सभी देशों की तरह भारत के लिए भी, जलवायु परिवर्तन एक अत्यंत तेजी से बढती समस्या बन गई है। इस लेख के जरिये पिल्लई एवं अन्य तर्क देते हैं कि इस समस्या के समाधान के लिए भारत की संघीय प्रणाली की पुनर्कल्पना करने की आवश्यकता है, क्योंकि भारत के संविधान में जलवायु संबंधी कई क्षेत्रों में राज्यों के महत्वपूर्ण कर्त्तव्य निर्धारित किये गए हैं। वे जलवायु नीति में संस्थागत सुधार हेतु एक नए दृष्टिकोण का सुझाव देते हैं, जो राष्ट्रीय लक्ष्यों के लिए अपने कार्यों का समन्वय करते हुए राज्यों को पर्याप्त लचीलापन देगा।
सभी देशों की तरह भारत के लिए भी, जलवायु परिवर्तन एक अत्यंत तेजी से बढती समस्या बन गई है। चूँकि भारत के संविधान के अनुसार शक्तियों के विभाजन में जलवायु संबंधी कई क्षेत्रों में राज्यों के महत्वपूर्ण कर्त्तव्य निर्धारित किये गए हैं, अतः भारत की संघीय प्रणाली की पुनर्कल्पना किए बिना भारत जलवायु परिवर्तन की समस्या के समाधान पर कार्य नहीं कर सकता है। इसमें जल, कृषि, शहर और परिवहन शामिल है जिसकी जिम्मेदारी केवल राज्यों की है तथा जलवायु समस्याओं से जुड़े वन और बिजली जैसे महत्वपूर्ण लीवर की जिम्मेदारी संयुक्त रूप में संघीय सरकार (बाद में इसे 'केंद्र' के रूप में संदर्भित किया है) और राज्यों की है।
फिर भी, जैसा कि पिछले एक दशक में देखा गया है, राज्यों की ओर से व्यवस्थित कार्रवाई को गतिमान करवाना कठिन रहा है। जलवायु परिवर्तन पर राज्य कार्य-योजनाओं (एसएपीसीसी) को, इसके प्रारूप में विशिष्टता की कमी (दुबाश और जोगेश 2014) और केंद्र से अपर्याप्त वित्तीय सहायता (गोगोई 2017) का सामना करना पड़ा है, और इन्हें राज्य-शासन की प्राथमिकताओं में भी निम्न स्थान दिया जाता रहा है। साथ ही, भारत की सर्वोच्च संघीय प्रणाली का जलवायु समस्या के निचले स्तर के स्वरूप के साथ तालमेल नहीं बैठ सका है। हालांकि राष्ट्रीय राजस्व के बड़े हिस्से को केंद्र सरकार द्वारा नियंत्रित किया जाता है (वर्ष 2018-19 में इसने केंद्र और राज्यों के कुल संसाधनों का 62.7% जुटाया) और राज्य की प्राथमिकताओं को तय करने में केंद्र सरकार एक बड़ी नियामक भूमिका निभाती है, फिर भी केवल राज्य ही जलवायु प्रभावों और स्थानीय ऊर्जा संक्रमणों के प्रत्यक्ष एवं राजनीतिक प्रभाव का आकलन कर उसके अनुसार कारवाई कर सकते हैं। इसलिए भारत की संघीय प्रणाली में सुधारों का उद्देश्य राज्यों को संसाधन उपलब्ध कराना और प्रोत्साहन देना होना चाहिए।
हाल का अनुभव सुधार के तीन विशिष्ट क्षेत्रों की ओर इशारा करता है। सबसे पहला, जलवायु परिवर्तन को समझने और उसके अनुसार कारवाई करने के लिए आमतौर पर राज्यों की सरकार में विशेष क्षमता की कमी होती है (दुबाश और जोगेश 2014, गोगोई 2017)। इसके अलावा, राज्य सरकारों को जलवायु नीति-निर्माण के कई जटिल क्षेत्रों में भविष्य के लिए हरित विकास जैसे विचारों से लेकर समुद्रतटीय भूक्षरण जैसी वर्तमान वास्तविकताओं को दूर करने हेतु विशेषज्ञ नागरिक समाज संगठनों से बहुत कम बाहरी समर्थन मिलता है। दूसरा, हाल के वर्षों में कुछ राज्यों द्वारा समर्पित जलवायु विभाग या एजेंसियां बनाने के बावजूद राज्य के विभागों तथा राज्यों और केंद्र के बीच समन्वय की कमी देखी गई है (सिम्हन 2021)। और अंत में, कई नए खतरों और समस्याओं से निपटने के लिए राज्यों की तत्पर राजकोषीय क्षमता सीमित है; यह आंशिक रूप से राजकोषीय संघवाद की संरचना से प्रेरित है, तथापि कोविड-19 के चलते राज्य के राजस्व में आई कमी के कारण यह अत्यधिक प्रभावित हुई है।
भारत की संघीय प्रणाली और जलवायु परिवर्तन: संस्थागत सुधार हेतु प्रस्तावित एक नया दृष्टिकोण
इन कमियों को दूर करने के लिए, हाल के एक नीतिका संक्षेप विवरण (पिल्लई एवं अन्य 2021) में, हमने संस्थागत सुधार के लिए एक नए दृष्टिकोण का सुझाव दिया, जो भारतीय जलवायु संघीय प्रणाली में 'संरचित अवसरवाद' के लिए स्थितियां पैदा करता है। इसका उद्देश्य राज्यों को स्थानीय संदर्भ में उपयुक्त नवीन नीतियों के साथ प्रयोग करने हेतु प्रत्यक्ष स्थिति उपलब्ध कराना है। बाद में ये अन्य राज्यों और राष्ट्रीय स्तर पर अनुकरण के लिए मॉडल के रूप में काम कर सकते हैं। साथ ही, राष्ट्रीय स्तर पर सुसंगत जलवायु प्रतिक्रिया योजना बनाने के लिए संरचना काफी मजबूत होनी चाहिए, जो राष्ट्रीय लक्ष्यों और अंतर्राष्ट्रीय प्रतिज्ञाओं के संदर्भ में विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। जैसा कि नीचे तालिका 1 में दर्शाया गया है, हम क्षमता में वृद्धि लाने, राज्यों तथा केंद्र और राज्यों के बीच समन्वय में सुधार करने और राज्यों में जलवायु नीतियों को प्रोत्साहित करने के उपाय प्रस्तुत करते हैं।
तालिका 1. भारत की संघीय प्रणाली में जलवायु कार्रवाई करने हेतु संस्थागत कार्रवाई
स्तर उद्देश्य |
राज्यों के भीतर |
केंद्र और राज्यों के बीच लंबवत लिंक (सीधा संपर्क) |
राज्यों में अनुप्रस्थ लिंक (सम स्तर पर संपर्क) |
बढ़ी हुई क्षमता |
समर्पित कर्मचारियों-सहित जलवायु नोडल एजेंसियां और विभागीय प्रकोष्ठ बनाएं। गैर-राज्य कार्यकर्ताओं (नागरिक समाज संगठनों, विश्वविद्यालयों) के साथ नियमित और खुले संबंधों के माध्यम से क्षमता का विस्तार करें। प्रयोग-कार्य करने हेतु अंतरराष्ट्रीय वित्त-सहायता प्राप्त करने तथा अंतरराष्ट्रीय शिक्षण संबंध स्थापित करने के लिए नोडल इकाइयों का उपयोग करें। |
राष्ट्रीय निम्न कार्बन विकास आयोग (एलसीडीसी), केंद्रीय वैज्ञानिक एजेंसियों और केंद्रीय विश्वविद्यालयों के माध्यम से संचालित ढांचे और ज्ञान के माध्यम से राज्यों को केंद्रीय सहायता प्रदान करें। विकेंद्रीकृत जोखिम मानचित्रों और उत्सर्जन सूची के लिए एक सामान्य फ्रेमवर्क और संसाधन स्थापित करें। |
राज्यों में लर्निंग नेटवर्क स्थापित करें। |
बेहतर समन्वय |
राज्य के नोडल विभागों को शहरी निकायों और जिला परिषदों (जिला-स्तरीय शासी संस्थानों) से जोड़कर अंतर-राज्य समन्वय और सीखने के लिए चैनल बनायें। |
एलसीडीसी से विश्लेषणात्मक इनपुट की रुपरेखा बनाके, जलवायु परिवर्तन पर राज्य कार्य योजनाओं (एसएपीसीसी) के नियमित अद्यतन को अनिवार्य करें। राष्ट्रीय उत्सर्जन प्रक्षेपवक्र पर राज्यों के साथ परामर्श के लिए विश्वसनीय प्रणाली का निर्माण करें। जलवायु के लिए एकल, संघीय जलवायु समन्वय निकाय बनाने के बजाय, मौजूदा क्षेत्रीय समन्वय तंत्र का उपयोग करें। |
अंतरराज्यीय शिक्षा और सहयोग को प्रोत्साहित करने के लिए क्षेत्र और भौगिलिकी-विशिष्ट समन्वय मंच बनाएं। |
तेज प्रोत्साहन |
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एसएपीसीसी के लिए विश्वसनीय और लचीली फंडिंग लाइनें स्थापित करें। जलवायु समस्या के समाधान और अनुकूलन में नवाचार को प्रोत्साहित करने के लिए केंद्र द्वारा प्रायोजित योजनाओं (सीएसएस) और वित्त आयोग के अंतरण को अभिनियोजित करें। |
केंद्रीय वित्त-पोषण वाली सहयोगी बहु-राज्य परियोजनाओं को प्रोत्साहित करें। |
केंद्र सरकार और केंद्र-राज्य संबंधों की भूमिका
इस मिशन के मूल में यह सवाल उठता है कि केंद्र सरकार राज्यों को क्या प्रदान कर सकती है, और केंद्र-राज्य संबंधों में कौन-से नए संबंधों की आवश्यकता है (तालिका 1 में कॉलम 2)। क्षमता के मोर्चे पर, विश्लेषण के विश्वसनीय स्रोत और नए नीतिगत विचार किये जाने से राज्यों के घाटे को कम करने में मदद मिलेगी। केंद्र सरकार के लिए संस्थागत नुस्खों (दुबाश एवं अन्य 2021) के पहले सेट में, हमने राष्ट्रीय स्तर पर समस्या के समाधान की दिशा में सिफारिश करने के लिए केंद्र में एक स्वतंत्र विशेषज्ञ निकाय के रूप में 'लो कार्बन डेवलपमेंट कमीशन' (एलसीडीसी) की स्थापना का सुझाव दिया- जो राज्यों में इस भूमिका का निर्वहन करेगा। तथापि यह अकेले काम नहीं करेगा, यह केंद्रीय और राज्य- दोनों स्तरों (विशेषकर अनुकूलन के लिए) में विश्वविद्यालयों और वैज्ञानिक एजेंसियों में मजबूत जलवायु क्षमता की अपेक्षा करता है। हमारे द्वारा अनुशंसित नए संघीय रिपोर्टिंग मानकों के साथ ये संसाधन, राज्यों को विश्वसनीय उत्सर्जन सूची और विकेंद्रीकृत जोखिम मानचित्र विकसित करने हेतु अवश्य प्रेरित करेंगे जो कि जलवायु नीति के आधारभूत तत्व हैं।
इसके बेहतर समन्वय के लिए, केंद्र सरकार पुनरावृत्ति और सीखने के लिए एसएपीसीसी के आवधिक अद्यतन को अनिवार्य कर सकती है। इससे वैश्विक जलवायु प्रक्रिया में भारत के राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान में राज्यों को अपना योगदान देने का मौका भी मिलेगा। रणनीतिक समन्वय को और बेहतर बनाने हेतु, एलसीडीसी, जिसे विचार-विमर्श करने के लिए डिज़ाइन किया गया है, को राष्ट्रीय उत्सर्जन मार्गों की सिफारिश करने से पहले राज्यों के साथ सक्रिय रूप से परामर्श करना चाहिए। एलसीडीसी इस प्रकार से, राज्यों के साथ अपने परामर्शी कार्यों के संदर्भ में वित्त आयोग से मेल खाता है। लेकिन यह सभी क्षेत्रों में और अनुकूलन के क्षेत्रों में कार्य समन्वय तंत्र को प्रतिस्थापित नहीं कर सकता है। इसके लिए मौजूदा क्षेत्रीय समन्वय तंत्र जैसे बिजली में नियामकों के फोरम, और अंतरराज्यीय नदी निकायों को मजबूत किया जाना चाहिए।
अंत में, और शायद सबसे महत्वपूर्ण बात, केंद्र सरकार को राज्य की कार्रवाई के लिए प्रोत्साहन देना चाहिए। केंद्र एसएपीसीसी के लिए उपलब्ध धनराशि और उन प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के बारे में यथार्थवादी अपेक्षाएं स्थापित करके इसे शुरू कर सकता है। इसे अपना ध्यान गैर-वित्त पोषित राज्य पहलों पर केंद्रित करना चाहिए जो राष्ट्रीय प्राथमिकताओं (बहु-संस्था मॉडलिंग पहल या उच्च जोखिम वाले शहरी अनुकूलन जैसे प्रयोग) में योगदान करते हैं, और बहु-राज्य परियोजनाएं जो सीमावर्ती संसाधनों के शासन में सुधार लाती हैं (जैसे स्थायी नदी बेसिन प्रबंधन के लिए प्रयोग और एयरशेड स्तर पर प्रदूषण को कम करने के लिए संस्थान)। इसे सीएसएस में जलवायु-समस्या समाधान और अनुकूलन क्षमता का भी जायजा लेना चाहिए, जिसके लिए केंद्र से राज्यों (अय्यर और कपूर 2019) को वित्तीय अंतरण का महत्वपूर्ण हिस्सा दिया जाता है। इन योजनाओं में वन, ऊर्जा और पानी जैसे जलवायु-संबंधित क्षेत्रों को शामिल किया गया है, और इनमें राज्यों में लंबे समय तक चलने वाले उत्सर्जन मार्गों को निर्धारित करने की क्षमता है। यह भविष्य के वित्त आयोगों से इसके संदर्भ की शर्तों के माध्यम से जलवायु कार्यों को प्रोत्साहित करने का आग्रह भी कर सकता है। हाल के आयोगों ने जंगलों, आपदा की तैयारी और वायु प्रदूषण (हरीश और घोष 2020, पिल्लई और दुबाश 2021) जैसे क्षेत्रों में जलवायु और पर्यावरणीय संबंधों की मान्यता का प्रदर्शन किया है।
राज्य स्तर पर परिवर्तन
ये नए केंद्र-राज्य संबंध तभी सार्थक होंगे जब राज्य स्तर पर संबंधित परिवर्तन हों (तालिका 1 में कॉलम 1)। पहला काम जहां नोडल जलवायु एजेंसीयाँ नहीं हैं वहां ऐसी एजेंसियों को बनाकर क्षमता में सुधार करना होगा और नियमित शासन में जलवायु संबंधी सोच को मुख्यधारा में लाने के लिए जलवायु-संबंधित विभागों में विशेषज्ञ कर्मचारियों को काम पर रखना होगा। राज्य सरकार के भीतर की क्षमता को नागरिक समाज की गहरी क्षमता द्वारा समर्थित किया जाना चाहिए, जिसके लिए एक समन्वित दाता प्रयास की आवश्यकता होती है। साथ ही, इसके कार्यान्वयन के दौरान, विशेष रूप से राज्यों की राजधानियों और स्थानीय सरकारों के बीच समन्वय की नई प्रणालियों की आवश्यकता होगी।
राज्यों में अनुप्रस्थ लिंक (सम स्तर पर संपर्क) संभावित लाभ का एक अन्य क्षेत्र है। मुख्य रूप से स्टाफ स्तर पर आदान-प्रदान के माध्यम से राज्यों के बीच सीखने का नेटवर्क, विचारों के प्रसार को बढ़ावा दे सकता है और हाशिये पर क्षमता को बढ़ा सकता है। अनुप्रस्थ लिंक (सम स्तर पर संपर्क) भी राज्यों के बीच समन्वय को बेहतर बनाने में मदद कर सकते हैं। समान हितों या खतरों से बंधे राज्य-समूह विनिमय के मंच के रूप में काम कर सकते हैं या ध्यान देने के लिए और संसाधनों के लिए केंद्र सरकार से अनुरोध कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, हिमालयी राज्यों या कोयला संक्रमण वाले राज्यों का एक समूह, जहां उनके लक्ष्य संरेखित हों, एक साथ काम करने के तरीके ढूंढ सकता है।
राज्य ऐसे सुधारों का समर्थन कर सकते हैं, ऐसा मानने के दो कारण हैं। सबसे पहला, ये संशोधन (क्षमता, समन्वय और प्रोत्साहन में) प्रदूषित वातावरण की लागत को कम करके, राज्यों की निवेश विश्वसनीयता में सुधार लाते हुए रोजगार पैदा करके कई दीर्घकालिक लाभ दिला सकते हैं। दूसरा, राज्यों में जलवायु के चपेट में आने संबंधी बढ़ती स्वीकारोक्ति- उनमें से कई को हाल के वर्षों में बार-बार आपदाओं का सामना करना पड़ा है। जलवायु प्रभावों की गति और बढ़ते प्रमाणों को और इन परिवर्तनों के लिए अनिवार्य रूप से अत्यधिक समय की आवश्यकता को देखते हुए, यह सुनिश्चित करने के लिए कि भारत की संघीय प्रणाली जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए तैयार है, अभी से कार्य शुरू करना जरुरी है।
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लेखक परिचय: पार्थ भाटिया सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर) में इनिशिएटिव फॉर क्लाइमेट, एनर्जी एंड एनवायरनमेंट में एसोसिएट फेलो हैं। नवरोज के दुबाश नई दिल्ली स्थित थिंक टैंक सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में प्रोफेसर हैं और ली कुआन यू स्कूल ऑफ पब्लिक पॉलिसी, एनयूएस में एडजंक्ट सीनियर रिसर्च फेलो हैं। आदित्य वलियाथन पिल्लै सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर) में इनिशिएटिव फॉर क्लाइमेट, एनर्जी एंड एनवायरनमेंट में एसोसिएट फेलो हैं।
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