध हैं)।

नोट: औजारों को उनकी शक्ति के स्रोत के आधार पर समूहीकृत किया गया है। दिए गए शक्ति के स्रोत के लिए सभी तरह के औजारों के तहत क्षेत्र को समुच्चयित किया गया है और उसे एक जिले में खेती किए गए कुल क्षेत्रफल से विभाजित किया गया है। इन चरों का मान वर्ष 1999 में 100 पर अनुक्रमित किया गया है।

कृषि उत्पादन प्रक्रियाओं में संपूरकता

कृषि में श्रम विभाजन की एक विशिष्ट लैंगिक विशेषता है - महिला और पुरुष अलग-अलग कार्य करते हैं और इसलिए वे कृषि उत्पादन में एक दूसरे के लिए पूर्ण विकल्प नहीं हैं। महिलाओं के श्रम का उन कार्यों में उपयोग किए जाने की संभावना कम होती है जिनमें शारीरिक शक्ति की आवश्यकता होती है, अर्थात, पहले चरण में या अपस्ट्रीम टिलिंग ऑपरेशन में, और उन कार्यों में उपयोग किए जाने की अधिक संभावना होती है, जिनमें सटीकता की आवश्यकता होती है, अर्थात, दूसरा चरण या डाउनस्ट्रीम ऑपरेशन जैसे बुवाई , रोपाई, निराई और चाय की खेती में चाय की पत्तियों को तोड़ने के लिए (तालिका 1)।

तालिका 1. कृषि में श्रम का स्त्री.पुरुष आधारित विभाजन

संचालन में संलग्न महिलाओं का अनुपात, वर्ष के अनुसार

जुताई

बुआई

निराई

कटाई

सभी वर्ष

0.095

0.328

0.379

0.299

2011

0.104

0.284

0.340

0.265

2007

0.083

0.352

0.390

0.317

1999

0.094

0.369

0.426

0.331

स्रोत: लेखकों की द्वारा की गई गणना एनएसएस डेटा के 55वें, 64वें और 68वें दौर के आधार पर है।

टिप्पणियाँ: (i) प्रत्येक कॉलम उस ऑपरेशन में उपयोग किए गए कुल श्रम में महिलाओं के अनुपात को दर्शाता है। (ii) सभी वर्षों में 2011, 2007 और 1999 के आंकड़े शामिल हैं।

मौजूदा साहित्य में कुशल बनाम अकुशल श्रम पर प्रौद्योगिकी परिवर्तन के प्रभावों पर ध्यान केंद्रित है, जहां वे अपूर्ण विकल्प हैं और प्रौद्योगिकी कुशल श्रम (एसेमोग्लू 2011) की पूरक है। हालांकि, उन संदर्भों में प्रौद्योगिकी परिवर्तन के प्रभाव के सीमित प्रमाण उपलब्ध हैं जहां कार्यों में श्रम का विभाजन लिंग (स्त्री/पुरुष) द्वारा निर्धारित होता है, जिससे महिला और पुरुष श्रम के बीच अपूर्ण प्रतिस्थापन क्षमता होती है - जैसा कि कृषि उत्पादन में। जब महिलाएं कोई ऐसे कार्य करती हैं जिनमें पुरुषों की तुलना में अलग कौशल की आवश्यकता होती है, और जिनमें कृषि उत्पादन प्रक्रियाओं में आमतौर पर पुरुषों द्वारा किए जाने वाले कार्यों के साथ सीमित प्रतिस्थापन क्षमता होती है, तो ऐसी स्थिति में प्रौद्योगिकी परिवर्तन का असमान लैंगिक (स्त्री/पुरुष) प्रभाव पड़ सकता है। हाल के शोध (अफरीदी, बिष्णु और महाजन 2020) में, हम कृषि में महिलाओं और पुरुषों के श्रम2 उपयोग पर कृषि मशीनरी के बढ़ते उपयोग के प्रभाव का विश्लेषण करते हैं।

मशीनीकरण और श्रम उपयोग के बीच की कड़ी की जांच

एक जिले में मशीन का उपयोग, सापेक्ष कारक मूल्य और वहां की अन्य आर्थिक विशेषताएं एक-दूसरे पर निर्भर हो सकती है। यह संभव है कि जिन क्षेत्रों में गैर-कृषि श्रम की मांग बढ़ी (बेहतर बुनियादी ढांचे या अन्य जिला-विशिष्ट कारणों से) है - परिणामतः स्थानीय गैर-कृषि मजदूरी की दरें बढ़ने से कृषि क्षेत्र से गैर-कृषि क्षेत्र में श्रमिकों की आवाजाही हुई हो। इसके फलस्वरूप इन क्षेत्रों में कृषि क्षेत्र में मशीनों को अपनाने में वृद्धि हो गई हो, जिसके चलते कृषि क्षेत्र में मशीनीकरण और श्रम उपयोग के बीच नकारात्मक संबंध स्थापित हुआ - न कि कृषि श्रम पर मशीन के उपयोग के प्रभाव के कारण।

इस मुद्दे को हल करने और कृषि में मशीनीकरण और श्रम उपयोग के बीच कारण संबंध का अनुमान लगाने के लिए, हम एक जिले में दुमट्टी और चिकनी मिट्टी के हिस्सों3 के बीच अंतर में 'बहिर्जात' भिन्नता का उपयोग करते हैं। हम मिट्टी के प्रकार में भिन्नता का उपयोग इसलिए करते हैं कि यह महिलाओं की श्रम-शक्ति में भागीदारी को सीधे प्रभावित करने वाले किसी भी कारक से प्राकृतिक रूप से संपन्न और स्वतंत्र है। हम पहले दिखाते हैं कि भूमि की जुताई में मशीन का उपयोग मिट्टी की दोमटता की सीमा पर काफी हद तक निर्धारित होता है। चूंकि दोमट मिट्टी - चिकनी मिट्टी की तुलना में गहरी जुताई के लिए अधिक अनुकूल होती है, इसलिए संभावना है कि भूमि जोतने में सहायता के लिए मशिनों का अधिक उपयोग किया जाता हो। धारणा यह है कि मिट्टी की बनावट (सापेक्ष दोमटता) केवल मशीन अपनाने पर इसके प्रभाव के माध्यम से कृषि श्रम उपयोग को अन्य बन्धनों की शर्त पर प्रभावित करती है । हम फिर मशीनीकरण में इस अनुमानित भिन्नता का उपयोग कृषि में इस्तेमाल होने वाले महिलाओं और पुरुषों के श्रम पर इसके प्रभाव का विश्लेषण करने के लिए करते हैं।

हम पाते हैं कि मशीनीकरण में 1% की वृद्धि से प्रति हेक्टेयर महिला श्रम में 0.7% की गिरावट आती है। पुरुष श्रम भी 0.1% प्रति हेक्टेयर गिरावट दिखाता है, लेकिन यह नगण्य है। यह निष्कर्ष महिलाओं की पहले से मौजूद श्रम-शक्ति भागीदारी, प्रारंभिक श्रम उपयोग में अंतर के कारण जिला-विशिष्ट रोजगार रुझान और राज्य-विशिष्ट समय निश्चित प्रभाव सहित एक जिले की कृषि, जनसांख्यिकीय और आर्थिक विशेषताओं के लिए लेखांकन किये जाने के बाद भी कायम रहता है।

इस प्रकार, 1999-2011 के दौरान मशीनीकरण में 32 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई, जिससे कृषि में महिलाओं के श्रम उपयोग में 22% से अधिक की गिरावट आई है। महिलाओं के श्रम में यह गिरावट कृषि उत्पादन प्रक्रिया के दौरान भूमि की जुताई के बाद की जानेवाली निराई हेतु उपयोग में लाये जाने वाले श्रम में उल्लेखनीय गिरावट के कारण है ।

भूमि जोतने में मशीनी उपकरणों को अधिक अपनाये जाने के चलते, एक ऐसा कार्य जिसमें शारीरिक शक्ति की आवश्यकता होती है और इसलिए महिला श्रम की तुलना में अधिक पुरुष श्रम की जरुरत पड़ती है, यह संभव है कि पुरुष श्रम की मांग में कमी आई है । हालांकि, जिस हद तक पुरुषों का श्रम टिलिंग मशीनों का पूरक है, क्योंकि वे महिलाओं की तुलना में इन मशीनों को संचालित करने की अधिक संभावना रखते हैं, पुरुषों के श्रम उपयोग में किसी भी गिरावट को कम किया जाता है। दूसरी ओर, जुताई में मशीनों को अपनाने से डाउनस्ट्रीम संचालन में श्रम की मांग पर व्यापक प्रभाव पड़ता है, जिसके लिए अधिक सटीकता और कम शारीरिक शक्ति की आवश्यकता होती है –और ऐसे कार्यों में महिलाएं विशेषज्ञ होती हैं (तालिका 1)। विशेष रूप से, बेहतर गुणवत्ता वाली जुताई से खरपतवार का बढ़ना कम हो जाता है, जिससे निराई श्रम की कम आवश्यकता होती है। इसलिए, हम पाते हैं कि महिलाओं के श्रम उपयोग पर मशीनीकरण का समग्र प्रभाव पुरुषों के श्रम उपयोग की तुलना में काफी अधिक प्रतिकूल है।

साथ ही, हमें वैकल्पिक रोजगार के अवसरों की कमी या महिलाओं की सीमित श्रम गतिशीलता, या दोनों के चलते गैर-कृषि क्षेत्र में महिलाओं के श्रम के प्रतिस्थापन के साक्ष्य नहीं मिले हैं।

नीति निहितार्थ

इन निष्कर्षों से पता चलता है कि उन संदर्भों में जहां श्रम विभाजन मौजूद है, प्रौद्योगिकी परिवर्तन एक प्रकार के श्रम को दूसरे की तुलना में अधिक प्रतिकूल रूप से प्रभावित कर सकता है, और संभावित रूप से श्रम बाजार में असमानता को बढ़ा सकता है। हम पाते हैं कि यह कृषि में महिलाओं के सन्दर्भ में सही है। इसलिए, प्रौद्योगिकी परिवर्तन के प्रतिकूल श्रम प्रभावों को रोकने के लिए नीतिगत उपायों के लिए एक लैंगिक परिप्रेक्ष्य की आवश्यकता होती है। भारतीय संदर्भ में, हम यह भी पाते हैं कि कृषि में काम के अवसरों में गिरावट आने पर महिलाएं गैर-कृषि क्षेत्रों जैसे विनिर्माण, निर्माण और सेवाओं में वैकल्पिक रोजगार में संलग्न होने में असमर्थ हैं। महिलाओं के श्रम बाजार के अवसरों का विस्तार, उदाहरणार्थ- पुन:कौशल के माध्यम से, और/या उनकी शारीरिक गतिशीलता में बाधाओं को कम करके किये जाने से प्रौद्योगिकी परिवर्तन के कारण महिलाओं की श्रम-शक्ति भागीदारी में होने वाली किसी भी गिरावट को रोकने के लिए महत्वपूर्ण हो सकता है।

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टिप्पणियाँ:

  1. सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय सामान्य स्थिति को परिभाषित करता है "जब गतिविधि की स्थिति सर्वेक्षण की तारीख से पहले पिछले 365 दिनों की संदर्भ अवधि के आधार पर निर्धारित की जाती है, तो इसे व्यक्ति की सामान्य गतिविधि स्थिति के रूप में जाना जाता है।" इस परिभाषा का उपयोग करते हुए, एक व्यक्ति जिसने एक वर्ष के दौरान कम से कम 30 दिन काम किया है, उसे नियोजित होने के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
  2. कृषि श्रमिकों के आंकड़े एनएसएस सर्वेक्षण (55वें (1999), 64वें (2007) और 68वें (2011) दौर) के हैं।
  3. मिट्टी के आंकड़े राष्ट्रीय मृदा सर्वेक्षण ब्यूरो (भारत के विभिन्न राज्यों के लिए 1990 के दशक के मध्य में डिजाइन किए गए) के लेखकों के डिजिटलीकरण पर आधारित हैं।

लेखक परिचय : फरजाना आफरीदी भारतीय सांख्यिकी संस्थान, दिल्ली की अर्थशास्त्र और योजना इकाई में प्रोफेसर हैं। मोनिशंकर बिष्णु भारतीय सांख्यिकी संस्थान, दिल्ली के अर्थशास्त्र और योजना इकाई में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। कनिका महाजन अशोका यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।

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