भारत में हाल के वर्षों में औद्योगिक और वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों में आग और विस्फोट से संबंधित गंभीर दुर्घटनाओं में वृद्धि देखी गई है। इस पोस्ट में, आर. नागराज ने तर्क दिया है कि विश्व बैंक के ‘व्यापार करने में आसानी’ से संबंधित वैश्विक सूचकांक में भारत की रैंक को बढ़ाने के लिए औद्योगिक श्रम और संरक्षा विनियमों में ढ़ील देना या बल्कि उन्हें प्रभावी रूप से समाप्त कर देना इसका प्रमुख कारण हो सकता है।
25 मार्च 2021 को, मुंबई के एक उपनगरीय इलाके में एक वाणिज्यिक मॉल की तीसरी मंजिल पर स्थित कोविड-19 अस्पताल में आग लग गई, जिसके कारण 11 मरीजों की मौत हो गई। ऐसा बताया गया कि इस आग पर काबू पाने में 14 दमकलों और पानी के 10 जंबो टैंकरों के साथ 24 घंटे से भी ज्यादा समय लगा। आग लगने के कारणों का अभी तक पता नहीं चला है। अक्टूबर 2020 में, इसी इलाके में ऐसी ही एक कोविड-19 सुविधा में, आग लगने के कारण दो मरीजों की मौत हो गई। पिछले दो वर्षों में, भारत के औद्योगिक और वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों में आग और विस्फोट से संबंधित गंभीर दुर्घटनाओं में वृद्धि देखी गई है, जिसने संरक्षा से संबंधित मामलों में भारत के खराब रिकॉर्ड को उजागर किया है।
आइए हम कुछ भयावह दुर्घटनाओं को याद करते हैं। 21 जनवरी 2021 को, पुणे के सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया, जोकि भारत की कोविशील्ड टीका बनाने की एकमात्र सुविधा है, में आग लग गई जिसने पांच श्रमिकों की जान ले ली और इसकी मशीनरी को भारी नुकसान पहुंचा। 7 मई 2020 को विशाखापत्तनम में एलजी पॉलिमर केमिकल फैक्ट्री में एक जहरीली गैस का रिसाव, नेवेली लिग्नाइट कॉरपोरेशन में थर्मल पावर प्लांट के बॉयलर में 7 मई को और फिर 1 जुलाई 2020 को विस्फोट, गुजरात के दाहेज में यशश्री रसायन प्राइवेट लिमिटेड में 3 जून 2020 को एक अन्य बॉयलर विस्फोट, कुछ प्रमुख औद्योगिक दुर्घटनाओं में से हैं। पिछले साल जनवरी से अगस्त तक, भारत में 25 गंभीर औद्योगिक दुर्घटनाएं हुईं जिनमें 120 लोग मारे गए और कई घायल हुए।
मार्च 2021 में, केंद्रीय श्रम मंत्रालय ने संसद को सूचित किया कि कारखानों, बंदरगाहों और निर्माण स्थलों पर काम करने के दौरान पिछले पांच वर्षों में कम से कम 6,500 श्रमिकों ने अपनी जान गंवाई। हो सकता है कि आधिकारिक एजेंसियों द्वारा जानमाल के नुकसान को वास्तविकता से कम करके आंका गया हो क्योंकि वे ज्यादातर छोटे कारखानों और कार्यस्थलों पर हुई दुर्घटनाओं को दर्ज करने में असफल रहती हैं। इसकी प्रतिक्रियास्वरूप, मंत्रालय ने बढ़ती दुर्घटनाओं के कारणों की जांच करने और निवारक उपाय सुझाने के लिए अप्रैल 2021 में तीन विशेषज्ञ पैनल गठित किए हैं।
कोई भी आलोचक यह व्यंग्य कर सकता है कि दुर्घटनाओं की आधिकारिक प्रतिक्रिया का आसानी से पूर्वानुमान लगाया जा सकता है। उन्हें जल्द ही भुला दिया जाता है, और केवल अधिक गंभीर आपदाओं को ही याद रखा जाता है।1 अक्सर न तो नियोक्ताओं पर और न ही संबंधित सरकारी प्राधिकारियों पर ड्यूटी के प्रति लापरवाही की जवाबदेही तय की जाती है तथा ढ़ीले-ढ़ाले विनियमों और चूक, अपर्याप्त और पुराने उपकरण, और मानवीय भूल को प्रमुख कारणों के रूप में बता दिया जाता है।
नियामक वातावरण में परिवर्तन
इस स्पष्ट बढ़ोतरी का कारण क्या हो सकता है? हालांकि इसके सामान्य स्पष्टीकरण भी ठीक हो सकते हैं परंतु उनमें संभवतया हाल के वर्षों में निर्मित किए गए नियामक वातावरण में उन महत्वपूर्ण बदलावों को अनदेखा कर दिया जाता है जिन्होंने शायद इस समस्या को बढ़ाने में योगदान दिया है। मेरा मानना है कि शायद विश्व बैंक के ‘व्यापार करने में आसानी’ (ईडीबी) से संबंधित वैश्विक सूचकांक में भारत की रैंक को बढ़ाने के लिए औद्योगिक श्रम और संरक्षा विनियमों में ढ़ील देना या बल्कि उन्हें प्रभावी रूप से समाप्त कर देना इसका प्रमुख कारण हो सकता है।
2015 में, नव-निर्वाचित सरकार ने वर्ष 2022 तक जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) में विनिर्माण क्षेत्र की हिस्सेदारी को 25% तक बढ़ाने और उद्योगों में 100 मिलियन अतिरिक्त नौकरियों का सृजन करने के राष्ट्रीय लक्ष्य को पाने के लिए ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम शुरू करते हुए औद्योगिक गतिरोध की समस्या को दूर करना चाहा। निश्चित रूप से, इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए निवेश में बड़े पैमाने पर कदम उठाने की आवश्यकता है, जिसके बारे में नीति निर्माताओं का मानना है कि इसे मुख्य रूप से विदेशी पूंजी से अर्जित किया जा सकता है। नीति निर्माताओं को लगता है कि वैश्विक फर्मों को निवेश के लिए लुभाने हेतु भारत को ईडीबी सूचकांक में अपनी रैंक बढ़ाने की जरूरत है। इसलिए, केंद्र सरकार और इसके विशेषज्ञ दल यानि नीति आयोग ने अपनी वैश्विक स्थिति में सुधार करने पर पूरा ध्यान केंद्रित किया। ‘मेक इन इंडिया’ की आधिकारिक वेबसाइट दावा करती है: "भारत, आज व्यापार करने में आसानी (ईओडीबी) के मामले में शीर्ष 100 क्लब का हिस्सा है। भारत में 2014-15 में एफडीआई अंतर्वाह 4515 करोड़ डॉलर था और तब से इसमें लगातार बढ़ोतरी हुई है। इसके अलावा, कुल एफडीआई अंतर्वाह में 55% की वृद्धि हुई है यानि यह 2008-14 में 23137 करोड़ डॉलर से बढ़कर 2014-20 में 35829 करोड़ डॉलर हो गई है और एफडीआई इक्विटी अंतर्वाह में भी 57% की वृद्धि हुई है यानि यह 2008-14 के दौरान 16046 करोड़ डॉलर से बढ़ कर 25242 करोड़ डॉलर (2014-20) हो गई है"।
ईडीबी सूचकांक में अंतर्निहित विचार सरल है। फर्मों के लिए अत्यधिक नियमों और श्रमिकों को रोजगार देने की शर्तों के कारण अर्थव्यवस्थाएं खराब प्रदर्शन करती हैं, और व्यवसायों को अपने उत्पादन को बाजार की स्थितियों के अनुरूप बनाने के लिए उनकी स्वतंत्रता को सीमित कर देती हैं। नीति निर्माताओं का मानना है कि भारत के श्रम कानून दुनिया में सबसे कठोर हैं जिसे आमतौर पर श्रम निरीक्षण प्रणाली के मिसाल के रूप मे "इंस्पेक्टर राज" कहा जाता है। नियोक्ता और प्रबंधक अक्सर शिकायत करते हैं कि निरीक्षण प्रणाली में काफी ध्यान देना पड़ता है और यह भ्रष्टाचार की जड़ है।2 यह संभावित निवेशकों दूर करते हुए, उद्यमशीलता की भावना को हतोत्साहित करती है। क्योंकि उद्यम के आकार के साथ नियमन का बोझ बढ़ता जाता है, फर्म अक्सर छोटी ही बने रहना चाहती हैं, और इस प्रकार वे उत्पादन में बड़े पैमाने की किफायतों का लाभ नहीं उठा पाती हैं।3 इसलिए, फर्मों का आकार बड़ा नहीं होता और वे वैश्विक स्तर के संगठन बनने में विफल हो जाती हैं।
इसलिए, 2015 में, देश में व्यापार को आसान बनाने के लिए, केंद्र सरकार ने औद्योगिक सुरक्षा कानूनों जैसे कि बॉयलर अधिनियम, 1923 और भारतीय बॉयलर विनियमन, 1950, जोकि विनिर्माण क्षेत्र में महत्वपूर्ण कानून थे, को व्यावहारिक रूप से समाप्त कर दिया। इससे पहले, कानूनन यह आवश्यक होता था कि बॉयलर निरीक्षक समय-समय पर कारखानों का निरीक्षण करे और बॉयलरों की संरक्षा को प्रमाणित करे। इस कार्य को तीसरे पक्ष एजेंटों के ऐसे विशेषज्ञ को स्थानांतरित किया गया जिनके पास अपेक्षित विशेषज्ञता होती थी। इन सुधारों ने कारखाना अधिनियम, 1948, जोकि श्रम विनियमन संरचना की आधारशिला थी, के तहत अनुपालन की आवश्यकता को भी बदल दिया। सरकारी निरीक्षकों द्वारा अनिवार्य निरीक्षण के कानूनी दायित्व, जिसमें उनके पास कारखाना कानूनों का उल्लंघन करने पर मालिक/प्रबंधक को दंडित करने की शक्तियां थीं,को बदल दिया गया और इसके स्थान पर मालिक/प्रबंधक को उनके द्वारा स्व-प्रमाणन किए जाने की सुविधा प्रदान कर दी गई। इसलिए, परिवर्तित नियमों के अनुसार कारखाना निरीक्षक की भूमिका श्रमिकों के हितों की रक्षा और संरक्षा सुनिश्चित करने हेतु श्रम कानूनों को लागू करने वाले व्यक्ति के रूप में न होकर व्यापार में मदद करने वाले व्यक्ति के रूप हो गई है।
जैसा कि 23 जून, 2015 के "महाराष्ट्र राज्य में कारखानों और प्रतिष्ठानों के लिए स्व-प्रमाणन-सह-समेकित वार्षिक विवरणी योजना" नामक आधिकारिक आदेश में निम्नलिखित कहा गया है:
"[श्रम] निरीक्षकों के रूप में अपने सांविधिक कर्तव्य को निष्पादित करने के लिए ... उन्हें औद्योगिक प्रतिष्ठानों का दौरा करने की आवश्यकता है। विभिन्न प्रतिष्ठानों में नियोक्ता और कर्मचारियों के बीच बढ़ती जागरूकता के साथ, सरकार के समक्ष यह प्रस्तुत किया गया है कि नियोक्ता स्वयं अपने-अपने प्रतिष्ठानों में विभिन्न श्रम कानूनों को लागू करने की जिम्मेदारी का निर्वहन कर सकते हैं। नियोक्ता श्रम कानूनों के उचित कार्यान्वयन के तथ्य को स्व-प्रमाणित भी कर सकते हैं।
… महाराष्ट्र सरकार ने विभिन्न श्रम कानूनों के तहत आवश्यक विभिन्न अभिलेखों और रजिस्टरों के रखरखाव को सरल बनाते हुए, विभिन्न श्रम कानूनों के प्रवर्तन के लिए एक नई प्रणाली शुरू करने का निर्णय लिया है। इस प्रकार, सरकार राज्य में विभिन्न दुकानों/प्रतिष्ठानों/कारखानों के लिए एक स्व-प्रमाणन-सह-समेकित वार्षिक विवरणी योजना आरंभ करती है। इस कदम का उद्देश्य निरीक्षकों द्वारा प्रवर्तन के संबंध में किए जाने वाले दौरों को कम करना है ... और साथ ही नियोक्ताओं द्वारा विभिन्न श्रम कानूनों का अधिक प्रभावी अनुपालन सुनिश्चित करना है।"
श्रम कानून सुधार के लिए महाराष्ट्र द्वारा की गई यह पहल शीघ्र ही राष्ट्रीय स्तर पर एक आदर्श नीति बन गई। जैसा कि कई राज्य सरकारों की आधिकारिक वेबसाइटों से ज्ञात होता है कि स्व-प्रमाणन अब अधिकांश श्रम कानूनों का आदर्श वाक्य बन गया है।4 निजी एजेंसियां इन सरलीकृत श्रम नियमों का अनुपालन करने में नियोक्ताओं की सहायता के लिए तेजी से आगे आने लगीं।
श्रम विभाग की वेबसाइटों को ध्यान से देखने पर सरलीकृत प्रक्रियाओं का पता चलता है। हालांकि, वे सरलीकृत श्रम कानूनों के अनुपालन तथा नौकरियों, मजदूरी, कार्य करने की परिस्थितियों और श्रमिकों की सुरक्षा के संबंध में उनके परिणामों के बारे में जानकारी उपलब्ध नहीं कराती हैं।
दिलचस्प बात यह है कि, समाचार रिपोर्टों ने बताया कि महाराष्ट्र में बॉयलरों का तृतीय-पक्ष प्रमाणन विफल हो गया है क्योंकि किसी भी कारखाने को प्रमाणपत्र नहीं मिला है। महाराष्ट्र में किसी भी कारखाने ने स्व-प्रमाणन योजना का अनुपालन नहीं किया है। दूसरे शब्दों में, सुधारों ने श्रम और सुरक्षा नियमों को प्रभावी रूप से निष्प्रभावी कर दिया है (नागराज 2019), हालांकि यह आगे सत्यापन के अधीन है।
इसलिए, यह कहना उचित प्रतीत होता है कि हाल ही में औद्योगिक दुर्घटनाओं में वृद्धि भारत की ‘व्यापार करने में आसानी’ से संबंधित रैंकिंग को बढ़ाने के इरादे से श्रम और संरक्षा विनियमों को प्रभावी रूप से कमजोर किए जाने से जुड़ी हो सकती है। दुर्भाग्य से, ऐसा लगता है कि श्रमिक संघो (और औद्योगिक संपर्क विशेषज्ञों) ने वैश्विक पूंजी को खुश करने के लिए कानूनी प्रणाली में शुरू किए गए परिवर्तनों की गंभीरता पर पूरा ध्यान नहीं दिया है।
भारत में व्यापार करने में आसानी
वास्तव में, पूर्ववर्ती सुधार ‘व्यापार करने में आसानी’ से संबंधित वैश्विक रैंकिंग में भारत को वर्ष 2020 में 58वें स्थान पर लाने में सफल हुए हैं जोकि वर्ष 2014 में 141वें स्थान पर था। फिर भी, वे विदेशी पूंजी अंतर्वाह, या अधिक सामान्य रूप से, घरेलू पूंजी निर्माण को बढ़ाने में विफल रहे। जैसा कि आकृति 1 से पता चलता है, शुद्ध एफडीआई (विदेशी प्रत्यक्ष निवेश) अंतर्वाह जीडीपी के अनुपात के रूप में, 2013-14 में 1.1% और 2019-20 में 1.7% (बाएं हाथ के पैमाने) के बीच रहा है तथा इसमें वृद्धि का कोई रुझान नहीं दिख रहा है। इसके अलावा, जीडीपी के अनुपात के रूप में सकल नियत पूंजी निर्माण (जीएफसीएफ) या नियत निवेश, तेजी से घट गया है: 2013-14 में 31.3% से 2019-20 में 26% (दाएं हाथ का पैमाना)। जीडीपी वृद्धि के लिए निवेश की दर में अभूतपूर्व गिरावट के निहितार्थ को नजरअंदाज करना मुश्किल है। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि ‘मेक इन इंडिया’ पहल शुरू करने के छह साल बाद भी भारत का औद्योगिक ठहराव बना हुआ है।
आकृति 1. शुद्ध एफडीआई और नियत निवेश, जीडीपी के प्रतिशत के रूप में
टिप्पणियां: (i) डेटा मौजूदा कीमतों पर हैं। (ii) शुद्ध एफडीआई सकल एफडीआई अंतर्वाह में से भारत द्वारा प्रत्यावर्तन/विनिवेश तथा एफडीआई को घटाए जाने के बराबर है।
स्रोत:(i)जीडीपी और नियत निवेश डेटा आर्थिक सर्वेक्षण (2021) से लिए गए हैं। (ii) शुद्ध एफडीआई संबंधी डेटा आरबीआई की भारतीय अर्थव्यवस्था पर हैंडबुक ऑफ़ स्टैटिस्टिक्स से लिया गया है (2020)।
स्पष्टतया, ईडीबी सूचकांक में सुधार करने के उद्देश्य से श्रम और संरक्षा कानूनों को कमजोर करना न तो उच्च विदेशी पूंजी अंतर्वाह से जुड़ा है और न ही इससे घरेलू निवेश दर में सुधार हुआ है। इसलिए, यह अंतर्निहित सिद्धांत कि श्रम बाजार की कठोरता विदेशी और निजी निवेश को अवरुद्ध करने का प्रमुख कारण है, संदिग्ध है।
तो फिर ऐसा क्यों है? ईडीबी एक छद्म सूचकांक है जिसका आधार कुछ विश्लेषणात्मक और अनुभवजन्य है। विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में उच्च ईडीबी रैंकिंग और उच्च विदेशी पूंजी निवेश के बीच सांख्यिकीय रूप से मान्य कोई संबंध नहीं है। स्पष्ट करने के लिए: रूस की ईडीबी सूचकांक रैंक 2012 में 120 से 2018 में 20 तक प्रभावशाली रूप से बढ़ गई, परंतु निवेश में कोई सुधार नहीं हुआ। इसके विपरीत, चीन की रैंक 2006 से 2017 के दौरान 78 से 96 तक रही, लेकिन एफडीआई आकर्षित करने में इसका प्रदर्शन उत्कृष्ट रहा।
समापन टिप्पणी
इसलिए, किसी को भी आश्चर्य हो सकता है कि भारत की बढ़ती ईडीबी रैंकिंग ने वास्तव में क्या हासिल किया है? इसने स्पष्ट रूप से श्रम कानूनों और संरक्षा विनियमों को ध्वस्त करने में मदद की है, जिससे काम करने वाले गरीबों और उनकी आजीविका को नुकसान पहुंच रहा है तथा रोजगार और उत्पादन में कोई वृद्धि नहीं हो रही है। यह कहना कि श्रम बाजार में सुधार रोजगार और उत्पादन को सकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं अत्यधिक विवादास्पद है, क्योंकि भारतीय नीतिगत बहस इसकी गवाही दे सकती है (स्टॉर्म 2019)।
सुरक्षा विनियमों की अनिवार्य सरकारी निगरानी को समाप्त किए जाने के साथ, अब यह कोई छिपी हुई बात नहीं कि औद्योगिक और आग से संबंधित दुर्घटनाओं में तेजी से वृद्धि हुई है। श्रम सुधारों ने भारत को ‘विश्व की सर्वोत्तम कार्य पद्धतियों’ में आगे बढ़ाने में मदद करने के लिए कार्यस्थल को अधिक असंरक्षित करने के साथ भारत के गरीब श्रमिकों को ‘पुरस्कृत’ किया है।
संयोग से, यह कथित उपलब्धि उद्यमी अदूरदर्शिता को उजागर करती है। फर्म यह महसूस करने में असफल रहती हैं कि कार्यस्थल की दुर्घटनाएँ बीमा सम्बन्धी लागतों को बढ़ाती हैं। दुर्घटनाओं में कुशल श्रमिकों को खो देना लंबे समय के लिए उत्पादकता में वृद्धि और लाभ को कम कर देता है। यदि ऊपर दिए गए साक्ष्य और तर्कों में सच्चाई है, तो श्रम कानूनों को दरकिनार करके केवल भारत की इडीबी सूचकांक रैंक को बढ़ावा देने पर सरकार द्वारा ध्यान दिए जाने से 'मेक इन इंडिया 'के लक्ष्य को प्राप्त करने में असफलता मिली है।
मेरा मानना है कि श्रम मंत्रालय द्वारा गठित विशेषज्ञ समितियो को पूर्व में बताए गए बढ़ते भीषण हादसों के कारणों पर गौर करते हुए इस बात की जांच करनी चाहिए कि क्या संरक्षा नियमों को कमजोर किए जाने ने संरक्षा विनियमों का अनुपालन नहीं किए जाने में कोई योगदान दिया है।
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टिप्पणियाँ:
- 23 अप्रैल को, मुंबई के पास एक अस्पताल में एक और दुर्घटना हुई, जिसमें कोविड-19 के 15 रोगियों की मौत हो गई, तथा ठाणे के पास मुंब्रा में, 28 अप्रैल को एक और दुर्घटना हुई जिसमें तीन रोगियों की मौत हो गई। विपक्ष द्वारा फायर ऑडिट की मांग किए जाने के बीच राज्य के मुख्यमंत्री ने मामले की जांच कराने का आदेश दिया है।
- गुरचरण दास, जो मुक्त बाजार अर्थशास्त्र के एक तीव्र पक्षधर हैं, ने फॉरेन अफेयर्स में 2006 में लिखा कि: भले ही "लाइसेंस राज" चला गया हो, लेकिन "इंस्पेक्टर राज" अभी भी जीवित है और अच्छी तरह से चल रहा है; उत्पाद शुल्क, सीमा शुल्क, श्रम, या कारखाना इंस्पेक्टर से मिलने वाला "मिडनाइट नॉक" अभी भी छोटे उद्यमी को परेशान करता है।"
- अरविंद पनगरिया विनिर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए श्रम बाजार सुधार के प्रमुख और मुखर समर्थक हैं। 2015 में, नीति आयोग के प्रमुख के रूप में नियुक्त किए जाने के बाद, पनगरिया ने कहा, "स्व-प्रमाणन की प्रक्रिया आरंभ करके इंस्पेक्टर राज को रोक दिया गया था, जिसमें निरीक्षण यादृच्छिक ढंग से चयनित कारखानों के एक छोटे नमूने तक सीमित थे। एकल खिड़की सुविधा की शुरुआत के माध्यम से नए व्यवसायों के लिए लालफीताशाही को समाप्त कर दिया गया था, "दृढ़ परिकल्पना पर सवाल उठाने वाले हाल ही के साक्ष्यों के लिए, देखें नागराज (2018)।
- श्रम कानूनों में बदलाव के एक गैर-तकनीकी खाते के लिए, देखें https://www.avantis.co.in/resources/acts/article/132/maharashtra-self-certification-cum-consolidated-annual-returns-scheme/
लेखक परिचय: आर. नागराज सेंटर फॉर डेवलपमेंट स्टडीज (सीडीएस), त्रिवेंद्रम में विजिटिंग प्रोफेसर हैं।
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