उच्च शिक्षा में आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए आरक्षण: सकारात्मक कार्रवाई या वोट बैंक की राजनीति?
- 14 नवंबर, 2019
- दृष्टिकोण
हाल ही में मंजूर किए गए संविधान (103वां संशोधन) अधिनियम, 2019, में सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षण संस्थानों में सामान्य श्रेणी के आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लोगों के लिए 10 फीसदी आरक्षण का प्रावधान लाया गया है। इस पोस्ट में, देविका मल्होत्रा शर्मा ने तर्क दिया है कि आरक्षण से दूसरे उत्पीड़ित वर्गों के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं में अवसर घटेंगे और उन पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ेगा। इसके अलावा, उच्च शिक्षण संस्थानों में आर्थिक रुप से कमजोर वर्ग के उम्मीदवारों का पहले से ही अच्छा प्रतिनिधित्व है, इस लिए यह निर्णय उचित प्रतीत नहीं होता है।
लोकसभा में 103वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 2019 के पारित होने के बाद अब भारत में, सभी सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षण संस्थानों में 10% सीटें सामान्य श्रेणी के आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्लूएस) के लिए आरक्षित किया जाएगा। जबकि, कुछ लोगों का मानना है कि यह एक बेहतर कदम है और इससे उच्च शिक्षा और सरकारी नौकरी के अवसरों तक पहुंच बेहतर होगी, अन्य लोगों को लगता है कि यह केवल एक राजनीतिक कदम है। 10% आरक्षण देने के लिए उच्च शिक्षण संस्थानों में पच्चीस प्रतिशत सीटें बढ़ानी होंगी।
संविधान के अनुच्छेद 30 में वर्णित अल्पसंख्यक संस्थानों के अलावा, संविधान (103वां संशोधन) अधिनियम, 2019, उच्च शिक्षण संस्थानों में ईडब्ल्यूएस के लिए आरक्षण का प्रावधान करता है। यह सार्वजनिक रोजगार और सरकारी विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में शिक्षण और गैर-शिक्षण पदों की भर्ती पर भी लागू होता है। अधिनियम में धारा 6 को जोड़कर संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में संशोधन किया गया है, जो राज्यों को सामान्य श्रेणी के ईडब्ल्यूएस के लोगों की उन्नति के लिए विशेष प्रावधान करने की अनुमति देता है।
ईडब्ल्यूएस में एक ही प्रकार के वर्ग के लोग नहीं होते इसलिए आरक्षण के लिए योग्य समूह की पहचान करना भी मुश्किल है। बेरोजगारों से लेकर जो गरीबी रेखा से नीचे हैं और जिनकी पारिवारिक आय प्रति वर्ष 800,000 रुपये से कम है, उन सभी ईडब्ल्यूएस माना जाएगा।
अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए पहले से ही 50% आरक्षण दिया गया है। ईडब्लूएस को दिए गए 10% आरक्षण से अब कुल आरक्षण 60% होगा। ईडब्ल्यूएस को 10% आरक्षण प्रदान करने में, संशोधन ने भारत में आरक्षण के लिए 50% लक्ष्मण रेखा (ऊपरी सीमा) पार कर ली है। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने 1992 में, इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ मामले में साफ किया था कि किसी भी विशेष श्रेणी में दिए जाने वाले आरक्षण का कुल आकंड़ा 50% से ज्यादा नहीं होना चाहिए। आरक्षण के इस निर्णय में कई कानूनी अवरोध हैं जो हमारे संविधान की मूल संरचना के लिए खतरा पैदा करती हैं।
103वां संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 2019
संशोधन में कानूनी खामियां दो तर्कों से संबंधित हैं: सर्वोच्च अदालत ने बार-बार कहा है कि आर्थिक मानदंड आरक्षण के लिए एकमात्र आधार नहीं हो सकता है और यह केवल कम प्रतिनिधित्व वाले वर्गों तक बेहतर पहुंच प्रदान करता है। साथ ही यह गरीबी निवारण कार्यक्रम भी नहीं है। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के ऐसे फैसले पर 103वें संवैधानिक संशोधन सवाल खड़े करता है, जिसके तहत आर्थिक मापदंड को वैधता प्रदान की गई है। साथ ही, सुप्रीम कोर्ट ने लगातार कहा है कि आरक्षण से समानता का मौलिक अधिकार समाप्त नहीं होना चाहिए। इसलिए, कुल आरक्षण 50% से अधिक नहीं होना चाहिए। हालांकि, इस 50% नियम को भी 103वें संवैधानिक संशोधन द्वारा निष्प्रभावी बना दिया गया है। यदि किसी संवैधानिक संशोधन से लोकतंत्र, समानता, धर्मनिरपेक्षता जैसे संविधान के ‘मूल ढांचे’ के नष्ट होने का ख़तरा होता है तो इसे सुप्रीम कोर्ट द्वारा खारिज भी किया जा सकता है।
संविधान के अनुच्छेद 46 के तहत एससी, एसटी और ओबीसी के लिए आरक्षण देने का एक सामान्य आधार ‘सामाजिक अन्याय और पिछड़ापन है’, जबकि ईडब्ल्यूएस के मामले ऐसा नहीं है। ईडब्लूएस के तहत आरक्षण देने का एकमात्र आधार गरीबी है और यह अनुच्छेद 46 के कसौटी पर खरा नहीं उतरता है।
सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार कहा है कि अनुच्छेद 15(4) और 15(5) के तहत शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश में आरक्षण का आधार उस वर्ग को बनाना चाहिए जो "सामाजिक रूप" से पिछड़े होने के साथ साथ "शैक्षिक रूप से भी पिछड़े" हों। इसी तरह, अनुच्छेद 16(4) और 16(4ए) के तहत सार्वजनिक रोजगार में आरक्षण देने का अनिवार्य आधार उस वर्ग को बनाना चाहिए जो "सामाजिक रूप" से पिछड़े हों और जिनका "सरकारी सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है "।
हालांकि, ईडब्ल्यूएस के लिए शैक्षिक संस्थानों में आरक्षण प्रदान करने वाला नया अनुच्छेद 15(6), शैक्षिक पिछड़ेपन की प्रमुख शर्तों के बारे में मौन है। इसके अलावा, ईडब्ल्यूएस के लिए सार्वजनिक रोजगार में आरक्षण प्रदान करने वाला, अनुच्छेद 16(6) भी "सरकारी सेवाओं में पर्याप्त रूप से प्रतिनिधित्व नहीं करने" की स्थिति के बारे में कोई बात नहीं करता है।
इसके अलावा, 103वां संवैधानिक संशोधन भारत में कुल आरक्षण की 50% सीमा का उल्लंघन करता है, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा साहनी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया केस (1992) में निर्धारित किया था। अब तक, विभिन्न दबाव समूहों द्वारा अधिक आरक्षण की मांग को खारिज करने के पीछे यह मुख्य न्यायिक तर्क था।
ईडब्ल्यूएस आरक्षण का पिछड़ी जातियों पर क्या असर पड़ेगा?
ईडब्ल्यूएस के लिए आरक्षण, ईडब्ल्यूएस को छोड़कर सभी श्रेणियों के लिए उपलब्ध सीट-हिस्सेदारी को प्रभावित करेगा। भले ही सरकार ने कहा है कि ईडब्ल्यूएस कोटा एससी, एसटी और ओबीसी के लिए मौजूदा कोटा के साथ छेड़छाड़ नहीं करता है, लेकिन मेरिट कोटे में कटौती जरूर हुई है। ऐसा इसलिए है क्योंकि ईडब्ल्यूएस कोटा मौजूदा मेरिट कोटा से निकाला गया है।
सामान्य श्रेणी या अनारक्षित सीटें अगड़ी जातियों के लिए आरक्षित नहीं हैं, बल्कि सभी के लिए खुली हैं। यहां तक कि आरक्षित जातियों को अनारक्षित 50.5% सीटों और पदों के लिए प्रतिस्पर्धा करने का अधिकार है। सामाजिक न्याय विशेषज्ञ और भारत सरकार के पूर्व सचिव, पी.एस. कृष्णन के अनुसार, “अगड़ी जातियां लगभग उन सभी खुली सीटों को प्राप्त करने में सक्षम हैं, लेकिन कुछ सीटें उत्पीड़ित जातियों के लिए भी जाती हैं और धीरे-धीरे जैसे उनमें शैक्षिक प्रगति हो रही है, वे 50.5% का एक बड़ा हिस्सा प्राप्त करने में सक्षम होंगे। अब इसे घटाकर 40.5% कर दिया गया है, जिससे एससी, एसटी और ओबीसी का अधिकार प्रभावित होगा।”
एससी, एसटी और ओबीसी के लिए आरक्षित सीटें ज्यादातर उच्च शिक्षण संस्थानों में भरी जाती हैं और यह एससी, एसटी और ओबीसी द्वारा अनारक्षित सीटों के लिए प्रतिस्पर्धा करने की संभावना को बढ़ता है। दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के प्रोफेसर सतीश देशपांडे के अनुसार, "संपन्न उच्च जातियों का सामान्य वर्ग पर प्रभुत्व कायम है लेकिन आरक्षित श्रेणियों के लिए तेजी से बढ़ते योग्य छात्र अधिक प्रतिस्पर्धी सामान्य श्रेणी की सीटें हासिल कर रहे हैं"। हालांकि, ईडब्ल्यूएस कोटे के लागू होने के कारण अनारक्षित सीट का हिस्सा कम हो गया है।
ईडब्लूएस के तहत आरक्षण लागू होने के साथ, अनारक्षित वर्ग का उम्मीदवार केवल 40.50% सीटों के लिए प्रतिस्पर्धा कर सकता है क्योंकि 59.50% सीटें आरक्षित हैं। इसी तरह, अनुसूचि जनजाति के उम्मीदवार 48% सीटों (7.5% आरक्षण कोटा सीटों और 40.5% मेरिट सीटों) के लिए प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं। इसी तरह अनुसूचित जाति के उम्मीदवार 55.5% सीटों (15% आरक्षण कोटे की सीटों और 40.5% मेरिट सीटों) के लिए प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं, जबकि ओबीसी श्रेणी के उम्मीदवार 67.5% सीटें (27% आरक्षण कोटा सीट और 40.5% मेरिट सीट) के लिए लक्ष्य कर सकते हैं।
जो कोई भी नए परिभाषित ईडब्ल्यूएस मानदंड (एससी, एसटी, ओबीसी, या सामान्य श्रेणी) से संबंधित नहीं है, उनके पास अब लक्ष्य करने के लिए 10% कम नौकरियां होंगी। उदाहरण के लिए, ओबीसी, जो पहले 77.5% सीटों (27% आरक्षित और 50.5% सामान्य योग्यता) को लक्षित कर सकते थे, उनके लिए सीटें अब 67.5% तक नीचे आएंगी। अनुसूचित जाति वर्ग के व्यक्तियों के लिए 65.50% सीटों के पुराने अनुपात की तुलना में अब उपलब्ध सीटों का प्रतिशत 55.5% होगा। अनुसूचित जनजाति का हिस्सा 58% से घटकर 48% तक हो गया है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मेरिट कोटा पहले के 50.5% से घटकर 40.5% हो गया है। नए बदलावों ने समावेश को बढ़ावा देने के बजाय बहिष्करण का विस्तार किया है।
दरअसल, ईडब्ल्यूएस के आरक्षण को जाति-आधारित आरक्षणों के कमजोर पड़ने और दमनकारी जाति व्यवस्था और छुआछूत के खिलाफ एक सकारात्मक कार्रवाई के रूप में आरक्षण देने के मूल तर्क की समाप्ति की शुरुआत के रुप में देखा जा रहा है। आरक्षण के प्रावधान के लिए आर्थिक मानदंड को एकमात्र मानदंड के रूप में वैधता दी जा रही है। देश में जाति व्यवस्था की ठोस पकड़ होने के कारण अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और ओबीसी की प्रशासन, शासन और शिक्षा तक पहुंच में कमी थी। इसी असंतुलन को दूर करने के लिए संविधान ने एक साधन के रूप में आरक्षण की परिकल्पना की थी। इस संदर्भ में गरीबी, आर्थिक कमजोरी और बेरोजगारी पर विचार नहीं किया गया था।
उच्च शिक्षा क्षेत्र पर प्रभाव
इस नए बदलाव के लिए उच्च शिक्षा में 25% सीटों की वृद्धि करनी होगी लेकिन पर्याप्त राशि के बिना पढ़ाने और सीखने की गुणवत्ता पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। जल्दबाजी में इसे लागू करने की नीति ने बौद्धिक समूहों में एक बहस छेड़ दी है। इन निम्न तरीकों से उच्च शिक्षा प्रणाली प्रभावित होंगी:
फैकल्टी की कमी
संसद में मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा पेश किए गए आंकड़ों के अनुसार, फैकल्टी के कई पोस्ट रिक्त हैं। इन रिक्त पोस्टों में से 53.86% प्रोफेसर के हैं, 45.34% एसोसिएट प्रोफेसर के हैं, और 21.87% असिसटेंट प्रोफेसर के। स्थिति कुछ ऐसी है कि एक-तिहाई शिक्षण पोस्ट खाली हैं और ईडब्ल्यूएस छात्रों के लिए अतिरिक्त सीटों की स्वीकृति दी गई है जबकि शैक्षणिक पोस्टों में उस हिसाब से वृद्धि नहीं की गयी है। इसका परिणाम मौजूदा फैकल्टी पर अतिरिक्त बोझ के रुप में होगा।
छात्र-शिक्षक अनुपात का बिगड़ना
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) द्वारा निर्धारित एक मानक के अनुसार, विश्वविद्यालयों के लिए पोस्ट-ग्रेजुएट स्तर पर मीडिया और जन संचार अध्ययन और विज्ञान स्ट्रीम में 10 छात्रों के लिए कम से कम एक शिक्षक और सामाजिक विज्ञान एवं कॉमर्स स्ट्रीम में हर 15 छात्रों के लिए एक शिक्षक होना अनिवार्य है। अंडरग्रैजुएट स्तर पर, यह विज्ञान स्ट्रीम के लिए 1:25 और सामाजिक विज्ञान के लिए 1:30 का शिक्षक-छात्र अनुपात निर्धारित करता है। मौजूदा प्रणाली में 25% अधिक छात्रों को जोड़ने से शिक्षकों की संख्या में इसी अनुपात में वृद्धि की आवश्यकता होगी।
धन की कमी
इस योजना को लागू करने में खर्च काफी ज्यादा होगा। यह निश्चित नहीं है कि यह धनराशि एक बार में अनुदान के रूप में आवंटित की जाएगी या सरकार द्वारा उच्च शैक्षणिक संस्थानों को समय-समय पर दी जाएगी। विश्वविद्यालय इस बारे में भी स्पष्ट नहीं हैं कि क्या उन्हें उच्च शिक्षा वित्तपोषण एजेंसी (एचईफए – हाईयर एजुकेशन फिनन्सिंग एजन्सि) से ऋण के रूप में पैसा लेना होगा, जिससे उन पर अतिरिक्त दायित्व बनेगा या नहीं।
बुनियादी ढांचे संबंधी बाधाएं
बुनियादी ढांचे से संबंधित अन्य अड़चनें हैं। पिछले एक दशक में घोषित ज्यादातर केंद्रीय विश्वविद्यालयों में अब भी बुनियादी ढांचे से संबंधित काम होना बाकि है।
प्रशासनिक चुनौतियां
ईडब्ल्यूएस के तहत आने वाले लाभार्थियों को जिला अधिकारियों से आय प्रमाण पत्र, जो कोटा का लाभ प्राप्त करने के लिए जरूरी होता है, प्राप्त करने के लिए संघर्ष करना पड़ा है।
समापन टिप्पणी
103वां संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 2019 एक सावधानीपूर्वक तैयार की गई नीति प्रतीत होती है जिसे 2019 के आम चुनावों के दौरान अधिकतम राजनीतिक लाभ प्राप्त करने के उद्देश्य से बनाया गया था, जिसका भारतीय जनता पार्टी को लाभ मिला है। संवैधानिक और कानूनी रूप से, यह मुनासिब नहीं लगता क्योंकि यह संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन करता है। सुप्रीम कोर्ट इसपर क्या रुख रहता है यह एक अलग सवाल है। जहां तक नए कोटा के लाभार्थियों की पहचान का सवाल है, मानदंड मनमाना है, क्योंकि इसके लिए जो आय का स्तर रखा गया है वो काफी ऊंचा है, और इसमें लगभग सभी शामिल हो जाएंगे। यह ईडब्लूएस श्रेणी को छोड़ कर बाकि सभी श्रेणियों के लिए प्रतिस्पर्धी कोटा को छोटा कर उनपर प्रतिकूल प्रभाव डालेगा। जाहिर है, यह उचित प्रतीत नहीं होता है क्योंकि ईडब्ल्यूएस के उम्मीदवारों की पहले से ही उच्च शैक्षणिक संस्थानों में अच्छा मात्रा में है। हमारा उच्च शिक्षा सैक्टर पहले से ही दबाव में है, क्या हमें उस पर और बोझ डालने की जरूरत है? अब समय आ गया है कि भारतीय राजनीतिक वर्ग चुनावी लाभ हासिल करने के लिए आरक्षण के दायरे का लगातार विस्तार करने की अपनी प्रवृत्ति पर काबू पाये और महसूस करे कि यह गरीबी जैसी समस्याओं के लिए रामबाण नहीं है इसके लिए आरक्षण की बजाय उचित नीतिगत हस्तक्षेप की आवश्यकता है। इसी राजनीतिक प्रवृत्ति के खिलाफ डॉ. बी आर अम्बेडकर ने आगाह किया था। हमारे संविधान के संस्थापकों ने जाति व्यवस्था के तहत होने वाले उत्पीड़न को खत्म करने के लिए आरक्षण की परिकल्पना की थी, ये उस मूल उदेश्य को कमजोर करेगा।
लेखक परिचय: देविका मल्होत्रा शर्मा दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज में राजनीति विज्ञान पढ़ाती हैं।
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By: ONKAR kose 08 May, 2020
सामाजिक न्याय की दिशा में आपका चिंतन उत्तम है और इस विषय पर आपने बेहतर मार्गदर्शन प्रदान किया है इसके लिए बहुत-बहुत साधुवाद