महाराष्ट्र के जिला कोल्हापुर के वालवे खुर्द में स्थित एक प्राथमिक स्कूल के छत्रों और शिक्षकों ने पर्यावरण के मुद्दे को पुस्तकों से बाहर निकाला और व्यवहारिक रुप से अपनाया। इस नोट में, शिरीष खरे ने स्कूल के शिक्षकों द्वारा छत्रों से पेड़ लगवाने, पेड़ बचाने और उन्हें पेड़ों के उपयोग के बारे में बताने जैसी अनुभवों को साझा किया है।
छह महीने पहले स्कूल के बाहर जो जमीन खाली पड़ी थी, अब उसी जमीन पर एक सुंदर बगीचा दिखाई देता है। इसमें गुलाब, जासुन, चंपा और चमेली जैसे खुश्बूदार पेड़ों से लेकर नारियल जैसे फलदार वृक्ष भी नजर आते हैं। यह तस्वीर शिक्षक, बच्चे और ग्रामीणों की आपसी मेहनत का नतीजा हैं।
यह बात जिला मुख्यालय कोल्हापुर से करीब 40 किलोमीटर दूर, कागल ब्लॉक के अंतर्गत आने वाले, वालवे खुर्द में स्थित एक प्राथमिक स्कूल की है। यहां के प्रधानाध्यापक रमेश कोली बताते हैं कि स्कूल के पाठ्यक्रम के तहत पर्यावरण के विषय तो पढ़ाए ही जाते हैं, लेकिन ‘मूल्यवर्धन1’ से प्रेरणा लेकर उन्होंने पहली बार पर्यावरण के मुद्दे को पुस्तकों से बाहर निकाला और इसे व्यवहारिक रुप से अपनाया है।
स्कूल के शिक्षक चंद्रकांत लोकरे बताते हैं कि मूल्यवर्धन की कुछ गतिविधियों में पेड़ लगाने, पेड़ बचाने और पेड़ों के उपयोग के बारे में बताया गया है। स्कूल के बाहर मैदान में लगे कुछ वृक्षों को देखकर यहां के शिक्षक और बच्चों के मन में एक विचार आया। विचार यह था कि क्यों न हम एक ऐसा बगीचा तैयार करें, जिससे स्कूल की शोभा बढ़े।
चंद्रकांत ने यह भी बताया की —‘बगीचा लगाने के पीछे एक दूसरा उद्देश्य भी था। जैसा मूल्यवर्धन की गतिविधियों में श्रम के महत्त्व की बात की गयी है, वह हम बच्चों को सम्झना चाहते थे। इसके लिए, हमने उनसे श्रम तो नहीं कराया, मगर पूरे काम के दौरान उन्हें साथ रखा, जिससे वे देखें कि गांव वाले ने जमीन खोदकर किस तरह पत्थर निकाले, गड्ढों में किस तरह खाद-मिट्टी डाली, किस तरह पौधे रोपे और उन्हें पानी दिया।’
वर्ष 1926 में स्थापित मराठी माध्यम के इस स्कूल की पहली से चौथी कक्षा तक में 150 बच्चे पढ़ते हैं। इनमें 87 लड़के और 63 लड़कियां हैं। इस स्कूल के तीनों शिक्षकों को मूल्यवर्धन द्वारा प्रशिक्षित किया गया। यह प्रशिक्षण कार्यशाला आयोजन वर्ष 2018 के अगस्त में वालवे खुर्द से 45 किलोमीटर दूर कागल तालुका में हुआ।
एक अन्य शिक्षक उत्तम कांबले ने मूल्यवर्धन की चार दिनों के प्रशिक्षण का अनुभव साझा करते हुए बताया कि उन्हें बताया गया था कि बच्चों को सीखने की प्रक्रिया में किस तरह से भागीदार बनाया जा सकता है। उत्तम बताते हैं, ‘‘जब हमने मूल्यवर्धन की कक्षाएं शुरु कीं, तब हमें लगा कि वृक्षारोपण भी एक महत्त्वपूर्ण गतिविधि हो सकती है, जो पर्यावरण के अनुकूल तो रहेगी ही और जिससे बच्चों की भागीदारिता भी बढ़ेगी।’
रमेश के मुताबिक, इस तरह की गतिविधियों से बच्चों और शिक्षकों में श्रम के प्रति आस्था बढ़ी है। वे कहते हैं, ‘अब बगीचा है तो हमें बच्चों को यह बताने की जरुरत नहीं पड़ती इसे साफ—सुथरा रखो, पेड़ों को पानी दो, उसमें प्लास्टिक की चीजों को मत फेंको। मतलब बगीचे के बहाने बच्चे बहुत सारी बातों को एक साथ अपनेआप ही सीख रहे हैं।’
शिक्षिका श्रावणी देवकर का कहना है कि इस तरह की गतिविधियों में शामिल होने के बाद वे पर्यावरण को लेकर पहले से ज्यादा सजग हो गई हैं। वे कहती है, ‘शुरुआत में मैं मूल्यवर्धन से प्रभावित नहीं हुई थी, पर इस बगीचे को बनता देख मूल्यवर्धन के प्रति मेरी आस्था बढ़ती गई।’
दरअसल, पुणे स्थित समाजसेवी संस्था 'शांतिलाल मुथ्था फांउडेशन' ने एक दशक पहले 'मूल्यवर्धन' नाम से एक कार्यक्रम विकसित किया है, जिसे राज्य सरकार के सहयोग से राज्य के सभी सरकारी स्कूलों में चलाया जा रहा है। इसमें स्वतंत्रता, समानता, न्याय और बंधुत्व जैसे संवैधानिक मूल्यों पर आधारित गुणवत्तापूर्ण शिक्षण को बढ़ावा दिया जा रहा है। इसका उद्देश्य बच्चों को लोकतांत्रिक नागरिक बनाना है।
उत्तम बगीचे से जुड़ा एक किस्सा साझा करते हुए बताया की ‘एक दिन मूल्यवर्धन की कक्षा में मैंने बच्चों से पूछा कि क्या हमें स्कूल के बाहर पेड़ लगाने चाहिए, तब उन्होने मुझसे पूछा कि कौन-कौन से पेड़ लगाने चाहिए। जब मैंने उन्हें कुछ पेड़ों के नाम बताए, तब उन्होने उनके फ़ायदों को जानने की लालसा दिखाई और मैंने उन्हे कुछ पेड़ों के फायदे बताए। इसी तरह हमें कई चीजों की जानकारी हुई और उन्हें लेकर हमारी समझ बढ़ी।’
तीसरी में पढ़ने वाली समृद्धि पाटिल ने बताया कि स्कूल के बगीचे में पेड़ लगाने के लिए उनके पिता ने उन्हें मोंगरे के पेड़ दिए थे। इसी तरह, सभी बच्चे अपने-अपने घर से पेड़ लेकर आए। चौथी में पढ़ने वाली गायत्री गोसाई कहती हैं, ‘जब हमें बताया गया कि आसपास के किसी स्कूल में हमारे स्कूल जैसा बगीचा नहीं है, तो बहुत खुशी हुई। हमारा बगीचा देखकर यहां आने वाले दूसरे लोग भी बहुत खुश होते हैं।’ तीसरी कक्षा की श्रवणी गोड़के बताती है कि पहले जूते-चप्पल रखने का स्टैण्ड बगीचे में ही रखा जाता था। फिर एक दिन बच्चों ने तय किया कि इसे बगीचे से दूर रखा जाए। अब जूते बगीचे में बिखरे नहीं दिखते।
चंद्रकात इस बगीचे को मूल्यवर्धन का नतीजा मानते हैं। वे समझाते हुए कहते हैं, ‘इस बगीचे के बहाने बच्चे पानी का सही इस्तेमाल करना सीखते हैं और सार्वजनिक जगहों पर सही व्यवहार करने के तरीके समझते हैं। यह सब बाते उन्हें मूल्यवर्धन की दूसरी गतिविधियों में भी बताई गई हैं। इस तरह, इस बगीचे ने उनमें जिम्मेदारियों का अहसास भी कराया है।’
रमेश बताते हैं, ‘पर्यावरण विषय को पढ़ाना और उसके प्रति लगाव पैदा करना, दो अलग-अलग बाते हैं। हमने इस बगीचे से इन दोनों बातों को जोड़ दिया।’ उत्तम कहते हैं, ‘अब हम इस बगीचे को और बढ़ाने वाले हैं। इसके लिए एक परिसर बनाकर एक गेट लगाने की तैयारी है। फिर इसमें और भी पेड़ लगाएंगे।’
अंत में, श्रवणी बताती हैं, ‘बगीचे को और सुदंर बनाने के लिए हमें गांव वालों का साथ मिला है। इस काम के लिए वे चंदा जमा कर के उन्हें श्रमदान देंगे।’
नोट्स:
- एक स्कूल-आधारित मूल्य शिक्षा कार्यक्रम, एक गैर-लाभकारी, शांतिलाल मुथा फाउंडेशन द्वारा शुरू किया गया जो देखभाल, जिम्मेदार और लोकतांत्रिक नागरिकों का पोषण करता है।
लेखक परिचय: शिरीष खरे पुणे स्थित शांतिलाल मुथा फाउंडेशन में एक संचार प्रबंधक के पद पर कार्यरत हैं।
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