मानव विकास

सार्वजनिक स्वास्थ्य और पोषण को प्राथमिकता देने पर किस प्रकार आगे बढ़ा जाए

  • Blog Post Date 22 अप्रैल, 2020
  • दृष्टिकोण
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Shweta Khandelwal

Public Health Foundation of India

shweta.khandelwal@phfi.org

भारत में दुनिया के हर 10 में से 3 से भी अधिक बच्‍चे अविकसित हैं, और यहां प्रति वर्ष जन्‍म के समय कम वजन वाले शिशुओं की संख्या सर्वाधिक है। इस पोस्ट में, श्वेता खंडेलवाल ने कहा है कि भारत कुपोषण के खिलाफ अपनी लड़ाई में प्रमुखता से आगे नहीं बढ़ पाया है क्योंकि यहां पोषण को केवल भोजन संबंधी समस्‍या के रूप में माना जाता है, और साथ ही इस पोस्‍ट में यह भी बताया गया है कि यह सोच दोषपूर्ण क्यों है।

 

दुनिया की अर्थव्यवस्था में नेतृत्‍वकर्ता के रूप में योगदान देने की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए हमारे आम लोगों के स्वास्थ्य और पोषण की स्थिति पर गहरा ध्यान देने की आवश्यकता होगी, विशेष रूप से उनके प्रारंभिक जीवन पर, जिसे अक्सर 1,000-दिवसीय अवधि (नौ महीने का गर्भकाल और दो साल का प्रसवोत्तर समय) कहा जाता है।

सार्वजनिक स्वास्थ्य और पोषण (पीएचएन) के कुछ हालिया आँकड़ों पर यदि प्रकाश डाला जाए तो-विकासशील दुनिया के 90% अल्पपोषित (अविकसित) बच्चे एशिया और अफ्रीका में रहते हैं। अकेले भारत में दुनिया के हर 10 में से 3 से भी अधिक बच्‍चे अविकसित हैं। इसके अलावा, भारत में प्रति वर्ष कम वजन वाले बच्चों की संख्या (लगभग 74 लाख) भी सर्वाधिक है। यह स्थिति और भी खराब हो जाती है जब इस वंचित अवस्‍था के शुरुआती समय में भी बचने में सफल होने वाले शिशुओं में से केवल 25% नवजात शिशुओं को हीं जन्म के एक घंटे के भीतर स्तनपान का अवसर मिल पाता है। जबकि डब्ल्यूएचओ (विश्व स्वास्थ्य संगठन) और अन्य सभी संयुक्त राष्ट्र निकाय छह महीने की आयु तक केवल स्तनपान पर ही जोर डालते हैं, भारत में आधे से भी कम (46%) बच्चे इसका लाभ उठा पाते हैं।

पुराने या गैर-संचारी रोग (एनसीडी) जैसे, हृदय रोग, कैंसर, पुरानी श्वसन बीमारियां, और मधुमेह न केवल तेजी से बढ़ रहे हैं बल्कि वे भारत में समय से पहले मृत्‍यु और उत्पादकता में कमी होने के प्रमुख कारण भी हैं। हालांकि एनसीडी से होने वाली रुग्णता और मृत्यु, मुख्य रूप से वयस्क अवस्‍था में होती है, जोखिम वाले कारकों (खराब आहार, कम शारीरिक गतिविधि, तंबाकू या शराब का सेवन) के संपर्क शुरुआती जीवन में ही आरंभ हो जाता है। यूनिवर्सिटी ऑफ़ साउथैम्पटन से डेविड बार्कर के समूह ने सर्वप्रथम पहले 1,000 दिनों के दौरान खराब पोषण और वयस्क जीवन में एनसीडी के आरंभ के बीच संबंधों को दिखाया था (कृष्णवेनी एवं श्रीनिवासन 2019, कृष्णवेनी एवं याज्ञिक 2017, फॉल एवं कुमारन 2019)। बाद में भारत सहित कई विकासशील देशों में इसकी पुष्टि की गई (सिन्हा एवं अन्य 2017, फॉल 2013)।

युवा पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थुनबर्ग ने कहा था, "इस प्रकार व्‍यवहार करें जैसे कि आपके घर में आग लगी हो"। हम आपको सार्वजनिक स्वास्थ्य और पोषण के लिए तात्कालिक रूप से व्‍यवहार करने के लिए प्रेरित करते हैं। आप में से बहुत से लोगों को यह अत्‍यधिक बोझिल लगेगा क्योंकि अग्नि (क्षति) अभी तक पहचानी नहीं गई है, यह सूक्ष्म या यहां तक ​​कि कई लोगों के लिए अदृश्य है, इससे लड़ने के लिए संसाधन सीमित हैं, और इस आग को किस प्रकार बुझाया जाए (रोकथाम/प्रबंधन के लिए रणनीतियां) यह समझना सरल नहीं है।

केवल भोजन मात्र से कुपोषण की समस्या का समाधान नहीं होगा

बहु-क्षेत्रीय दृष्टिकोण का उपयोग करते हुए कुपोषण से निपटने हेतु एकजुट और समेकित कार्रवाई में सहयोग देने के लिए प्रधान मंत्री मोदी द्वारा 2018 में पोषण अभियान आरंभ किया गया था। हालांकि इस पहल का दृष्टिकोण सराहनीय है, इसका परिचालन कई चुनौतियों से भरा हो सकता है जो इसकी आउटरीच और सफलता को सीमित कर सकता है। हमारे देश के प्रत्येक नागरिक के लिए पोषण अभियान के उद्देश्यों को सफलतापूर्वक पूरा करने हेतु यह ज़रूरी है कि यह सभी क्रॉस-कटिंग क्षेत्रों से दृश्यता और स्वीकार्यता प्राप्त करें। मुख्य रूप से हम कुपोषण के खिलाफ अपनी लड़ाई में इसलिए आगे नहीं बढ़ पाए हैं क्योंकि हम पोषण को केवल ‘भोजन’ संबंधी समस्या मानते हैं। इस विचार प्रक्रिया में दोष क्यों है इसे निम्नलिखित छह बातों (अंग्रेजी में 6Cs) से समझा जा सकता है:

  1. अभिबिंदुता और सुसंगत कार्रवाई प्रमुख अवयव हैं: विश्व आर्थिक मंच के अनुसार, भारत को अपनी जनसंख्या को खिलाने के लिए प्रति वर्ष लगभग 230 मिलियन टन भोजन की आवश्यकता होती है - और 2016-2017 में भारत का खाद्यान्न उत्पादन रिकॉर्ड 273.3 मिलियन टन था। इसलिए अगर हम अनाज उत्पादन में आत्मनिर्भर हैं, तो भी हमारे लोग कुपोषित क्यों हैं? अनाज उत्पादन कृषि मंत्रालय के अंतर्गत आता है (महिला और बाल विकास मंत्रालय, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय और कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के बीच इसे समन्वित करने वाले कोई संयुक्त मंच नहीं है)। पोषण के दृ‍ष्टिकोण से कमी यह है कि आहार की विविधता और जैव-अवशोषण के लिए सूक्ष्म पोषक तत्वों की उपलब्धता सुनिश्चित नहीं है। हम सभी ने देखा है कि शहरी क्षेत्रों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में कुपोषण काफी अधिक है। एक महिला के दो बच्‍चों के जन्म अंतराल में कमी का संबंध कुपोषण से उच्च स्तर से जुड़ा है। शीघ्र विवाह कुपोषण में वृद्धि का कारण बंता है। जिन बच्चों की माताओं ने 12 वर्ष या उससे अधिक की स्‍कूली शिक्षा प्राप्‍त की है उन बच्चों का वजन गंभीर रूप से कम वजन वाले ऐसे बच्चों से पाँच गुना ज्यादा है जिनकी माताएं बिल्‍कुल अशिक्षित हैं। इस प्रकार, पीएचएन की वास्तविक प्रगति में योगदान करने में इक्विटी, पर्यावरण, शिक्षा, और डब्ल्यूएएसएच (पानी, स्‍वास्‍थ्‍य रक्षा और स्वच्छता) जैसे अन्य क्षेत्रों की महत्वपूर्ण भूमिका है। हमें पोषण को संयुक्त जवाबदेही/स्वामित्व के साथ, दृढ़ता से लेकिन सुगम रूप से पैकेज करने की आवश्यकता है। इन संयुक्त मोर्चों पर हुई प्रगति के आधार पर प्रमुख अधिकारियों का मूल्‍यांकन किया जाना चाहिए।
  2. संचार मुख्य भूमिका निभाता है: सभी स्तरों पर सरल, अधिक प्रभावी और प्रभावशाली संचार रणनीतियाँ सामुदायिक स्तर पर कहीं अधिक उपयोगी साबित होती हैं। अगर उच्च गुणवत्ता वाले अनुसंधान में निवेश करना ज़रूरी है तो प्रभावी संचार, संश्लेषण और निष्कर्षों के प्रचार-प्रसार में निवेश करना भी उतना हीं ज़रूरी है। कई क्षेत्रों में एकीकृत पाठ्यक्रम तैयार कर के प्रारंभिक आयु से ही इसे लागू किया जाना चाहिए। टिकाऊ, सुरक्षित, विविध और संतुलित भोजन के लिए उपयुक्त, स्थानीय योजनाओं का परीक्षण किया जाना चाहिए। विभिन्न हितधारकों द्वारा एकत्र किए गए डेटा को कैसे एकत्रित और और उसका कैसे उपयोग किया जा सकता है, इस पर कुछ स्पष्ट विचारों को डेटा उपयोग नीति के रूप में संक्षेपित किया जाना चाहिए। प्रमुख हितधारकों (सरकार, स्कूलों, कार्यस्थलों, अस्पतालों, जेलों, नागरिक समाज की भागीदारी) के लिए अंतर-क्षेत्रीय निष्कर्ष प्रस्‍तुत करने के लिए सामान्य प्लेटफ़ॉर्म बनाए जाने चाहिए। विचारशील अवधारणा, लोकप्रिय हस्‍तियों द्वारा विज्ञापन, प्रौद्योगिकी और समर्पित संसाधनों के लिए सामाजिक समर्थन के साधनों का उपयोग करके कागजी ज्ञान को कार्रवाई में परिवर्तित करने के लिए उत्‍प्रेरित करना चाहिए।
  3. क्षमता निर्माण: विभिन्‍न हितधारकों जैसे महिला नेताओं, युवा दूतों, पोषण चैंपियनों, स्कूल स्वास्थ्य मॉनिटरों, वेलनेस समन्‍वयकों, अग्रणी कार्यकर्ताओं, आदि को विकसित किया जाना चाहिए और अनेक प्लेटफार्मों पर पोषण एवं स्वास्थ्य पर सरल सामंजस्यपूर्ण संदेश देने के लिए उन्हें और सशक्त बनाया जाना चाहिए। यदि हितधारकों की सही संदेश देने और/या प्राप्त करने की क्षमता मजबूत नहीं है तो जन आंदोलन अपूर्ण और अप्रभावी होगा ।
  4. हर बार नए प्रस्तावों के बजाय मौजूदा नीतियों को लागू करें: भारत में पीएचएन पर कई कार्यक्रमों और पहल के एक विस्तृत पोर्टफोलियो की गणना करना आसान है। हालांकि, प्रभावशाली परिणाम देने के लिए उनमें से कितने एक-दूसरे के साथ समन्वयित हैं, एक ऐसा मुद्दा है जो हमारे देश में काफी हद तक सुधारा जा सकता है। नीति मार्ग के साक्ष्य को मजबूत करने की जरूरत है। वित्‍त के प्रभावकारी साधन का कृषि नीतियों, महिला सशक्तीकरण नीतियों, स्कूल स्वास्थ्य पहल, खाद्य व्यापार कानूनों आदि के साथ तालमेल होना चाहिए। उदाहरण के लिए, ताड़ के तेल का निर्यात/आयात केवल लाभ के दृष्टिकोण से नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि इसके स्वास्थ्य निहितार्थों का भी अध्ययन किया जाना चाहिए।
  5. हितों का टकराव और भ्रष्टाचार प्रगति के लिए हानिकारक है: इन्‍हें सार्वजनिक स्वास्थ्य और पोषण के लिए कड़ाई से रोकने की आवश्यकता है। निजी क्षेत्र द्वारा अस्वास्थ्यकर, उच्च वसा (हाइ फैट), चीनी, और नमकीन खाद्य पदार्थों के विज्ञापन और उनकी बिक्री बढ़ाने में भारी मात्रा में धन व्‍यय किया जाता है। यह वास्तव में समय निरुद्ध देखभाल करने वालों के निर्णयों में रुकावट पैदा करता है, जो अक्सर सीमित संसाधनों (धन, समय और ज्ञान) के कारण अस्वास्थ्यकर विकल्प चुनते हैं। इसके अलावा समय-समय पर उप-इष्टतम गुणवत्ता वाले खाद्य उत्पादों, और कुछ सरकारी योजनाओं में दरारों और भ्रष्टाचार की खबरें भी सामने आती रहती हैं। इन्हें कड़ी एवं समय पर निगरानी और शीघ्र कार्रवाई के माध्यम से हल किया जाना चाहिए।
  6. सह-संबंध विकृतियों के लिए गर्भ से कब्र तक की प्रतिबद्धता: पूरे जीवन-चक्र के दौरान पोषण का समर्थन करने की आवश्यकता है। हम अक्सर पीएचएन स्थान पर ऐसे कार्यक्रम/नीतियों को देखते हैं जो एक सीमित दृष्टिकोण का उपयोग करते हैं, जिनका समापन दुर्भाग्य से विभाजित राजनीतिक, वित्तीय और परिचालन प्रतिबद्धताओं के रूप में होता है। अब समय आ चुका है कि हमारे देश में विद्यमान कुपोषण (अल्पपोषण, अधिक वजन-मोटापा, सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी) के कई रूपों से निपटने के लिए अपनी सोच का विस्‍तार किया जाए और संसाधनों के निरंतर प्रवाह को सुनिश्चित किया जाए। गैर-संचारी रोगों से संक्रामक रोगों तक के पूरे स्पेक्ट्रम पर समग्र रूप से कार्य करने की आवश्यकता है। पहले 1,000 दिन निश्चित रूप से महत्वपूर्ण हैं, लेकिन पूरे जीवन-काल में पोषण को प्राथमिकता देने के कार्य हमारी मानव पूंजी की इष्टतम क्षमता और उत्पादकता सुनिश्चित करने को और भी आगे बढ़ाएंगे।

लेखक के विचार व्यक्तिगत हैं।

लेखक परिचय: श्वेता खंडेलवाल पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया (पीएचएफ़आई) में एसोसिएट प्रोफेसर और पोषण अनुसंधान (न्यूट्रिशन रिसर्च) की प्रमुख हैं।

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