हमें भारत के बच्चों को निराश नहीं करना है
- 04 अगस्त, 2020
- दृष्टिकोण
कोविड-19 महामारी के कारण स्कूल बंद हैं और पूरी दुनिया में करोड़ों बच्चे घर में बैठे रहने को मजबूर हैं। अनिश्चितता से भरे इस दौर में, खास तौर पर बच्चों को सामान्य हालात की कुछ झलक चाहिए। उनकी ज़रूरतों के हिसाब से तैयार किया गया स्कूल कार्यक्रम ही उन्हें अपनी ओर खींच सकता है। इस आलेख में हरिणी कन्नन ने शिक्षण की नई पद्धति अपनाने पर प्रकाश डाला है।
जून और जुलाई भारत में न केवल मानसून के आगमन की सूचना देते हैं बल्कि यह नए अकादमिक सत्र की शुरुआत का भी समय होता है। दोस्तों से मिलने, मैदान में खेलने और सीखने की उत्सुकता से दमकती हुई आंखों के साथ मुस्कराते बच्चों को देखना एक आनंददायी दृश्य होता है। इस साल यह दृश्य शायद ही दिखाई दे। कोविड-19 महामारी के कारण स्कूल बंद हैं और पूरी दुनिया में करोड़ों बच्चे घर में बैठे रहने को मजबूर हैं। यद्यपि स्कूल, बोर्ड और सरकारी विभाग बच्चों के साथ जुड़े रहने के लिए पूरी तरह टेक्नोलॉजी पर निर्भर हैं और एक हद तक ‘शिक्षा’ जैसा कुछ दे भी रहे हैं, लेकिन पढ़ाई-लिखाई में हुए भारी नुकसान का भूत पीछा नहीं छोड़ रहा है। नए शोध बताते हैं कि यह ‘गर्मियों का नुकसान’ कहे जाने वाले सालाना सामान्य नुकसान से बहुत बड़ा और गहरा होने वाला है और इसके भीतर सीखने की यात्रा में स्कूल से आगे और आर्थिक नुक़सान के रूप में बच्चों के बड़े होने तक होने वाली असाध्य गिरावट के रूप में लम्बे समय के लिए अपना असर छोड़ने की क्षमता रखता है।
भारत सीखने के पैमाने पर गहरी खाई का सामना करता रहा है असर 2018 की रिपोर्ट के मुताबिक़ तीसरी कक्षा के एक तिहाई से भी कम बच्चे और पांचवीं कक्षा के मात्र आधे बच्चे दूसरी कक्षा के स्तर का पाठ पढ़ पाते हैं, जिसे आपदा ने और बढ़ा दिया है। कई राज्य जो पहले ही इस बीमारी के शिकार थे, वहां बड़ी संख्या में प्रवासी वापस लौट आए हैं। ये लोग अपने बच्चों को भी साथ लाए हैं, जो अब अपने गृह राज्य के विद्यालयों में प्रवेश करेंगे। इन बच्चों को पढ़ाई में और ज़्यादा मदद की ज़रूरत पड़ेगी क्योंकि पढ़ाई छूट जाने के अलावा उनका साबका बदले हुए पाठ्यक्रम, पढ़ाई के नए माध्यम और नई स्कूली अपेक्षाओं से पड़ेगा।
जैसे-जैसे राज्य सरकारें स्कूलों को दोबारा खोलने पर विचार कर रही हैं, कुछ नीति निर्माता पाठ्यक्रम को घटाने की गुहार लगा रहे हैं। पाठ्यक्रम की यंत्रणा को कम करना यद्यपि एक सराहनीय कदम है, तथापि यह मौजूदा चुनौती का सही और पर्याप्त जवाब नहीं है, क्योंकि यह आंख मूंदकर मान लेता है कि बच्चे कक्षा के स्तर के अनुसार सीख रहे हैं और सिर्फ समय की कमी को देखते हुए पाठ्यक्रम के बोझ को घटाने की ज़रूरत है। बावजूद इसके तमाम प्रमाण बताते हैं कि भारतीय बच्चों के एक बड़े हिस्से के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। इन बच्चों और शायद इनसे भी ज़्यादा उन बच्चों की मदद के लिए जिन्हें पिछले कुछ महीनों के दौरान पढ़ाई का भारी नुकसान उठाना पड़ा है, बहुत फोकस और नियोजित हस्तक्षेप की ज़रूरत है ताकि वे बुनियादी शैक्षिक कौशल हासिल (शायद फिर से हासिल) कर पाएं और उन्हें बरकरार रख पाएं।
ऐसा ही एक हस्तक्षेप है प्रथम1 का प्रमुख कार्यक्रम - ‘टीचिंग एट द राइट लेवल’। इस कार्यक्रम के पीछे का विचार बेहद सरल है - यदि बच्चे के शैक्षिक स्तर (लर्निंग लेवल) को शिक्षक के द्वारा तुरंत और सही-सही मापा जा सके और फिर बच्चों को कक्षा की बजाय उनके पढ़ने के स्तर के आधार पर बिठाकर उनके वर्तमान स्तरके अनुसार गतिविधिकी जाएँ तो बहुत कम समय में उन्हें धारा-प्रवाह पढ़ने व पूरे आत्मविश्वास से बुनियादी गणित करने में सक्षम बनाया जा सकता है। इस कार्यक्रम के प्रमुख तत्व हैं - बच्चे के वर्तमान स्तर को जानने के लिए हर एक का बारी-बारी से टेस्ट, बच्चों को उम्र या कक्षा की बजाय उनके लर्निंग लेवल के अनुसार बिठाना, शिक्षकों या समुदाय के स्वयंसेवकों को लेवल के अनुरूप पाठ्यक्रम को पढ़ाने का प्रशिक्षण और साथ में हल्की-फुल्की मदद के लिए उनका अनुश्रवण। बच्चों को जब उनके लर्निंग लेवल के अनुसार पढ़ाया जाता है, तो वे अपेक्षाकृत बहुत कम समय में एक लेवल से दूसरे में पहुंच जाते हैं। पिछले कुछ वर्षों में कई राज्य सरकारों ने इस पद्धति को अपने उपचारात्मक (रेमेडियल) उपाय के रूप में सफलतापूर्वक लागू किया है।
अभिजीत बनर्जी और एस्थर डफलो के नेतृत्व में जे-पाल से सम्बद्ध शोधकर्ताओं के एक दल ने इस कार्यक्रम के कई संस्करणों का मूल्यांकन किया और पाया कि यह तरकीब बहुत प्रभावशाली है। यही परिणाम बिहार में समुदाय के स्वयंसेवकों को मिले और हरियाणा के सरकारी स्कूलों के शिक्षकों को भी। कार्यक्रम चाहे वह स्कूल की अपनी समय तालिका में लागू किया गया हो या फिर (उत्तर प्रदेश में) प्रथम के कार्यकर्ताओं के सहयोग से स्वयंसेवकों ने अल्प-कालीन सघन कैंप चलाकर लागू किया हो। हमने पाया कि उत्तर प्रदेश में कैंप में भाग न लेने वाले बच्चों की तुलना में भाग लेने वाले तीसरी से पांचवीं कक्षा के लगभग दोगुने बच्चे चार वाक्यों वाले पाठ को आसानी से पढ़ पा रहे थे। उत्तर प्रदेश और बेहतर प्रदर्शन करने वाले हरियाणा जैसे राज्य में इस प्रकार का 50 दिवसीय सघन कार्यक्रम बच्चों के लर्निंग आउटकम के अंतराल को पाटने के लिए पर्याप्त है.
कैंप मॉडल आज की परिस्थितियों में कहीं ज्यादा ग्राह्य हो सकता है क्योंकि यह सामाजिक दूरी, प्रवासी बच्चों के एकीकरण, स्थानीय व लक्षित लॉकडाउन के मुंह बाए खड़े खतरों के लिहाज़ से सुरक्षित माना जा सकता है। उदाहरण के लिए, कैंप का समय और आवृत्ति स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार बदली जा सकती है, उपलब्ध शिक्षकों के अलावा वापस लौटे प्रवासियों से स्वयंसेवी जुटाए जा सकते हैं, और बच्चे रोल नंबर या कक्षा की बजाय पढ़ पाने व गणित करने की क्षमता के उनके वर्तमान स्तर के अनुसार पढ़ाने के लिए (ताकि बच्चे कम ही सही पर एक जैसी क्षमता के होंगे) स्कूल में बुलाए जा सकते हैं, ताकि सामाजिक दूरी बरकरार रखते हुए शिक्षक फोकस होकर उन्हें पढ़ा सकें।
अनिश्चितता से भरे इस दौर में, खास तौर पर बच्चों को, सामान्य हालात की कुछ झलक चाहिए। उनकी ज़रूरतों के हिसाब से तैयार किया गया स्कूल कार्यक्रम ही उन्हें अपनी ओर खींच सकता है। आपदा काल की एक मात्र उपलब्धि यही है कि इसने शोध और प्रमाण की आवश्यकता को मजबूती से सामने ला खड़ा किया है। क्या इसका यह मतलब नहीं कि हम एक भली प्रकार जांचा-परखा और साबित किया गया कार्यक्रम अपनाएं ताकि भारतीय बच्चों की पढ़ाई में हुए नुकसान की भरपाई की जा सके?
नोट्स:
- प्रथम भारत के सबसे बड़े गैर-सरकारी संगठनों में से एक है। यह भारत में वंचित बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने की दिशा में काम करता है।
लेखक परिचय: हरिणी कन्नन जे-पाल के साउथ एशिया कार्यालय में रीसर्च साइंटिस्ट के पद पर कार्यरत हैं।
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