गरीबी तथा असमानता

ड्यूएट: अनुकूलनीय कार्यान्वयन हीं समाधान

  • Blog Post Date 06 नवंबर, 2020
  • दृष्टिकोण
  • Print Page
Author Image

Yamini Aiyar

Centre for Policy Research

yaiyar@cprindia.org

ज्यां द्रेज के शहरी रोजगार कार्यक्रम प्रस्ताव ‘ड्यूएट’ पर टिप्पणी करते हुए यामिनी अय्यर ने यह टिप्पणी दी है कि भले एक ओर इस प्रस्ताव की रूप-रेखा पर बहस की जा रही है, यह शहरी भारत के लिए मजबूत सामाजिक सुरक्षा के महत्व को पुनः प्राप्त करने का एक अच्‍छा अवसर है। उनके विचार में इस ड्यूएट का सर्वश्रेष्‍ठ प्रदर्शन तभी होगा जब राज्य इसके परिणामों के साथ अपना तालमेल स्‍थापित कर लेंगे। 

 

ज्यां द्रेज का ड्यूएट (विकेंद्रीकृत शहरी रोजगार और प्रशिक्षण) प्रस्ताव और आइडियास फॉर इंडिया की यह संगोष्ठी भारत के कल्याण तंत्र से संबंधित बहस में एक लंबे समय से उपेक्षित लेकिन महत्वपूर्ण मुद्दे पर प्रकाश डाल रही है जो कि हमारे वर्तमान सामाजिक सुरक्षा ढ़ांचे में शहरी गरीबों के (लगभग) बहिष्‍करण से संबंधित है। भले ही इसमें कितनी ही खामियां हों लेकिन जब बेहद गरीब ग्रामीण आबादी की जरूरतों को पूरा करने की बात आती है तो भारत का कल्याण तंत्र बेहद मजबूत है। दूसरी ओर, शहरी भारत में सार्वजनिक वितरण प्रणाली (केवल शहर के निवासियों के लिए उपलब्ध) और बीमा एवं पेंशन योजनाओं (जो सामाजिक सुरक्षा पर केंद्र सरकार के कुल खर्च के लगभग 6% के लिए जिम्मेदार है) को छोड़ दिया जाए तो सरकार द्वारा प्रायोजित सामाजिक-सुरक्षा योजनाएँ मौजूद नहीं हैं। इस तथ्य पर शायद ही कभी नीतिगत बहस हुई हो लेकिन शहरी मजदूरों (बड़े पैमाने पर आकस्मिक, दिहाड़ी मजदूर) ने इसकी भारी कीमत चुकाई है, जैसा कि भारत में कोविड 19 के कारण लागू हुए लॉकडाउन के समय स्पष्ट रूप से देखा गया था। फिर भी अपने घरों की ओर लौटते हुए लाखों श्रमिकों के भयावह दृश्य और गरीब एवं कमजोर शहरी श्रमिकों की आय में तेजी से कमी आने के तथ्‍य को उजागर करने वाले अनेक सर्वेक्षण नीतिगत बहस को राशन कार्ड के लिए पोर्टेबिलिटी के मुद्दे से परे शहरी सामाजिक सुरक्षा पर स्थानांतरित करने में विफल रहे हैं। और विडंबना तो यह है कि नीतिगत ध्यान अब औपचारिक श्रम-सुरक्षा व्यवस्था में सुधार के बजाय इसके विघटन की दिशा में चला गया है। इस पृष्ठभूमि में जीन ड्रेज का ड्यूएट प्रस्‍ताव शहरी भारत के लिए मजबूत सामाजिक सुरक्षा के महत्व को पुनः प्राप्त करने का यह एक अच्‍छा अवसर है जबकि ड्यूएट की रूप-रेखा पर बहस की जा रही है।

ड्यूएट के विवरणों पर ध्यान देने से पहले मैं दो प्रमुख सिद्धांतों को स्पष्ट करना चाहूंगी कि सामाजिक सुरक्षा के डिजाइन पर हमारी बहस किस प्रकार की होनी चाहिए - सार्वभौमिकता (केवल पोर्टेबिलिटी नहीं), विकेंद्रीकरण और चुस्‍ती (ताकि भारत में सामाजिक सुरक्षा तंत्र में जोखिम प्रोफाइल विविधता को दर्शा सके)। जैसा कि विश्व बैंक की 2019 की सामाजिक सुरक्षा रिपोर्ट में प्रकाश डाला गया है।  भारत की 50% आबादी असुरक्षित है (गरीबी के अलावा एक आय झटका), और उनकी सामाजिक सुरक्षा को एक ऐसे ढ़ांचे  की आवश्यकता है जो उन्हें जोखिमों का पूर्वानुमान लगाने और उनका प्रबंधन करने में सक्षम बना सके। लेकिन जोखिम की मात्रा समय और स्थान के अनुसार अलग-अलग होती है। इस प्रकार सभी के लिए एक ही दृष्टिकोण के बजाय चुस्‍ती और विकेंद्रीकरण आज भारत के लिए एक बेहतर मॉडल है। इसके लिए एक राष्ट्रीय सामाजिक सुरक्षा ढांचा तैयार करने की आवश्यकता है जिसे राज्य अपने विशिष्ट संदर्भों के अनुसार  लागू कर सके। अब ड्यूएट पर आते हैं।

पहला सवाल जो यह प्रस्ताव उठाता है, जिस पर संगोष्ठी में कई वार्ताकारों ने इस पर काम किया है, वह यह‍ है कि एक शहरी सामाजिक-सुरक्षा कार्यक्रम के लिए रोजगार का प्रावधान क्यों होना चाहिए? देबराज रे की तरह मैं भी एक मानक आकांक्षा के रूप में सार्वभौमिक ‘रोजगार के अधिकार’पर विचार करने के लिए तैयार हूं। लेकिन इसकी व्यवहार्यता एक ऐसा सवाल है जिस पर बहस की जरूरत है। मेरे विचार से ड्यूएट काफी कम महत्‍वाकांक्षी है। यह रोजगार का अधिकार या पुरानी बेरोजगारी को दूर करने का उपाय नहीं है।  किन्तु जैसा कि अशोक कोतवाल ने बताया है यह कार्यबल से बाहर हो चुके मजदूरों को अस्थायी रूप से राहत देने के लिए बनाए गए एक बेरोजगारी बीमा के रूप में कार्य करता है।  यह ग्रामीण-शहरी प्रवास के मौजूदा पैटर्न को प्रभावित करने या शहरी श्रम बाजार को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित करने में सक्षम नहीं है। तब यह सवाल उठता है कि क्या यह लक्ष्य ‘रोजगार’-आधारित बीमा या सीधे नकद हस्तांतरण / आय सहायता योजना के माध्‍यम से बेहतर ढ़ंग से अर्जित किया जा सकता है।

ड्यूएट का पहला स्पष्ट लाभ है कि यह महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) की तरह, लक्ष्यीकरण की समस्‍या से बचता है। ड्यूएट के तहत, श्रमिकों को खुद को एक प्लेसमेंट एजेंसी में प्रस्तुत करना होता है, पंजीकृत होना होता है, और जब बुलाया जाए तो काम पर जाना होता है। राज्य पात्रता मानदंड निर्धारित करने में कोई भूमिका नहीं निभाता है। जैसा कि हम मनरेगा के अनुभव से जानते हैं, कि जब समावेशन की बात आती है तो स्व-लक्ष्यीकरण, लक्षित स्थानांतरणों की तुलना में कहीं अधिक कुशल साबित हुआ है। हालांकि, जैसा कि मैं नीचे चर्चा करती हूं, श्रमिकों को भर्ती करने और शहरी भारत में काम की मांग पर कब्जा करने की प्रक्रिया महत्‍वपूर्ण है।

दूसरा, कम अवधि में ड्यूएट के लिए सरकार द्वारा किसी भी नए खर्च की आवश्यकता नहीं है - ऐसा कुछ जिसे जिदपूर्वक केंद्र सरकार ने करने से इनकार कर दिया है। जैसा कि मैं समझती हूँ, काम केवल सार्वजनिक संस्थानों द्वारा किए गए भौतिक बुनियादी ढांचे की मरम्मत और रख-रखाव के लिए प्रदान किया जाना है। इसमें से कुछ को बजट प्राप्‍त है जो नए रोजगार की लागत परिसंपत्ति रख-रखाव के लाभों से समायोजित होती है (मनरेगा, जहां ध्यान परिसंपत्तियों पर रहा जिनकी गुणवत्ता में भिन्नता थी) की तुलना में या ज्यादा सुविधाजनक है। ड्यूएट का 'टी' यानि प्रशिक्षण घटक (ट्रेनिंग) को विद्यमान कौशल कार्यक्रम के साथ जोड़ा जा सकता है। इस प्रकार यह बजटीय 'झुकाव' को सक्षम बनाता है। ड्यूएट यह सुनिश्चित करने के लिए क्या करेगा कि सरकार महत्वपूर्ण नए खर्चों के बजाय अपनी बजट प्रतिबद्धताओं को पूरा करे (इन खर्चों में देरी करने या स्थानापन्न करने के बजाय, क्योंकि सामान्य समय में भी ऐसा किए जाने का खतरा है) और झुकाव (जिसका नौकरशाहों द्वारा स्वागत किया जाएगा) को सक्षम बनाए। इसलिए बिल्‍कुल नई नकद हस्‍तांतरण योजना की तुलना में ड्यूएट के प्रति आश्चर्यजनक रूप से अधिक राजनीतिक आकर्षण हो सकता है और इसलिए शहरी सामाजिक-सुरक्षा तंत्र के निर्माण के लिए यह एक अधिक व्यावहारिक दृष्टिकोण हो सकता है।

तीसरा, ड्यूएट का एक संभावित लाभ यह है कि मनरेगा की तरह यह एक मजदूरी आधार प्रदान कर सकता है। और इस प्रकार यह बाजार मजदूरी के सामान्य संतुलन को अनियत श्रमिकों के पक्ष में कर देता है। लेकिन जैसा कि संदीप सुखटणकर ने बताया है कि शहरी श्रम बाजार ग्रामीण भारत की तुलना में कहीं अधिक गतिशील है, जहां नियोक्ताओं के पास क्रय एकाधिकार शक्तियां हैं। परिणामस्वरूप, इस बात की संभावना नहीं है कि ड्यूएट का मजदूरी प्रभाव बड़ा हो। हालांकि ड्यूएट में कम से कम सार्वजनिक कार्यों के लिए एक अलग मार्ग के माध्यम से मजदूरी को प्रभावित करने की क्षमता है। वर्तमान में सार्वजनिक निर्माण कार्यों को लोक निर्माण विभाग या शहरी स्थानीय निकाय (यूएलबी) द्वारा अक्सर शोषणकारी, ठेकेदारों के माध्‍यम से पूरा किया जाता है। ड्यूएट के तहत यह भूमिका एक प्लेसमेंट एजेंसी द्वारा निभाई जानी है। महत्वपूर्ण रूप से भुगतान सीधे श्रमिकों के खातों में किया जाएगा जो न्यूनतम मजदूरी सुनिश्चित करता है।

लेकिन इन लाभों को प्राप्त करने के लिए ड्यूएट की सफलता जटिल कार्यान्वयन चुनौतियों पर टिकी होगी। सबसे पहले मांग पंजीकरण या दूसरे शब्‍दों में कहा जाए तो श्रमिकों को संभावित नियोक्ताओं से जोड़ना जो भूमिका छोटे ठेकेदार निभाते हैं। यही ड्यूएट डिजाइन का सबसे कमजोर पक्ष है। यह आशा करता है कि श्रमिक एक स्वतंत्र प्लेसमेंट एजेंसी के माध्यम से 'पंजीकरण' करेंगे जो स्थानीय सरकार, एक श्रमिक सहकारी या गैर-लाभकारी संस्था द्वारा संचालित होगी। लेकिन अगर इसे सावधानी से संभाला नहीं जाता है तो यह पंजीकरण बहिष्‍करण का पहला बिंदु बन सकता है। जैसा कि देबराज रे ने बताया है कि बोझिल कागजी कार्रवाई और एक नौकरशाही मानसिकता पहली बाधा हो सकती है। यह बात भी उनती ही महत्वपूर्ण है कि जिस ठेकेदार को ड्यूएट बाहर निकालना चाहता है, स्थानीय सरकारी एजेंसी या गैर-लाभकारी कंपनी पर उसी ठेकेदार द्वारा कब्जा नहीं किया जाएगा, इस बात की कोई गारंटी नहीं है। राज्य स्तर पर कुछ दिलचस्प प्रयोग हुए हैं जिनसे ड्यूएट सीख ले सकता है। सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में मेरे सहयोगी ओडिशा सरकार की शहरी मजदूरी रोजगार पहल का बारीकी से निरीक्षण कर रहे हैं, जिसने स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी) और झुग्गी बस्तियों के संगठनों को श्रमिकों और नियोक्ताओं के बीच पुल के रूप में काम करने के लिए प्रेरित किया है (इसके उदाहरण के रूप में यूएलबी)। ओडिशा सरकार ने यूएलबी द्वारा किए जाने वाले कार्यों की सूची को सीमित कर दिया है। इस प्रकार यह शक्तिशाली लोक निर्माण विभाग और उनके सांठगांठ वाले सरकारी ठेकेदारों के साथ सीधे टकराव से बचता है। हालाँकि हो सकता है कि देश के अन्य हिस्सों में ऐसा न किया जा सके। इस मॉडल को अपनाने के लिए एक महत्वपूर्ण पूर्व शर्त - एनिमेटरों (स्थानीय सामुदायिक श्रमिकों) और स्थानीय संगठनों में निवेश की आवश्यकता होती है। छोटे शहरों में यह व्यवहार्य हो सकता है लेकिन यहां तक ​​कि यह भी ठेकेदार को अनिवार्य रूप से विस्थापित नहीं कर सकता क्योंकि ये एनिमेटर और स्थानीय संगठन भी सांठ-गांठ का हिस्सा हो सकते हैं। हालांकि जैसे-जैसे कार्यक्षेत्र का आकार बढ़ता जाता है यह बड़ी संख्‍या में नए श्रमिकों को लाता है। संस्थागत एकाधिकार से बचने के लिए एक अन्य विकल्प पंजीकरण के कई बिंदुओं के साथ वार्ड-स्तरीय रोजगार रजिस्टर बनाना है।1 यह यूएलबी पर बनाए रखा जा सकता है जो बदले में कर्मचारियों को नियोक्ताओं से जोड़ने का कार्य करता है। लेकिन क्या स्थानीय सरकारें इस भूमिका को निभा सकती हैं?

दूसरी चुनौती के रूप में, ड्यूएट को देश भर की शहरी स्थानीय सरकारों की परिवर्तनीय क्षमता का सामना करना पड़ेगा। इस संगोष्ठी में कई वार्ताकारों ने उत्साहपूर्वक ‘विकेन्द्रीकृत’ शब्द का उपयोग ड्यूएट के डिजाइन के मुख्‍य भाग के रूप में किया है। क्या यह हमारे दोषपूर्ण स्थानीय निकायों को पुनर्जीवित करने का मार्ग हो सकता है? मनरेगा से प्राप्त अनुभवों को देखते हुए मुझे इसमें भी संदेह है। मनरेगा को भी परिवर्तनीय स्थानीय सरकारी क्षमता के वातावरण में लागू किया गया था। जहां क्षमता कम थी, वहां नौकरशाहों ने इसके कार्यान्‍वयन का कार्यभार संभालते हुए पंचायतों को केवल ऐसे डाकघरों की भूमिका तक सीमित कर दिया जो नौकरशाही के आदेशों को आगे बढ़ाती हैं। इस प्रकार नौकरशाही द्वारा कब्जा किए जाने से स्थानीय शासन के आदर्श में अंतर्निहित ईमानदार जवाबदेही चक्र को तोड़ दिया जिसमें लोगों की निकटतम सरकारें जवाबदेही के लिए नीचे से ऊपर दबावों के प्रति सर्वाधिक प्रतिक्रियाशील होती हैं। यह ड्यूएट के माध्यम से यह विकेंद्रीकरण के खिलाफ एक तर्क नहीं है, बल्कि एक चेतावनी और अनुस्‍मारक है कि गंभीर निवेश के बिना ऐसा कदापि नहीं होगा।

तो हम ड्यूएट बनाम प्रत्यक्ष नकदी की बहस पर कहां तक पहुंचते हैं? ड्यूएट के लाभ महत्वपूर्ण हैं, यदि कार्यान्वयन संबंधी जटिलताओं को सुलझाया जा सके। मैं सावधानीपूर्वक आशावादी हूं लेकिन इसे अनुमोदित करने के लिए मैं राज्य के नेतृत्व वाले दृष्टिकोण की सलाह देती हूं। राज्यों को कार्यान्वयन के लिए उनकी तत्परता और डिजाइन मार्गों का आकलन करने दें। केंद्र इसे वित्तपोषित कर सकता है लेकिन सभी के लिए एक समान प्रकार की केंद्र प्रायोजित योजना के रूप में नहीं। ड्यूएट को उन तरीकों से लागू किया जाना चाहिए जो राज्य-विशिष्ट हों और राज्‍य-विशिष्‍ट शहरी संस्थानों के प्रति उत्तरदायी हैं। कुछ मामलों में बेरोजगारी बीमा के लक्ष्य को पूरा करने के लिए नकद हस्तांतरण अभी भी आसान और अधिक प्रभावी हो सकता है। अन्‍य मामलों में विशेष रूप से मजबूत स्थानीय निकायों और सामुदायिक संगठनों वाले मामलों में ड्यूएट के लाभ नकद हस्तांतरण से अधिक हो जाएंगे। बड़े महानगरीय शहरों और कस्बों को पूरी तरह से अलग दृष्टिकोण की आवश्यकता हो सकती है। निष्कर्ष है कि इस ड्यूएट का सबसे अच्छा प्रदर्शन तभी होगा जब राज्य इसके परिणामों के साथ अपना तालमेल स्‍थापित कर लेंगे। और जो लोग नकद को प्राथमिकता देते हैं उनके लिए नकद एक विकल्प हो सकता है। यह एक ऐसा नया मार्ग खोलता है जिससे हम सीख ले सकते हैं। अंत में, इस ड्यूएट का सर्वश्रेष्‍ठ प्रदर्शन तभी होगा जब राज्य इसके परिणामों के साथ अपना तालमेल स्‍थापित कर लेंगे।

मैं इस प्रस्ताव पर धैयपूर्वक चर्चा करने और पूर्व के मसौदे पर टिप्पणी करने के लिए रक्षिता स्वामी, पार्थ मुखोपाध्याय और श्रायना भट्टाचार्य की आभारी हूं। कोई भी त्रुटि केवल मेरी है।

टिप्‍पणी

  1. मैं इस महत्वपूर्ण प्रक्रिया संबंधी अंतर्दृष्टि के लिए रक्षिता स्वामी की आभारी हूं।

लेखक परिचय: यामिनी अय्यर नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर) की अध्यक्ष और चीफ़ एक्सिक्युटिव हैं।

क्या आपको हमारे पोस्ट पसंद आते हैं? नए पोस्टों की सूचना तुरंत प्राप्त करने के लिए हमारे टेलीग्राम (@I4I_Hindi) चैनल से जुड़ें। इसके अलावा हमारे मासिक समाचार पत्र की सदस्यता प्राप्त करने के लिए दायीं ओर दिए गए फॉर्म को भरें।

No comments yet
Join the conversation
Captcha Captcha Reload

Comments will be held for moderation. Your contact information will not be made public.

संबंधित विषयवस्तु

समाचार पत्र के लिये पंजीकरण करें