हाल ही में इंडियन एक्सप्रेस के एक लेख में भरत रामास्वामी ने किसानों के विरोध से उत्पन्न मौजूदा संकट को हल करने के लिए कुछ उत्तेजक सुझाव पेश किए हैं। इस पोस्ट में रामास्वामी ने अशोक कोटवाल (प्रधान संपादक, आइडियाज फॉर इंडिया) के साथ एक साक्षात्कार में उन विचारों पर विस्तार से प्रकाश डाला है।
अशोक कोटवाल (अशोक): भरत, जैसा कि मैंने देखा है, आपने मौजूदा संकट से बाहर निकलने के कुछ मार्ग सुझाए हैं। आपके विचार के मुख्य बिंदु (निहित और स्पष्ट दोनों) हैं: (i) किसानों की आय बढ़ाने में मदद करने के लिए भारतीय कृषि का विविधीकरण किए जाने की सख्त जरूरत है, (ii) यह तभी हो सकता है जब हम नए बाजारों को अनुमति दें और उनका विकास करें, (iii) इसलिए इस दिशा (और इसमें नए कृषि कानून शामिल हैं) में सुधार आवश्यक हैं, (iv) फिर भी ऐसे सुधारों को `सभी के लिए एक समान' केंद्रीय कानून में पेश किया जाना अनावश्यक है, (v) इससे बाहर निकलने का रास्ता यह हो सकता है कि केंद्रीय कानूनों को वापस लिया जाए और केंद्र राज्यों (विशेषकर वहां, जहां इसकी पार्टी का शासन है) को सुधारों को अपनाने के लिए मनाए, (vi) बदले में किसानों को यह मांग वापस लेनी चाहिए कि सभी फसलों के लिए एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) की कानूनन गारंटी दी जानी चाहिए।
क्या आपको लगता है कि निजी व्यापारियों को एक मंडी (बाजार) के बाहर कृषि उपज खरीदने की अनुमति देना (यानी, राज्य की निगरानी के बिना) विविधीकरण को प्रेरित करने के लिए एक आवश्यक शर्त है? क्यों?
भरत रामास्वामी (भरत): बाजार क्रेताओं और विक्रेताओं के बीच समन्वय का कार्य करता है। दोनों पक्ष इस अपेक्षा से आते हैं कि उन्हें तरलता मिलेगी, उचित लेनदेन होगा तथा जो उत्पाद पेश किया जा रहा है और जिसकी मांग है वो आपस में मेल खाते हों। जब यह अच्छी तरह से होता है, तो इनमें से पहले दो कार्यों में मौजूदा मंडी प्रणाली बढि़या काम करती हैं।
लेकिन जरूरी नहीं कि तीसरी अपेक्षा पूरी हो। जैसे-जैसे आय बढ़ती है, उपभोक्ता का खाद्य बजट निर्धारित से गैर-निर्धारित की ओर चला जाता है। इसके अतिरिक्त गुणवत्ता विशेषताएँ अधिक महत्वपूर्ण हो जाती हैं। ये दोनों ही विचार निर्यात के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं। हमारी मौजूदा एपीएमसी (कृषि उपज विपणन समिति) मंडियों ने स्थानीय एकाधिकार का लाभ उठाया है और इनमें कोई नवाचार नहीं किया है। दरअसल, ज्यादातर उदाहरणों में उन्होंने इस तरह की गतिविधियों में नए प्रवेश करने वालों को सक्रिय रूप से रोक दिया है। नए कानूनों से पहले केंद्र सरकार की नीति एपीएमसी मंडियों की इस शक्ति को समाप्त करने के लिए राज्य सरकारों को प्रेरित करने की थी परंतु इसमें अलग-अलग मात्रा में सफलता मिली।
अशोक: एमएसपी लागू करने की मांग अव्यवहार्य क्यों है? (चाहे सरकार द्वारा खरीदी गई सभी फसलों के लिए और / या निजी व्यापारियों द्वारा खरीद के लिए हो)
भरत: यदि एमएसपी को एक प्रभावी न्यूनतम मूल्य के रूप में काम करना है, तो किसी-न-किसी को उस कीमत पर खरीदने के लिए एक खुले सिरे वाला प्रस्ताव देना होगा। न्यूनतम कीमत जितनी ज्यादा अधिक होगी, निजी क्षेत्र से मांग उतनी ही कम होगी। इस अंतर को राज्य द्वारा भरा जाना है। अब तक यह केवल धान और गेहूं के लिए ही संभव है और वह भी केवल कुछ राज्यों में। इस खरीद का अधिकांश हिस्सा सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के लिए है। फिर भी केंद्र अतिरिक्त खरीद का सामना करने में संघर्षरत रहा है। संसाधन अवांछित स्टॉक में फंसे पड़े हैं। वर्षों से सरकार ने विभिन्न कल्याण कार्यक्रमों के लिए खाद्यान्न की आपूर्ति करके भंडार को कम करने के कुछ तरीके निकाले हैं। फिर भी उसके लिए यह आवश्यक हो गया है कि उन्हें या तो निर्यात किया जाए या खुले बाजार में बिक्री के माध्यम से घरेलू रूप से बेचा जाए और वह भी (आमतौर पर) घाटे में।
अन्य वस्तुओं में पीडीएस जैसी खुदरा सरकारी विपणन प्रणाली नहीं है। यहां तक कि अगर इसे बनाया भी जाता है तो सरकार तब तक अपने स्टॉक को नहीं बेच पाएगी जब तक कि वह नुकसान उठाने के लिए तैयार न हो। ऐसा होना ही है क्योंकि एमएसपी का उद्देश्य बाजार मूल्य से अधिक कीमत तय करना है। खुली खरीद की इन स्थितियों, स्टॉक को बेचने की प्रणाली और बिक्री पर होने वाले नुकसान के लिए बजट रखने में कठिन आर्थिक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है (और संचालन संबंधी दु:स्वप्न के बारे में तो क्या ही कहा जाए)। कुछ राज्य सरकारों ने अपनी विशेष फसलों का समर्थन करने की कोशिश की है। केंद्र ने भी इसे दालों के साथ आजमाया है। ये प्रयोग विफल रहे क्योंकि उनके पास न तो खुली खरीद का समर्थन करने के लिए बजट था और न ही खरीदी हुई सामग्री को बेचने का तरीका था। अंत में, अक्सर एमएसपी नीतियों के लिए बड़ी मात्रा में आपूर्ति प्रतिक्रिया होती है। नतीजतन, सरकारें अक्सर इस बात से अचंभित रहती हैं कि उन्हें कितना खरीदना है। वास्तव में यही कारण है कि जो राज्य धान या गेहूं की खरीद में सक्रिय हैं वहां आपको ऐसे नियम मिलते हैं जो प्रभावी रूप से एक सीमा निर्धारित कर देते हैं कि उन्हें व्यक्तिगत किसान से कितनी खरीद करनी है। भले ही केंद्र सरकार अधिकांश भार उठाती है, लेकिन राज्य या तो कुछ सीमा तक खर्च करते हैं या टॉप-अप सब्सिडी की पेशकश कर सकते हैं।
अशोक: पिछले आंकड़ों से पता चलता है कि जब कृषि के लिए व्यापार की शर्तें बेहतर हुईं तब भारत में गरीबी कम हो गई। जब तक कि गेहूं और चावल भारत में कृषि उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा है, इन फसलों के लिए एमएसपी केंद्र सरकार के पास एक तैयार साधन रहा है। क्या आपको लगता है कि अनाज बाजार के लिए एमएसपी-एफसीआई (भारतीय खाद्य निगम) खरीद की वर्तमान प्रणाली को बनाए रखने के लिए यह एक औचित्य हो सकता है?
भरत: एमएसपी में वृद्धि (2004 के बाद) के अलावा 2000 के दशक में गरीबी में तेजी से कमी के कारण गैर-कृषि क्षेत्र (विशेष रूप से निर्माण) में तीव्र वृद्धि हुई, विश्वभर में कमोडिटी की कीमतों में उछाल आया, और मनरेगा1 (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीणरोजगार गारंटी अधिनियम) लागू हुआ। इसलिए गरीबी और एमएसपी के बीच संबंध आगे जांच का विषय है। हालाँकि शोध से पता चलता है कि कृषि की ओर व्यापार की शर्तों का बदलाव (फसल विविधीकरण या तकनीकी परिवर्तन के यथा विपरीत) कृषि में उत्पादकता वृद्धि का एक प्रमुख घटक था। लेकिन ज़ाहिर है कि यह टिकाऊ नहीं है।
सूक्ष्म आर्थिक अध्ययन के साथ-साथ तुलनात्मक आर्थिक निष्पादपन का अध्ययन कृषि आय को बनाए रखने और बढ़ती कृषि आय में संरचनात्मक परिवर्तन के महत्व को इंगित करता है - मुख्य रूप से अनाज आधारित कृषि से लेकर विविधतापूर्ण कृषि तक जिसमें अनाज के साथ-साथ फल, सब्जियां, दूध, अंडे, मांस, और मछली का उत्पादन किया जाता है। जब आय में वृद्धि होती है तो इन बाद वाले खाद्य पदार्थों की आय लचिलता अधिक होती है और मांग की दिशा उनकी ओर मुड़ जाती है। अनाज की खेती में फंसे लाखों कुशल श्रमिकों के लिए विविधीकरण उनकी आय को आगे बढ़ाने का अवसर उपलब्ध कराता है। लेकिन निश्चित रूप से जब नीतियां अनाज की खेती के प्रोत्साहन को कम करती हैं तो उनके उत्पादकों का क्रोध बढ़ जाता है।
लघु-अवधिवाद हमारी कृषि अर्थव्यवस्था को अनाज आधारित अर्थव्यवस्था के दलदल में और अधिक डुबोता है जबकि दीर्घ-अवधिवाद को लागू करना राजनीतिक रूप से कठिन हो जाता है। इसीलिए नीति में एक अच्छा संतुलन होना चाहिए। अति-सतर्क रहना ठहराव का कारण बनता है जबकि आक्रामक नीति लंबे समय तक सुधारों पर अवश्विास का कारण बन सकती है।
अशोक: आप अक्सर आलोचकों द्वारा उठाए गए एक मुद्दे से बहुत चिंतित प्रतीत नहीं होते कि कृषि कानूनों के कारण अडानी और अंबानी जैसी बड़ी कॉर्पोरेट फर्में निश्चित रूप से कृषि के क्षेत्र में प्रवेश कर लेंगी, जिसके परिणामस्वरूप कृषि व्यापार में क्रेता एकाधिकार हो जाएगा। क्यों?
भरत: ऐतिहासिक रूप से अमीर देशों में पैमाने की अर्थव्यवस्थाएं खुदरा क्षेत्र में महत्वपूर्ण रही हैं और इस प्रकार, समेकन तब हुआ जब उन श्रृंखलाओं को पीछे की ओर बढ़ाया गया। भारत में ऐसा संदेहपूर्ण लगता है कि संगठित क्षेत्र खाद्य खुदरा का अधिग्रहण कर सकता है। संगठित क्षेत्र की उपस्थिति दूध में सबसे अधिक है लेकिन उसमें भी लगभग 20% या इससे कम बाजार हिस्सेदारी है। जैसे-जैसे बड़े महानगरों से दूर जाते जाएंगे उनकी उपस्थिति और कम होती जाती है। फल, सब्जियां या अनाज के मामले में यह और कठिन होगा। उपज को इकट्ठा करना कठिन कार्य है और संगठित क्षेत्र को पारंपरिक श्रृंखला के साथ प्रतिस्पर्धा करना मुश्किल होगा।
दूसरी ओर सुधार लंबे समय से स्थापित कृषि-व्यवसायों को आपूर्ति श्रृंखलाओं में अधिक निवेश करने की अनुमति देगा। अधिक सुनिश्चित आपूर्ति के साथ वे कृषि निर्यात में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। हाल ही में कई ऐसे तकनीकी स्टार्ट-अप आए हैं जिन्होंने मांग को सीधे आपूर्तिकर्ताओं के साथ पूरा करने का प्रयास किया है। एकाधिकार को हटाने से भी किसान संगठनों को भागीदारी में स्वतंत्रता मिल सकती है। उद्यमी ऊर्जा की दिशा का अनुमान लगाना कठिन है लेकिन ऐसी नीतियों का होना महत्वपूर्ण है जो इन्हें दबाएं नहीं।
अशोक: आपने सुझाव दिया है कि कृषि व्यापार के क्षेत्र में एक बड़े सुधार को सावधानीपूर्वक लागू किए जाने की जरूरत है, जिसके लिए पहले सबसे उपयुक्त क्षेत्रों में छोटे प्रयोग किए जाने चाहिए और फिर करके सीखने की पद्धति के माध्यम से लगातार विस्तार करना चाहिए। यह आपके पिछले एक लेख में दिए गए सुझावों के ही अनुरूप है जिसमें आपने बताया था कि बायोमेट्रिक तकनीक (आधार)2 को कैसे लागू किया जाए। क्या हमें किसी सुधार या तकनीकी परिवर्तन की शुरुआत करने की कार्यप्रणाली पर इसे एक सामान्य सलाह के रूप में विचार करना चाहिए?
भरत: प्रयोगों और सीखने का विचार विकास अर्थशास्त्र का एक प्रमुख मुद्दा है और इसे इस क्षेत्र के लिए हाल ही में प्रदान किए गए नोबेल पुरस्कारों के रूप में मान्यता दी गई है। लेकिन शायद एक और मामला भी है। केंद्र द्वारा प्रशासित नीतियों और सब्सिडी के लिए एक नई दिशा बहुत अविश्वास पैदा करती है। दूसरी ओर सुधार के लिए कोई निर्वाचन क्षेत्र नहीं है। नई नीतियों के लिए क्षेत्रों को सावधानीपूर्वक चुनकर और राज्यों के सहयोग को सूचीबद्ध करके केंद्र संक्रमण की लागत और व्यवधान को कम कर सकता है। और अगर वे सफल होती हैं, तो वे सुधारों के लिए समर्थन पैदा करते हुए एक मजबूत प्रदर्शन के रूप में कार्य करती हैं।
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टिप्पणियाँ:
- मनरेगा एक ग्रामीण परिवार को एक वर्ष में 100 दिनों के मजदूरी-रोजगार की गारंटी देता है, जिसके वयस्क सदस्य राज्य-स्तरीय सांविधिक न्यूनतम मजदूरी पर अकुशल मैनुअल काम करने के लिए तैयार रहते हैं।
- आधार या विशिष्ट पहचान (यूआईडी), 12-अंकों की एक पहचान संख्या है जो कि उस व्यक्ति के बायोमेट्रिक्स (फिंगर प्रिंट्स, आंख की पुतलियोंऔर फोटो) से लिंक होती है तथा इसे भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) द्वारा भारत सरकार की ओर से भारतीय निवासियों के लिए जारी किया जाता है।
लेखक परिचय: अशोक कोटवाल आइडियास फॉर इंडिया के प्रधान संपादक और यूनिवर्सिटी ऑफ ब्रिटिश कोलंबिया में अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर एमेरिटस हैं। भरत रामास्वामी अशोका यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हैं।
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