ज्यां द्रेज़ के ड्यूएट प्रस्ताव पर टिप्पणी करते हुए मार्टिन रेवेलियन यह सुझाव देते हैं कि इसमें तीन चरणों की आवश्यकता है: समान नीतियों वाले दूसरे देशों के अनुभवों से सीखना, वृद्धि पर विचार करने से पहले विभिन्न संदर्भों में परीक्षण करना, और शहरी बेरोजगारी की समस्या की व्यापक समझ के परिप्रेक्ष्य में योजना को चिन्हित करना।
भारत सहित कई विकासशील देशों में शहरी बेरोजगारी की समस्या है। यह कोई नई बात नहीं है, हालांकि महामारी और (कुछ मामलों में) नीतिगत प्रतिक्रियाओं ने स्थितियों को बदतर (कई मामलों में) बना दिया है। भारत में शहरी बेरोजगारी की समस्या को दूर करने की उम्मीद से ज्यां द्रेज़ का ड्यूएट प्रस्ताव शहरी क्षेत्रों में अनौपचारिक क्षेत्र के रोजगार को बढ़ावा देने के लिए एक मजदूरी सब्सिडी योजना है। इस योजना के तहत योग्य सार्वजनिक संस्थानों को 'जॉब स्टैम्प’ प्राप्त कर सकेंगे, जिसका उपयोग वे श्रमिकों को भुगतान करने के लिए कर सकते हैं और जिसमें सरकार वैधानिक न्यूनतम मजदूरी तक के बिल को कवर कर सकती है।
शहरी सार्वजनिक रोजगार के कार्यक्रम शहरी बेरोजगारी के लिए अक्सर एक स्पष्ट समाधान की तरह प्रतीत होते हैं। बस सरकार को और अधिक श्रमिकों को काम पर रखना है। इसका एक प्रसिद्ध उदाहरण 1960 के दशक के मध्य में केन्या में था, जब वहाँ की सरकार ने निजी क्षेत्र के रोजगार हेतु अधिक प्रोत्साहन देते हुए नैरोबी में अतिरिक्त सरकारी नौकरियां प्रदान करने की नीति लागू की थी। इसी प्रकार कई मौकों पर मजदूरी सब्सिडी की कोशिश की गई है। ज्यां के नीति के डिजाइन में थोड़ी भिन्नता है, परंतु एक सामान्य विशेषता यह है कि सरकार योग्य श्रमिकों की मजदूरी पर अंशत: या पूर्णत: सब्सिडी देगी। अतिरिक्त प्रशिक्षण प्रयासों के लिए मजदूरी सब्सिडी को जोड़ना सामान्य प्रतीत होता है, और ज्यां के प्रस्ताव से यह विकल्प ज्ञात होता है।
इस तरह की नीतियों का मूल्यांकन करने में तथाकथित 'दूसरा दौर' और 'सामान्य संतुलन' प्रभावों सहित संभावित व्यवहार प्रतिक्रियाओं को समझना महत्वपूर्ण है। ये प्रभाव नए शहरी रोजगार पैदा करने के लिए सुविचारित प्रयासों को कमजोर कर सकते हैं। उदाहरण के लिए - अतिरिक्त शहरी नौकरियां ग्रामीण प्रवासियों को भी कुछ नई नौकरियां मिलने की उम्मीद से आकर्षित करेंगी। वास्तव में, कुछ शर्तों के तहत, शहरी बेरोजगारों की संख्या बढ़ेगी, अनुबंध नहीं। (विकास अर्थशास्त्र में यह परंपरागत हैरिस-टोडारो मॉडल में हो सकता है।) यह सिर्फ एक सैद्धांतिक संभावना नहीं है; वास्तव में, यह 1960 के दशक में केन्याई नीति के मामले में ऐसा ही हुआ है (टोडारो 1969 में यथावर्णित)।
मजदूरी सब्सिडी पर नियोक्ता मौजूदा श्रमिकों (या नियोजित भर्ती) के स्थान पर सब्सिडी वाले श्रमिकों को ले सकते हैं, ताकि उनके समग्र मजदूरी बिल में कटौती हो सके। यह तर्क दिया जा सकता है कि यह उन सार्वजनिक एजेंसियों के लिए चिंता का विषय होगा जो ज्यां के प्रस्ताव में नियुक्तियां प्रदान करने वाली हैं। ऐसा हो भी सकता है और नहीं भी। मेरी कल्पना है कि प्लेसमेंट एजेंसियां भी संभवतः अन्य गतिविधियों का समर्थन करने के लिए अपनी लागत में कटौती करना चाहेंगी। यह चिंता तब हीं बढ़ेगी जब (जैसा कि ज्यां ने बताया है) इस निजी गैर-लाभकारी संगठनों को शामिल करने के लिए इस विचार को बढ़ाया जाएगा। (तथ्य यह है कि एक नियोक्ता 'गैर-लाभकारी’ है का अर्थ यह भी हो सकता है कि वह अपने श्रमिकों को ड्यूएट जैसी किसी योजना में लगा कर अपनी लागत कम करने के लिए उत्सुक है।)
एक मौके पर ज्यां इस संभावना को स्वीकारते हुए कहते हैं कि "कार्यों की सूची इतनी भी व्यापक नहीं होनी चाहिए कि मौजूदा कार्यों को सार्वजनिक संस्थानों में विस्थापित करना पड़े”। मेरे लिए यह स्पष्ट नहीं है कि यह योजना इसका निर्धारण कैसे कर सकेगी कि सूची में ऐसा कौन-सा मार्ग है जो विस्थापन को रोक सके। मैं ज्यां की इस बात से सहमत हूँ कि सार्वजनिक सुविधाओं के रखरखाव आदि क्षेत्रों में किए जाने के लिए काफी कार्य है। क्या हम यह मान सकते हैं कि सार्वजनिक संस्थान रखरखाव पर कम खर्च करते हुए अपने धन को नासमझी से खर्च कर रहे हैं? यदि ऐसा है, तो सार्वजनिक संस्थान क्यों अपने मौजूदा (सीमित) रखरखाव के प्रयासों को ड्यूएट श्रमिकों के लिए स्थानांतरित नहीं करेंगे और अपने पैसे को उस पसंदीदा (नासमझी) कार्य के लिए छोडेंगे। या समस्या यह है कि स्थानीय प्राधिकरणों के पास जाने वाली कुल राशि बहुत कम है? फिर स्थानीय प्राधिकरणों के लिए अधिक बजट समर्थन पर ड्यूएट को वित्तपोषित करने हेतु (संभावित रूप से अधिक) राशि खर्च करने की आवश्यकता क्यों नहीं है?
मेरा सुझाव है कि यदि गंभीरता से विचार किया जाए तो इस संबंध में तीन कदम उठाए जाने की आवश्यकता है। सबसे पहले, अतीत में किए गए इस तरह के प्रयासों में क्या गलत हो सकता है। इसका पता लगाने के लिए उपलब्ध शोधों का अध्ययन करना अच्छा होगा और यह स्पष्ट है कि चीजें गलत भी हो सकती हैं। जबकि मैंने कुछ समय से ऐसे साहित्य की समीक्षा नहीं की है, मुझे उम्मीद है कि भारत ऐसे प्रस्ताव रखने वाले अन्य देशों के अनुभवों से सीख सकता है। विभिन्न देशों में सार्वजनिक रोजगार और मजदूरी सब्सिडी/प्रशिक्षण कार्यक्रमों का मूल्यांकन किया गया है, हालांकि मेरी धारणा यह है कि यह रिकॉर्ड काफी मिला-जुला है। जैसा कि ज्यां ने उल्लेख किया है, आशा है कि ड्यूएट एक शहरी रोजगार गारंटी योजना में रूपांतरित हो जाएगा। यहाँ भी मैं थोड़ा ध्यान से आगे बढ़ना चाहूँगा, विशेष रूप से भारत की प्रसिद्ध ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) पर प्राप्त मिश्रित प्रमाणों को ध्यान में रखते हुए, जिसने अन्य स्थानों की तुलना में कुछ स्थानों पर बेहतर काम किया है, और (अफसोस) अक्सर गरीब ग्रामीण क्षेत्रों में कम अच्छी तरह से काम किया है। यदि मनरेगा उतना ही सफल रही है जितना ज्यां सोचते हैं, तो आश्चर्य की बात है कि भारत के शहरी क्षेत्रों में अपेक्षाकृत अकुशल (अनौपचारिक क्षेत्र) श्रम की इतनी बेरोजगारी क्यों है।
दूसरा, वृद्धि पर विचार करने से पहले विभिन्न संदर्भों में परीक्षण किया जाना चाहिए। ज्यां यह उल्लेख करते हैं कि "ड्यूएट को एक विशेष जिले या नगरपालिका में परीक्षण के आधार पर आसानी से शुरू किया जा सकता है"। ठीक है, लेकिन यह ज़रूरी है कि हम ऐसे परीक्षणों से विश्वसनीय रूप से सीखें। मैं निश्चित रूप से यह नहीं सोचता कि यादृच्छिक नियंत्रित परीक्षण (आरसीटी) वे ’गोल्ड स्टैंडर्ड’ हैं जिनके लिए कुछ प्रभावशाली पक्षकारों ने दावा किया है, लेकिन यह एक ऐसा उपकरण है जो ड्यूएट परीक्षणों के मूल्यांकन के लिए बिल्कुल उपयुक्त हो सकता है। एक उदाहरण के रूप में अर्जेंटीना में मजदूरी अनुदान और प्रशिक्षण योजना के संबंध में गैलासो एवं अन्य (2004) ने बताया है कि आरसीटी की जांच की जा सकती है। उन्होंने अध्ययन में रोजगार पर एक छोटा, लेकिन सांख्यिकीय रूप से महत्वपूर्ण प्रभाव पाया, लेकिन आय पर नहीं। प्रशिक्षण घटक का औसत प्रभाव कम था, हालांकि पूर्व प्रशिक्षित श्रमिकों के लिए यह प्रभाव कुछ हद तक अधिक था। महत्वपूर्ण रूप से इस गुणात्मक कार्य (आरसीटी के पूरक के रूप में) से यह पता चला कि मजदूरी सब्सिडी योजना ने व्यवहार में अपेक्षाओं के अनुरूप तरीके से अलग काम किया।
तीसरा, और एक महत्वपूर्ण सुझाव यह है कि इस विचार को व्यापक मूल्यांकन के संदर्भ में रखा जाना चाहिए। मुझे ज्यां के प्रस्ताव में जो बात छूटी हुई लग रही है, वह है, इसमें ऐसे विश्लेषण के जरा भी संकेत नहीं हैं कि सबसे पहले यह समस्या विद्यमान क्यों है। इसमें उस क्षेत्र में श्रम की आपूर्ति के सापेक्ष निजी क्षेत्र में रोजगार को बरकरार रखने की गहरी समझ शामिल होनी चाहिए, जो इस बात पर भी निर्भर करता है कि ग्रामीण क्षेत्र में क्या होता आ रहा है। यदि हम शहरी बेरोजगारी के अस्तित्व का साधारण अवलोकन करते हैं, तो ड्यूएट जैसी कोई योजना स्पष्ट समाधान लग सकती है। हालांकि जैसा कि मैंने जोर दिया है, यह इतना स्पष्ट नहीं है। हैरिस-टोडारो एक ऐसा पहलू है, जो शहरी श्रम बाजारों पर न्यूनतम मजदूरी और अन्य प्रतिबंधों की भूमिका को इंगित करता है, और हमें यह चेतावनी भी देता है कि अतिरिक्त सरकारी नौकरियों से शहरी बेरोजगारी का कम होना ज़रूरी नहीं है। मैं इस बात से सहमत नहीं हूँ कि शहरी श्रम बाजारों में तथाकथित 'विकृतियों' को दूर करना जरूरी या उचित भी है; यह एक खुला प्रश्न बना हुआ है। लेकिन मुझे लगता है कि हमें सबसे पहले इस बात पर व्यापक चर्चा करने की आवश्यकता है कि यह समस्या क्यों है, और क्या सरकारी सब्सिडी के साथ, अतिरिक्त सार्वजनिक रोजगार और प्रशिक्षण सबसे अच्छा समाधान हैं, या फिर क्या यह कारगर भी हो पाएगा।
लेखक परिचय: मार्टिन रेवेलियन जॉर्जटाउन यूनिवरसिटि में अर्थशास्त्र के एडमंड डी विलानी चैर हैं।
Comments will be held for moderation. Your contact information will not be made public.