भारतीय न्यायपालिका न्यायिक स्वतंत्रता की रक्षा करती है। कार्यकारी हस्तक्षेप से सावधान रहते हुए न्यायाधीश अपने संस्थागत हितों को बचाते हैं। लेकिन क्या भारत की न्यायिक व्यवस्था न्यायिक स्वतंत्रता के उल्लंघन से पीड़ित है? 1999 और 2014 के बीच सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों के एक युनीक डेटासेट तथा सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीशों के कैरियर-ग्राफ का उपयोग करते हुए इस आलेख में पाया गया कि सेवानिवृत्ति के बाद न्यायाधीशों की सरकारी पदों पर की गई नियुक्तियों में वृद्धि, उनके लिए मामलों को राज्य के पक्ष में तय करने के लिए एक शक्तिशाली प्रोत्साहन के रूप में कार्य करती है।
18 नवंबर 2019 को, भारत के 46 वें मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई), श्री रंजन गोगोई, सर्वोच्च न्यायालय से सेवानिवृत्त हुए। चार महीने बाद उन्हें भारत की संसद के ऊपरी सदन, राज्य सभा का सदस्य बना दिया गया। 16 मार्च 2020 को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने नरेंद्र मोदी सरकार की सलाह पर उन्हें उच्च सदन में नामित किया। भारत की विधिक संरचना अर्थात इसका संविधान, विधि और नियम ऐसी नियुक्तियों के लिए मना नहीं करते हैं। फिर भी, इस घोषणा पर कठोर टिप्पणियां की गईं हैं। सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश ने लाक्षणिक रूप से कहा ‘क्या अंतिम किला ढह गया है’? दिल्ली उच्च न्यायालय के एक सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश ने आरोप लगाया ‘यह एक मुआवजा है’। और कई राजनेताओं, वकीलों एवं विद्वानों ने भी इसी तरह की भावनाओं को प्रदर्शित किया है। वे जोर दे कर कहते हैं कि नियुक्ति अनुचित है; यह भारत में न्यायिक स्वतंत्रता को कमजोर करती है।1
न्यायिक स्वतंत्रता: अग्र भाग को सुरक्षित करना
मजबूत संवैधानिक लोकतंत्रों को स्वतंत्र न्यायपालिकाओं की आवश्यकता होती है। मुख्य विचार सरल है - न्यायाधीशों को मामलों का फैसला करना चाहिए और यदि आवश्यक हो तो राज्य (या अन्य विवादियों) को बिना किसी डर या पक्षपात के जवाबदेह ठहराना चाहिए।2 न्यायिक स्वतंत्रता उस समय आहत होती है जब सरकारें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सार्वजनिक या निजी तौर पर दवाब डाल कर, प्रोत्साहन दे कर न्यायाधीशों और उनके निर्णयों को कमजोर करती हैं।
न्यायपालिका को ऐसे राजनीतिक (कार्यकारी) हस्तक्षेप से बचाने के लिए, भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने 1994 में आरंभ करते हुए संविधान के तहत न्यायिक नियुक्ति के नियमों को फिर से निर्धारित किया। न्यायालय ने फैसला किया कि वरिष्ठ न्यायाधीशों का एक समूह ‘कॉलेजियम’ नए न्यायाधीशों की नियुक्ति करेगा। उन्होंने इस पूरी प्रक्रिया में कार्यपालिका की भूमिका को सरसरी तौर पर तथा सीमित रहने की इजाजत दी। इस दृष्टिकोण में निहित वैचारिक दूरी और स्वतंत्रता के बीच सीधा आनुपातिक संबंध, एक न्यायालय कार्यपालिका से जितना अधिक दूर होता है, उसे उतनी ही अधिक स्वतंत्रता होती है।
लेकिन 2015 में नरेंद्र मोदी सरकार जो 30 वर्षों में भारत की पहली पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनी, वह इससे पीछे हट गई। इसने नई व्यवस्था को पूर्ववत करने और नियुक्ति प्रक्रिया में कार्यपालिका को पुनः सक्रिय करने के लिए एक संवैधानिक संशोधन कर दिया। संसद में सर्वसम्मति से समर्थन के साथ, सरकार ने एक राष्ट्रीय न्यायिक जवाबदेही आयोग (एनजेएसी) बनाया - जिसने नियुक्ति प्रक्रिया सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका को अनन्य नहीं बल्कि केवल महत्वपूर्ण के रूप में मान्यता दी। सर्वोच्च न्यायालय ने इसे अस्वीकार कर दिया। एक साल बाद, न्यायालय ने संविधान संशोधन को अमान्य कर दिया तथा न्यायिक नियुक्तियों को कॉलेजियम प्रणाली के माध्यम से किए जाने की व्यवस्था पर वापस लौटा दिया। और यह सब एक स्वतंत्र न्यायपालिका के विचार की रक्षा करने के लिए किया गया था। अत: अग्र भाग तथाकथित रूप से सुरक्षित है।
न्यायाधीश, निर्णय, नौकरियां: न्यायिक स्वतंत्रता का पश्च भाग
हालांकि, न्यायपालिका अन्य रूपों में कमजोर की जा सकती है। कुछ तथ्यों पर ध्यान दें। सरकार सर्वोच्च न्यायालय में सबसे बड़ी वादी (मामले में एक पक्ष) और सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की सबसे बड़ी नियोक्ता है।3 न्यायाधीश अपने 65वें जन्मदिन पर सेवानिवृत्त होते हैं।4 विभिन्न विधानों के अंतर्गत कई निकायों में नियुक्त किए जाने के लिए सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की आवश्यकता होती है जैसे राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, राष्ट्रीय हरित अधिकरण, दूरसंचार विवाद समाधान एवं अपील अधिकरण, अंतर-राज्य जल विवाद अधिकरण, आदि।
भारतीय जनता पार्टी के एक नेता और वर्तमान में मोदी मंत्रिमंडल के सदस्य पीयूष गोयल ने 2013 में, भारतीय कानूनों में न्यायिक सेवानिवृत्ति के बाद नियुक्तियों के बढ़ते अवसरों के बारे में अप्रसन्नता व्यक्त की थी। उन्होंने सोशल मीडिया पर भी टिप्पणी की थी - "हम न्यायाधीशों के लिए सेवानिवृत्ति के बारे में काफी दूर तक निकल गए हैं"। "सेवानिवृत्ति के बाद की नौकरी की इच्छा सेवानिवृत्ति के पूर्व के निर्णयों को प्रभावित करती है"। यह एक साझा अंतर्ज्ञान है और सभी दलों के राजनेताओं ने इसके बारे में दबे शब्दों में कुछ न कुछ कहा। कुछ न्यायाधीशों ने भी इस तरह की नियुक्तियों के खिलाफ तर्क देते हुए कहा कि यह प्रथा न्यायिक स्वतंत्रता से समझौता करती है। स्पष्ट रूप से, सेवानिवृत्ति के बाद की नियुक्तियों की एक नियमित नीति भ्रष्टाचार की संभावना को बढ़ा देती है। न्यायाधीशों और सरकार के बीच एक मुआवजा।5 न्यायाधीश मामलों का फैसला सरकार के पक्ष में करके इसकी सहायता कर कर सकते हैं और सरकार उन्हें सेवानिवृत्ति के बाद नौकरी देकर पुरस्कृत कर सकती है। यह न्यायिक स्वतंत्रता को कमजोर करता है। क्या जितने आरोप हैं, भारत में ऐसा होता है? हमारा विश्लेषण इस अंतर्ज्ञान को जांचता है (अने एवं अन्य 2017)।
आंकड़े: सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश और मामले (1999 से 2014)
हम उन न्यायाधीशों पर ध्यान केंद्रित करते हैं जो 2000-2014 के दौरान सर्वोच्च न्यायालय से सेवानिवृत्त हुए थे। हमने इसके ऐसे सभी रिपोर्ट किए गए निर्णय एकत्र किए जो भारत संघ (यूओआई) से जुड़े हुए थे। अनुसंधान सहायकों की एक टीम ने पता लगाया कि क्या फैसले भारत संघ के पक्ष में थे या इसके खिलाफ गए थे? हमने इन फैसलों से जुड़ी हुई अतिरिक्त जानकारी एकत्र की जैसे वे कब सुनाए गए थे, मामलों की पैरवी करने वाले वकील आदि। इन अतिरिक्त आंकड़ों से हम मामलों के सापेक्ष महत्व का आकलन कर सके, विशेष रूप से सरकार के दृष्टिकोण से। उदाहरण के लिए, यदि किसी मामले में अटॉर्नी जनरल या सॉलिसिटर जनरल ने अदालत में सरकार का प्रतिनिधित्व किया था, तो उसे अत्यधिक महत्वपूर्ण माना जा सकता है। हमने दो न्यायाधीशों खंड पीठ द्वारा तय किए गए मामलों पर अपना ध्यान सीमित किया क्योंकि मामलों को सर्वोच्च न्यायालय, आमतौर पर, विशेषज्ञता के आधार पर ऐसी बेंचों को यादृच्छिक रूप से आवंटित करता है। (बड़ी बेंच मुख्य न्यायाधीश के विवेक पर बनाई गई हैं।) हमने यह आंकड़ा भी एकत्रित किया कि क्या हमारी प्रतिदर्श अवधि में न्यायाधीशों ने अपनी सेवानिवृत्ति के समय सत्ताधीन सरकार से सेवानिवृत्ति के बाद नौकरी हासिल की है।
एक सहसंबंध: सरकार का पक्ष लो, नौकरी पाओ
हम पाते हैं कि महत्वपूर्ण मामलों अर्थात वे मामले जिनमें अटॉर्नी जनरल या सॉलिसिटर जनरल पैरवी करते हैं, निर्णय करते समय सरकार के पक्ष में निर्णय लिया जाना तथा सेवानिवृत्ति के बाद पदों को प्राप्त करने की संभावना में धनात्मक रूप से सहसंबंध होता है। यह प्रभाव परिमाण6 में बड़ा है और सुझाता है कि किसी महत्वपूर्ण मामले में सरकार के पक्ष में एक अतिरिक्त निर्णय दिए जाने से इस तरह की नियुक्ति की संभावना लगभग 13-15% बढ़ जाती है।
हालांकि यह विचारोत्तेजक है, फिर भी यह परिणाम इन साक्ष्यों को विश्वास नहीं दे रहा है कि न्यायाधीश ऐसे पदों को प्राप्त करने के लिए अपने फैसले बदल रहे हैं। यह संभव है, उदाहरण के लिए, जो न्यायाधीश वैचारिक रूप से सरकार (या उसके नीतिगत एजेंडे) के साथ हैं वे मामलों का फैसला इसके पक्ष में करें। और जब वे सेवानिवृत्त हो जाते हैं, तो सरकार उन्हें सेवानिवृत्ति के बाद पदों पर इस भरोसे के साथ नियुक्त कर देती है कि ये न्यायाधीश अपनी दूसरी पारी में भी सरकार का पक्ष लेंगे। ध्यान दें कि ऐसी नियुक्तियां सरकार के पक्ष में निर्णय दिए जाने का पुरस्कार नहीं हैं; बल्कि वे एक न्यायाधीश और सरकार के बीच एक वैचारिक एकरूपता का संकेत देती हैं। इसलिए, सरकार का यह व्यवहार कि सेवानिवृत्ति के बाद पदों हेतु इसकी समान विचारधारा वाले न्यायाधीशों की पहचान की जाए जिन्हें भ्रष्टाचार के रूप में चिह्नित नहीं किया जा सकता है। और यही हमें हमारे मुख्य प्रश्न की ओर ले जाता है।
मुख्य निष्कर्ष: प्रोत्साहन कैसे फैसलों को प्रभावित करते हैं
भारत संघ के ऐसे पदों को प्राप्त करने हेतु किसी न्यायाधीश को सेवानिवृत्ति के बाद लगभग 11 महीने लगते हैं। कुछ न्यायाधीश चुनाव से कुछ समय पहले ही सेवानिवृत्त होते हैं; जबकि अन्य नहीं। चुनाव से बहुत पहले सेवानिवृत्त हो चुके न्यायाधीशों आश्वस्त रहते हैं कि उनकी सेवानिवृत्ति के दिन सत्ता में रहने वाली सरकार के पास उन्हें नौकरी देने के लिए पर्याप्त समय होगा। इससे न्यायाधीशों के दो समूह बन जाते हैं: एक वह जिसे सहायता के लिए मजबूत प्रोत्साहन मिलता है (आम चुनाव से बहुत पहले सेवानिवृत्त होने वाले) और दूसरा वह जिसे सहायता के लिए कमजोर प्रोत्साहन मिलता है (आम चुनाव के तुरंत बाद सेवानिवृत होने वाले)। हमने यह पाया है कि मजबूत प्रोत्साहन वाले न्यायाधीशों द्वारा वास्तव में महत्वपूर्ण मामलों में भारत संघ के पक्ष में निर्णय करने की अधिक संभावना होती है।7 विशेष रूप से, महत्व के 75 वीं पर्सेंटाइल के मामले में एक बेंच द्वारा निर्णय लिया जा रहा है जहां दोनों न्यायाधीशों के पास सहायता के लिए कमजोर प्रोत्साहन है। जब हम कमजोर प्रोत्साहन वाले न्यायाधीश को मजबूत प्रोत्साहन वाले न्यायाधीश के साथ बदलते हैं तो इस तरह का मामला भारत संघ के पक्ष में होने की संभावना 30% अधिक है।
हालांकि दो न्यायाधीश एक मामले का फैसला करते हैं, आमतौर पर उनमें से एक निर्णय सुनाता है। प्रमाणीकरण एक शक्तिशाली संकेत माध्यम है; यह न्यायाधीशों के निर्णयों को बढ़ाता है और उन्हें अधिक दृश्यमान बनाता है। हम पाते हैं कि मजबूत प्रोत्साहन वाले न्यायाधीश महत्वपूर्ण मामलों में पक्षपातपूर्ण निर्णय सुनाने की अधिक संभावना रखते हैं। यह निष्कर्ष पूर्व उल्लिखित महत्वपूर्ण मामलों में पक्षपातपूर्ण निर्णय सुनाए जाने और सेवानिवृत्ति के बाद पदों पर नियुक्तियों के बीच सहसंबंध के अनुरूप है। अलग तरीके से कहें तो जो न्यायाधीश सेवानिवृत्ति के बाद पुरस्कृत किए जाने की अधिक संभावना रखते हैं, उनके द्वारा वास्तव में पक्षपातपूर्ण निर्णय सुनाए जाने की भी अधिक संभावना है, और उनके इस व्यवहार को सरकार द्वारा पुरस्कृत किया जाना प्रतीत होता है। संक्षेप में, गोयल का अंतर्ज्ञान सही प्रतीत होता है: "सेवानिवृत्ति के बाद नौकरी की इच्छा सेवानिवृत्ति के पूर्व के निर्णयों को प्रभावित करती है।"
न्यायपालिका को न्यायाधीशों से बचाना: क्या इसका कोई हल है?
प्रोत्साहन की इस समस्या को हल करने के लिए कई सुझाव दिए गए हैं। सबसे स्पष्ट एक हल है कि सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को सरकारी पदों पर नियुक्त करने की प्रथा को बंद कर दिया जाए। लेकिन न तो सरकारें और न ही न्यायाधीश इस पर उत्सुक दिखाई देते हैं। एक और व्यापक रूप से दिया गया सुझाव है कि न्यायाधीशों को इस तरह के पदों पर नियुक्त करने से पहले कूलिंग-ऑफ अवधि की शुरुआत की जाए। इसके पीछे विचार यह है कि न्यायाधीशों के लिए सेवानिवृत्ति से पूर्व सरकार की सहायता किए जाने की स्मृति तथा सेवानिवृत्ति के बाद के पुरस्कारों के मूल्य दोनों को कमजोर कर दिया जाए। सेवानिवृत्त नौकरशाहों के लिए इसी प्रकार का नियम पहले से ही मौजूद है। पूर्व मुख्य न्यायाधीश आर.एम. लोढ़ा ने ऐसी नौकरियों के आकर्षण को कम करने के लिए सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को उनके वेतन या समकक्ष पेंशन का भुगतान जारी रखने की नीति का सुझाव दिया है। लेकिन वित्तीय इनाम केवल आकर्षण का हिस्सा है। न्यायाधीशों को ये पद अक्सर इस कारण से आकर्षक लगते हैं कि वे इनके माध्यम से नीतिगत मामलों पर प्रभाव डाल सकते हैं। और वित्तीय प्रोत्साहन से प्रेरित न्यायाधीशों के पास उनके लिए अधिक आकर्षक अवसर उपलब्ध हैं। (मध्यस्थता स्पष्ट उदाहरण है।)
इस समस्या को हल करने का एक अन्य तरीका यह है कि इन पदों पर नियुक्ति को सेवानिवृत्ति की तारीखों और न्यायाधीशों की विषय विशेषज्ञता के आधार पर यांत्रिक रूप से किया जाए। सर्वोच्च न्यायालय की रजिस्ट्री पहले से ही मामलों के कम्प्यूटरीकृत आवंटन को संचालित करने हेतु न्यायाधीशों को विषय-वस्तु विशेषज्ञता प्रदान करती है। इस विषय विशेषज्ञता को सेवानिवृत्ति के बाद की नौकरियों के लिए चिन्हित किया जा सकता है। एक बार ऐसा करने के बाद जब भी रिक्तियां आती हैं तो उचित विशेषज्ञता के साथ सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को उनकी वरिष्ठता और रिक्तियों के आधार पर नौकरियों की पेशकश की जा सकती है। यह उनके भविष्य की नौकरी की संभावनाओं के साथ न्यायालय में किए गए निर्णयों को अलग कर देता है।
फिर भी, यह यांत्रिक प्रक्रिया राजनीतिक नियुक्तियों की चुनौती को खुला छोड़ देती है – जैसा कि श्री रंजन गोगोई को पेशकश किया गया है। वह राजनीतिक नियुक्ति पाने वाले पहले न्यायाधीश नहीं हैं। न्यायालय यह सुनिश्चित करने के बारे में उचित रूप से चिंतित है कि सर्वोच्च न्यायालय में नियुक्तियां गैर-राजनीतिक हैं। हालांकि न्यायिक स्वतंत्रता को सुरक्षित करने के लिए सही संस्थागत डिजाइन के बारे में गहराई से सोचने की आवश्यकता है जो यह सुनिश्चित करता है कि सेवानिवृत्ति के बाद की नियुक्तियां न्यायिक निर्णय लेने में दुराग्रही प्रोत्साहन पैदा नहीं करती हैं।
टिप्पणियाँ:
- सेवानिवृत्ति के बाद की नौकरियों पर पूर्व मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढ़ा के विचारों के लिए, यहां और यहां देखें। विभिन्न देशों के न्यायाधीशों को नौकरी देने की प्रथा की चर्चा जिनसबर्ग (2015) के अध्याय 3 में की गई है।
- न्यायिक स्वतंत्रता के विचार और साहित्य के सर्वेक्षण की चर्चा के लिए रामसीयर (1998) देखें
- इस घटना की चर्चा के लिए राजगोपालन (2018) को देखें।
- सिद्धांत रूप में, वे स्वेच्छा से जल्दी सेवानिवृत्त हो सकते थे लेकिन 72 न्यायाधीशों के हमारे प्रतिदर्श में केवल एक बार ऐसा हुआ।
- हम वर्धन (1997) में दी गई भ्रष्टाचार की परिभाषा का उपयोग करते हैं जिसमें निजी लाभ हेतु सार्वजनिक पद का उपयोग करने की बात कही गई है न कि श्लेफ़र और विनी (1993) में दी गई भ्रष्टाचार की उस संकीर्ण परिभाषा का जिसमें व्यक्तिगत लाभ के लिए सरकारी संपत्ति को बेचने का जिक्र किया गया है। भ्रष्टाचार पर साहित्य के सर्वेक्षण में बनर्जी, हन्ना, और मुलैयानाथन (2012), पांडे (2007), और सुखतंकर एवं वैष्णव (2015) शामिल हैं।
- औसतन, एक न्यायाधीश सर्वोच्च न्यायालय में अपने कार्यकाल के दौरान चार महत्वपूर्ण मामलों में फैसला सुनाता है।
- हम चार केस-स्तरीय चर के पहले प्रमुख घटक का उपयोग करके ‘महत्व’ का एक सूचकांक बनाते हैं - वरिष्ठ काउंसल, वकील, अटॉर्नी जनरल, और सॉलिसिटर जनरल की संख्या।
लेखक परिचय: माधव आने सिंगापुर मैनेजमेंट यूनिवरसिटि में अर्थशास्त्र के एसोशिएट प्रोफेसर हैं। शुभंकर दाम यूनिवरसिटि ऑफ पॉर्ट्समाउथ में लोक विधि और शासन के अध्यक्ष प्रोफेसर हैं। गिओवानी को सिंगापुर मैनेजमेंट यूनिवरसिटि में अर्थशास्त्र के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।
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