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भारत में पार्टी प्राथमिकताएं और रणनीतिक मतदान

  • Blog Post Date 03 नवंबर, 2022
  • लेख
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Oliver Heath

Royal Holloway, University of London

Oliver.Heath@rhul.ac.uk

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Adam Ziegfeld

Temple University

awz@temple.edu

अपने निर्वाचन क्षेत्र में चुनाव परिणामों का सटीक अंदाजा लगाने हेतु ठोस जानकारी उपलब्ध होने के कारण कई मतदाता मानते हैं कि उनका पसंदीदा उम्मीदवार जीत जाएगा। वर्ष 2017 में उत्तर-प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव के दौरान की मतदाता वरीयताओं को देखते हुए, इस लेख में पता चलता है कि बहुत कम भारतीय 'रणनीतिक मतदाता' हैं। बजाय इसके, परिणाम दर्शाते हैं कि बहुत कम मतदाताओं का मानना था कि उन्हें अपनी पसंदीदा पार्टी के जीतने की उम्मीद थी, इसलिए वे रणनीतिक रूप से मतदान करने की स्थिति में थे।

अधिकांश भारतीय मतदाताओं के पास चुनाव के समय अपना उम्मीदवार चुनने के कई विकल्प होते हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में, एक निर्वाचन क्षेत्र में उम्मीदवारों की औसत संख्या 13 थी | तथापि, इनमें से अधिकांश उम्मीदवारों के जीतने की कोई संभावना नहीं होने की वजह से कई भारतीयों को यह तय करना था कि रणनीतिक रूप से मतदान करना है या नहीं: अर्थात, अपनी सबसे कम पसंदीदा पार्टी की हार सुनिश्चित करने के प्रयास में अपने पसंदीदा उम्मीदवार को छोड़कर एक ऐसे उम्मीदवार को वोट देना जिसके जीतने की संभावना अधिक है। उदाहरण के तौर पर, पारंपरिक सोच से पता चलता है कि भारत के मुसलमान विशेष रूप से रणनीतिक रूप से मतदान करने की संभावना रखते हैं, और ऐसी किसी पार्टी को मतदान कर सकते हैं जो भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को हराने की सबसे अधिक संभावना रखती हो (देखें रूडोल्फ एवं रूडोल्फ 1987, हीथ एवं अन्य 2015)। आम तौर पर, यह विचार अक्सर पत्रकारिता के विवरणों में मिलता है।

क्या भारतीय बड़ी संख्या में रणनीतिक मतदाता हैं? या क्या उनमें से ज्यादातर अपनी पसंदीदा पार्टी के साथ बने रहते हैं, जिसका हारना तय हो? इस तरह के प्रश्न इस बात के लिए मायने रखते हैं कि हम मतदाताओं द्वारा दिए गए चुनावी फैसलों को कैसे समझते हैं, और चुनाव परिणाम किस हद तक मतदाताओं की अंतर्निहित प्राथमिकताओं को दर्शाते हैं। इस तरह के सवालों के जवाब इस बात पर भी प्रकाश डाल सकते हैं कि क्या और किस प्रकार से पक्षपातपूर्ण वफादारी भारतीय मतदाता के व्यवहार को आकार देती है।

भारत में रणनीतिक मतदान

विद्वानों ने लंबे समय से अन्य देशों में हो रहे रणनीतिक मतदान का अध्ययन किया है, जो भारत की तरह, अपने विधायिकाओं का चुनाव करते समय फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट नियमों1 को अपनाते हैं। हालाँकि, हम भारत में होते आये रणनीतिक मतदान के बारे में बहुत कम जानते हैं। काफी पहले. शोध में यह मान लिया गया है कि जब किसी निर्वाचन क्षेत्र में बहुदलीय चुनावी स्पर्धा में अधिकांश वोट दो प्रमुख उम्मीदवारों को ही मिलते हैं, तो इसका मतलब कई मतदाताओं ने रणनीतिक रूप से अपने पसंदीदा उम्मीदवार को इस स्पर्धा में नेता के रूप में या सबसे आगे चलने वाले उम्मीदवार को हराने हेतु सबसे उपयुक्त उम्मीदवार के रूप में नहीं माना है। लेकिन, केवल चुनाव परिणामों के आधार पर, यह जानना असंभव है कि क्या कई लोगों ने रणनीतिक रूप से मतदान किया है या यदि संबंधित निर्वाचन क्षेत्र में केवल दो प्रमुख उम्मीदवारों को पसंद किया गया है।

हमने भारत में रणनीतिक मतदान की मात्रा को मापने के लिए, वर्ष 2017 के उत्तर-प्रदेश विधानसभा चुनाव (हीथ एवं ज़िगफेल्ड 2022) के दौरान 66 निर्वाचन क्षेत्रों के 3,600 से अधिक मतदाताओं का सर्वेक्षण किया। इस सर्वेक्षण में, यह सुनिश्चित करते हुए कि जब उन्होंने हमारे सवालों का जवाब दिया तो उन्हें परिणाम के बारे में पता नहीं था, चुनाव में मतदान करने के बाद और चुनाव परिणाम घोषित होने के पूर्व उत्तरदाताओं से संपर्क किया गया।

कुल मिलाकर, हमने पाया कि लगभग 1% मतदाता 'रणनीतिक मतदाता' थे। हमने इन रणनीतिक मतदाताओं की पहचान निम्नलिखित चार मानदंडों को पूरा करने वाले उत्तरदाताओं के रूप में की:

  1. उन्होंने अन्य सभी पार्टियों की तुलना में केवल किसी एक पार्टी के लिए स्पष्ट वरीयता व्यक्त की। कई मतदाताओं की कोई एक मजबूत अंतर्निहित पार्टी वरीयता नहीं होती है जिसके जरिये उनको रणनीतिक कारणों से अलग किया जा सके।
  2. उनकी पसंदीदा पार्टी ने उत्तरदाताओं के निर्वाचन क्षेत्र में एक उम्मीदवार को मैदान में उतारा। कई मतदाता ऐसे निर्वाचन क्षेत्रों में रहते हैं जहां उनकी पसंदीदा पार्टी का बोलबाला इसलिए उस क्षेत्र में नहीं है, कि अक्सर उनकी पार्टी किसी अन्य पार्टी के साथ गठबंधन में है (जैसे कि उन निर्वाचन क्षेत्रों में जहां भाजपा या समाजवादी पार्टी (सपा) ने सहयोगी दलों के साथ गठबंधन किया था)। ऐसे मतदाता अपनी पसंदीदा पार्टी के अलावा किसी अन्य पार्टी को मतदान करते हैं, लेकिन रणनीतिक कारणों से नहीं।
  3. इन मतदाताओं को यह विश्वास नहीं था कि उनकी पसंदीदा पार्टी पहले या दूसरे स्थान पर आएगी। यदि मतदाता यह मानता है कि उसकी पसंदीदा पार्टी जीतने की दौड़ में है, तो रणनीतिक रूप से उसे छोड़ने का कोई कारण नहीं है।
  4. इसके बजाय इन मतदाताओं ने उस पार्टी को वोट दिया जिसकी उन्हें पहले या दूसरे स्थान पर आने की उम्मीद थी। मतदाता यदि अपनी पसंदीदा पार्टी के हार जाने की प्रत्याशा में भी उसी को मतदान करते हैं या यदि वे किसी ऐसी अन्य पार्टी को वोट देते हैं जिसके हार जाने की वे उम्मीद करते हैं, तो वे रणनीतिक मतदाता नहीं हैं।

संक्षेप में, इस चुनाव में कुछ मतदाताओं ने रणनीतिक रूप से मतदान किया। फिर भी, चूँकि यह भाजपा (और उसके छोटे सहयोगियों), बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और सपा-कांग्रेस गठबंधन के बीच लड़ी गई त्रि-पक्षीय स्पर्धा थी, संभावित रणनीतिक मतदाताओं की संख्या बहुत बड़ी थी। मोटे तौर पर दो-दलीय राज्यों के विपरीत, उत्तर प्रदेश जैसे बहुदलीय राज्य में अधिकांश निर्वाचन क्षेत्रों में बड़ी संख्या में मतदाता होने चाहिए जो किसी एक प्रमुख पार्टी या गठबंधन का समर्थन करते हों, फिर भी उस विशेष चुनावी स्पर्धा में उसके जीतने की बहुत संभावना नहीं है। अधिक मतदाताओं ने रणनीतिक रूप से मतदान क्यों नहीं किया?

पार्टी की धारणा मतदान को किस प्रकार से प्रभावित करती है

सीधे शब्दों में कहें तो, बहुत कम मतदाताओं ने खुद को रणनीतिक रूप से मतदान करने की स्थिति में पाया क्योंकि लगभग सभी (93% उत्तरदाताओं) का मानना था कि उनकी पसंदीदा पार्टी के या तो जीतने की संभावना थी या दूसरे स्थान पर (4% उत्तरदाताओं) आने की संभावना थी। यदि लगता है कि अपनी पसंदीदा पार्टी जीतने जा रही है तो उसे क्यों छोड़ दें? हालांकि, बहुत कम मतदाताओं ने अपने निर्वाचन क्षेत्र में चुनावी दौड़ के परिणाम का  सटीक अंदाजा लगाया। इसके बजाय, अधिकांश जिन्होंने यह संकेत दिया कि वे किसी विशेष पार्टी को अपना मानते हैं या उसे बहुत पसंद करते हैं, उनका मानना था कि उनकी पार्टी के जीतने की संभावना थी। मतदाता द्वारा किसी पार्टी को ज्यादा पसंद नहीं किए जाने की स्थिति में, उस पार्टी (अतीत या भविष्य) के प्रदर्शन के वस्तुनिष्ठ उपायों से उनके निर्वाचन क्षेत्र में जीत की संभावना के बारे में उनके विश्वासों की जानकारी मिलती थी। कुछ मायनों में, ये निष्कर्ष आश्चर्यजनक नहीं हैं- आखिरकार, हम सभी को यह उम्मीद रहती है कि हम जिस पार्टी को पसंद करते हैं वह जीत जाएगी। इसके अतिरिक्त, भारत की काफी अस्थिर पार्टी प्रणाली और उच्च-गुणवत्ता वाले निर्वाचन क्षेत्र-स्तरीय जनमत सर्वेक्षणों की अनुपलब्धता के बीच, मतदाताओं को शायद ही कभी निश्चयात्मक जानकारी का सामना करना पड़ता है जिससे यह पता चलता हो कि उनके पसंदीदा पार्टी के उम्मीदवार का हारना निश्चित है। हमें संदेह है कि ऐसी जानकारी के बिना, मतदाता लगातार यह अनुमान लगाते हैं कि उनका पसंदीदा उम्मीदवार जीत जाएगा।

संक्षेप में, कई भारतीयों की पार्टी संबंधी वरीयताएँ उनके विश्वासों को कायम करती हैं कि उनके निर्वाचन क्षेत्रों में चुनाव कैसे होंगे। मतदाता जब किसी पार्टी को पसंद करते हैं, तो वे उसकी जीत की उम्मीद करते हैं। इसलिए रणनीतिक मतदान चिंता का विषय नहीं है। एक आकर्षक असमता यह है कि, बहुत कम संख्या में उत्तरदाताओं, जो यह मानते थे कि उनकी पसंदीदा पार्टी के हारने की संभावना है, में से आधे से अधिक ने रणनीतिक रूप से मतदान किया- यह एक ऐसी संख्या है जो अन्य देशों के अनुमानों से कहीं अधिक है। मतलब, यदि मतदाताओं को इस बात की बेहतर समझ थी कि उनके निर्वाचन क्षेत्र में कौन जीत और कौन हार सकता है, तो हमें रणनीतिक मतदान की बहुत उच्च दर दिखाई देती। यह दिलचस्प है, और पारंपरिक सोच के अनुरूप, हम पाते हैं कि यूपी में रणनीतिक मतदाता अनुपातहीन रूप से मुस्लिम थे।

निष्कर्ष

भारत से संबंधित हमारे आंकड़े दुनिया के अन्य हिस्सों में किए गए इसी तरह के अध्ययनों से सामने आए आंकड़ों से बहुत अलग स्थिति दर्शाते हैं। एक प्रमुख अंतर में रणनीतिक मतदान की घटना शामिल है। विद्वान पाते हैं कि कनाडा और यूनाइटेड किंगडम जैसे स्थानों में कुल मिलाकर, रणनीतिक मतदान अधिक सामान्य है। दूसरा बड़ा अंतर उस भूमिका में निहित है जो पार्टी के प्रति वफादारी मतदाताओं को रणनीतिक रूप से मतदान करने से रोकने में निभाती है। कई अन्य देशों में, कहीं अधिक मतदाताओं को ऐसा लगता है कि उनकी पसंदीदा पार्टी हारने वाली है, फिर भी वे उसे ही वोट देंगे। इन स्थानों पर, पक्षपातपूर्ण प्राथमिकताएं मतदाताओं को निश्चित हार के बावजूद भी अपनी पार्टी के प्रति वफादार रहने के लिए प्रेरित करके मतदान व्यवहार को अंजाम देती हैं। इसके विपरीत, यूपी में पार्टी के प्रति वफादारी एक अलग कारण से मायने रखती है क्योंकि यह मतदाताओं के विचारों को कायम करती है कि चुनाव में कौन-सी पार्टियां प्रतिस्पर्धी हैं।

बेशक, हमारे निष्कर्ष एक राज्य में एक चुनाव को ही दर्शाते हैं, और विभिन्न संदर्भों में उनकी सामान्यता को सत्यापित करने हेतु हमारे द्वारा किए गए इस अध्ययन जैसे अध्ययनों को दोहराया जाना चाहिए। हालांकि, हमारे पास यह मानने का कोई कारण नहीं है कि हमारे निष्कर्ष उत्तर प्रदेश या इस विशेष चुनाव के लिए अद्वितीय होने चाहिए। हम नहीं मानते कि यह एक ऐसा चुनाव था जिसमें प्रमुख उम्मीदवारों की पहचान करना असामान्य रूप से कठिन होना चाहिए था। इस चुनाव में सक्रिय मुख्य दल बीस वर्षों से अधिक समय से राज्य के प्रमुख राजनीतिक दल रहे हैं, और तीन सबसे बड़े दल (भाजपा, बसपा और सपा) कुछ जाति समूहों को अनुपातहीन रूप से आकर्षित करने के लिए जाने जाते हैं (अधिक विवरण के लिए, अन्य में से चंद्रा और परमार 1996, वर्मा 2004, जेफ्रीलॉट और वर्नियर्स 2012, देखें), इससे संभावित रूप से चुनावी स्पर्धा में संभावित नेताओं की पहचान करने हेतु, मतदाता जाति और धार्मिक अंकगणित का उपयोग कर पाते हैं। इसके अलावा, 2014 के पिछले लोकसभा चुनाव में उत्तर-प्रदेश में भाजपा की शानदार जीत से मतदाताओं को प्रमुख उम्मीदवारों की पहचान करने में मदद मिलनी चाहिए थी। यदि इस चुनाव में मतदाता यह अनुमान नहीं लगा सके कि उनके निर्वाचन क्षेत्र में उनकी पसंदीदा पार्टी के हार जाने की संभावना है, तो यह जरूरी नहीं कि अन्य बहुदलीय भारतीय राज्यों में मतदाताओं को बेहतर प्रदर्शन क्यों करना चाहिए।

अंततः, यदि पूरे भारत के मतदाता उत्तर-प्रदेश के मतदाताओं की तरह ही हैं, तो उनमें से कुछ मतदाता रणनीतिक रूप से अपने पसंदीदा उम्मीदवारों को समर्थन करने के बजाय उन उम्मीदवारों के पक्ष में रहेंगे जिनके जीतने की संभावना अधिक है। उनके निर्णय उनकी पार्टी के समर्थन में उतने सैद्धांतिक नहीं हैं, जितने कि चुनाव परिणामों की भविष्यवाणी से जुड़ी कठिनाई के प्रतिबिंब हैं। परिणामस्वरूप, चुनाव के दिन प्राप्त परिणाम आश्चर्यजनक रूप से कम रणनीतिक व्यवहार को दर्शाते हैं।

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टिप्पणी:

  1. फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट सिस्टम एक बहुलता मतदान पद्धति है, बहुलता का अर्थ है पूरे भाग का सबसे बड़ा हिस्सा। यहां सबसे अधिक मतों वाला उम्मीदवार चुना जाता है (लेकिन जरूरी नहीं कि बहुमत हो)।

लेखक परिचय: ओलिवर हीथ लंदन युनिवर्सिटी के रॉयल होलोवे में राजनीति के प्रोफेसर और लोकतंत्र और चुनाव केंद्र के सह-निदेशक हैं। एडम ज़िगफेल्ड टेम्पल यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।

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