पूरी दुनिया में, खास कर निम्न और मध्यम आय वाले देशों में महिलाएं नागरिक के रूप में राजनीतिक क्षेत्र में पुरुषों से कम दिखाई देती और बोलती हैं। इस लेख में भारत के मध्य प्रदेश में राजनीतिक भागीदारी में लगातार मौजूद लैंगिक अंतराल का अध्ययन किया गया है और पाया गया है कि इसका कारण महज संसाधनों का असमान वितरण, श्रम का अकुशल घरेलू विभाजन, या लैंगिक निषेध वाली संस्थाएं नहीं होकर महिलाओं की घर के बाहर राजनीतिक नेटवर्किंग को रोकने वाले सामाजिक मानदंडों के साथ उनका संयोजन है।
पूरी दुनिया में ही, लेकिन खास तौर पर कुछ विकासशील देशों के संदर्भ में महिलाएं राजनीतिक संस्थानों में और विमर्श में अनुपस्थित और अदृश्य रहती हैं। 2015 तक लोकतंत्रों में महिलाओं को दुनिया में लगभग सभी जगह मताधिकार मिल गया था और 130 से भी अधिक देशों में उनके लिए राजनीतिक कोटा लागू किया जा चुका था (ह्यूज एवं अन्य 2019)। जैसे, लिंग आधारित कोटा के जरिए महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ता दिखा है, नीतियों में महिलाओं के हितों के पक्ष में परिवर्तन हुआ है, और अन्य आयामों के लिहाज से भी लैंगिक समानता में सुधार हुआ है (लॉट्ट एवं केन्नी 1999, चट्टोपाध्याय एवं डूफ्लो 2004, मिलर 2008, बीमन एवं अन्य 2009, कैटालानो 2009, फोर्ड एवं पांडे 2011, क्लेटन एवं जेट्टरबर्ग 2018)।
इसके बावजूद नागरिकों के बतौर महिलाएं पूरी दुनिया में और खास कर निम्न तथा मध्यम आय वाले देशों में राजनीतिक क्षेत्र में कम दिखती और बोलती हैं। आकृति 1 में इस गंभीर लैंगिक अंतर (जेंडर गैप) को दर्शाया गया है। वर्ष 2016 में मैंने ग्रामीण मध्य प्रदेश में 5,371 महिलाओं और 2,399 पुरुषों का एक सर्वे किया और पाया कि महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों द्वारा यह कहने की 50 प्रतिशत अंक अधिक संभावना थी कि उन्होंने ग्राम सभा की बैठक में भाग लिया है और 30 प्रतिशत अंक अधिक संभावना थी कि उन्होंने स्थानीय नेता से संपर्क किया है। इसके अलावा, राजनीतिक व्यवहार में इस लैंगिक अंतर की मात्रा राजनीतिक व्यवहार में जाति आधारित अंतर की अपेक्षा काफी अधिक रही है जो अधिकांश शोध का फोकस रहा है। पूरे भारत के सर्वे के प्रतिनिधिक आंकड़े दर्शाते हैं कि पांच जातिगत उप-श्रेणियों के मामले में ग्राम सभा की बैठकों में पुरुषों की औसतन 25 से 33 प्रतिशत और महिलाओं की औसतन 6 से 11 प्रतिशत उपस्थिति रही है (देसाई एवं अन्य 2011)। इससे पता चलता है कि भागीदारी के मामले में जातियों के बीच अंतर पुरुषों और महिलाओं के बीच अंतर से काफी कम स्पष्ट है।
आकृति 1. ग्रामीण मध्य प्रदेश में राजनीतिक भागीदारी में लैंगिक अंतर
राजनीतिक भागीदारी में लैंगिक असमानताओं के संबंध में हमारी समझ अधिकांशतः उच्च आय वाले लोकतंत्रों के शोध पर आधारित है (ब्रैडी, वर्बा एवं स्कोल्ज़मैन 1995, इंगलहार्ट एवं नॉरिस 2000, बर्न्स स्कोल्ज़मैन एवं वर्बा 2001, इवर्सन एवं रोसनब्लुथ 2010, कार्पोवित्ज़ एवं मेंडलबर्ग 2014)। व्यक्तिगत स्तर के राजनीतिक व्यवहार की व्यख्या करने वाले प्रभावशाली सिद्धांतों की शुरुआत इस आधार से होती है कि संसाधनों (पैसे, शिक्षा, और समय) की उपलब्धता राजनीतिक संलग्नता की कीमत को प्रभावित करती है। इसलिए राजनीतिक भागीदारी में लैंगिक अंतर को संसाधनों में लैंगिक अंतर का परिणाम होने का तर्क दिया जाता है (ब्रैडी, वर्बा एवं स्कोल्ज़मैन 1995; बर्न्स, स्कोल्ज़मैन एवं वर्बा 2001)। राजनीतिक भागीदारी की सूचनापरक और भौतिक कीमतों में कमी के लिए आवश्यक राजनीतिक और अराजनीतिक संसाधनों का संचय पुरुषों की तुलना में महिलाओं ने काफी हद तक नहीं किया है। इसका यह निहितार्थ है कि जैसे-जैसे संसाधनों के मामले में समानता आएगी वैसे ही राजनीतिक भागीदारी में भी समानता आएगी।
जैसा कि मुख्यतः बेकर (1981) द्वारा तर्क दिया गया है कि राजनीतिक अर्थव्यवस्था के वैकल्पिक पारंपरिक मॉडलों में व्यक्ति के बजाय परिवार को फोकस किया गया है और महिलाओं भी भागीदारी में कमी की व्याख्या घर में श्रम विभाजन के कुशल परिणाम के बतौर की गई है। इस मॉडल में बच्चों की देखरेख और इस कारण समाज में मेलजोल के पैटर्न में थोड़ी बेहतर स्थिति में होने के चलते महिलाएं घर की जिम्मेवारी संभालती हैं। इसलिए परिवार के हित पूरी तरह से दिशाबद्ध रहते हैं और परिवार एकल कर्ता (यूनिटरी ऍक्टर्स) के बतौर व्यवहार करते हैं। इस मॉडल का एक निहितार्थ यह है कि श्रम का यह आर्थिक विभाजन श्रम के राजनीतिक विभाजन को भी जन्म दे सकता है जिसमें प्रासंगिक संसाधनों की अधिक उपलब्धता और उसके कारण भागीदारी की कम कीमत के चलते पुरुष राजनीतिक क्षेत्र में परिवार के हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
निम्न और मध्यम आय वाले लोकतंत्रों में महिलाओं के वर्तमान अनुभव इन मॉडलों के राजनीतिक व्यवहार के समक्ष चुनौती प्रस्तुत करते हैं। महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी पुरुषों की अपेक्षा कम रहती है, लेकिन देशों के अंदर और उनके बीच इस मामले में महत्वपूर्ण अंतर होता है। जैसे, खास तौर पर भारत के मामले में महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी औसतन कम रहती है लेकिन जमीनी स्तर पर महिलाओं के आंदोलन उभरे हैं और उनके कारण महत्वपूर्ण राजनीतिक परिवर्तन हुए हैं। भारत में एक उल्लेखनीय उदाहरण गुलाबी गैंग का है। उत्तर भारत में महिलाओं के इस अनौपचारिक समूह को यह नाम उनकी गुलाबी साडि़यों की वजह से मिला है। गैंग ने घरेलू हिंसा में कमी के लिए संघर्ष किया है और वह ध्यान देने लायक राजनीतिक ताकत बन गई है।
अंतर्विरोधी मामलों की बढ़ती संख्या को देखते हुए हम अनेक विकासशील देशों में महिलाओं की लगातार निम्न राजनीतिक भागीदारी की व्याख्या कैसे कर सकते हैं?
विकासशील देशों में लैंगिक व्यवहार के मॉडलों में अनेक प्रासंगिक तथ्यों को अवश्य शामिल किया जाना चाहिए। सबसे पहले तो जिन क्षेत्रों में तलाक बहुत कम होते हैं और श्रम का सशक्त आर्थिक विभाजन मौजूद है, वहां भी घरों के अंदर पसंद में अक्सर अंतर होता है (गोटलिएब एवं अन्य 2016)। अपने हाल के काम में मैंने तर्क दिया है और दर्शाया है कि किस तरह से खुद श्रम के आर्थिक विभाजन से भी पसंदों में लैंगिक अंतर उभरकर सामने आ सकता है (आर्टिज़ प्रिलामैन 2018)। जैसे, पानी के सार्वजनिक प्रावधान का मामला लें। पानी के प्रावधान से पूरे परिवार को लाभ होता है, लेकिन परिवार की देखरेख करने वाली के बतौर पानी लाने की जिम्मेवारी महिलाएं संभालती हैं। इसलिए पानी की गुणवत्ता और स्थान के प्रावधान के मामले में उनका अपने पति की तुलना में अधिक हिस्सेदारी होती है और अपनी राजनीतिक मांगों में उनके द्वारा पानी के प्रावधान को अधिक प्राथमिकता देने की संभावना होती है। घरों के अंदर पसंदों में अंतर लिंग-विशिष्ट अनुभवों (जैसे कि महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा) के कारण भी हो सकता है या महज लैंगिक समानता बढ़ाने की महिलाओं की इच्छा के कारण भी हो सकता है।
दूसरे, राजनीतिक पसंद के मामले में लैंगिक अंतर अक्सर राजनीतिक भागीदारी में लैंगिक अंतर के साथ-साथ चलते हैं। राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं की पसंद का कम प्रतिनिधित्व होने के बावजूद राजनीतिक क्षेत्र में महिलाएं अनुपस्थित हो सकती हैं। सराह खान (2017) द्वारा हाल में किया गया एक शोध दर्शाता है कि महिलाओं द्वारा अपने पतियों की पसंद को तरजीह देने की अधिक संभावना होती है, खास कर जब घरों के अंदर पसंद में अंतर काफी अधिक हो। ये पहले दोनो निष्कर्ष ऐसे मॉडल की जरूरत को दर्शाते हैं जो घर में समन्वय की व्यख्या तो कर ही सके लेकिन घर के अंतर पसंद के मामले में अंतर की भी गुंजाइश दे।
तीसरे, संसाधन संबंधी स्टॉक राजनीतिक भागीदारी के साथ सहसंबंधित हो सकते हैं और यहां तक कि राजनीतिक भागीदारी की आवश्यक शर्त भी हो सकते हैं, लेकिन इसकी संभावना कम है कि अकेले संसाधनों के मामले में मौजूद फासला दूर कर देने से महिलाएं राजनीतिक भागीदारी के लिए प्रेरित-प्रोत्साहित हो जाएं (देस्पोसातो एवं नोरांडर 2009, गोटलिएब 2016)। जैसे, 2016 में मध्य प्रदेश के छः जिलों में किए गए सर्वे के मूल आंकड़ों का उपयोग करके मैंने पाया कि राजनीतिक भागीदारी में 86 प्रतिशत लैंगिक अंतर की व्याख्या संसाधनों (शिक्षा, श्रम बाजार में भागीदारी, खाली समय, स्वैच्छिक गतिविधि, और नागरिक कौशल) में अंतर के जरिए नहीं हो पाती है (आर्टिज़ प्रिलामैन 2018)।
सामाजिक संपर्क का महत्व
इन तथ्यों और भारत में महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी में अंतर से प्रेरित होकर इस बात को जानने के लिए कि अधिकांश महिलाएं राजनीतिक क्षेत्र से अनुपस्थित क्यों रहती हैं, अपने हाल के आलेख (आर्टिज़ प्रिलामैन 2018) में मैंने ग्रामीण मध्य प्रदेश के मामले का अध्ययन किया। मेरा सैद्धांतिक मॉडल परिवार पर और पति-स्थानिक (पैट्रीलोकल), गैर-न्यूक्लियर परिवारों में राजनीतिक समन्वय की प्रकृति पर केंद्रित है। इसमें इस बात को लेकर तर्क दिया गया है कि अधिकांश परिवार अपने राजनीतिक व्यवहार का समन्वय करेंगे और एकल कर्ता के रूप में व्यवहार करेंगे। इससे परिवार में श्रम का राजनीतिक विभाजन होता है जिसमें पुरुष परिवार के राजनीतिक एजेंट के बतौर काम करते हैं और मुखर घरेलू प्राथमिकताएँ पुरुषों के हितों के पक्ष में झुकी होती हैं।
महिलाएं अपने राजनीतिक व्यवहार का परिवार के राजनीतिक व्यवहार के साथ क्यों समन्वय करेंगी? मेरा तर्क है कि महिलाओं का सामाजिक अलगाव/सामाजिक जुड़ाव जिस हद तक होता है, वह परिवार के बाहर उनके राजनीतिक व्यवहार के समन्वय करने की क्षमता को आकार देता है। लैंगिक पूर्वाग्रह वाले सामाजिक प्रचलन घर के बाहर महिलाओं की भूमिका को सीमित करते हैं (छिब्बर 2002)। अक्सर महिलाओं की जगह घर में मानी जाती है जबकि पुरुषों को सामुदायिक संस्थाओं के साथ संलग्नता की छूट होती है तथा राजनीति को खास तौर पर पुरुषों के क्षेत्र के रूप में देखा जाता है। यह विभाजन मोबिलिटी संबंधी ठोस अवरोधों के जरिए लागू होता है। भारत में हुए एक प्रतिनिधि सर्वे में 72 प्रतिशत महिलाओं ने बताया कि उन्हें अपने गांव की किसी मित्र या पारिवारिक सदस्य के पास जाने के लिए अनुमति लेनी पड़ती है जबकि 23 प्रतिशत ने कहा कि अनुमति मिलने के बाद भी उन्हें अकेले जाने की इजाजत नहीं मिलती है (देसाई एवं अन्य 2011)। इन सारी चीजों को प्रतिघात (बैकलैश) के भय, प्रायः सामाजिक पाबंदियों, और यहां तक कि हिंसा के जरिए भी लागू किया जाता है।
आर्थिक बार्गेनिंग पावर में विषमता, परिवार के अंदर के संसाधनों में असमानता, और लैंगिक पूर्वाग्रह वाले सामाजिक मानदंडों के कारण श्रम का यह राजनीतिक विभाजन महिलाओं के हितों का कम प्रतिनिधित्व करता है और महिलाओं की आवाज को दबाता है जिससे राजनीति में लिंग के आधार पर भीतरी और बाहरी व्यक्ति की व्यवस्था निर्मित होती है।
हालांकि जब महिलाओं का सामाजिक नेटवर्क इस तरह से बदल जाता है कि उसमें अधिक महिलाएं शामिल हो जाती हैं, तो महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी बढ़ जाने की संभावना होती है। इस संबंध की जांच के लिए मध्य प्रदेश में मेरे शोध के दौरान एक स्वाभाविक प्रयोग का उपयोग किया गया जिसने महिलाओं को स्वयं सहायता समूहों (सेल्फ-हेल्प ग्रुप्स) में संगठित करने के लिए एक एनजीओ (गैर-सरकारी संगठन) के कार्यक्रम के संपर्क में ऐज-इफ रैंडम वैरिएशन1 तैयार कर दिया। स्वयं सहायता समूह एक ही गांव की 10 से 20 महिलाओं के अनौपचारिक समूह होते हैं जो अनौपचारिक बचतकर्ता एवं ऋणदाता संस्थान के बतौर काम करते हैं। स्वयं सहायता समूहों की बार-बार बैठक होती है और इन बैठकों में गैर-सदस्यों को शामिल होने की अनुमति नहीं होती है। फलतः, इन समूहों के जरिए महिलाओं की पहुंच सिर्फ अन्य महिलाओं के आर्थिक नेटवर्क तक होती है। इन समूहों में भागीदारी से महिलाओं की मतदानरहित, स्थानीय राजनीतिक भागीदारी में काफी वृद्धि हुई। किसी स्वयं सहायता समूह की सदस्य महिलाओं के लिए ग्राम सभा की बैठकों में भाग लेने या स्थानीय नेताओं पर अपना दावा करने की संभावना दोगुनी हो गई। आंकड़ों के साथ-साथ उनकी पुष्टि करने वाले साक्षात्कार के साक्ष्य संकेत देते हैं कि यह सकारात्मक प्रभाव मुख्यतः संयुक्त रूप से प्रतिनिधित्व की मांग करने और पुरुषों से होने वाले प्रतिघात से संघर्ष करने की महिलाओं की समन्वित सामूहिक कार्रवाई का परिणाम होता है। मुझे यह विचारोत्तेजक साक्ष्य भी प्राप्त हुआ कि स्वयं सहायता समूह में भागीदारी ने महिलाओं को अपनी राजनीतिक आवाज का प्रयोग करने की गुंजाइश देकर राजनीतिक ज्ञान, आत्मविश्वास, और नागरिक कौशलों के विकास में उनकी मदद की (आर्टिज़ प्रिलामैन 2018, आर्टिज़ प्रिलामैन 2019, पार्थसारथी एवं अन्य 2017)।
राजनीतिक क्षेत्रों में नागरिकों के बतौर महिलाओं का प्रतिनिधित्व राजनीतिक समावेश के मानकों के आधार पर और राजनीतिक अर्थव्यवस्था के आधार पर भी जरूरी है क्योंकि इसके कारण नीतिगत परिवर्तन होने की संभावना है। हमें मालूम ही है कि जब महिलाएं राजनीति में प्रवेश करती हैं तो नीति बदल जाती है। भारत में निवार्चन वाले स्थानीय कार्यालयों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व ने कुछ सार्वजनिक वस्तुओं के प्रावधान को बढ़ा दिया है (चट्टोपाध्याय एवं डूफ्लो 2004)। लैटिन अमेरिका में महिलाओं के राजनीतिक आंदोलनों का महिलाओं के विरुद्ध होने वाली हिंसा से संघर्ष करने वाली नीतियों पर काफी अधिक प्रभाव पड़ा है (ह्तुन एवं वेल्डन 2012)। और उप-सहारा अफ्रीका में राष्ट्रीय कार्यालय में महिलाओं का प्रतिनिधित्व महिलाओं द्वारा अधिक राजनीतिक संलग्नता से जुड़ा हुआ है (बार्न्स एवं बर्चर्ड 2013)। फिर भी राजनीति में भाग लेने के महिलाओं के फैसले के मामले में हमारी समझ लंबे समय से इस बात को कबूलने में असफल रही है कि ऐसा करने के मामले में महज संसाधनों की कमी, श्रम का घरेलू विभाजन या तलाक के नियम नहीं, बल्कि घर के बाहर के राजनीतिक नेटवर्कों के साथ जुड़ने से रोकने वाले सामाजिक मापदंडों के साथ इन सभी का संयोजन बाधक रहा है। इस बात को कबूल कर लेते ही विकासशील लोकतंत्रों में राजनीतिक भागीदारी में लैंगिक अंतर की व्याख्या करना और उस पर रिस्पौंड करना संभव हो जाता है।
लेखक परिचय: सोलेदाद आर्टिज़ प्रिलामैन नफ़ील्ड कॉलेज, यूनिवर्सिटी ऑफ़ ऑक्सफ़ोर्ड में राजनीति में पोस्टडॉक्टोरल प्राइज़ रिसर्च फैलो हैं।
नोट्स:
- लोगों के सामाजिक नेटवर्क का ढांचा जैसे जिन वैरिएबल्स की हम चिंता करते हैं उनको रैंडमाइज करना अथवा यादृच्छिक चर बनाना अक्सर संभव नहीं होता है या अकुशल होता है। हालांकि लोगों के सामाजिक नेटवर्क और उनके राजनीतिक व्यवहार के बीच संबंध को सामान्य रूप से देखना भ्रामक हो सकता है। जो लोग राजनीति में सक्रियता से लगे हैं उनके द्वारा सामाजिक नेटवर्कों को चुनने की संभावना राजनीति में सक्रियता से नहीं संलग्न लोगों की तुलना में काफी भिन्न होती है। बिना रैंडमाइजेशन के इसे समझने के लिए कि एक ही तरह के लोग विभिन्न सामाजिक नेटवर्कों के साथ कैसा व्यवहार करेंगे, हम स्वाभाविक प्रयोगों (नेचुरल एक्सपेरिमेंट्स) को चिन्हित करने का प्रयास कर सकते हैं। ये ऑब्जर्वेशन आधारित अध्ययन होते हैं जिसमें हम जिस वैरिएबल के बारे में चिंतित होते हैं उनके लिए अध्ययन के कुछ कारक लोगों के संभावित रैंडम असाइनमेंट की गुंजाइश देते हैं। इस मामले में गैर-सरकारी संगठन ने गांवों को उनके कार्यक्रम का मिलना जिस तरह से तय किया वह विवेकाधीन था न कि राजनीतिक भागीदारी के स्तरों का कोई फलन।
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