सामाजिक पहचान

भारतीय संसद में, प्रतिनिधित्व के बारे में ‘प्रश्नकाल’ क्या बता सकता है?

  • Blog Post Date 22 जनवरी, 2020
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क्या अपने समूह के हितों का एक महत्वपूर्ण प्रतिनिधित्व प्राप्त करने के लिए किसी विशेष सामाजिक पृष्ठभूमि से भारतीय सांसदों का संख्यात्मक प्रतिनिधित्व महत्वपूर्ण है? पिछले 20 वर्षों के संसद में सांसदों द्वारा उठाए गए मुद्दों की सामग्री का प्रयोग कर के यह लेख इस सवाल का जवाब देता है। इस लेख में पाया गया है कि पुरुष सांसद और गैर-मुस्लिम सांसदों की क्रमशः महिलाओं और भारतीय मुसलमानों से संबंधित सवाल उठाने की संभावना कम है। हालांकि, भारत की विविधता सभी समूहों के लिए आनुपातिक प्रतिनिधित्व को कठिन बनाती है।

 

एक अरब से भी अधिक नागरिकों वाले इस देश में, प्रत्येक भारतीय सांसद औसतन 25 लाख लोगों (वैष्णव और हिन्टन 2019) का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसकी तुलना में, अन्य देशों में करीब 10 लाख के प्रतिनिधित्व अनुपात है। मिसाल के तौर पर, इस अनुपात के पैमाने का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि, देश की राजधानी नई दिल्ली के स्कूलों में नवंबर 2019 में वितरित किए गए प्रदूषण मास्क की संख्या लगभग नॉर्वे की पूरी आबादी के बराबर थी। भारत की अनोखी क्षेत्रीय और सांस्कृतिक विविधता के साथ मिल कर यह बड़ी संख्या राजनीतिक प्रतिनिधित्व के विचार को बेहद जटिल बनती हैं, मतलब कि देश में निर्वाचित निकायों का गठन किसे करना चाहिए ताकि विभिन्न समूहों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व हो सके।

भारतीय संसद भी इस सवाल से जूझती है, विशेष रूप से कानून बनाने वाली संस्थाओं में महिलाओं और अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्व के मामले में। संस्था में महिला और मुस्लिम सांसदों की कम हिस्सेदारी चिंता का कारण है, इतना कि कुछ राजनीतिक दलों ने विधायी प्रतिनिधित्व में लैंगिक अंतर को कम करने के लिए 2019 के लोकसभा चुनावों में महिला उम्मीदवारों के न्यूनतम हिस्से के नामांकन को अनिवार्य कर दिया है। यह इस तथ्य के बावजूद है कि न तो लिंग और न ही धार्मिक पहचान भारत में समरूप समूह बनाते हैं, जैसा कि राज्यों और भौगोलिक क्षेत्रों में ये पहचान बड़े पैमाने पर अलग-अलग हैं। कम-प्रतिनिधित्व का मुद्दा मायने रखता है जैसा सिद्धांतों से पता चलता है कि लोकतंत्र में किसी समुदाय के हित का प्रतिनिधित्व, संसद में उस समुदाय की उपस्थिति से जुड़ा हुआ है, जो यह संकेत देता है कि किसी समुदाय के हितों का बेहतर प्रतिनिधित्व उसके अपने सदस्यों द्वारा किया जाता है। हो सकता ऐसा इसलिए है क्योंकि एक पहचान से संबंधित होने के अनुभव से राजनेता बेहतर तरीके से अपने समूह की चिंताओं और हितों को व्यक्त कर सकते हैं, जैसा कि प्रभावी प्रतिनिधित्व के लिए उनके बारे में गहरी समझ होना जरुरी है, जिनका प्रतिनिधित्व किया जा रहा है। दूसरी ओर, कुछ विद्वानों ने तर्क दिया है कि प्रतिनिधि की पहचान उनके हस्तक्षेप की सामग्री से कम महत्व रखती है। साथ ही यह भी कहा गया है कि वर्णनात्मक, या दर्पण की तरह प्रतिनिधित्व की अनुपस्थिति में, उस समूह को कार्यों के माध्यम से दर्शाया जा सकता है।

हैन्ना पिटकिन ने अपनी किताब, ‘द कॉन्सेप्ट ऑफ रिप्रेजेंटेशन (प्रतिनिधित्व की अवधारणा)’ में इन विचारों पर चर्चा की है, जो राजनीतिक प्रतिनिधित्व का अध्ययन करने के लिए दृष्टिकोण की व्याख्या करते हैं। वह बताती हैं कि वर्णनात्मक प्रतिनिधित्व एक संस्था की एक आदर्श संख्यात्मक संघटन के प्रति एक आकांक्षा है। यहाँ चुने गए प्रतिनिधियों की विशेषता इस तरह से राज्य के मतदाताओं को दर्शाएगा (चाहे वह धर्म, आय, जाति, लिंग, आदि के आधार पर हो), जिसका परिणाम जनसंख्या के यादृच्छिक नमूने के समान संघटन में होगा। यह दृष्टिकोण कम-प्रतिनिधित्व के मामलों को इंगित करने के लिए तो उपयोगी हो सकता है, लेकिन यह समझ पाना मुश्किल है कि निर्वाचित प्रतिनिधियों के कार्यों के माध्यम से प्रतिनिधित्व कैसे प्रकट होता है। मतलब, राजनेता अपने प्रदर्शन और कार्यों के माध्यम से समुदायों या मुद्दों का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं जो केवल उनकी विशिष्ट पृष्ठभूमि और पहचान पर शायद निर्भर नहीं हो सकते हैं।

तब सवाल यह उठता है कि हम यह कैसे परखें कि क्या ये पहचान वास्तव में भारत में निर्वाचित प्रतिनिधियों के व्यवहार और प्रदर्शन को प्रभावित कर रही हैं? और इन समुदायों के लिए प्रतिनिधि कार्यों के क्या परिणाम हो सकते हैं?

संसदीय प्रश्नों का आंकड़ों के रूप में उपयोग

संसद के प्रश्नकाल के दौरान सांसदों द्वारा उठाए गए सवालों की सामग्री को देखकर इन सवालों का जवाब देना संभव है। कंप्यूटर विज्ञान से प्रश्नों और उपकरणों का एक अनूठा डेटासेट उन मुद्दों की मात्रा को निर्धारित करने में मदद करता है जो सदन में प्रमुखता पाते हैं। प्राकृतिक भाषा प्रसंस्करण एल्गोरिदम (कलन विधि) का उपयोग करके प्रश्नों को वर्गीकृत किया गया है, जो पिछले 20 वर्षों में पूछे गए 300,000 से अधिक प्रश्नों में से सांसदों द्वारा उठाए गए महिलाओं और भारतीय मुसलमानों से संबंधित मुद्दों के प्रश्न निकालता है। जब इनके प्रदर्शन की तुलना मानव कोडर्स द्वारा किए गए ऐसे कार्य से की जाती है तो पता चलता है कि ये एल्गोरिदम लगभग 95% की सटीकता के साथ एक कठिन कार्य को स्वचालित करता है।

एल्गोरिदम को संसद में उठाए गए मुद्दों के बारे में सवाल खोजने का काम सौंपा गया। सहज रूप से, यह उन शब्दों को खोजने के लिए किया गया जो किसी विषय के बारे में विशिष्ट चिंताओं का संकेत देते हैं। यह शब्द एम्बेडिंग2 का उपयोग करके किया जाता हैजो एक कृत्रिम न्युरल नेटवर्क एल्गोरिदम1 पर आधारित हैं, जो उन संसदीय सवालों की खोज में मदद करता है जिसमें महिलाओं और मुसलमानों से संबंधित मुद्दों को उठाया गया है।

सांसद की पहचान और समुदाय के बारे में सार्थक मुद्दे उठाने के बीच कड़ी का परिक्षण

हाल के शोध (भोगले 2018) में, प्रश्नों के शॉर्टलिस्ट किए गए डेटासेट का इस्तेमाल करके एक साधारण रिग्रेशन टेस्ट के जरिए मैंने एक समुदाय के बारे में सार्थक मुद्दों को उठाना और सांसद की पहचान के बीच की कड़ी का पता लगाया है। परिणामस्वरूप, संसदीय सवालों की सामग्री पर लिंग और धर्म का महत्वपूर्ण प्रभाव देखा गया है जो दोनों समूहों की चिंता करते हैं। यानी कि, कुल मिलाकर, पुरुष सांसदों की महिलाओं से संबंधित सवाल और गैर-मुस्लिम सांसदों की भारतीय मुसलमानों के बारे में सवाल उठाने की संभावना कम है। सांख्यिकीय मॉडल3 का उपयोग करके इन अवलोकनों की और अधिक पुष्टि की गई है। परिणाम बताते हैं कि संसद में, महिला सांसदों की तुलना में पुरुष सांसदों की महिलाओं संबंधित मुद्दों के बारे में सवाल उठाने की संभावना 25% कम है। संसदीय प्रश्नों की सामग्री पर धर्म का अधिक प्रभाव है, जिसमें भारतीय मुसलमानों से संबंधित मुद्दों के बारे में, मुस्लिम सांसदों की तुलना में गैर-मुस्लिम सांसद 74% कम सवाल उठाते हैं।

इसका तात्पर्य है कि संस्थानों में समुदाय की उपस्थिति से महत्वपूर्ण और पर्याप्त लाभ प्राप्त होते हैं। प्रतिनिधित्व का सकारात्मक परिणाम उसी विषय पर पहले किए गए काम द्वारा समर्थित किया गया है। ग्राम-स्तर के संस्थानों में आरक्षण के प्रभाव पर साइमन चाचर्ड (2014) का काम दिखाता है कि इस तरह के प्रतिनिधित्व प्रमुख जातियों के मनोविज्ञान को प्रभावित करते हैं – यानी कि वे बातचीत के मानदंडों को प्रभावित करते हैं और भेदभावपूर्ण व्यवहार को कम करते हैं। इसी तरह, फ्रांसेस्का जेनसेनियस ने पाया कि अनुसूचित जाति (एससी) के लिए कोटा जाति-आधारित भेदभाव को कम करके एससी के सदस्यों के लिए सामाजिक न्याय में सुधार करता है। ये निष्कर्ष सार्वजनिक संस्थानों में समावेश के महत्व की ओर इशारा करते हैं।

इन सकारात्मक परिणामों के बावजूद, भारत में सभी विविध समुदायों के लिए आनुपातिक प्रतिनिधित्व अभी भी कठिन है। भारत में हजारो धागे विविध सामाजिक ताने-बाने का निर्माण करते हैं और हर कार्यकाल के अंत में राष्ट्रीय विधानसभा के लिए प्रत्यक्ष चुनाव के माध्यम से केवल 543 सीटें भरी जाती हैं। जैसा कि प्रत्येक सांसद लाखों मतदाताओं के हितों और विचारों का प्रतिनिधित्व करते हैं, यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि सांसद इस तरह से अपने मतदाताओं के लिए रास्ते उपलब्ध कराने पर ध्यान केंद्रित करें कि सांसद की पहचान के बावजूद, उनके निर्वाचन क्षेत्र में समूह के हितों का प्रतिनिधित्व कर सकें। इस प्रकार यह एक बार सत्ता में आने पर सांसदों पर निर्भर करता है कि वे चिंता व्यक्त करें और अपनी पहचान के आधार पर समूह के हितों को देखने की बजाय निर्वाचन क्षेत्रों में उनके बड़े समुदाय को लाभ पहुंचाने के लिए पर्याप्त रूप से कार्य करें।

नोट:

  1. सरल शब्दों में, एक न्युरल नेटवर्क ऐसी प्रणाली (जैविक या कृत्रिम) है जो सीखने का अनुसरण करने में सक्षम है। शब्द एम्बेडिंग के विशेष मामले में, वेक्टर के रूप में शब्दों का संख्यात्मक रूप से प्रतिनिधित्व करने के लिए, कृत्रिम न्युरल नेटवर्क एल्गोरिदम का इस्तेमाल किया गया है ताकि सिंटैक्टिक और सिमेंटिक शब्द समानता को मापा जा सके, जैसा कि मिकोलोव एट अल द्वारा प्रस्ताव दिया गया था (2013)।
  2. वर्ड एम्बेडिंग भाषा मॉडलिंग के सेट के लिए सामूहिक नाम है और प्राकृतिक भाषा प्रसंस्करण में सीखने की तकनीक है जहाँ शब्दावली से शब्द या वाक्यांश वास्तविक संख्या के वेक्टर के लिए मैप किए जाते हैं।
  3. एक सरल रैखिक प्रतिगमन और एक नकारात्मक द्विपद प्रतिगमन विश्लेषण का संचालन के लिए लिया गया है। आईआरआर (घटना दर अनुपात) की गणना परिणामों की व्याख्या करने के लिए की गई है।

लेखक परिचय: सलोनी भोगले अशोका विश्वविद्यालय के त्रिवेदी सेंटर फॉर पॉलिटिकल डेटा में रिसर्च फेलो के पद पर कार्यरत हैं।

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