हाल के अध्ययनों से इस बात की पुष्टि मिलती है कि विकासशील देशों में नीतियां और संस्थान विश्व के संपन्न देशों के अनुरूप बदल रहे हैं और इसी वजह से इन देशों की प्रति-व्यक्ति आय औद्योगीकृत देशों के बराबर होने की राह पर है। इस लेख में, एनवॉल्डसन और पांडेय ने तर्क दिया है कि इन देशो में व्याप्त अत्यधिक गरीबी को मिटाने के लिए यह देश-स्तरीय बराबरी पर्याप्त नहीं होगी, क्योंकि इस 'विकास' का फल गरीबों तक नहीं पहुंच रहा है। अतः समावेशी समृद्धि के लिए एक राजनीतिक समाधान- यानी पुनर्वितरण की आवश्यकता होगी।
विकास अर्थशास्त्रियों ने दशकों से इस बात पर मंथन किया है कि क्या गरीब देश अंततः संपन्न देशों की ‘बराबरी’ कर लेंगे। क्या अफगानिस्तान भारत की बराबरी कर पाएगा? क्या भारत जापान की बराबरी कर पाएगा? 1990 के दशक की शुरुआत में (बैरो 1991) पहली बार अनुभव-जन्य परीक्षण किया गया, इसके प्रमाण मिले-जुले रहे, लेकिन समग्र रूप से विचलन नजर आया था: संपन्न देश तेजी से आगे बढ़ रहे थे, और गरीब देश पिछड़ रहे थे, उनकी किस्मत में कभी भी ‘बराबरी’ नहीं थी। लेकिन इसके तुरंत बाद एक और आम सहमति बनने लगी- 'सशर्त समानता', यानी प्रत्येक देश आय के एक निश्चित स्तर पर समानता करने के लिए एक प्रक्षेपवक्र पर था, तथापि यह स्तर कितना ऊंचा होना चाहिए यह उस देश की नीतियों या संस्थानों के सन्दर्भ में ‘सशर्त’ था।
यह आम सहमति 20 वर्षों से अधिक समय तक बनी रही- निस्संदेह इससे 'संस्थाओं' को परिभाषित करने की कठिनाई से कुछ हद तक मदद मिली- लेकिन हाल के शोध-कार्य (विशेषकर रॉय एवं अन्य 2016, पटेल एवं अन्य 2021, क्रेमर, विलिस और यू 2021)1 से पता चलता है कि तथ्य बदल रहे हैं। 1980 के दशक के मध्य से, समानता धीरे-धीरे कम सशर्त होती गई है, और 2000 के बाद से यह निरपेक्ष भी रही है। इन अध्ययनों में तर्क दिया गया है कि कोविड-19 से पहले, गरीब देश- और विशेष रूप से भारत जैसे निम्न-मध्यम आय वाले देश- संपन्न देशों की ‘बराबरी’ करने की राह पर थे। ऐसा आंशिक रूप से लगा, क्योंकि इन देशों में अंतर्निहित नीतियां और संस्थान स्वयं संपन्न देशों की बराबरी करने की राह पर थे।
गरीबों के आर्थिक न्याय की लड़ाई में यह खबर वाकई स्वागत-योग्य है। तथापि, क्रेमर, विलिस, और यू (2021) के शोध-कार्य के क्रम में हम चर्चा करते हैं कि यह बात स्वागत-योग्य होने के बावजूद, यह जैसा अभी दिखाई देता है, लगता नहीं कि यह गरीबी को दूर करने में उतना महत्वपूर्ण हो सकता है। हम तीन कारणों की रूपरेखा तैयार करते हैं कि ऐसा क्यों हो सकता है। सबसे पहले, दुनिया में गरीबी का वितरण बदल रहा है। दुनिया के गरीबों में से अधिकांश गरीब मध्यम आय वाले देशों में रह रहे हैं। कम गरीब देश कम गरीब लोगों के समान नहीं हैं। दूसरा, विनिर्माण उद्योग औद्योगिक देशों की तुलना में विकासशील देशों में अच्छे वेतनवाली नौकरियां कम दे रहा है। औद्योगीकरण के लाभ का प्रसार करने के लिए पुनर्वितरण आवश्यक होगा। तीसरा, चुनौतियां बनी हुई हैं। लोकतंत्र में पुनर्वितरण की व्यवस्था है, लेकिन वर्तमान की कोविड-19 महामारी लोकतांत्रिक विमुखता (बैकस्लाइडिंग) को बढ़ावा दे रही है। इस बीच, जलवायु परिवर्तन भी भविष्य के विकास को खतरा बना हुआ है (एनवॉल्डसन और पांडेय 2021)।
विश्व में गरीबी का वितरण बदल रहा है
लंबे समय से विकास अर्थशास्त्रियों ने खुद को गरीब परिवारों और गरीब देशों से जोड़ते हुए अपनी चिंता जाहिर की है। इस विषय के गहन इतिहास के सन्दर्भ में, उनका यह जुड़ाव स्वाभाविक था– क्योंकि गरीब देश मुख्य रूप से गरीब परिवारों का ठिकाना थे, और गरीब परिवार अक्सर गरीब देशों में पाए जाते थे। इस दृष्टिकोण में, पूर्ण समानता प्राप्त करना आश्वस्त करने वाला है: जैसे ही गरीब देश विकसित होने लगते हैं, वैसे-वैसे उन देशों के गरीब व्यक्तियों की आय बढ़ने लगती है। और ग़रीब देशों में रहने वाले ग़रीब लोग दुनिया के अत्यन्त ग़रीब हैं... है न?
इसका उत्तर, बढती संख्या में 'नहीं' है। 1980 के बाद की अवधि में देश की आय और उस देश में दुनिया के गरीबों की हिस्सेदारी के बीच एक कमजोर सह-संबंध देखा गया है। जब देश में समानता गरीब व्यक्तियों के लिए स्पष्ट रूप से फायदेमंद रहती है, इसका सापेक्ष महत्व कम हो जाता है क्योंकि देश के अन्दर की असमानता देशों के बीच की असमानता पर हावी होने लगती है।
हमारा तर्क है कि एक निरंतर अ-समान दुनिया में पूर्ण समानता विशेष रूप से निम्न-मध्यम-आय वाले देशों की आय और वहां के कमजोर समूहों के जीवन स्तर के बीच दरार पैदा करती है।
गरीब बढती संख्या में गरीब देशों से बाहर रह रहे हैं
एक आम धारणा यह है कि गरीब लोग गरीब देशों में रहते हैं, कई लोग उपनिवेशवाद से गरीब हुए हैं। ऐसा हमेशा के लिए नहीं था। वर्ष 1820 में बौर्गुइग्नन और मॉरिसन (2002) ने पाया कि विश्व में लगभग 90% असमानता देश के बीच असमानता के बजाय देश के अन्दर असमानता के कारण थी। यह अनुपात बाद की सदी में नीचे आ गया, और 1950 के आते-आते वैश्विक असमानता का केवल 40% कारण देश के भीतर की असमानता थी। यह अनुपात अगले चार दशकों तक स्थिर रहा। तथापि, हाल के दशकों में, वैश्विक आय असमानता अपघटन प्रवृत्ति वापस आ रही है। एक अलग मीट्रिक का उपयोग करते हुए, विश्व बैंक (2016) ने पाया कि 1988 और 2013 के बीच, देश के अन्दर असमानता के चलते वैश्विक असमानता का अनुपात 20% से बढ़कर 35% हो गया।
देशों के अन्दर गरीब बढती संख्या में समूहबद्ध हो रहे हैं
पागे और पांडे (2018) ने मध्यम-आय वाले देशों के एक सबसेट- उच्च-गरीबी वाले मध्यम-आय वाले देश (एचआईपीएमआई) की पहचान की, जिनमें दुनिया के 1% या इससे अधिक गरीब रहते हैं। सिर्फ पांच एचआईपीएमआई देश दुनिया के सबसे गरीबों में से लगभग आधे गरीब लोगों का घर हैं- भारत, नाइजीरिया, बांग्लादेश, इंडोनेशिया और केन्या। दुनिया के एक चौथाई गरीब भारत में रहते हैं, जो एक मध्यम आय वाला देश है। जबकि इन देशों की औसत आय दुनिया में सबसे कम नहीं है, उनमें व्याप्त असमानता की प्रवृत्तियों का अमीर और गरीब क्षेत्रों, समुदायों, परिवारों और व्यक्तियों के बीच वैश्विक समानता पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है।
चित्र 1. देश, जहां दुनिया के गरीब रहते हैं
स्वयं एचआईपीएमआई देशों में भी गरीबी स्वाभाविक रूप से असमान है। जैसे कि आवर्धक लेन्स (लूप) के माध्यम से एक क्षेत्रीय अंश (फ्रैक्टल) को देखने पर, वैश्विक स्तर पर दिखाई देने वाला गरीबी का स्थानिय समूहन मध्यम-आय वाले देशों के भीतर दोहराया जाता है। एक एचआईपीएमआई के एक गरीब क्षेत्र और एक गरीब देश के बीच का अंतर जन-सांख्यिकीय नहीं है, बल्कि राजनीतिक है।
घनी आबादी वाले मध्यम आय वाले देशों जैसे एचआईपीएमआई में, ऐसे कुछ क्षेत्र बड़े पैमाने पर हैं। वास्तव में, यदि भारतीय राज्य बिहार एक संप्रभु देश होता, तो यह दुनिया में सबसे अधिक आबादी वाला कम आय वाला देश होता, जिसमें 12.7 करोड़ लोग हैं और प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद मात्र 650 अमेरिकी डॉलर होता। अथवा, नाइजीरिया के उत्तरी क्षेत्र को अलग करने पर, कम आय वाले देशों में यह इथियोपिया के बाद आबादी में दूसरे स्थान पर होता।
चित्र 2. मध्यम आय वाले देशों के चयनित निम्न-आय वाले क्षेत्र
चूंकि दुनिया के गरीबों का इतना बड़ा हिस्सा कुछ मध्यम-आय वाले देशों में समूहबद्ध है, अतः इन विशिष्ट देशों में देश के अन्दर की असमानता की प्रवृत्ति वैश्विक गरीबी के सन्दर्भ में काफी मायने रखती है- यकीनन सभी देशों के बीच असमानता से भी अधिक। यहां के रुझान मिले-जुले हैं, लेकिन विशेष रूप से भारत तथा बांग्लादेश के दक्षिण एशियाई एचआईपीएमआई देशो से संबंधित हैं, और नाइजीरिया तथा इंडोनेशिया जैसे अन्य एचआईपीएमआई देशो में कमोबेश तटस्थ हैं।
वास्तव में, देशों के बीच जो समानता परीक्षण किए जाते हैं वैसे ही परीक्षण उप-राष्ट्रीय क्षेत्रों के बीच भी किए जा सकते हैं, और यहां भारत में क्षेत्रीय स्तर पर प्रति-व्यक्ति आय में विचलन के सूचक प्रमाण देश के भीतर ही मिलते हैं (सेश एवं अन्य 2002, घोष 2008, घोष 2012, कालरा और सोदश्रीविबून 2010)।
विनिर्माण उद्योग अच्छे वेतनवाली नौकरियां कम दे रहा है
यदि गरीब देश औसत आय के संबंध में संपन्न देशों के साथ समानता करते हैं, तो शेष गरीबी देश के अन्दर की असमानता को प्रतिबिंबित करना चाहिए। तो, महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या पूर्ण समानता लानेवाली आर्थिक विकास की प्रक्रियाएं देश के भीतर असमानता में वृद्धि कर रही हैं।
ऐतिहासिक दृष्टि से, देश की आय और श्रम रोजगार दोनों में कृषि के हिस्से में गिरावट के रूप में आर्थिक विकास की प्रक्रियाओं को चिह्नित किया गया है। आज के संपन्न देशों के सन्दर्भ में, संरचनात्मक परिवर्तन की प्रक्रिया विनिर्माण क्षेत्र से जुडी थी जो दोहरा लाभ दर्शा रही थी। यह खेती की तुलना में अधिक उत्पादक था, और आबादी के एक बड़े हिस्से को इसका लाभ मिला।
हाल ही में, कम आय वाले देशों और एचआईपीएमआई ने विनिर्माण की आय हिस्सेदारी में सापेक्ष वृद्धि देखी है, लेकिन विनिर्माण रोजगार में इतनी अधिक नहीं है। सेवा वृद्धि एक समान पैटर्न दिखाती है- भारत इसका एक उदाहरण है। वर्ष 1950 और 2009 के बीच, भारत के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का हिस्सा 55% के मुकाबले गिरकर 17% हो गया, विनिर्माण बढ़ गया लेकिन उसका हिस्सा 30% से कम रहा, जबकि सेवाओं में 57% की वृद्धि हुई। फैन एवं अन्य (2021) बताते हैं कि सेवाओं में वृद्धि से रोजगार में सीमित लाभ हुआ।
इस प्रकार, विनिर्माण और सेवाओं में हाल के रुझानों से पता चलता है कि ये उत्पादक क्षेत्र बने हुए हैं जो दुनिया के कम संपन्न देशों में जीडीपी हिस्सेदारी हासिल कर रहे हैं। लेकिन उनके द्वारा अच्छे वेतन वाली अत्यधिक नौकरियां प्रदान करने की संभावना कम है, शायद ऐसा इसलिए है कि सबसे अधिक उत्पादक कंपनियां विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्धी श्रम-बचत प्रौद्योगिकी का उपयोग करती हैं (डियाओ एवं अन्य 2021)। कई विकासशील देशों में आय की घटती श्रम हिस्सेदारी जीडीपी समानता और परिवारों के कल्याण के बीच की कड़ी को और भी कमजोर कर सकती है।
आगे की चुनौतियां
लोकतांत्रिक विमुखता (बैकस्लाइडिंग) से पुनर्वितरण को खतरा है
यदि देश इच्छुक है और जरूरतमंद लोगों में संसाधनों का पुनर्वितरण करने में सक्षम है, तो ऐसी स्थिति में भी असमान विकास से गरीब लाभान्वित हो सकते हैं। पांडे (2020) दर्शाते हैं कि दुनिया के अधिकांश गरीब अब लोकतांत्रिक राज्यों में रहते हैं, लेकिन इनमें से कई राज्य अपेक्षाकृत गैर-समानतावादी हैं। 21वीं सदी में इस लोकतांत्रिक विमुखता (बैकस्लाइडिंग) के बारे में चिंताएं अभिव्यक्त की गई हैं। हैगार्ड और कॉफमैन (2021) ने इसे "ऐसी प्रक्रियायें जिनके जरिये निर्वाचित शासक अपनी कार्यकारी शक्ति पर होनेवाले नियंत्रण को कमजोर करते हैं, राजनीतिक और नागरिक स्वतंत्रता को कम करते हैं, और चुनावी प्रणाली की अखंडता को कमजोर करते हैं" के रूप में परिभाषित किया है। वे 16 से अधिक लोकतांत्रिक देशों की पहचान करते हैं जिन्होंने हाल के वर्षों में इस तरह की विमुखता देखी है।
चित्र 3. वर्तमान में लोकतांत्रिक विमुखता (बैकस्लाइडिंग)
कोविड-19 से लोकतांत्रिक विमुखता (बैकस्लाइडिंग) का खतरा है
आर्थिक विकास के लड़खड़ा जाने की स्थिति में लोकतांत्रिक विमुखता (बैकस्लाइडिंग) और कम पुनर्वितरण का होना गरीबों और गरीबी रेखा के निकट गरीबों के लिए विशेष रूप से बहुत भारी है– यह एक ऐसी संभावना है जो कई एचआईपीएमआई देशों में कोविड-19 के आने से परिलक्षित हुई है। साल 2020, 21वीं सदी का पहला साल था जब दुनिया में गरीबी में इजाफा हुआ। गरीब की श्रेणी में शामिल नए लोग निम्न-मध्यम आय वाले देशों में रहते हैं- दक्षिण एशिया में 61% और उप-सहारा अफ्रीका में 27% (लैकनर एवं अन्य 2021)। प्रतिदिन 3.20 अमेरिकी डॉलर की निम्न आय सीमा पर, गरीब की श्रेणी में शामिल 68% नए लोग दक्षिण एशिया में रहते हैं।
जलवायु अवरोध से विकास को खतरा है
मध्यम अवधि में, जलवायु अवरोध की संभावना जीवाश्म-ईंधन-आधारित विकास को बाधित करेगी और यह विशेष रूप से कम आय सेटिंग्स में विकास को कम कर सकती है। एक औसत विकासशील देश के सन्दर्भ में, वहां की आर्थिक समानता अत्यंत प्राथमिक ऊर्जा वाहकों के वैश्विक औसत उपयोग, अधिकांश क्षेत्रों में अंतिम ऊर्जा की खपत और वहां कार्बन डाइऑक्साइड के सकल उत्सर्जन की दिशा में समानता के साथ जुडी होती है। कम आय वाले देशों में वर्तमान आर्थिक विकास, विगत में औद्योगिक देशों में (वैन बेंथम 2015) हुए विकास की तुलना में ऊर्जा से कम संबंधित नहीं है।
अंतर्राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन शमन नीतियां गरीब देशों और एचआईपीएमआई देशों के लिए दोधारी तलवार हैं। यदि इन्हें अपनाया जाता है, तो वे जीवाश्म-ईंधन-आधारित समानता को और अधिक कीमती बना देंगे। और यदि नहीं, तो जलवायु परिवर्तन ही सूखे, बाढ़, तूफान, या समुद्र के बढ़ते स्तर के माध्यम से उनके विकास को नीचे की दिशा में ला सकता है।
निष्कर्ष
हाल में हुए शोध-कार्य प्रति-व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद में पूर्ण समानता की दिशा में एक प्रवृत्ति को दर्शाते हैं और विचारोत्तेजक प्रमाण उपलब्ध कराते हैं कि नीति समानता ने एक भूमिका निभाई है। विकास के दृष्टिकोण से, देशों- गरीब क्षेत्रों, समुदायों, परिवारों और व्यक्तियों के बीच के आय वितरण को देश-स्तरीय समानता के साथ जोड़कर देखना उपयोगी होगा। ऐसा करना उन संस्थानों की आवश्यकता पर रौशनी डालता है जो अधिक से अधिक घरेलू पुनर्वितरण सुनिश्चित करेंगे और संभवतः, घरेलू औद्योगिक नीति पर भी पुनर्विचार करेंगे। यदि पूर्ण समानता के जरिये सभी वर्गों को आर्थिक विकास में शामिल किया जा सकता है तो हमारा यह तर्क बहुत महत्वपूर्ण है। इसकी वर्तमान कोविड-19 महामारी और जलवायु अवरोध की उल्लेखनीय बढ़ती संभावना की दृष्टि से काफी जरुरत है।
यह लेख आईजीसी ब्लॉग के सहयोग से प्रकाशित किया गया है।
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टिप्पणियाँ:
- समष्टि-अर्थशास्त्र पर एनबीईआर (राष्ट्रीय आर्थिक अनुसंधान ब्यूरो) के 36 वें वार्षिक सम्मेलन में प्रस्तुत किया गया।
लेखक परिचय: निल्स एनवॉल्डसन एक स्वतंत्र शोध सलाहकार हैं। रोहिणी पांडे हेनरी जे. हेंज II अर्थशास्त्र की प्रोफेसर हैं और येल यूनिवर्सिटी में आर्थिक विकास केंद्र की निदेशक हैं।
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