विश्व के शहरों में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन राष्ट्रीय औसत से काफी कम है, जबकि दिल्ली और कोलकाता जैसे बड़े भारतीय शहरों में राष्ट्रीय औसत से दोगुना तक उत्सर्जन होता है। शाह और डाउन्स इस बात का पता लगाते हैं कि भारत में हो रहा शहरीकरण देश के राष्ट्रीय डीकार्बोनाइज़ेशन प्रयासों को कैसे नाकाम कर सकता है। वे सुझाव देते हैं कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को स्थापित करने और राज्यों और राष्ट्रीय सरकारों को मिलकर काम करने के लिए विकेंद्रीकृत दृष्टिकोण अपनाना पड़ेगा।
शून्य उत्सर्जन (नेट ज़ीरो) लक्ष्य की घोषणा करने वाले विकासशील देशों में भारत पहला देश है। इसके डीकार्बोनाइज़ेशन लक्ष्य हमेशा महत्वाकांक्षी रहे हैं, जिनकी अब तक की प्रगति को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिली है। लेकिन एक छुपा तत्व भी है जो संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (COP26) में घोषित सरकार के ‘पंचामृत दृष्टिकोण’ को बाधित कर सकता है। हमारी नई रिपोर्ट (डाउन्स एवं अन्य 2022) में हम पाते हैं कि भारत के शहरीकरण का स्वरूप देश के डीकार्बोनाइज़ेशन के प्रयासों में बाधा डाल सकता है।
जलवायु परिवर्तन में शहरी योगदान
भारत में शहरी क्षेत्र ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में प्रति व्यक्ति दो-तिहाई अधिक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में योगदान करते हैं। एक ओर जहां लंदन, कुआलालंपुर और मैक्सिको सिटी जैसे शहरों में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन राष्ट्रीय औसत से 60% तक कम होता है वहीं भारत में ठीक इसका उलटा है। दिल्ली और कोलकाता जैसे बड़े शहरों में उत्सर्जन राष्ट्रीय औसत से दोगुना तक हो सकता है। ऐसे आँकड़ों पर ध्यान नहीं दिया जाता क्योंकि घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय, दोनों तरह के वार्तालापों में ऊर्जा, परिवहन, कृषि, उद्योग और वाणिज्य में डीकार्बोनाइज़ेशन की परिकल्पना करते हुए क्षेत्रीय फोकस रहता है। इसके बावजूद सारे न सही इनमें से अधिकांश शहर आकर ही मिलते हैं। शहर मांग को आकार देते हैं और आपूर्ति का प्रबंधन करते हैं जो क्षेत्रीय उत्सर्जन को बढ़ाता है। नीति आयोग के भारत ऊर्जा सुरक्षा परिदृश्य 20471 के अनुसार, वर्ष 2012 और 2047 के बीच इमारतों में ऊर्जा की मांग 800% बढ़ने का अनुमान है। शहरीकरण बढ़ने के साथ-साथ, विनिर्माण और निर्माण उत्सर्जन में वृद्धि व स्टील, लोहा और सीमेंट की मांग बढ़ेगी। कारों का अत्यधिक उपयोग बढ़ने की संभावना के साथ-साथ, और अधिक वाहन पहले से ही भीड़भाड़ वाली शहरी सड़कों पर आ जाएंगे।
शहरों के पास परिवर्तन की कुंजी होती है, चाहे वह भवन योजनाओं के बेहतर विनियमन के माध्यम से हो या शहरी परिवहन के लिए बहुविध या मल्टी मोडल योजना के माध्यम से। हालाँकि, नगर पालिकाएँ आमतौर पर कुशलता और नवाचार के लिए तैयार नहीं होती हैं, जिसके कारण भारत के शहर अत्यधिक कार्बन उत्सर्जन वाले शहरों के रूप में तब्दील होने की संभावना है। जलवायु विज्ञान और शहरी नियोजन जैसे तकनीकी कौशल की कमी के चलते देश में केवल एक तिहाई शहरों में विकास योजनाएं हैं (नीति आयोग, 2021)। जहां योजनाएं हैं, वहां आर्थिक गतिविधियों पर प्रतिबंध लगता है और उनसे जुड़े नियमों को लागू करना बेहद मुश्किल हो जाता है। कम ज़मीनी कवरेज के चलते अधिकांश भूमि 'निजी खुली जगह' के रूप में बिखरी हुई है, जबकि कुछ शहरी जिलों में सार्वजनिक स्थान बहुत ही कम यानी 10% तक भी हो सकता है (30-40% के अंतरराष्ट्रीय मानक की तुलना में) (ब्याहुत एवं अन्य 2020)।
इस बात के बढ़ते सबूतों के बावजूद कि खराब शहरी नियोजन के कारण गम्भीर बाढ़ का और पानी की किल्लत का सामना करना पड़ता है, दस लाख से अधिक आबादी वाले भारत के केवल आधे शहरों में ही जलवायु परिवर्तन के अनुकूल ढलने की योजना है। अनियोजित विकास के प्रभाव से हैदराबाद और चेन्नई जैसे शहरों में बार-बार नुकसान हो रहा है। जिस प्रकार से अपर्याप्त योजना और नियमन तथा अत्यधिक जलवायु संबंधी घटनाओं से होने वाले नुकसान के बीच प्रत्यक्ष ‘कारणता’ अधिक स्पष्ट होती जा रही है, उसी प्रकार से इसके अप्रत्यक्ष प्रभाव भी अधिक स्पष्ट होते जा रहे हैं। अपर्याप्त सार्वजनिक स्थान होने का मतलब है कि उत्सर्जन को अवशोषित करनेवाले पार्क कम हैं और बसों के लिए अलग सड़कों और लेनों की कमी है जिससे निजी वाहनों का उपयोग कम होना शक्य होता। शहरों के केन्द्रों में कम भवन, घनत्व को बाहरी इलाकों की ओर धकेलता है जहां जमीन सस्ती है और विनियमन ढीला होता है। भारतीय शहरों के इन विशाल, घने और अनियमित बाहरी इलाकों के कारण आवागमन का समय और दूरियां बढती हैं, सार्वजनिक सेवाओं का विस्तार कम होता है, पानी के लिए ट्यूबवेलों और बैकअप के लिए डीजल जनरेटर पर निर्भरता बढ़ती है और गर्मी समेटे रखने वाले स्थानों या ‘हीट-आइलैंड’ का निर्माण होता है। ख़राब तरीके से निर्मित इमारतों के कारण ऊर्जा की खपत बढती है और अपशिष्ट में वृद्धि होती है।
मुंबई ने कुछ समय पहले ही में एक जलवायु कार्य-योजना बनाकर सुर्खियां बटोरी हैं, लेकिन 8,000 से अधिक शहरों वाले देश में, यह शायद ही जश्न मनाने का एक उचित कारण है। जौनपुर जैसे छोटे भारतीय शहरों के दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों की सूची में ऊपर आने के साथ, निष्क्रियता का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। यहां तक कि अपनी कार्ययोजना तैयार कर लेनेवाले शहरों में भी कार्रवाई शायद ही समय पर और प्रभावी होती है।
यदि शहरी आबादी को जलवायु परिवर्तन के सबसे स्पष्ट प्रभावों- बढ़ते तापमान, चरम मौसम और बाढ़ से बचाना है तो भारत में शहरी प्रणालियों में बड़े पैमाने पर बदलाव की आवश्यकता होगी। विश्व बैंक द्वारा रैंक किए गए सबसे विकेन्द्रीकृत 182 देशों में से भारत 68वां देश है, जबकि आकार में इसके समकक्ष एकमात्र देश चीन है, जो कि 21वें स्थान पर है (इवान्यना और शाह 2012)। विकेंद्रीकरण की कमी स्थानीय सरकारों को जोखिम में डालती है, उन्हें अनुकूलन के लिए आवश्यक शक्तियों और धन से वंचित करती है और यहाँ तक कि उन्हें सबसे बुनियादी सेवाएं भी प्राप्त करने के लिए सरकार के उच्च स्तर पर निर्भर रहना पड़ता है।
नीति का क्रियान्वयन
डीकार्बोनाइज़ेशन के लिए क्रांतिकारी परिवर्तन की आवश्यकता होगी, लेकिन इसे केवल हस्तांतरण तक सीमित नहीं रखा जा सकता है। एक प्रभावी ‘राष्ट्रीय जलवायु कार्य-योजना’ को स्थानीय, राज्य और राष्ट्रीय कार्यों के साथ बारीकी से समन्वित करके 'बॉटम-अप' योजना और प्रबंधन के सिद्धांत को सक्रिय करने की आवश्यकता होगी। ऐसा करते हुए यदि इस तथ्य को भली भांति ध्यान में रखा जाए कि शहर और जिले कहीं और बनाई व निर्धारित नीतियों से प्रभावित होते हैं, तो ग्लासगो में पुष्टि किए गए राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदानों से शमन लक्ष्यों को स्थानीय स्तर पर लाया जा सकता है। राज्य सरकारें संवैधानिक रूप से राष्ट्रीय और स्थानीय विकास के बीच मध्यस्थ होती हैं, इसलिए वे जलवायु संबंधी लक्ष्यों को प्राप्त करने का आधार हैं। वे निरंतर और समावेशी स्थानीय विकास के संरक्षक होने के साथ-साथ नगर पालिकाओं को परिणाम प्राप्त करने के लिए जवाबदेह बना सकती हैं।
फैलाव, प्रदूषण और भीड़-भाड़ की स्थिति में कार्रवाई करने में निरंतर कुशासन और विफलता के चलते, डीकार्बोनाइज़ेशन को ध्यान में रखे बिना भी, वर्ष 2050 तक भारत को 3.3 खरब से 18 खरब डॉलर प्रति वर्ष (सकल घरेलू उत्पाद का 1.2-6.3%) का नुकसान होने का अनुमान लगाया गया है (तिवारी और गॉडफ्रे 2016)। एक शहरीकृत देश को जलवायु परिवर्तन की विपरीत परिस्थितियों से निपटते हुए आगे बढ़ने और समृद्ध होने के लिए, शहरों को अब आवश्यक धन, कार्यों और पदाधिकारियों से वंचित नहीं रखा जा सकता है। 140 करोड़ से अधिक लोगों की देखभाल का कर्तव्य एक साथ सरकार के तीनों स्तरों के हाथों में है।
नोट:
1. यह संख्या उन सभी भवन धारणाओं के परिदृश्य को मानकर निकाली गई है जहां कुशलता में सुधार के लिए वर्तमान नीति में कोई कार्रवाई नहीं की गई है।
अंग्रेज़ी के मूल लेख और संदर्भों की सूची के लिए कृपया यहां देखें।
लेखक परिचय : सैम डाउन्स पूर्व में नीति अनुसंधान और परामर्श संगठनों, अर्थ ग्लोबल और आईडीएफसी इंस्टिट्यूट से जुड़े रहे हैं और उन्होंने बुनियादी ढांचे, शहरी नीति, दीर्घकालिक योजना, कार्यान्वयन और सरकारी सुधार के क्षेत्र में काम किया है। जगन शाह अर्थ ग्लोबल के वरिष्ठ फेलो और उभरते शहरों के लिए स्थापित 'अर्थ सेंटर' के निदेशक हैं। उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय विकास, बुनियादी ढांचा और शहरी मामलों के क्षेत्र में काफी काम किया है।
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