इस पोस्ट में, निर्विकार सिंह ने यह चर्चा की है कि हम हाल ही में प्रस्तुत केंद्रीय बजट से भारत की अर्थव्यवस्था की संभावित दिशा के बारे में क्या जान सकते हैं। वे कहते हैं कि, हालांकि भारत की अर्थव्यवस्था पर संभावित प्रभावों के संदर्भ में यह बजट सकारात्मक है, हाल के वर्षों की तुलना में अंतर इतना है कि इसमें ध्यान दिए जाने और क्रियान्वयन के संबंध में तत्परता की आवश्यकता महसूस की गई है जो पिछले कुछ समय से आवश्यक नहीं समझी गई है।
इस वर्ष का केंद्रीय बजट ऐसे समय में आया है जब भारत की अर्थव्यवस्था एक नाजुक दौर से गुजर रही। पहले कई मौकों पर, भारत आर्थिक चुनौतियों का सामना कर चुका है, लेकिन अब उन यादों को पीछे छोड़ देना है क्योंकि राष्ट्र विकास और वृद्धि के एक नए चरण में प्रवेश कर रहा है। हालांकि, पिछले आम चुनाव के बाद के महीनों और पिछले बजट के बाद से आर्थिक जगत से अच्छे समाचार नहीं मिल रहे हैं हैं और राजनीतिक विभाजन भी बढ़ गया है। भारत की अर्थव्यवस्था की संभावित दिशा के बारे में हम नए बजट से क्या सीख सकते हैं?
संदर्भ
केंद्रीय बजट एक बड़े राष्ट्रीय राजकोषीय परिदृश्य का एक हिस्सा है। राज्य सरकारें भी महत्वपूर्ण हैं, और स्थानीय सरकारें भी महत्वपूर्ण होनी चाहिए पर वे नहीं हैं, वे अवांछित रूप से ठहरी हुई हैं। संयोग से, हाल ही में, पंद्रहवें वित्त आयोग ने संघ से राज्यों को दिए जाने वाले कर के हिस्से तथा अन्य हस्तांतरणों के बारे में अपनी सिफारिशें रखीं थीं। ऐसे कई सार्वजनिक उपक्रम हैं जिनकी वित्त संबंधी स्थिति अक्सर सरकारी खातों में सीधे नहीं दिखाई जाती है। केंद्रीय बजट के लिए सरकारी वित्त के यह सभी पहलू मायने रखते हैं। लेकिन सब कुछ एक साथ करने के भी, भारत की सरकार बड़ी प्रतीत नहीं होती।
पिछले वित्त आयोग द्वारा दिए गए सुझाव के अनुसार राज्यों को कर राजस्व और अन्य हस्तांतरणों के हिस्से को आवंटित करने के बाद, संघ सरकार (जिसे आमतौर पर केंद्र के रूप में संदर्भित किया जाता है) का शुद्ध राजस्व, 2019-20 के संशोधित आकलन के आाधार पर जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) का सिर्फ 9.45% था। इसका व्यय सकल घरेलू उत्पाद का केवल 13.20% था। जीडीपी के 3.75% के इस अंतर को व्यापक रूप से राजकोषीय घाटे के रूप में उद्धृत किया जाता है। लेकिन यह भी ध्यान दिया जाए कि बजट खातों के अनुसार केंद्र का राजस्व इसके व्यय से 72% से कम था। यह हमें याद दिलाता है कि केंद्र की राजस्व बढ़ाने की क्षमता कितनी कमजोर है, और खर्चों के माध्यम से अर्थव्यवस्था को सीधे प्रभावित करने की इसकी क्षमता कितनी सीमित है।
बजट का समष्टि अर्थशास्त्र
राजकोषीय घाटे इस हद तक बढ़ चुके हैं कि वे सरकार के अनुत्पादक व्यय, उत्पादक निजी क्षेत्र निवेश के घटने, भविष्य में ब्याज के अधिक भुगतान, अधिक मुद्रास्फीति के दबाव, विदेशी लेनदारों के लिए निरंतर प्रतिबद्धताएं या इन मामलों के किसी संयोजन से जुड गए हैं। यही वे चिंताएं हैं जिनके कारण ऐसे कानून बनाए गए हैं जो केंद्र को राजकोषीय घाटे के लिए दिशानिर्देश और लक्ष्य प्रदान करते हैं। इस वर्ष, बजट को लक्ष्य से ऊपर एक नियोजित घाटे की अनुमति देने के लिए 'एस्केप क्लॉज' का उपयोग करना पड़ा था। वास्तव में, पिछले वर्ष के घाटे का लक्ष्य, धीमी अर्थव्यवस्था और वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के चुनौतीपूर्ण कार्यान्वयन के कारण पूरा नहीं हो सका है।
आर्थिक सिद्धांत हमें यह नहीं बताता है कि राजकोषीय घाटे का सही स्तर क्या होना चाहिए। सैद्धांतिक आधार पर, कोई यह भी तर्क दे सकता है कि राजस्व घाटा, जो शुद्ध पूंजीगत व्यय की गणना नहीं करता है, अधिक प्रासंगिक है, क्योंकि सरकारी निवेश से भविष्य में विकास होना चाहिए। दूसरी ओर, केंद्र सार्वजनिक उद्यमों और कैद घरेलू बचत के माध्यम से ‘ऑफ-बजट’ उधार भी लेता है, जो वास्तविक राजकोषीय घाटे में 1-2% योगदान दे रहा है। इसके अलावा, राज्य सरकारों और उनके सार्वजनिक उद्यमों के भी घाटे हैं, जो अंततः केंद्र की जिम्मेदारी है, क्योंकि राज्य स्तर पर चूक विनाशकारी होगी।
कुल मिला कर यह कहा जा सकता है कि केंद्रीय बजट व्यापक आर्थिक परिणामों के बारे में अपने आप में सीमित जानकारी प्रदान करता है। बजट के दिन ही बाजारों को यह लगा था कि बजट का प्रेरक प्रभाव अपर्याप्त है, लेकिन (जैसा कि वित्त मंत्री ने खुद सुझाया था) अब उन्होंने उस प्रारंभिक निराशा को काफी हद तक पलट दिया है। यह प्रेरणा, बढ़ती मुद्रास्फीति के संदर्भ में भी है, हालांकि यह तर्क दिया जा सकता है कि मुद्रास्फीति खाद्य पदार्थों पर केंद्रित है, और संविदात्मक मौद्रिक नीति के बजाय कृषि उत्पादन और बाजारों में संरचनात्मक सुधारों के माध्यम से इससे निपटना चाहिए। निश्चित रूप से महंगाई (मौद्रिक आवास के माध्यम से) के लिए किसी भी प्रसरण की भविष्यवाणी करने में एक और जटिलता वित्तीय दबाव का निरंतर उपयोग है - हालांकि यह ‘पुराने-बीते दिनों’ की तुलना में कम है। हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि सरकारी राजस्व के अनुमान अति आशापूर्ण हो सकते हैं, और उस स्थिति में यदि व्यय में निरंतरता रही, तो वास्तविक प्रभाव बढ़ जाएगा। इसके विपरीत, ऐसा कोई मजबूत साक्ष्य दिखाई नहीं पड़ता और शायद कोई भी यह कह सकता है कि बजट ने व्यापक आर्थिक स्थिरता और अल्पकालिक प्रोत्साहन पर संभावित प्रभावों के संदर्भ में एक अच्छा कार्य किया है।
राजस्व
बजट का प्रभाव राजस्व और व्यय के स्तरों एवं प्रकारों पर निर्भर करता है, क्योंकि उन्हें कितना कम या ज्यादा मिलता है और वे कितना खर्च या बचत करते हैं वह हीं कुल प्रभावों को निर्धारित करेंगे। लगभग सभी भारतीय अप्रत्यक्ष करों का भुगतान करते हैं, क्योंकि वे उन वस्तुओं और सेवाओं को खरीदते हैं, जिन पर जीएसटी लागू होता है। बजट में जीएसटी के डिजाइन और कार्यान्वयन में सुधार की प्रक्रिया जारी है, जो शुरूआत में बहुत जटिल और बोझिल थी। जीएसटी पर, आने वाले कुछ समय में कार्य भले जारी रहेगा, लेकिन अंततः यह भारत के अपेक्षाकृत निम्न कर-जीडीपी अनुपात को बेहतर बनाने में एक महत्वपूर्ण घटक साबित हो सकता है।
दूसरी ओर, अपेक्षाकृत बहुत कम भारतीय आयकर के रूप में प्रत्यक्ष करों का भुगतान करते हैं जिसे बदलने में काफी समय लगेगा। मध्यम स्तरों में दरों को कम करके, लेकिन विभिन्न छूटों या कटौती को छोड़ने के लिए बाध्य करते हुए, बजट की आयकर संरचना को सरल बनाने का प्रयास बहुत ही आशाजनक है। सरकार की गणना बताती है कि मध्यम आय वर्ग के कई परिवार इन सभी छूटों का लाभ नहीं उठाते हैं, और नई कर संरचना उनके लिए बेहतर विकल्प साबित होगी। चूंकि, यदि उनकी छूट अधिक होती है तो वे पुरानी संरचना के साथ भी जुड़े रह सकते हैं, अत: इसका शुद्ध प्रभाव अन्य परिवारों से लिए बिना कुछ परिवारों को राशि दिए जाने के रूप में होगा। टैक्स की तैयारी और जमा करने की प्रक्रिया को आसान बनाने से लोगों को रिटर्न फाइल करने के लिए प्रोत्साहित करने के दीर्घकालिक लाभ हो सकते हैं। लेकिन कर आधार का विस्तार करने के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था में बड़े पैमाने पर संरचनात्मक परिवर्तन की आवश्यकता होगी और औपचारिक क्षेत्र की कई अन्य नौकरियों का निर्माण करना होगा - और तीन दशकों के आर्थिक सुधार के बाद भी ऐसा किया जाना अभी बाकी है। इस बारे में नीचे देखें1। केंद्र ने पूर्व के वर्ष में कॉर्पोरेट कर दरों में कटौती की थी और इस बजट में मुख्य बदलाव लाभांश वितरण कर का उन्मूलन है - प्राप्तकर्ताओं की आय के रूप में लाभांश पर कर लगाया जाएगा, इसलिए यह एक बड़ा राजस्व मुद्दा नहीं है।
राजस्व पक्ष पर दो सबसे बड़े प्रश्न चिह्न और चुनौतियां स्पेक्ट्रम की नीलामी और सार्वजनिक उद्यमों के विनिवेश से अनुमानित राजस्व हैं। नीलामी राजस्व बढ़ाने के लिए अच्छी तरह से डिज़ाइन की गई हैं, लेकिन, जैसा कि हम अभी देख रहे हैं, समस्या यह है कि उच्च गुणवत्ता वाले दूरसंचार अवसंरचना के लक्ष्यों को प्राप्त करना, सामर्थ्य के माध्यम से व्यापक पहुंच और प्रदाताओं के बीच स्थायी प्रतिस्पर्धा आवश्यक रूप से राजस्व-अधिकतमकरण नीलामी द्वारा समर्थित नहीं है। दूसरी ओर, सार्वजनिक दूरसंचार प्रदाता अक्षम हैं, और जैसा कि हमने पूर्व में देखा था कि किसी प्रकार की नीलामी का उपयोग किए बिना स्पेक्ट्रम आवंटित करना भ्रष्टाचार का कारण बन सकता है। इसलिए, केंद्र की इस स्रोत से राजस्व पर अनुचित निर्भरता से अलग यह एक आसान समस्या नहीं है। विनिवेश का कई ओर से लगातार विरोध किया जा रहा है2। विनिवेश का डिजाइन,अधिक दक्षता के कई लक्ष्यों को प्राप्त करना और राजस्व जुटाना, सरकार के लिए लगातार चुनौतियां साबित हुई हैं और नवीनतम बजट इस बात का कोई संकेत नहीं देता है कि इसका समाधान मिल गया है।
सीमा शुल्क, या टैरिफ भी कर हैं, हालांकि राजस्व स्रोत के रूप में उनका महत्व अब पहले की तुलना में बहुत कम है। इस बजट में इससे पहले के कई बजटों की तरह, विभिन्न शुल्कों के लिए कई उपाय दिए गए हैं लेकिन ये राजस्व उत्पन्न करने के बजाय कुछ उद्योगों या विशेष प्रकार की फर्मों के हितों की रक्षा के लिए डिज़ाइन किए गए लगते हैं। क्या भारतीय टैरिफ नीति अर्थव्यवस्था में मदद कर रही है, यह एक बड़ा हीं जटिल मसला है लेकिन ऐसा लगता है कि इस तरह के उपायों अधिक निर्भरता है, जबकि विशेष प्रकार की फर्मों या क्षेत्रों की सहायता करने के लिए अन्य प्रत्यक्ष तरीके ज्यादा कारगर हो सकते हैं3।
व्यय
केंद्र सरकार, योजनाओं और विवेकाधीन अंतरणों के एक जटिल मिश्रण में फंसी हुई है, जिसे आर्थिक नीति के लक्ष्यों की एक विस्तृत श्रृंखला को प्राप्त करने के लिए डिज़ाइन किया गया है और जिसका उद्देश्य न केवल सीधे तौर पर घरेलू कल्याण (स्वास्थ्य, शिक्षा और आय सहायता सहित) करना है बल्कि बुनियादी ढांचे के स्तर पर भी प्रावधान करना है। वर्तमान बजट में कोई महत्वपूर्ण नई योजनाएं नहीं हैं और व्यय की योजनाओं में समायोजन के समग्र या वितरणात्मक प्रभावों का आकलन करना मुश्किल है (रोजगार गारंटी के लिए कम, किसानों को भुगतान के लिए अधिक आदि)। वास्तविक मुद्दे अभी भी ये हैं - व्यय की गुणवत्ता, व्यय की निगरानी एवंपरिणामों का मूल्यांकन करने की क्षमता, और क्या खर्च को उस उचित सरकारी स्तर पर सौंपा गया है, जहां इसका प्रभावी तरीके से प्रोयोग किया जाएगा और जहां जवाबदेही की सबसे अधिक संभावना है। यह सभी संरचनात्मक सुधार के मुद्दे हैं जो बजट के बुनियादी दायरे से परे हैं, हालांकि अंत में ये ही महत्वपूर्ण हैं। कहा जाए तो, कम से कम वैचारिक रूप से केंद्र के पास लक्षित व्यय के संबंध में काफी हद तक एक प्रभावशाली दृष्टिकोण है, जो किसी छोटे शासन वाले अपेक्षाकृत गरीब देश में, विभिन्न सुरक्षा उपायों के साथ जनता को उपलब्ध कराया जाता है।
सुधार और वृद्धि
नीति प्रस्ताव, जो अर्थव्यवस्था के भविष्य के पाठ्यक्रम को प्रभावित कर सकते हैं, वे बजट के राजस्व-व्यय-उधार लेखांकन का केंद्रीय हिस्सा नहीं हैं, लेकिन वे इस अभ्यास का एक अपरिहार्य हिस्सा बन गए हैं। पुन:, कई ऐसे विशिष्ट प्रस्ताव हैं जिन्हें बाहर किया जाना प्राय: शेष है और उनका अंतिम प्रभाव इन डिजाइन विवरणों के साथ-साथ कार्यान्वयन पर भी निर्भर करता है। बजट भाषण और इससे संबंधित दस्तावेजों में आयात प्रतिस्थापन और व्यापारी के दृष्टिकोण के प्रभाव को देखा जा सकता है, लेकिन ‘पुराने दिनों’ की तुलना में विदेशी निवेश को आकर्षित करने की इच्छा में अंतर भी दृष्टिगोचर है चाहे वह सरकारी बॉन्ड के रूप में हो या नए कारखानों के रूप में। निवेशकों के लक्षित समूहों के लिए समग्र प्रभाव सकारात्मक है या नहीं, यह इस बात पर भी निर्भर करेगा कि क्या सरकार सांस्कृतिक शुद्धता के संबंध में अपने आवेगों पर नियंत्रण कर सकती है और क्या भारत की विविधता को समृद्ध करने की अनुमति प्रदान कर सकती है।
बजट के विरोधी अपने बयानों में कर-संबंधी कठिनाइयों को प्रचारित कर रहे हैं, लेकिन ऐसे प्रस्ताव तैयार किए गए हैं जो यह सुनिश्चित करने के लिए डिज़ाइन किए गए हैं कि विश्व स्तर पर भारतीय अपने देश में कर के दायरे से पूरी तरह बाहर न हों। एक नैतिक सीमा, जो प्राय: सभी प्रकार के वैचारिक झुकाव वाली सरकारों की विशेषता रही हैं (पर शायद यह विशेषता वर्तमान सरकार में काफी मजबूत है), तथा इस बात के बीच लगातार तनाव देखा जा सकता है कि भारत में व्यापार करने के लिए उचित प्रोत्साहन होना ज़रूरी है। इन नैतिक प्रवृत्तियों को नियंत्रित करने की आवश्यकता है ताकि उच्च शिक्षा का तेजी से विस्तार हो सके, अधिक संख्या में विदेशी यहां आ सकें और वेतन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धी हो सके।
अंतत: भारत को, वर्तमान परिस्थिति की तुलना में, औपचारिक क्षेत्र (फॉर्मल सेक्टर) में और अधिक नौकरियां सृजित करने की आवश्यकता है और इसका अर्थ यह है कि कई और फर्मों का निर्माण किया जाए और मौजूदा फर्मों को प्रभावी ढंग से विकसित किया जाए। कुछ निवेशक दीर्घावधि के पूंजीगत लाभ कर को खत्म करने की उम्मीद कर रहे होंगे, जो कि नहीं हुआ है, लेकिन स्टार्ट-अप के लिए जोखिम लेने वाले लोगों को आकर्षित करने पर इस बजट में लगातार ध्यान देना एक अच्छा तरीका हो सकता है। यदि ‘असेंबल इन इंडिया’ और इसके पहले के नारे ‘मेक इन इंडिया’ को वास्तव में लक्षित बुनियादी ढांचे के निवेश और क्षेत्रीय उत्पादन नेटवर्क में एकीकरण के माध्यम से लागू किया जाए तो विशेष रूप से बड़ी कंपनियों के लिए कर कम प्रासंगिक रह सकती है। तीन दशक के आर्थिक सुधार में भारतीय जीडीपी में विनिर्माण की हिस्सेदारी न होना उस प्रक्रिया की अब तक की सबसे बड़ी नाकामी है। सफलता राजस्व या व्यय में बड़े बदलावों से नहीं बल्कि शासन में बदलाव तथा राजनेताओं, नौकरशाहों और न्यायाधीशों के व्यवहार में बदलाव से प्राप्त होगी। बैलेंस शीट में ऋण को न्यूनतम रखने की आवश्यकता अभी भी ऐसी समस्या बनी हुई है जिसके बारे में सब जानते तो हैं परंतु इसके बारे में कोई बात नहीं करना चाहता, इसलिए सरकारी बजटीय संसाधनों के साथ-साथ गति और फोकस की भी आवश्यकता होगी।
हाल के कई वर्षों की तरह इस नवीनतम केंद्रीय बजट में कई प्रस्ताव और विचार दिए गए हैं, कुछ आशाजनक हैं, कुछ थोड़े कम। लेकिन कुल मिला कर, भारत की अर्थव्यवस्था पर इसके संभावित प्रभावों के संदर्भ में, यह नि:संदेह सकारात्मक है। हाल के वर्षों की तुलना में अंतर बस इतना है कि इसमें ध्यान दिए जाने और क्रियान्वयन के संबंध में तत्परता की आवश्यकता महसूस की गई है जो पिछले कुछ समय से ज़रूरी नहीं रही है। यह राजस्व, व्यय या घाटे से संबंधित मामला नहीं है, बल्कि लोगों और संगठनों से संबंधित है। उस आयाम पर, भारत की वर्तमान सरकार के बारे में लोगों को अधिक अज्ञेयवादी होना चाहिए।
नोट्स:
विकल्प के रूप में, शहरों द्वारा एकत्र किए जाने वाले शहरी संपत्ति करों में संभवतः बड़े सुधार किए जा सकते हैं,
- विकल्प के रूप में, शहरों द्वारा एकत्र किए जाने वाले शहरी संपत्ति करों में संभवतः बड़े सुधार किए जा सकते हैं, लेकिन यह राज्यों द्वारा निपटे जाने का विषय होगा।
- विनिवेश का विरोध प्रभावित श्रमिकों और प्रतिष्ठा (एयरलाइंस) या इक्विटी (नौकरी की सुरक्षा) के संदर्भ में सोचने वालों दोनों की ओर से है।
- यह निश्चित रूप से, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के अधिकांश आर्थिक मॉडलों की एक बुनियादी विशेषता है।
लेखक परिचय: निर्विकार सिंह कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (सैंटा क्रूज़) में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हैं, जहाँ वे सिख एवं पंजाबी अध्ययन के सर्बजीत सिंह अरोरा अध्यक्ष हैं।
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