कोविड -19 महामारी के खिलाफ लड़ाई में अभी भी बहुत कुछ अज्ञात है, लेकिन दो कड़े सबक स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं: हमें अपनी स्वास्थ्य देखभाल क्षमता को सुदृढ़ करने तथा सामाजिक-सुरक्षा जाल को मजबूत बनाने के लिए सभी स्तरों पर आक्रामक रूप से प्रयत्न करने आवश्यकता है। इस पोस्ट में, परीक्षित घोष तर्क देते हैं कि अगर वायरस के खिलाफ लड़ाई को युद्ध के रूप में माना जाए, तो हमें यह युद्ध को लड़ते वक्त मार्शल प्लान की आवश्यकता होगी ना कि युद्ध के बाद।
कोरोनावायरस (कोविड-19) महामारी ने हमें एक दौराहे पर लाकर खड़ा कर दिया है। यह समझना महत्वपूर्ण है कि हम एक नहीं बल्कि संकटों की दुधारी तलवार पर चल रहे हैं - एक चिकित्सा और एक आर्थिक। महामारी संबंधी अनुमान एक सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट की चेतावनी देते हैं। इससे उत्पन्न हो रहा आर्थिक संकट, विशेष रूप से भारत में, जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) संकुचन इतना आसन्न नहीं है, लेकिन इसके विपरीत तथ्य यह है कि इसके परिणामस्वरूप होने वाली हानि को समान रूप से साझा नहीं किया जाएगा। जैसे-जैसे देश में इस बीमारी को समाप्त करने के लिए लॉकडाउन और अन्य उपाय किए जाएंगे, दिहाड़ी मजदूर और स्व-नियोजित लोगों के लिए भयानक रूप से आजीविका की हानि होगी, जबकि वेतनभोगी वर्ग शायद हीं प्रभावित होगा।
दोहरे संकट को हल के लिए दोतरफा रणनीति की ज़रूरत होगी। महामारी से जुड़ा हुआ संकट हमें जहां एक ओर अपनी स्वास्थ्य सेवा क्षमता को व्यापक रूप से मजबूत करने की चुनौती देता है, वहीं दूसरी ओर आर्थिक संकट हमारे सामाजिक सुरक्षा जाल को मजबूत करने के लिए मजबूर करता है और वो भी बिजली की गति से। अगर वायरस के खिलाफ लड़ाई को युद्ध के रूप में माना जाए, तो हमें यह युद्ध को लड़ते वक्त मार्शल प्लान की आवश्यूकता होगी ना कि युद्ध के बाद।
अधिकांश महामारी संबंधी अनुमानों में एक संपूर्ण संदेश साझा किया जाता है। कई जगह उद्धृत इम्पीरियल कॉलेज के अध्ययन में कहा गया है कि ब्रिटेन में एक अनियंत्रित महामारी की चरम सीमा पर क्रिटिकल केयर बेड की उपलब्धता आवश्यकता 1 से बढ़ कर 30 हो सकती है। वुहान, लोंबार्डी और न्यू यॉर्क जैसे शहरों में अस्पतालों पर पहले से ही अत्यधिक दबाव ने यह दिखा दिया है कि यह बिल्कुल काल्पनिक नहीं है। दमन और/या शमन के माध्यम से वक्र को समतल करने की सुझाई गई रणनीति ने अब कुछ एशियाई देशों में असर दिखाया है, हालांकि आर्थिक और सामाजिक लागतें अभी उभर ही रही हैं (विभिन्न काल्पनिक हस्तक्षेपों के तहत प्रारंभिक भारतीय मामले के लिए अनुमानों की गणना, देखें रिपोर्ट मिशिगन कोविड-19 अध्ययन समूह)।
लॉकडाउन जैसी चीजों के बारे में सबसे महत्वपूर्ण बात यह होती है कि चाहे इन्हें कितनी भी मानवीयता और कुशलता से लागू किया जाए, यह केवल वृद्धि को स्थगित करते हैं। प्रतिबंधों में ढील दिए जाने के बाद, शेष संक्रमणों के प्रभावी होने और नए मामलों के साथ महामारी फिर से फैल जाएगी (आकृति 1 देखें, जो इम्पीरियल कॉलेज के अध्ययन से पुन: प्रस्तुत किया गया है)। यह कोई जादू की गोली नहीं है। यह केवल हमारे लिए समय उपलब्ध कराएगा, जिसमें हम स्वास्थ्य रक्षा के बारे में सोच-विचार कर सकते हैं, वाहकों को अलग-थलग कर सकते हैं, उपचार और टीकों की खोज कर सकते हैं और आम तौर पर इसके बारे में विचार कर सकते हैं। नीति निर्माताओं को अवश्य इसका ध्यान रखना चाहिए!
आकृति 1. आईसीयू बिस्तर आवश्यकताओं को दिखाता हुआ ग्रेट ब्रिटेन के लिए दमन रणनीति परिदृश्य
स्रोत: इंपीरियल कॉलेज कोविड-19 रिस्पांस टीम, 2020
आकृति में दिए अङ्ग्रेज़ी शब्दों का अर्थ:
Critical care beds occupied per 1,00,000 population - प्रति 1,00,000 जनसंख्या पर क्रिटिकल केयर बेड अधिकृत
Surge critical care bed capacity - महत्वपूर्ण देखभाल बिस्तर क्षमता
Do nothing - कुछ न करना
Case isolation, household quarantine and general social distancing - स्थितियानुसार अलगाव, घरेलू संगरोध और सामान्य सामाजिक भेद
School and university closure, case isolation and general social distancing - स्कूल और विश्वविद्यालय बंद होना, स्थितियानुसार अलगाव और सामान्य सामाजिक भेद
तो, अगले दो हफ्तों के बाद हमारी दीर्घकालिक रणनीति क्या होनी चाहिए? बीमारी को फैलने से रोकने के लिए एकमात्र विकल्प यह प्रतीत होता है कि हमें भी दक्षिण कोरिया या सिंगापुर द्वारा अपनाये गये मार्ग पर चलना चाहिए - व्यापक परीक्षण, संपर्क अनुरेखण, संक्रमित को अलग-थलग करना, और शारीरिक दूरी के संबंध में व्यावहारिक लेकिन दीर्घकालिक कदम उठाना। जैसा कि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने कहा, "परीक्षण, परीक्षण, परीक्षण।"
"परीक्षण, परीक्षण, परीक्षण" के लिए आर्थिक प्रोत्साहन: संगरोध भत्ता
भारत जैसे खराब राज्य क्षमता वाले देश में, एक गहन परीक्षण व्यवस्था के लिए सामान्य लोगों से अत्यधिक सहयोग की आवश्यकता होगी, जो कि उचित प्रोत्साहन के बिना असंभव है। यह आश्चर्य होता है कि इस पर बहुत कम ध्यान दिया गया है।
यदि परीक्षण में पॉजिटिव निकलने का अर्थ घर और परिवार से दूर रहना है, और हफ्तों तक आजीविका खोना है, तो यह गरीबों के लिए संगरोध और यहां तक कि परीक्षण से बचने का मजबूत कारण है। यह अज्ञानता या स्वार्थ के कारण नहीं है बल्कि अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत 85% कार्य बल के लिए आजीविका कमाने की आवश्यकता के कारण है (ध्यान रखें कि अधिकांश संक्रमित व्यक्तियों के लिए, लक्षण हल्के-फुल्के होते हैं)।
सबसे पहले और प्रमुखत:, परीक्षण और उपचार आसान व मुफ्त होने चाहिए। दूसरा, सरकार को संगरोध की अवधि के दौरान खोई हुई कमाई को कवर करने के लिए बीमारों हेतु एक उदार संगरोध भत्ता (जारीकरण में नकद में देय) की घोषणा करनी चाहिए। अंत में, रहने की अच्छी सुविधाओं और उचित स्वच्छता वाले आइसोलेशन वार्ड बनाना आवश्यक है, न कि वे ऐसे नारकीय हों जिनसे लोग बचना चाहें। ऐसे समय में जबकि कई परिसर बंद हैं, यह थोड़े प्रशासनिक प्रयास और सरलता के साथ संभव है।
आजीविका सहायता के महत्व पर, ज़रूरत से ज्यादा जोर नहीं दिया जा सकता है। संक्रमितों पर भारी खर्च करने का फायदा यह है कि जब तक मामलों की संख्या में तीव्र वृद्धि नहीं होती है, तब तक सरकार पर समग्र राजकोषीय बोझ कम पड़ता है, लेकिन इसके सामाजिक लाभांश बहुत अधिक हैं। आइए इसे छोटे पैमाने पर इस प्रकार समझें - अगर सरकार 1,00,000 संक्रमित लोगों के परीक्षण, भत्ता, उपचार, भोजन और आवास के लिए प्रत्येक व्यक्ति पर 1,00,000 रुपए खर्च करती है तो इसका कुल बिल अभी भी 1 करोड़ रुपया आता है। यह 1.7 ट्रिलियन रुपये के हमारे मामूली बचाव पैकेज में एक बूंद के समान है। कुछ देशों ने गंभीर आर्थिक व्यवधान के बिना इस प्रकोप को रोके रखा है - जैसे सिंगापुर – संगरोध आदेश भत्ते के रूप में प्रति दिन US$100 (लगभग 5,300 रुपये) का भुगतान करता है। भारतीय उदाहरण के रूप में मुझे केवल ओडिशा के बारे में ज्ञात है जो दो सप्ताह के संगरोध के लिए रु. 15,000 के प्रोत्साहन वेतन का भुगतान है।
सामाजिक दूरी को सामाजिक सुरक्षा की आवश्यकता होती है
15 अप्रैल को लॉकडाउन समाप्त होने के बाद भी, निरंतर सामाजिक दूरी और उपभोक्ता के परिवर्तित व्यवहार के कारण कई व्यवसायों और आजीविका पर आने वाले महीनों तक गहरा प्रभाव पड़ेगा। कोविड अर्थव्यवस्था में नाइयों और होटल के वेटरों के कठिन समय की कल्पना की जा सकती है, लेकिन किराना और सब्जी विक्रेताओं पर उतना अधिक प्रभाव नहीं पड़ेगा। फिर भी, इन हानियों की मात्रा एवं लक्षित क्षतिपूर्ति को परिमाणित करना असंभव है।
चर प्रभाव का परिणाम भारी हो सकता है। अमर्त्य सेन ने 1943 के बंगाल के अकाल में आय वितरण पर एक बड़े झटके को एक प्रमुख कारक के रूप में पहचाना। उदाहरण के लिए, अकाल की चरम सीमा पर, मछली, अंडे और बाल कटाने (चावल के संदर्भ में) की कीमत पिछले वर्ष में अपने स्तर की तुलना में एक चौथाई तक कम हो गई, इसलिए किसान की तुलना में मछुआरों और नाइयों की असंगत रूप से मृत्यु हो गई। पूर्व-कोविड सामान्यता जैसे आय वितरण को बहाल करने की एकमात्र उम्मीद एक सार्वभौमिक बुनियादी आय (यूबीआई) है, जिसे अगले छह महीने या उससे अधिक के लिए भुगतान किया जाता है।
वित्त मंत्री द्वारा घोषित वित्तीय पैकेज (एनडीटीवी का अनुमान है कि केवल 1 ट्रिलियन रुपए का अतिरिक्त बजट खर्च होता है) नकदी के बजाय वस्तुरूपी अंतरण पर बहुत अधिक निर्भर करता है। यह पीडीएस (सार्वजनिक वितरण प्रणाली) अनाज की पात्रता को 5 किलोग्राम से बढ़ा कर 10 किलोग्राम (जो लगभग प्रति व्यक्ति खपत एनएसएस (नेशनल सैंपल सर्वे) डेटा के अनुसार है) करता है और कल्याणकारी योजनाओं के माध्यम से केवल मामूली मात्रा में नकदी देता है। लॉकडाउन के दौरान जब आपूर्ति श्रंखला बाधित होती है, एफसीआई (भारतीय खाद्य निगम) के स्टॉक से अनाज जारी करना समझदारीपूर्ण कदम है। लेकिन, इसके अलावा, सभी की जेब में पैसे डालने का कोई विकल्प नहीं है (आसानी से पहचानी जाने वाली क्रीमी लेयर को छोड़कर)।
सबसे पहले, ऐसे परिवार, जिनकी आमदनी बंद हो जाती है, उन्हें न खाने के लिए चावल की जरूरत होगी बल्कि साथ ही सब्जियों, खाना पकाने के तेल, कपड़े, दवा, ईंधन, और किराए का भी भुगतान करना होगा। दूसरा, एफसीआई के भंडार हमेशा के लिए नहीं रहेंगे और इनमें बहुत अधिक कमी भी नहीं आनी चाहिए - भविष्य में संभावित मौसम के झटके के समय के लिए भी कुछ भंडार होना चाहिए। तीसरा, और शायद सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि बहुत लंबे समय के लिए बाजार में दोगुना पीडीएस भर देने से खाद्य कीमतों में कमी हो जाएगी और इससे किसान का संकट बढ़ेगा।
दुर्भाग्य से, हर घर पर पैसे की एक समान मात्रा उपलब्ध कराने के लिए एक वितरण तंत्र की आवश्यकता होती है, ताकि कोई परिवार छूटे न, और न ही किसी परिवार को दोहरी मदद मिले। भारत में यही कमी है। विकसित देशों के विपरीत, हम अपनी टैक्स मशीनरी का उपयोग पैसे निकालने के लिए नहीं कर सकते हैं - केवल लगभग 7% भारतीय वयस्क आयकर देते हैं या फाइल करते हैं। अमरीकी कांग्रेस द्वारा पारित (डौलर) $2.2 ट्रिलियन सहायता पैकेज में लगभग 85% घरों में नकद भुगतान किया जाना शामिल है। दो कामकाजी वयस्कों वाले चार सदस्यों के परिवार को लगभग आधी औसत घरेलू आय प्राप्त होगी।
यदि हमारे पास ऐसा कुछ करने की क्षमता नहीं है तो इच्छा की तो बात ही छोड़ दें!
छोटी राशियों को कई छोटे वित्तांशों में रखे जाने का कोई अर्थ नहीं है, जबकि प्रत्येक वित्तांश की कवरेज कम हो और वही लाभार्थी अज्ञात रूप से दुबारा लाभ उठा लें। एक सहायता लॉटरी बनाना एक आय लॉटरी का जवाब नहीं है। सरकार को उस कार्यक्रम को चुनना चाहिए जो विशिष्ट रूप से पहचाने गए घरों की सबसे अधिक संख्या को कवर करता हो और डीबीटी (प्रत्यक्ष लाभ अंतरण) तंत्र का उपयोग करके लोगों की जेब में नकदी पहुंचा सके। यह एक ऐसा समय है जब घरेलू जरूरतें बड़ी हैं और सामान्य नकदी बनाम-वस्तु की बहस जो खाद्य सब्सिडी कार्यक्रम के इर्द-गिर्द घूमती है, बिल्कुल अप्रासंगिक है।
तालिका 1. विभिन्न योजनाओं से जुड़े लाभार्थियों की संख्या
योजना |
लाभार्थियों की संख्या |
पीडीएस |
23 करोड़ कार्ड, 81.3 करोड़ व्यक्ति |
मनरेगा |
12.8 करोड़ सक्रिय श्रमिक |
जन धन |
38.3 करोड़ खाते |
पीएम-किसान |
8.46 करोड़ किसान |
एसएचजी समूह |
64.3 लाख समूह, 88% में <5 p=""> |
स्वाभाविक रूप से पीडीएस नेटवर्क ही ऐसा विकल्प है जो दो तिहाई भारतीय घरों तक पहुंच सकता है। मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम) में कवरेज कम है और यह बड़े पैमाने पर शहरी गरीबों, एमएसएमई (सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों) श्रमिकों, और स्वरोजगार को दरकिनार करेगा। 38.3 करोड़ जन धन खाते एक प्रभावशाली संख्या प्रतीत होती है लेकिन हो सकता है कि कुछ घरों में कई खाते हों और कुछ घरों में एक भी खाता न हो। पीएम-किसान (प्रधान मंत्री किसान निधि) योजना में भूमिहीन मजदूर पूरी तरह से छूट जाते हैं। और इसी प्रकार अन्य।
अशोका विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्रियों के एक समूह ने भी पीडीएस नेटवर्क के माध्यम से नकद-अंतरण का सुझाव दिया है, लेकिन केवल उस समय और स्थान पर जहां लॉकडाउन लागू किए जाते हैं। मेरा विचार है कि महामारी के आर्थिक प्रभाव बहुत अधिक व्यापक और स्थायी होंगे, इसलिए सामाजिक सुरक्षा जाल को लंबे समय तक चलने की आवश्यकता है, जो निश्चित रूप से राजकोषीय बोझ को बढ़ाता है। आर्थिक सुरक्षा और रोग सुरक्षा पूरक प्रयास हैं - यह तब स्पष्ट रूप से चित्रित हुआ था जब लॉकडाउन की घोषणा के बाद सड़कों और बसों में बेरोजगार प्रवासियों की भीड़ जुट गई।
राजकोषीय स्थान
अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुसार महामारी के खिलाफ लड़ाई में हम कितना पिछड़ रहे हैं, इसका वर्णन नीचे दिए गए दो आकृतियों से होता है। आकृति 2 में दिखाया गया है कि भारत परीक्षण के मामले में अभी भी काफी दूर है, यहाँ तक कि जनसंख्या के आकार के अनुसार समायोजन करने के बाद भी।
आकृति 2. विभिन्न देशों में प्रति मिलियन जनसंख्या पर किए गए परीक्षण
स्रोत: Scroll.in (स्क्रोल डॉट इन)
आकृति में दिए अङ्ग्रेज़ी शब्दों का अर्थ:
Number of tests per million population - प्रति एक-लाख-आबादी पर परीक्षणों की संख्या
आकृति 3 से ज्ञात होता है कि कोविड-19 महामारी के खिलाफ लड़ाई में सरकार द्वारा अर्पित संसाधन, यहां तक कि जीडीपी के लिए समायोजित किए जाने के बाद भी, अन्य देशों की तुलना में काफी कम हैं।
आकृति 3. देश-वार सहायता/जीडीपी अनुपात
एक उचित यूबीआई की लागत कितनी होगी और पैसा कहां से आएगा? वर्तमान में हमारी प्रति व्यक्ति जीडीपी (आय) 11,250 रुपए प्रति माह है। कच्ची गणना से पता चलता है कि प्रत्येक पीडीएस परिवार के लिए प्रति सदस्य 1,000 रुपए मासिक अनुदान (पांच सदस्यों के एक परिवार के लिए 5,000 रुपये), 6 महीने के लिए जारी रखा जाए तो इसकी लागत जीडीपी के लगभग 3% या 5.7 ट्रिलियन रुपए (यदि आप चाहें तो इसे बढ़ा सकते हैं) आएगी। सदी के इस सबसे बड़े संकट के समय, हमारे साथी नागरिकों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने में इतना खर्च करने के लिए बिल्कुल नहीं सोचना चाहिए।
यह याद रखने योग्य है कि 2008 के वैश्विक आर्थिक संकट के बाद, सरकार ने राजकोषीय प्रोत्साहन को बढ़ा-चढ़ाकर उपलब्ध कराया और राजकोषीय घाटे को 3% से 6% तक लगभग दोगुना करने की अनुमति दी। नतीजतन, विकास बहाल हो गया और अगले दो वर्षों तक हमारी विकास दर उच्च-एक अंकीय बनी रही, जबकि दुनिया में मंदी छाई हुई थी। विकास के बहाल होने और कर आधार का विस्तार होने के कारण घाटा कम हुआ, इसलिए अंतत: इसने अपनी ज्यादातर लागत को पूरा कर लिया।
वित्तीय संकटों और साधारण मंदी को ऐतिहासिक अनुभव से बेहतर ढंग से समझा जाता है - हमारी एक मोटी राय है कि उनसे कैसे निपटा जाए और आमतौर पर तुरंत कैसे प्रतिक्रिया की जाए। एक नोवल कोरोनावायरस के कारण आर्थिक व्यवधान इतना नया और भिन्न है कि यह आसानी से स्तब्धकारी है। हालांकि हम इसके सभी विवरणों को नहीं जानते हैं कि यह कैसे समाप्त होगा और इसका क्या किया जाना चाहिए, सामाजिक सुरक्षा को शीघ्र हासिल करने में विफलता संभवतः एक उच्च लागत लाएगी।
इस अतिरिक्त खर्च को उधार के माध्यम से पूरा करने में कोई समस्या नहीं होनी चाहिए। निजी निवेश लंबे समय से कमजोर रहा है और अनिश्चितता के मौजूदा माहौल में उसे एक और झटका लगना तय है। यह निश्चित है कि नया सरकारी कर्ज बहुत अधिक निर्गम सृजन करने वाला नहीं है, और लोगों की जेब में पैसा भी एक बहुत जरूरी राजकोषीय प्रोत्साहन के रूप में काम करेगा। कच्चे तेल की कीमतों में भारी कमी होने तथा रुपये 2.1 ट्रिलियन के विनिवेश की योजना से प्राप्त अवसरों का उपयोग करके राजस्व के अन्य पर्याप्त भंडारों का दोहन किया जा सकता है।
वास्तविक अर्थव्यवस्था
आय वितरण के झटकों को पलटने की कोशिश करने से दूसरी मूलभूत समस्या कम नहीं होगी - यह एक बड़े पैमाने पर उत्पादन का झटका भी है। आखिरकार, हमें सिकुड़ती अर्थव्यवस्था की समस्या से निपटना होगा। अगर अर्थव्यवस्था एक साल के लिए धरातल पर रहती है, तो इसका असर कुल मिलाकर तबाह कर देने वाला होगा और कोई भी सामाजिक सुरक्षा तंत्र इसे ठीक नहीं कर पाएगा।
डेविड काट्ज जैसे कुछ लोगों की राय है कि चयन पूर्वाग्रह (ऐसे संक्रमित व्यक्ति जिनमें हल्के या कोई लक्षण नहीं हैं वे बिना पहचाने छूट जाते हैं, विभाजक की संख्या कम हो जाती है) और उसके कारण मृत्यु दर को अधिक करके आंका जा रहा है, जिससे अनुचित हड़बड़ी हो सकती है। प्रस्ताव है कि उच्च-जोखिम वाले समूहों की सुरक्षा के लिए अधिक चयनात्मक सामाजिक दूरी सुनिश्चित की जाए और उनके अलावा तुरंत सामान्य व्यापार-पर-वापस लौटा जाए। मेरे विचार में यह बहुत जोखिम भरा है। मजबूत प्रारंभिक दमन का एक 'विकल्प मूल्य' होता है - इनमें से कुछ अनिश्चितताओं को हल करने के बाद हम एक अधिक निर्णायक रास्ता ले सकते हैं, उदाहरण के लिए, यादृच्छिक नमूनों पर सीरमीय परीक्षण।
एक और सुझाया गया दृष्टिकोण चौंका देने वाला है। पॉल रोमर और ऐलन गर्बेर के साथ-साथ डेवेट्रिपौंट, गोल्डमैन, मुराईली, और प्लेट्यू तर्क देते हैं कि जो लोग संक्रमित हुए हों और जिन्होंने रोग प्रतिरक्षा अर्जित कर ली हों ऐसे लोगों को पहचानने के लिए व्यापक परीक्षण किये जाएं, और उन्हें वापस कार्यबल में ले लिया जाए। देबराज रे और एस. सुब्रमण्यन का प्रस्ताव है कि कम आयु वर्ग (उदाहरण के लिए, 20-40 वर्षीय) जिनकी मृत्यु दर कम है, उन्हें तुरंत काम करने की अनुमति दी जानी चाहिए और दूरी का पालन राज्य द्वारा जबरदस्ती कराने के बजाय घरों के भीतर स्वेच्छा से किया जाना चाहिए। कुछ महामारी विज्ञानियों ने ऑन/ऑफ ट्रिगर के रूप में आईसीयू बिस्तरों पर दबाव का उपयोग करते हुए आवधिक लॉकडाउन की रणनीति का सुझाव दिया है।
मुझे नहीं पता कि इनमें से कौन सा दृष्टिकोण आर्थिक कठिनाई और बीमारी के जोखिम को संतुलित करने में बेहतर ढंग से काम करता है। मुझे लगता है कि इसके बारे में किसी को भी निश्चित जानकारी नहीं है। दमन की अवधि का एक लाभ यह है कि इससे हमें बीमारी के मापदंडों का बेहतर अनुमान लगाने, राष्ट्रों द्वारा भी आजमाई गई शमन की वैकल्पिक रणनीतियों का मूल्यांकन करने, तापमान के किसी प्रभाव को देखने, बेहतर निगरानी उपकरणों को डिजाइन करने, आदि का समय मिलता है।
उत्पादन को पुनर्जीवित करने के अलावा, एक संबंधित चुनौती यह भी है कि सूखे नकदी प्रवाह के कारण कारोबार को दिवालियापन या बंद होने से रोका जाए। एमएसएमई क्षेत्र, जिसके पास अतिरिक्त संसाधन नहीं हैं, उसके बड़े होने के कारण भारत में यह समस्या काफी गंभीर है। अधिक संगठित एयरलाइन या आतिथ्य उद्योग में भी टिके रहना मुश्किल हो सकता है। इमैनुएल सैज़ और गैब्रियल ज़ुक्मैन का सुझाव है कि सामाजिक दूरी और लॉकडाउन के दौरान, सरकार को खोए हुए राजस्व की भरपाई के लिए आभासी मांग पैदा करनी चाहिए। इनके साथ-साथ रिपोर्ट की गई बिक्री के आधार पर एक जीएसटी (वस्तु और सेवा कर) क्रेडिट एक समाधान होगा।
निष्कर्ष
महामारी के खिलाफ लड़ाई में अभी भी बहुत कुछ अज्ञात है। फिर भी, दो कड़े सबक स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं: हमें अपनी स्वास्थ्य देखभाल क्षमता को सुदृढ़ करने और सामाजिक-सुरक्षा जाल को मजबूत बनाने के लिए सभी स्तरों पर भरसक प्रयत्न करने आवश्यकता है।
इनमें से जहां तक सामाजिक सुरक्षा जाल का संबंध है, दो व्यापक उपाय गंभीरता से विचार करने के लायक हैं। सबसे पहले, आबादी में अधिकांश लोगों को नकदी के रूप में न्यूनतम आजीविका आय प्रदान करना, ताकि आसन्न आय वितरण में बड़े पैमाने पर होने वाले बदलाव के विरुद्ध उनकी रक्षा की जा सके। दूसरा, बीमारी के विरुद्ध लक्षित हमले में लोगों का सहयोग प्राप्त करने के लिए उन लोगों को एक संगरोध भत्ता और अन्य लाभ प्रदान करना जिनके परीक्षण पॉजिटिव आते हैं। आर्थिक सुरक्षा न केवल सामाजिक न्याय की गारंटी के लिए आवश्यक है, बल्कि यह बीमारी के दमन और शमनकारी नीतियों को प्रभावी बनाने के लिए भी जरूरी है।
एक भूखी और असुरक्षित आबादी कोई सेना नहीं है जिसके साथ महामारी से लड़ा जा सके।
लेखक की टिप्पणी: मैं भ्रमर मुखर्जी और अश्विनी कुलकर्णी के साथ चर्चा से लाभान्वित हुआ हूं। और इस लेख में कोई भी त्रुटि मेरी अपनी है।
लेखक परिचय: परीक्षित घोष दिल्ली स्कूल ऑफ इक्नोमिक्स में एक एसोशिएट प्रोफेसर हैं।
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