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लिंग आधारित हिंसा के लिए मौत की सजा: एक टूटी हुई व्यवस्था के लिए अस्थाई समाधान

  • Blog Post Date 05 फ़रवरी, 2020
  • दृष्टिकोण
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Shreeradha Mishra

Indian School of Public Policy

shreeradhamishra19@ispp.org.in

2018 में, भारत सरकार ने लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण (पोकसो) अधिनियम, 2012 और भारतीय दंड संहिता में संशोधन किया है, जिसमें 12 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के बलात्कार के दोषियों के लिए मौत की सजा का प्रावधान है। श्रीराधा मिश्रा का तर्क है कि मृत्युदंड न्याय का भ्रम प्रदान कर सकता है, दृष्टिकोण में यह पूरी तरह से प्रतिशोधी है और यौन हिंसा की समस्या से निपटने के लिए किसी भी निवारक समाधान की पेशकश नहीं करता है।

 

दिसंबर 2019 में, हैदराबाद में एक सत्ताईस-वर्षीय पशु चिकित्सक के साथ हुए बलात्कार और हत्या ने 2012 में दिल्ली हुए सामूहिक बलात्कार केस की यादें ताज़ा कर दीं। इस घटना ने एक बार फिर देश को झंकझोर दिया है। न्याय मांगने के लिए हजारों लोग सड़कों पर उतरे और एक बार फिर बलात्कारियों को फांसी देने की मांग दोहराई गई। घटना के एक हफ्ते के भीतर, खबर आई कि हैदराबाद पुलिस के साथ मुठभेड़ में सभी चार आरोपी मारे गए। बीबीसी की एक समाचार रिपोर्ट के अनुसार, पीड़िता की मां ने पुलिस की सराहना करते हुए कहामेरी बेटी की आत्मा को अब शांति मिली है। न्याय हुआ है। मैंने कभी नहीं सोचा था कि हमें न्याय मिलेगा। किसी लड़की को ऐसा अनुभव नहीं होना चाहिए जो मेरी बेटी के साथ हुआ है।” मामला अब बंद हो गया है।

कई महत्वपूर्ण असहज प्रश्न हैं जिनका जवाब नहीं है: क्या हम यह पता लगा पाएँगे कि क्या चारों आरोपी असली अपराधी थे? क्या न्याय का रूप देकर किया जाने वाला यह अतिरिक्त-न्यायिक मुठभेड़ संवैधानिक रूप से स्वीकार्य है? क्या न्याय का यह कार्य किसी महिला या बच्चे के खिलाफ यौन हिंसा की अगली घटना को रोक सकेगा? यह कुछ ऐसे महत्वपूर्ण सवाल हैं, जिनका जवाब जानना ज़रूरी है।

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) द्वारा भारत में अपराध पर 2017 की रिपोर्ट के अनुसार 2017 में यौन उत्पीड़न और बलात्कार के 33,658 मामले सामने आए हैं। 2012 के दिल्ली सामूहिक बलात्कार मामले के सात वर्षों बाद भी बहुत कम बदलाव आया है। जिस आक्रोश के कारण, यौन हिंसा के लिए मृत्युदंड की मांग को बल मिला था और घोर अपराधों के मामले में 16 साल तथा उससे अधिक उम्र के किशोरों के ऊपर व्यस्कों की तरह मुकदमा चलाने के लिए किशोर न्याय अधिनियम में संशोधन किया गया था, वह महिलाओं और बच्चों के खिलाफ यौन हिंसा के अपराधों को सीमित करने और रोकने में सफल नहीं हो पाया है। भारत के लोग भले उन आरोपियों के फांसी पर चढ़ने का इंतजार कर रहे हो, पर उनका इस गंभीर समस्या को संबोधित करना ज्यादा जरुरी है कि आखिर वह प्रणाली जो महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा के उपायों के कार्यान्वयन के बजाय प्रतिशोध में भारी निवेश करती है, वांछित व्यवस्थित परिवर्तन कैसे लाएगा?

महिलाओं और बच्चों पर होने वाली यौन हिंसा के पीछे पितृसत्ता की मानसिकता और अनुपयुक्त शक्तिवाद की संस्कृति का जटिल मुद्दा निहित है, जिससे भारत-देश और इसके कानून-निर्माता प्रणालीगत स्तर पर निपटना नहीं चाहते। इसकी बजाय, मृत्युदंड की मांग को बढ़ावा दिया जा रहा है। मृत्युदंड भले हीं न्याय का भ्रम प्रदान कर सकता है, परंतु यह दृष्टिकोण पूरी तरह से प्रतिशोधी है क्योंकि यह यौन हिंसा की समस्या से निपटने के लिए किसी भी निवारक-समाधान की पेशकश नहीं करता है।

यौन हिंसा पीड़ितों पर मौत की सजा का प्रतिकूल प्रभाव

2018 में, जम्मू के कठुआ जिले के पास एक ग्रामीण समुदाय की आठ वर्षीय बच्ची के साथ हुए बलात्कार और हत्या के बाद, आपराधिक न्याय प्रणाली में उच्चतम संभव सजा प्रदान करने के लिए, सरकार ने लैंगिक उत्पीड़न से बच्चों के संरक्षण के अधिनियम (पोकसो), 2012 और भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) में संशोधन की घोषणा की, जो था ‘12 साल से कम उम्र के बच्चों का बलात्कार करने पर मौत की सज़ा’। इस प्रकार, एक विधायी और न्यायिक प्रक्रिया के माध्यम से, न्याय के लिए मृत्यु की धारणा को सुदृढ़ कर दिया गया, जो लोकप्रिय राय एवं मीडिया सक्रियता से प्रभावित था। इस फैसले की देश भर में सराहना हुई और इसने सामूहिक-सार्वजनिक विवेक को आकर्षित किया, ठीक उसी तरह जिस तरह दिसंबर 2012 के दिल्ली सामूहिक बलात्कार मामले के फैसले की सराहना की गई थी।1 हालांकि जिस बात को जनता, मीडिया, कानून बनाने वाले और संविधान के रखवाले (सुप्रीम कोर्ट) ने अनदेखा कर दिया था कि क्या महिलाओं और बच्चों के खिलाफ यौन हिंसा की समस्या के समाधान का दृष्टिकोण सुधार-उन्मुख होने के बजाय अदूरदर्शी और परिणाम-उन्मुख था?

यह विचार कि यौन हिंसा के अपराधों के लिए मौत की सजा एक प्रभावी निवारक है, एक दोषपूर्ण आधार है, जिस से बुनियादी स्तर पर निपटने की जरुरत है। यह, अपराध के कारण की पहचान करने और अधिक प्रभावी समाधान की दिशा में काम करने के बजाय जनता की नैतिक भावनाओं (एक अस्थायी समाधान और लोकलुभावन दृष्टिकोण) को शांत करने का काम करता है। यह समझे बिना कि अपराधी के उन्मूलन से अपराध समाप्त नहीं होता, यह प्रणाली मौत की सजा का बचाव करता है। यह न्याय के एक योग्य कार्य के रूप में संतोषजनक लग सकता है, लेकिन यौन शोषण के मामलों में मौत की सजा देने से पीड़ितों पर कई प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकते हैं। अपराध की अत्यंत संवेदनशील प्रकृति और यौन शोषण से जुड़े कलंक के कारण पीड़ितों को मनो-सामाजिक रूप से भारी कीमत चुकानी पड़ती है। यह बाल यौन शोषण के मामलों में विशेष रूप से समस्याग्रस्त साबित होता है, क्योंकि (ज़्यादातर) मामलों में शामिल बच्चे की सोचने की क्षमता की कमी होती है।

2016 के एनसीआरबी के आंकड़े बताते हैं कि बाल यौन शोषण के 94% मामलों में आरोपी पीड़ित का पड़ोसी, या नियोक्ता/मालिक, या रिश्तेदार, या कोई अन्य जान-पहचान का व्यक्ति था। इसका मतलब यह है कि यौन हिंसा के 94% मामलों में पीड़ितों को या तो चुप रहन होगा या अपराध को रिपोर्ट करके किसी ऐसे व्यक्ति को फांसी दिलाने का जोखिम उठाना होगा जिसे वे जानते हैं (कई मामलों में परिवार का कोई करीबी सदस्य)। अंततः इससे यौन हिंसा के मामलों की रिपोर्टिंग में कमी आ जाती है।

बंगलौर स्थित नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया यूनिवर्सिटी (एनएलएसआईयू) के सेंटर फॉर चाइल्ड एंड लॉ (सीसीएल) द्वारा भारत के पांच राज्यों पर आधारित एक अध्ययन में पाया गया कि मामलों में मुकदमे के दौरान अधिकांश यौन शोषित बच्चे प्रतिरोधी हो गए थे (दिल्ली में 67.5%, महाराष्ट्र में 47% और कर्नाटक में 94%) जहां दुर्व्यवहार करने वाला पीड़ित के पहचान के थे, जिस के कारण दोषसिद्धि बहुत कम लोगों की हुई (केवल 28%)। बच्चों के बलात्कार के लिए मौत की सजा की शुरुआत के कारण इस बात की संभावना बहुत ज्यादा है कि पीड़ित मामलों के प्रति प्रतिरोधी हो जाएंगे या दुर्व्यवहार की रिपोर्ट दर्ज कराने से इनकार करने लगेंगे – यह बाल-अधिकार समूहों और मृत्यु-दंड विरोधी कार्यकर्ताओं द्वारा समान रूप से उजागर किया गया एक तथ्य है। 

मौजूदा कानून और मजबूत व्यवस्था बनाने पर ध्यान देने की जरूरत

यौन हिंसा के अपराधों से निपटने के लिए एक प्रणालीगत दृष्टिकोण विकसित करने के लिए, राज्य को जनता को खुश करने वाले दंडात्मक आग्रह से परे जाकर इस बात पर ध्यान केंद्रित करने की ज़रूरत है कि मुद्दे को किस तरह से निपटा जाए। इससे संबंधित एक महत्वपूर्ण विचार मौजूदा कानून को मजबूत करने पर ध्यान देना है।

बच्चों के यौन शोषण को प्रभावी ढंग से संबोधित करने के लिए पोकसो अधिनियम (2012) तैयार किया गया था, जिसके तहत एक मजबूत और संवेदनशील कानूनी प्रणाली के लिए जगह बनाने की कोशिश की गई थी। हालांकि, इसके पेश होने के से सात वर्षों बाद भी सरकार ने इस ऐतिहासिक कानून के भीतर के कार्यान्वयन मुद्दों को संबोधित नहीं किया है। हालांकि, यह अधिनियम कई विशेष प्रावधानों और प्रणालियों को परिभाषित करता है, जिनमें त्वरित मुकदमों (स्पीडी ट्रायल्स) के लिए विशेष अदालतें शामिल हैं। लेकिन कानून को लागू करने वाली प्रणाली की क्षमता बढ़ाने के लिए, न केवल पत्र में बल्कि प्रेरणात्मक रूप से भी, बहुत कम काम किया गया है। सीसीएल और एचएक्यू: सेंटर फॉर चाइल्ड राइट्स (बाल अधिकारों के लिए केंद्र) सहित प्रमुख बाल अधिकार समूहों द्वारा किए गए अध्ययन कार्यान्वयन के इस कमी की पुष्टि करते हैं। कागज पर पोकसो एक मजबूत कानून है, लेकिन व्यावहारिक रूप से इसे महसूस करने के लिए इसके कार्यान्वयन के लिए एक प्रभावी ढांचा स्थापित करना जरुरी है। कानूनी बात और हकीकत के बीच अंतर बना रहता है। इस कानून के विशेष प्रावधान अपराध के अत्यंत संवेदनशील मानसिक-सामाजिक पहलुओं को स्वीकार करते हैं, इसलिए इस अंतर को समाप्त करना अनिवार्य है। सामाजिक न्याय की मजबूत संस्कृति का निर्माण न्याय को, न केवल एक प्रतिशोधी परिपेक्ष्य के माध्यम से, बल्कि एक निवारक एवं पुनर्स्थापनात्मक दृष्टिकोण के माध्यम से भी संभव बनाया जा सकता है। इसमे कोई दो राय नहीं है कि किसी भी अपराधी को सज़ा मिलनी चाहिए, परंतु इस अपराध का स्वरूप न्याय की बारीक समझ की माँग करता है। यौन हिंसा के मामलों में मृत्युदंड के प्रतिकूल प्रभाव के प्रमाण देखते हुए यह जानना ज़रूरी हो जाता है कि पीड़ित, न्याय प्रणाली से और उसके अलावा, आखिर चाहते क्या हैं। समस्या की जड़ तक जाने के उद्देश्य से अपराधी की मानसिकता को समझना भी ही महत्वपूर्ण है, ताकि प्रतिशोधी के बजाय एक निवारक तंत्र बनाने की दिशा में काम किया जा सके। सुप्रीम कोर्ट के वकील करुणा नंदी ने एक बात काही जो इस पूरे मामले की जड़ है –...सबसे पहले तो हिंसक पतृसत्ता को सीमित करना महत्त्वपूर्ण है जो बलात्कार का कारण बनते हैं”।

सही माने में न्याय क्या होना चाहिए

न्याय प्रक्रिया में देरी को संबोधित करना, लिंग-आधारित हिंसा से निपटने के लिए पुलिस अधिकारियों को संवेदनशील बनाना, रिपोर्टिंग के लिए प्रक्रियाओं को सरल बनाना, और सबसे ज़रूरी यह कि महिलाओं और बच्चों के खिलाफ हिंसा रोकने के लिए बातचीत में पुरुषों को शामिल करना कुछ ऐसे उपाय हैं जिन पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है।

गलत कार्यों को सही मायने में संबोधित करने के लिए, विधायी और कानूनी प्रणालियों को कठोर प्रतिशोधात्मक उपायों के प्रति अपने दृष्टिकोण पर पुनर्विचार करने की जरुरत है। एक मजबूती प्रदान करने वाला दृष्टिकोण वह होता है जो उन जरूरतों का पता लगता है जिस से पीड़ित हुए नुकसान से उभर सके और उन जरुरतों को पाने की क्रियाविधि भी तैयार करता है। एक पौष्टिक एवं कार्यात्मक प्रणाली और समाज की महत्त्वकांक्षा हुए नुकसान की मरम्मत करना भी होना चाहिए। बच्चों के यौन शोषण जैसे संवेदनशील अपराधों के लिए मौत की सजा की शुरुआत कर के हम सच्चे न्याय से बहुत दूर, एक अप्रत्यक्ष, गलत समझे हुए, और पुराने ढंग के विधि की ओर चले गए हैं। 

नोट्स-

  1. 16 दिसंबर 2012 को, दक्षिणी दिल्ली के मुनीरका में, एक 23 वर्षीय फिजियोथेरेपी इंटर्न के साथ एक बस में हुए सामूहिक बलात्कार में जानलेवा हमला भी शामिल था। मई 2016 में, सुप्रीम कोर्ट ने मामले में शामिल पांच दोषियों में से चार को मृत्युदंड की सज़ा सुनाई। पांचवां दोषी, अपराध के समय अल्पायु का था और उसे जांच-परताल के बाद रिहा कर दिया गया था। हालांकि, दो दिन बाद, जघन्य अपराधों के मामलों में बालिगों की आयु को 16 वर्ष करने के लिए राज्य सभा द्वारा किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) संशोधन विधेयक 2015 पारित किया गया था। 

लेखक परिचय: श्रीराधा मिश्रा, नई दिल्ली स्थित इंडियन स्कूल ऑफ पब्लिक पॉलिसी (आईएसपीपी) में पब्लिक पॉलिसी की छात्रा हैं और बाल-अधिकार की क्षेत्र में काम करती हैं।   

1 Comment:

By: gopal

useful information Aryan Boy(लिँग समस्या का समाधान)

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