सामाजिक पहचान

अन्य धर्मों को गंभीरता से लेना: भारत में हिंदुओं का तुलनात्मक सर्वे

  • Blog Post Date 08 फ़रवरी, 2019
  • लेख
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Ajay Verghese

University of California, Riverside

ajay.verghese@ucr.edu

जहां पिछले कुछ दशकों में राजनीति विज्ञान में धर्म का अध्ययन अनुसंधान के बढ़ते क्षेत्र के रूप में फिर से उभरा है, वहीं अधिकांश रिसर्च में अभी भी यहूदी, ईसाई, और इस्लाम पर फोकस किया जाता है। धर्म क्या है, उसका मूल्यांकन कैसे किया जाता है, और यह राजनीतिक व्यवहार को कैसे प्रभावित करता है, इस पर मुख्यतः इन पश्चिमी धर्मों के चश्मे से ही धारणाएं बनाई जाती रही हैं। इस आलेख में बिहार में हिंदू धार्मिकता पर सर्वे के जरिए हिंदु धर्म की छानबीन की गई है। इसमें पाया गया है कि जिस तरह से सामाजिक वैज्ञानिक धर्म के बारे में सोचते हैं और जिस तरह से हिंदु खुद इसके बारे में सोचते हैं, दोनो के बीच काफी अंतर है।

 

मैक्स वेबर को सबसे अधिक द प्रोटेस्टेंट एथिक एंड स्पिरिट ऑफ कैपिटलिज्म के लिए जाना जाता है। लेकिन यह बात कम मशहूर है कि उन्होंने रिलिजन ऑफ इंडिया : द सोशियोलॉजी ऑफ हिंदुईज्म एंड बुद्धिज्म नाम की एक दिलचस्प किताब भी लिखी थी। इसमें उन्होंने यह बताने की कोशिश की थी कि भारत में अपनी खुद की औद्योगिक क्रांति क्यों नहीं हुई। वेबर का तर्क यह था कि हिंदू और बौद्ध धर्म को मानने वाले लोग दूसरी दुनिया की इतनी अधिक चिंता करते हैं और अगले जीवन पर केंद्रित रहते हैं कि उनका ध्यान पूंजीवाद के विकास को प्रोत्साहित करने पर गया ही नहीं। उन्होंने लिखा कि सारे हिंदू दो मूल सिद्धांतों को स्वीकार करते हैं : आत्माओं के देहांतरण को मानने वाली ‘समसारा’ की धारणा और उससे संबंधित प्रतिफल का ‘कर्म’ सिद्धांत। पूरे हिंदू धर्म में यही वास्तव में ‘कट्टर’ सिद्धांत हैं, और अपनी अत्यंत संबद्धता में वे वे मौजूदा समाज के अद्वितीय हिंदू धर्मशास्त्र का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसे जाति व्यवस्था कहते हैं।

हालांकि वेबर भारत कभी नहीं आए थे और हिंदू धर्म के बारे में उनका जोशरहित विचार संस्कृत की शास्त्रीय पुस्तकों के पढ़ने पर आधारित था जिनमें कर्म और पुनर्जन्म की विद्वत्तापूर्ण धारणाओं पर चर्चा और तर्क-वितर्क किया गया था। कई दशक बाद मानवविज्ञानी एडवर्ड बी. हार्पर गांवों के धार्मिक जीवन का अध्ययन करने भारत गए। वर्ष 1959 में उन्होंने वेबर के लेखन से काफ़ी अलग बातें लिखीं। उन्होंने ध्यान दिलाया कि “निम्न जातियां अक्सर ‘पुनर्जन्म’ शब्द और उसकी अवधारणा से पूरी तरह अपरिचित थीं।’’

यह बात गैर-पश्चिमी धार्मिक परंपराओं के समाज-वैज्ञानिक अध्ययन में दो पुरानी समस्याओं पर प्रकाश डालती है। पहली समस्या धर्म क्या है इसके बारे में पश्चिमी विचारों को मानना और काफी भिन्न संस्कृतियों में धार्मिकता का मूल्यांकन करने के आधार के तौर पर उनका उपयोग करना है। वेबर का हिंदू धर्म का आस्था-केंद्रित विचार मोटे तौर पर धर्म के गठन के संबंध में उनकी ईसाई समझ पर आधारित था। लेकिन जैसा कि अनेक विद्वानों ने लिखा है, हिंदू धर्म पंथवादी नहीं है और हिंदुओं के नास्तिकता सहित ढेर सारे तरह के विश्वास हो सकते हैं और इसके बावजूद भी वे धर्मनिष्ठ माने जा सकते हैं। उनकी बात में जिस दूसरी समस्या पर प्रकाश डाला गया है वह है गैर-पश्चिमी धर्मों का धर्मग्रंथों पर फोकस कर अध्ययन करना। लेकिन हिंदू धर्म में कोई बाइबिल या कुरान नहीं है, और जैसा कि हार्पर ने दर्शाया कि संस्कृत के शास्त्रीय ग्रंथों के फोकस में रही धारणाएं आम लोगों के हिंदू धर्म से पूरी तरह असंबंधित हैं।

धर्म राजनीतिक व्यवहार के वाहक के रूप में

दो दशक से भी अधिक समय से राजनीति विज्ञान ने धर्म को दुबारा ढूंढ निकाला है। लंबे समय की उपेक्षा के बाद राजनीति-विज्ञानियों ने अनेक देशों में राजनीतिक व्यवहार के वाहक के रूप में धर्म को गंभीरता से लेना शुरू कर दिया है। यह एक सकारात्मक चीज़ है। और इसके बाद भी धर्म और राजनीति को जोड़ने वाले अधिकांश रिसर्च में कई वही गलतियां की गई हैं जिनसे वेबर की कृति एक सदी पहले ग्रस्त थी। राजनीति विज्ञान में धर्म का अध्ययन जबर्दस्त ढंग से ‘अब्राहमी धर्मों’ – यहूदी, ईसाई, और इस्लाम – पर केंद्रित है। धर्म क्या है और उसका मूल्यांकन कैसे किया जाता है, इसकी धारणा मुख्यतः इन तीनों महान एकेश्वरवादी धर्मों के चश्मे से बनाई गई हैं। लेकिन बौद्ध या शिंतो अथवा दुनिया भर में एक अरब अनुयायियों वाले हिंदू धर्म की बहुत कम अध्ययन की गई ‘पूर्वी’ परंपराओं में धर्म राजनीति को कैसे प्रभावित करता है?

हिंदू धार्मिकता के मूल्यांकन के लिए तुलनात्मक सर्वे

अपने जारी रिसर्च (वर्गीज 2018) में बिहार और केरल में नौ महीनों के फील्डवर्क के आधार पर मैंने हिंदू धर्म का अध्ययन धर्म के प्रति पश्चिमी दृष्टिकोण से बचकर और उसकी जगह खुद हिंदू विचारों को तरजीह देकर किया है। मैंने बहुत आसान मेथडोलॉजिकल डिजाइन का उपयोग किया। मैंने हिंदू धर्म पर वर्ल्ड वैल्यू सर्वे और नेशनल इलेक्शन स्टडी से लिए गए सर्वे के कलोज-एंडेड प्रश्नों के साथ शुरुआत की। प्रार्थना, मंदिर जाने, व्रत करने, और धार्मिक सेवाओं में शामिल होने पर केंद्रित इन प्रश्नों का उपयोग समाज-विज्ञानियों द्वारा हिंदू धार्मिकता का मूल्यांकन करने के लिए किया गया है। उसके बाद मैंने सर्वे का दूसरा संस्करण तैयार किया, लेकिन इस बार ओपन-एंडेड उत्तरों के साथ। जैसे, सर्वे के पहले संस्करण में पूछा गया था : ‘‘क्या आप ये-ये धार्मिक कृत्य करते हैं?’’ और उसमें मैंने वर्ल्ड वैल्यूसर्वे और नेशनल इलेक्शन स्टडी के आम उत्तरों की सूची शामिल की थी : पूजा, मंदिर जाना, व्रत रखना आदि। वहीं दूसरे संस्करण में ओपन-एंडेड प्रश्न का उपयोग किया गया : ‘‘आप क्या-क्या धार्मिक कृत्य करते हैं?’’ इसके बाद मैंने उत्तर भारतीय राज्य बिहार में, जहां की धार्मिक डेमोग्राफी पूरे भारत के समान की है, डेमोग्राफिक आधार पर एक जैसे दो गांवों में सर्वे के दोनो संस्करण बांट दिए।   

सर्वे के दोनो सेंपल के बीच तुलना करने पर समाज-विज्ञानी धर्म के बारे में कैसे सोचते हैं और खुद हिंदुओं में उसके बारे में कैसी धारणा है, इसमें भारी अंतर दिखता है। जैसे हिंदू धार्मिक रस्मों के बारे में प्रश्न पर विचार करें जिसके उत्तरों को मैंने नीचे की तालिका में दर्शाया है। क्लोज-ऐंडेड सेंपल में हिंदुओं ने जबर्दस्त ढंग से उल्लेख किया कि उनलोगों ने पूजा की, मंदिर गए, और व्रत किया। लेकिन जब मैंने ओपन-एंडेड प्रश्न के उत्तर में देखा, तो मैंने गौर किया कि उनमें से अधिकांश लोगों ने समझा ही नहीं कि ‘‘धार्मिक रस्मों’’ का क्या अर्थ है। और यह एक एकेडमिक समस्या है क्योंकि हिंदी में कम से कम 10 शब्द ऐसे हैं जिनका अनुवाद ‘‘रिचुअल’’ किया जा सकता है। 

तालिका 1. हिंदू रस्में (शीर्ष पांच उत्तर)

रस्म (क्लोज-एंडेड)

प्रतिशत

रस्म (ओपन-एंडेड)

प्रतिशत

धार्मिक दान

96.0

पूजा

73.4

पूजा

90.1

उत्सवों में भाग लेना

22.4

मंदिर जाना

90.1

वेशभूषा

20.4

बराबरी : धार्मिक कृत्यों में भाग लेना, शुभ मुहुर्तों के बारे में पंडित से सलाह लेना 

88.2

बराबरी : व्रत करना, मंदिर जाना

16.3

व्रत करने 

74.5

माता-पिता/ पूर्वजों के साथ संबंध

10.2

इस रिसर्च का मकसद हिंदू और गैर-हिंदू परंपरा के बीच अंतरों की सूची तैयार या हिंदुत्व के प्रति आकर्षण पैदा करना नहीं होकर इस बात को सामने लाना है कि सर्वे के वर्तमान काम में क्या चीजें छूट गई हैं: हिंदू परंपरा में जितनी सारी चीजों और जितनी विविधताओं को धार्मिक माना जाता है, वे समाज-विज्ञानियों - खास कर ईसाई समाजों में पले-बढ़े समाज-विज्ञानियों – द्वारा छानबीन के लिए प्रयुक्त चीजों से बहुत अधिक हैं। अनेक हिंदुओं के लिए धर्म का कर्म या पुनर्जन्म से शायद ही कोई लेना-देना है। इसके बजाय मेरा रिसर्च दर्शाता है कि इसमें आस्तिकता, अपने परिवार और पूर्वजो के साथ संबंध बनाए रखना, शुद्धि/ अशुद्धि और शुभ/ अशुभ को नियंत्रित करने वाले नियमों को मानना, उनका खान-पान, और तिलक लगाने, पाजेब पहनने, या पांवों में आलता लगाने सहित उनकी रोज़मर्रा की वेशभूषा शामिल हैं।

राजनीतिक निहितार्थ

मेरे रिसर्च के परिणामों के महत्वपूर्ण राजनीतिक निहितार्थ हैं। मेरा तर्क यह है कि अभी तक हिंदू धार्मिकता का हमारे पास कोई विश्वसनीय पैमाना नहीं है और उसके बिना राजनीति पर उसके प्रभाव का अध्ययन करना एक अनिश्चित कार्य है। मेरे कहने का क्या आशय है इसे स्पष्ट करने के लिए इस पर विचार करें: राजनीति विज्ञान में एक आम निष्कर्ष यह है कि भारत में मुख्य हिंदू दल भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के लिए मतदान करना या तो धार्मिकता की भविष्यवाणी नहीं है या केवल एक कमजोर भविष्यवाणी है। लेकिन इस तर्क में मान लिया जाता है कि मंदिर जाना और धार्मिक उपासना में भाग लेना हिंदू धार्मिकता के वैध मैट्रिक हैं। लेकिन मेरे सर्वे के काम से पता चलता है कि अनेक हिंदू इन्हें अपने धर्म के मूल तत्व नहीं मानते हैं।

राजनीति विज्ञान में धर्म को गंभीरता से लेने का अर्थ बौद्ध या हिंदू धर्म जैसी प्रभावी परंपराओं को नजरअंदाज नहीं करना और उसके साथ-साथ इसे भी कबूल करना है कि इन धर्मों के अध्ययन के लिए व्यापक रूप में चिंतन की जरूरत पड़ेगी कि धर्म क्या है और हमें कैसे उसका मूल्यांकन करना चाहिए। साथ ही इस अध्ययन का यह अर्थ नहीं निकाल लेना चाहिए कि हिंदू धर्म पश्चिमी धर्मों के साथ अतुलनीय है। यह ऐसा परिप्रेक्ष्य है जिसने 1966 में भारतीय सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) ने अपना प्रसिद्ध निर्णय दिया था कि क्यूंकि हिंदू धर्म पश्चिमी धर्मों की तरह काम करता नहीं दिखता है; इसे ‘‘जीवनशैली माना जाना चाहिए इससे अधिक नहीं’’। लेकिन न्यायालय का तर्क यह नहीं साबित करता है कि हिदू धर्म धर्म नहीं है – यह तो बस यह कहता है कि यह धर्म की पश्चिमी अवधारणाओं के अनुरूप नहीं है जिसमें धर्म को नियामक माना जाता है। इसके विपरीत, मेरा विचार है कि हिंदू धर्म अब्राहमी धर्मों से अलग तो है लेकिन असदृश नहीं है। हिंदू धर्म में भी ऐसे तत्व हैं जो यहूदी धर्म या इस्लाम के साथ मेल खाते हैं, लेकिन हिंदू धर्म में ऐसे अनेक पक्ष भी हैं जो काफ़ी भिन्न हैं। इन समानताओं और अंतरों को स्वीकार करना भावी रिसर्च के लिए महत्वपूर्ण कदम है। इसके लिए धार्मिक शब्दों के अनुवादों के बारे में गहराई से सोचते हुए अन्य संस्कृतियों की अपनी शर्तों पर उनके साथ जुड़ने और यह देखने की जरूरत है कि दैनिक जीवन में धर्म कैसे काम करता है। इन चीजों को किए बिना विद्वान लोग इस बारे में गलत विचारों के साथ चिपके रहने का जोखिम लेते हैं कि धर्म से क्या आशय है और यह राजनीतिक व्यवहार को कैसे प्रभावित करता है।

लेखक परिचय : अजय वर्घीज़ यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया रिवरसाइड में राजनीति विज्ञान के असिस्टेंट प्रॉफेसर हैं।

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