कृषि

पीडीएस में पसंद-आधारित विकल्प की आवश्यकता

  • Blog Post Date 17 जनवरी, 2019
  • दृष्टिकोण
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Karthik Muralidharan

University of California, San Diego

kamurali@ucsd.edu

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Paul Niehaus

University of California, San Diego

pniehaus@ucsd.edu

भारत के प्रमुख खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम (पीडीएस) पर सार्वजनिक व्यय का एक बड़ा हिस्सा अपेक्षित लाभार्थियों तक नहीं पहुंचता है। इसलिए सब्सिडी वाले अनाज के बदले डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर (डीबीटी) का विचार एक प्रमुख नीति विकल्प के रूप में उभरा है। मुरलीधरन, नीहौस, और सुखतंकर एक सरल लेकिन शक्तिशाली दृष्टिकोण की सलाह देते हैं: इसके बजाय कि नीति निर्माता पीडीएस और डीबीटी के बीच निर्णय लें, हम लाभार्थियों को यह विकल्प दे सकते हैं।

सस्ते दामों पर राशन का सार्वजनिक वितरण (पीडीएस) भारत की प्रमुख खाद्य सुरक्षा योजना है, लेकिन यह कई जानी-पहचानी समस्याओं से घिरी है। सरकारी एजेंसियों का ही आकलन है कि पीडीएस पर सरकारी खर्च का एक बड़ा हिस्सा उचित लाभार्थियों तक नहीं पहुंचता। इसके चलते, एक विकल्प सामने आया कि क्यों न इस सब्सिडी युक्त अनाज की जगह लाभार्थियों को (खाद्य पदार्थों पर खर्च करने के लिए) सीधा पैसे भेजे जाएं? इस प्रक्रिया का नाम ‘सीधा लाभ हस्तांतरण’ यानी डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर (डीबीटी) है। खुद प्रधानमंत्री का सुझाव है कि पीडीएस के बदले हमें डीबीटी पर आगे बढ़ना चाहिए।

डीबीटी के कुछ फायदे बिल्कुल साफ हैं। हर महीने बैंक खातों में पैसे भेजने से प्रशासनिक लागत में कमी आएगी और इसकी समस्याएं थम सकेंगी। साथ ही लाभार्थियों को अपनी पसंद का अनाज खरीदने का विकल्प भी मिल सकेगा। हालांकि डीबीटी में कुछ जोखिम भी हैं। मसलन, डीबीटी को सोच-समझकर लागू न करने से लाभार्थियों की दशा और खराब हो सकती है। खासकर, बैंक खाते में डाली गई रकम यदि खाद्यान्न की खुदरा कीमत और महंगाई के अनुरूप न हुई, तो वे पैसे अपर्याप्त साबित हो सकते हैं। एक मुश्किल यह भी है कि बैंक, एटीएम और बाजार की पहुंच हर जगह एक जैसी नहीं है। फिर, नकद पैसे का उपयोग लाभार्थी उन गैर-खाद्य वस्तुओं के लिए भी कर सकता है, जो उसकी वरीयता में होगी। जाहिर है, यह कोशिश खाद्य सुरक्षा और पोषण के लक्ष्य को प्रभावित कर सकती है।

इन तमाम मसलों को हमने उन तीन केंद्र शासित क्षेत्रों (चंडीगढ़, पुडुचेरी और दादर-नागर हवेली) में परखने की कोशिश की, जहां पिछले कुछ वर्षों में बतौर पायलट प्रोजेक्ट इसको शुरू किया गया है। हमने 6,000 से अधिक परिवारों पर तीन दौर के सर्वेक्षण किए। इसका जो पहला नतीजा निकला, वह यह है कि डीबीटी का क्रियान्वयन बदलते समय के साथ बेशक सुधरा है, लेकिन लागू होने के 18 महीने बाद भी चुनौती बनी हुई है।

सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 99 प्रतिशत से अधिक लाभार्थियों को सफलतापूर्वक पैसे ट्रांसफर किए गए, मगर सर्वे के दौरान 20 प्रतिशत परिवारों ने तय समय पर डीबीटी मिलने से इनकार किया। इसकी वजह यह थी कि पैसे उन बैंक खातों में नहीं आ रहे थे, जो वे लगातार इस्तेमाल कर रहे थे। पासबुक भी अपडेट नहीं हो रही थी। इसी कारण, डीबीटी में ‘लीकेज’ के भले ही कोई सुबूत हमें नहीं मिले, मगर कुछ हद तक लोगों को इसका लाभ लेने में मुश्किलें आ रही थीं।

दूसरा नतीजा यह है कि लाभार्थियों के लिए इसकी लागत अलग-अलग थी। जो एटीएम का इस्तेमाल कर रहे थे, उनका पीडीएस के मुकाबले नकद पाने और बाजार जाकर अनाज खरीदने में समय और धन कम खर्च हो रहा था, जबकि जो लाभार्थी पैसे निकालने के लिए बैंक में जाते थे, उन्हें ज्यादा समय और पैसे खर्च करने पड़ रहे थे। हालांकि लाभार्थियों ने पीडीएस की समान मात्रा में अनाज खरीदने के लिए डीबीटी राशि से अधिक पैसे खर्च किए; मगर उन्होंने बेहतर गुणवत्ता वाला अनाज खरीदा।
आखिरी निष्कर्ष यह है कि वक्त बीतने के साथ-साथ लाभार्थियों ने पीडीएस के मुकाबले डीबीटी को पसंद करना शुरू किया। पहले दौर का सर्वे इस योजना के शुरू होने के छह महीने में किया गया था। इसमें दो-तिहाई लाभार्थियों ने डीबीटी की जगह पीडीएस को पसंद किया। मगर तीसरे दौर के सर्वे में 18 महीने बाद) यह आंकड़ा उलट गया और दो-तिहाई डीबीटी को पसंद करने लगे। इसका मुख्य कारण था, पसंद का विकल्प मिलना, लचीलापन, और बेहतर गुणवत्ता के अनाज। हालांकि, पीडीएस को पसंद करने वालों ने यह भी बताया कि उन्हें कम कीमत में अधिक अनाज मिल रहा है।

ये नतीजे बताते हैं कि पीडीएस में डीबीटी इतना जटिल नीतिगत सवाल क्यों है? समय के साथ, जैसे-जैसे डीबीटी का संचालन बेहतर होने लगा, वैसे-वैसे लाभार्थी इसकी तरफ आकर्षित हो रहे थे। मगर शुरुआती तौर पर लोगों ने इसका विरोध किया था, इसीलिए जबरन सरकारी आदेश से इसे लागू करना अनैतिक और राजनीतिक रूप से नुकसानदेह होगा। इसके अलावा, दोनों विकल्पों का अनुभव होने के बाद भी लाभार्थियों में काफी अंतर है, जो डीबीटी के तमाम साझेदारों के बीच असहमतियां बना सकता हैं। ऐसे में, सवाल यह है कि हमें कैसे आगे बढ़ना चाहिए?

हमारी एक साधारण, मगर असरदार सलाह है। हमारे नीति-निर्माता पीडीएस और डीबीटी में से खुद किसी एक को न चुनें, बल्कि यह अधिकार लाभार्थियों को दे दें। यह संभव भी है, क्योंकि अब पीडीएस में ई-पीओएस यानी स्वाइप मशीनें लगाई जा रही हैं। लाभार्थियों की पसंद को इन मशीनों में दर्ज किया जा सकता है और डीबीटी या अनाज का वितरण उसी पसंद के अनुसार हर महीने हो सकता है। पैसे घर की महिला सदस्य के खाते में जमा किए जा सकते हैं, ताकि इसके उपयोग में उसकी पर्याप्त भागीदारी रहे।

पसंद-आधारित यह विकल्प इस सच को जाहिर करता है कि विभिन्न इलाकों में रहने वाले लोगों की जरूरतें अलग-अलग होती हैं, और वे अपने विकल्प का विस्तार करके लाभ का दायरा बढ़ा सकते हैं। यह उन सियासी और नैतिक चुनौतियों को भी कम कर सकता है, जो इस सुधार की राह में कायम हैं। और फिर, डीबीटी की उपलब्धता मौजूदा पीडीएस को सुधारने में भी मदद कर सकती है, क्योंकि लाभार्थियों का भरोसा बनाए रखने के लिए पीडीएस को लोगों की उम्मीदों पर खरा उतरना होगा। इसके अलावा, अन्य अनाजों या उत्पादों को स्टॉक करने की अनुमति देकर पीडीएस डीलर की आर्थिक सेहत भी सुधारी जा सकती है, ताकि उनके लिए कमाई का एकमात्र जरिया पीडीएस न रहे।

बहरहाल, अनाज के उपभोग और पोषण पर इस पसंद-आधारित नई व्यवस्था के प्रभाव को मापने के लिए इसके लाभार्थियों का सावधानी से मूल्यांकन किया जाना चाहिए। फिलहाल हम यह काम महाराष्ट्र सरकार के साथ मिलकर मुंबई में पायलट परियोजना के तौर पर कर रहे हैं। इसे दूसरे राज्यों में भी शुरू किया जा सकता है। हमारी कोशिश यह होनी चाहिए कि हम अधिक विकल्पों के साथ वंचित तबकों को सशक्त बनाएं और समाज के सबसे कमजोर सदस्यों की भी रक्षा करें। पसंद-आधारित यह विकल्प ऐसा करने में सक्षम है।

यह लेख पहले हिंदुस्तान में प्रकाशित हुआ था।

लेखक परिचय: कार्तिक मुरलीधरन यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया, सैन डीएगो में टाटा चांसलर'स प्रोफेसर ऑफ़ इकनॉमिक्स हैं। पॉल नीहौस यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया, सैन डीएगो में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। संदीप सुखतंकर यूनिवर्सिटी ऑफ़ वर्जिनिया में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।

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