शासन

उनसे ज्यादा अंधा कोई और नहीं जो देखना हीं नहीं चाहते

  • Blog Post Date 02 जनवरी, 2020
  • लेख
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Pronab Sen

Chair, Standing Committee on Statistics

pronab.sen@theigc.org

भारत सरकार के आंकड़ों के आधार पर, भारत के अर्थशास्त्रियों ने और सरकार ने अर्थव्यवस्था की स्थिति को लेकर दो विपरीत आख्यान स्थापित किए हैं। इस पोस्ट में, प्रणव सेन ने इस दो आख्यानों के बीच के अंतर पर प्रकाश डाला है। वह इस बात पर भी चिंता व्यक्त करते हैं कि मौजूदा आर्थिक मंदी का मुकाबला करने के लिए सरकार जिस तरह की प्रतिक्रिया दे रही है, वह पूरी तरह से अपने आख्यानों पर आधारित है और दूसरे की पूरी तरह से अनदेखा कर रही है।

 

 “उनसे ज्यादा अंधा कोई और नहीं जो देखना हीं नहीं चाहते” – जॉन हेवूड (1546)

‘भारत की अर्थव्यवस्था किस हाल में है?’ — इस सवाल पर सरकार की आधिकारिक राय तब समझ में आई जब 22 सितंबर, 2019 को हमारे प्रधानमंत्री ने, अम्रीका के ह्यूस्टन मे आयोजित एक कार्यक्रम में, “हाउडी, मोदी (कैसे हो, मोदी)?” का जवाब देते हुए, कई बार अनेक भाषाओं में, कहा ‘सब कुछ अच्छा है’। प्रत्याशित रूप से सरकार के कई अधिकारियों ने इसे विस्तृत कर भारतीय अर्थव्यवस्था पर सरकार की औपचारिक दृष्टिकोण को विकसित किया है। इस कथन के तथ्य यूं तो अब तक काफी प्रसिद्ध हो चुके हैं, पर उन्हें दोहराना एक सहयोगी पात्र के रूप में काम करेगा, वे निम्नलिखित हैं:

    1. अभी भले हमारा विकास धीमी गति से हो रहा है (यह निश्चित रूप से मंदी नहीं है), पर भारत अभी भी विश्व के सबसे तेज़ी से बढ़ रहे अर्थव्यवस्थाओं में से एक है।
    2. आर्थिक-विकास की गति में आई कमी चक्रीय है, और जैसे निवेश मे पुनःवृद्धि होगी यह अपने आप ठीक हो जाएगी।
    3. इसमे कोई दो राय नहीं है कि कृषि उत्पादों के दामों में कमी आई है, पर इसका कारण यह है कि हम जितना उपभोग करते हैं, किसान उससे ज्यादा उत्पादन कर रहे हैं।
    4. अर्थव्यवस्था की औपचारिकता के साथ कर दाताओं की संख्या विमुद्रीकरण और जीएसटी के कारण काफी बढ़ी है।
    5. यूपीए (यूनाइटेड प्रोग्रेसिव अलाइयन्स - संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन) के कार्यकाल के दौरान बेपरवाही से ऋण देने (क्रोनी कैपिटलिज्म) के कारण वित्तीय क्षेत्र थोड़ी दुर्गतियों का सामना कर रही है, परंतु यह पुनः पूँजीकरण प्रक्रिया के साथ वापस आ जाएगा।
    6. एफ़.आई.आई (विदेश संस्थागत निवेश) और एफ़ डी आई (प्रत्यक्ष विदेशी निवेश) के प्रवाह यह दर्शा रहे हैं कि विदेशी भारत पर पैसे बरसा रहे हैं।
    7. हमारे मैक्रो-फंडामैंटल मजबूत हैं:
      • मुद्रास्फीति नियंत्रण में है।
      • चालू खाता बैलेन्स नियंत्रण में है।
      • केंद्र का राजकोषीय घाटा नियंत्रण में है।
      • शेयर बाज़ार फल-फूल रहे हैं।

ऐसी और भी बातें हैं जिनका ज़िक्र यहाँ किया जा सकता है, लेकिन शुरुआत के लिए यह पर्याप्त हैं। इसका एक विपरीत संस्करण भारत में अर्थशास्त्रियों के समुदाय में व्यापक रूप से स्वीकार किया जा रहा है। यह निम्नलिखित तथ्यों से ज़ाहिर होता है:

      1. भारत की वृद्धि का हाल बहुत हीं पस्त है जबकि हमारे कुछ पड़ोसी देश (उदाहरण के लिए बांग्लादेश और वियतनाम) बहुत बेहतर कर रहे हैं।
      2. विकास मंदी मुख्य रूप से संरचनात्मक है इसलिए मांगों को पुनर्जीवित करने के लिए सरकारी कदमों के बिना यह खुद सही नहीं होने वाला है।
      3. ग्रामीण संकट गंभीर है, स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है। किसान निरंतर प्रदर्शन कर रहे हैं और ग्रामीण क्षेत्रों में गैर-कृषि रोजगार में गिरावट आ रही है।
      4. बेरोजगारी दर का हाल 2017-18 में, पिछले 40 साल में सबसे खराब है और 6.1% पर है; और युवा (15-29 वर्ष) बेरोजगारी लगभग 20% है।
      5. अब तक, वर्ष 2017-18 में पहली बार प्रति व्यक्ति खपत व्यय निरपेक्ष रूप से घट गया। यहाँ तक की भोजन की खपत में भी गिरावट देखी गयी है।
      6. वित्तीय क्षेत्र ऐसे गहरे संकट में है जिसमे न तो तरलता बढ़ाने और न ही पुनःपूंजीकरण चीजों को सुधारने में मदद करेंगे।

इन दो आख्यानों में पुष्ट विपरीत आख्यान को कोई कैसे उजागर कर सकता है? आखिरकार, ये दोनों जिन आंकड़ों पर आधारित हैं वे एक हीं हैं; या ऐसा नहीं है? खैर, सरकार की रणनीति यह है कि जिस आंकड़े को आधार बना कर अर्थशास्त्री अपने आख्यान व्यक्त कर रहे हैं, उसे दबाया जाए ताकि उनके आख्यान को नकारा जा सके। विशेष रूप से रोजगार और खपत के आंकड़े सरकार की अप्रसन्नता का मुख्य कारण रहे हैं। सौभाग्य से इनमे से कुछ आँकड़े को सांख्यिकीय प्रणाली के भीतर के तत्वों ने लीक कर दिया था जिससे यह हम अर्थशास्त्रियों और बड़े पैमाने पर जनता के लिए उपलब्ध हो पाया। और इस मोड़ पर सरकार ने आंकड़ों की सत्यता और गुणवत्ता की निंदा करनी शुरू कर दी। बेशक, विडम्बना यह है कि ये आंकड़े सरकार के खुद के हैं; और सरकार के लिए मसले और बदतर तब बन गए जब इस डेटा की निंदा करने के लिए सरकार द्वारा नियुक्त किए विशेषज्ञों ने ऐसा करने करने में सख्ती बरती। बाकी मतभेद, अगर सरकार की माने तो, सिर्फ व्याख्या का विषय हैं।

इसलिए, आइये हम ‘व्याख्यात्मक’ मुद्दे को उठाते हैं। सरकार अपने तथाकथित ‘माइक्रो-फंडामेंटल’ पर बहुत ज्यादा ज़ोर देती है, और यह ऊपर-ऊपर से काफी तर्कशील लगती हैं। लेकिन अगर थोड़ी गहराई से देखा जाए तो यह एहसास होगा कि ये संख्याएँ वास्तव में कमजोरी के संकेत हैं, न कि ताकत के,  जैसा सरकार हमें विश्वास दिलाना चाहती है।

मुद्रास्फीति वास्तव में कम और घटती ही जा रही है। प्रारम्भ में यह कम और कभी-कभी नकारात्मक – खाद्य मुद्रास्फीति द्वारा संचालित होती थी, जिसे सरकार भी स्वीकार करती है, और यही किसान द्वारा झेली जा रही उत्पीड़न का प्रमुख कारण भी है। लेकिन यह निश्चित रूप से इसलिए बिलकुल नहीं है कि हम बहुत अधिक कृषि उत्पादन करते हैं जैसा कि सरकार बड़ी दृढ़ता से कह रही है। विश्व खाद्य कार्यक्रम (वर्ल्ड फूड प्रोग्राम) के अनुसार भारत, दुनिया में, प्रति-व्यक्ति खाद्य पदार्थों की उपलब्धता के मामले में बड़े निचले स्थान (162वें) पर है। सच्चाई यह है कि हमारे गरीब अपनी ज़रूरत का खाना भी खरीद पाने में असक्षम हैं और बीते कुछ वर्षों में उनका हाल और बदतर हो गया है। अब गैर-खाद्य पदार्थों की कीमतों में भी गिरावट आने लगी है; यह कम उत्पादन लागत के कारण नहीं, बल्कि कम मांग के कारण है। जैसा कि भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने नोट किया है, 2019 में भारत के उद्योग क्षेत्र में कैपैसिटी उपयोग (क्षमता के उपयोग) 68% पर ऐतिहासिक निम्न स्तर पर पहुँच गया है। भारतीय उद्योग अभी जहां खड़ी है वहाँ से बड़े पैमाने पर अपस्फीति नज़र आ रही है।

भारत के चालू खाते में हो रहा घाटा ऐसी की कहानी दर्शा रहा है। यह वास्तव में घटता जा रहा है, लेकिन इसका कारण हमारे फलफूल रहे निर्यात नहीं हैं। वास्तव में, निर्यात पिछले छह वर्षों से बिलकुल सपाट रहे हैं और पिछले तीन महीनों में इनमें गिरावट भी आई है। परंतु आयात में बहुत तेज़ी से गिरावट आई है। ऐसा सही तब होता है जब घरेलू उत्पाद कम आयात से पैदा होने वाली खाली जगह पर कब्जा कर पाए, लेकिन औद्योगिक उत्पादन के आंकड़ों से ऐसा होने का कोई संकेत नहीं मिल रहा है। निष्कर्ष, निश्चित रूप से कमजोर घरेलू मांग का एक और सूचक है।

सरकार द्वारा रिपोर्ट किया गया केंद्र का राजकोषीय घाटा (सकल घरेलू उत्पाद का 3.5%) निश्चित रूप से कम है, लेकिन दुर्भाग्य से इसमे भी सच्चाई कोई छुपाने की कोशिश की गयी है। जैसा की भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) ने रिपोर्ट किया है।  असल में 2017-18 में राजकोषीय घाटा 3.5% नहीं, बल्कि 5.8% था और अब भी उसके कुछ वैसे हीं होने की  भारी संभावना है। आखिर हो क्या रहा है? इसका संक्षिप्त में एक हीं जवाब दिया जा सकता है कि सरकार अपने बिलों का भुगतान नहीं कर रही है। चूंकि सरकार के खाते नकद के आधार पर बनाए जाते हैं, अगर कोई भुगतान न हो तो उसे ‘नहीं किए हुए व्यय’ की तरह माना जाता है। यह सरकार और उसकी बजटीय संख्या के लिए अनुकूल है, परंतु उनका क्या जिनके पैसे बकाया हैं? जैसे कि राज्य,केंद्र शासित प्रदेश, आपूर्तिकर्ता और विक्रेता, सब्सिडि ग्रहण करने वाले इत्यादि। उनके बजट तो उथल-पुथल हुए पड़े हैं। सरकार ने केवल अपने घाटे को उन लोगों के बैलेन्स शीट पर थोप दिया है जो इस घाटे को कम करने के लिए और भी ज्यादा असक्षम हैं।

तेज़ी से बढ़ते शेयर बाज़ार क्या दर्शा रहे हैं? यह यक़ीनन हमारे उद्योगों की मौलिक ताकत का प्रतिबिंब हैं? अफसोस की बात है कि ऐसा नहीं है। सबसे पहले यह बात जाननी ज़रूरी है कि शेयर बाज़ार लगभग 13 लाख सक्रिय कंपनियों (जो कारपोरेट कार्य मंत्रालयसे रजिस्टर्ड हैं) और 6 करोड़ अपंजीकृत गैर-प्रपत्र उद्यम में से केवल 4000 सूचीबद्ध कंपनियों की छवि दर्शाता है। इसलिए, इस बात की संभावना बहुत ज्यादा है कि बड़ी कंपनियाँ अच्छा प्रदर्शन कर रही हैं, भले हीं बाकी गहरी उदासी में हैं। दूसरा, भारतीय शेयर बाज़ार में एफ़आईआई निवेश संबंधित कंपनियों के निरपेक्ष प्रदर्शन से उतना निर्धारित नहीं होते, जितना अपने वैश्विक साथियों की तुलना में भारतीय कंपनियों की सापेक्षिक प्रदर्शन से होते हैं। अंत में, पिछले लगभग एक साल में आरबीआई ने आक्रामक रूप से ओपन-मार्केट ऑपरेशन्स (ओएमओ) के माध्यम से अर्थव्यवस्था में भारी मात्रा में तरलता को बढ़ाया है। इसमें से अधिकांश निवेश बैंकों और गैर-बैंक वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) में अपनी जगह नहीं बना पाई है, इसकी बजाय यह शेयर बाजार के सट्टा गतिविधियों में चली गयी हैं। अतः हम जो देख रहे हैं, वह एक संभावित स्थिर झूठ है ना कि भारतीय कंपनियों की ताकत का पुष्टीकरण।

यदि इन दो कथनों का यह अंतर केवल एक आसान सा सार्वजनिक मुद्दा होता तो शायद यह मायने नहीं रखता। दुर्भाग्य से, मंदी को लेकर सरकार की नीति प्रतिक्रिया पूरी तरह से उनके खुद के कथन पर आधारित हैं और दूसरे कथन को पूरी तरह से अनदेखा करती है। इसलिए उन्होने एकल-निर्देशित रूप से निवेश को पुनर्जीवित करने के लिए कंपनियों की कर कटौती करने, ब्याज दरों की कटौती करने, तरलता बढ़ाने, इत्यादि जैसे कार्य किए हैं। यह तथ्य कि उपभोक्ताओं की मांग में प्रत्यक्ष वृद्धि के बिना निवेश पुनर्जीवित नहीं हो सकता। लगता है पूरी तरह से छोड़ दिया गया है। 

लेखक परिचय: डॉ प्रणव सेन इंटरनैशनल ग्रोथ सेंटर (आई.जी.सी.) के कंट्री डाइरेक्टर हैं।

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