प्रगति अभियान की निदेशक अश्विनी कुलकर्णी इस विचार को सामने रखती हैं कि न्याय जैसे बिना शर्त आय अंतरण कार्यक्रम से बहुआयामी गरीबी की समस्या हल करने और गरीबों के सबसे असुरक्षित हिस्से को जिंदा रहने से आगे सोचने में सक्षम बनाने में मदद मिल सकती है। उन्होंने न्याय के क्रियान्वयन के लिए स्पेशल पर्पस व्हीकल डिजाइन करने का सुझाव दिया है।
क्या आप बता सकते हैं कि न्याय क्यों ज़रूरी है जबकि इतनी सारी अन्य गरीबी निवारण योजनाएं पहले ही मौजूद हैं? हमें मौजूदा योजनाओं के लिए ही बजट क्यों नहीं बढ़ा देना चाहिए?
गरीबी के कई आयाम होते हैं। कई अलग-अलग कारणों से गरीब लोग गरीबी में जकड़े रहते हैं। निस्संदेह, हमारे यहां अलग-अलग तरह की कई गरीबी निवारण योजनाएं हैं लेकिन प्रत्येक योजना गरीबों के थोड़े भिन्न समूह की मदद के लिए तैयार की गई है। जैसे मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना) मुख्यतः ग्रामीण क्षेत्रों के सक्षम शरीर वाले लोगों को कम काम वाले मौसम में काम देने के लिए तैयार की गई है; विधवा पेंशन एक खास असुरक्षित समूह के लिए लक्षित है; आदि-आदि।
सबसे नीचे स्थित गरीबों की गरीबी के बहुआयामी कारण होते हैं। अगर गरीब परिवारों की एक- या दो आयामी गरीबी हो और उन्हें उस दिशा में मदद मिले, तो हमने देखा है कि वे गरीबी से बाहर आने में अपनी मदद करते हैं। लेकिन गरीबी बहुआयामी हो, तो कार्य अधिक कठिन हो जाता है। इसके अलावा, शहरी गरीबों की अस्थिर आबादी के लिए कार्यक्रम तैयार करना मुश्किल होता है।
ऐसे परिवार एकाधिक तरीकों से निराश्रित, सीमांत और असुरक्षित होते हैं। ऐसे एक या दो सहयोग कार्यक्रम खोजना मुश्किल है जो उनकी मदद कर सके। ऐसे भी परिवार हैं जिनमें मुख्य कमाऊ सदस्य लंबे समय से बीमार या शारीरिक रूप से निःशक्त हों। ऐसे भी परिवार हैं जिनके पास विकसित करने के लिए कभी कोई संसाधन नहीं थे, या फ़िर जमीन जैसी कोई परिसंपत्ति। ऐसे भी परिवार हैं जो हमेशा कठिन भौगोलिक स्थितियों में रहे हैं और जिन्हें हर कुछ वर्षों पर आपदाएं झेलने की आशंका रहती है।
ऐसे लोगों के लिए जो पीढि़यों से चिरकालिक गरीबी में रहते रहे हैं, न्याय सबसे उपयुक्त समाधान है। न्याय जैसा बिना शर्त आय अंतरण वाला कार्यक्रम किसी की बहुआयामी समस्या घटाने में मदद कर सकता है। जो गरीब अनदेखे रह जाते हैं और किसी भी गरीबी निवारण कार्यक्रम के लिए पात्र घोषित नहीं हो पाते हैं, वे गरीबों में भी अक्सर सबसे असुरक्षित होते हैं। उनके लिए न्याय ईश्वरीय वरदान साबित होगा। इससे पेट में अन्न पहुंचाने के बाद उन्हें अपने आसपास मौजूद संभावनाओं के बारे में कुछ सोचने की गुंजाइश मिलेगी। कम से कम उनका संघर्ष जिंदा रहने के इर्दगिर्द ही नहीं घूमता रहेगा और वे उससे आगे की भी सोच सकते हैं।
मैं गरीबी निवारण योजनाओं के साथ मौजूद एक अन्य समस्या का उल्लेख करना चाहूंगी जिसकी नई प्रस्तावित योजनाओं पर विचार-विमर्शों के दौरान अक्सर उपेक्षा कर दी जाती है। जब कोई योजना किसी किसी खास समूह के लिए लक्षित होती है, जैसे कि किसानों के लिए, तो हो सकता है कि कृषि विभाग द्वारा अच्छे ढंग से चलने वाले किसी अन्य कार्यक्रम की रकम का प्रवाह नई योजना की ओर मोड़ दिया जाय। इस प्रकार सरकार बिना कोई अतिरिक्त खर्च किए एक नए कार्यक्रम का श्रेय ले लेती है। अगर लक्षित समूह ‘गरीब’ जैसी सामान्य श्रेणी हो, तो ऐसा होने की आशंका कम हो जाती है। किसी कार्यशील कार्यक्रम के स्थानापन्न के बजाय न्याय को एक अतिरिक्त कार्यक्रम के बतौर शुरू किया जाना चाहिए।
सबसे निचली 20 प्रतिशत आबादी को लक्षित करना विशाल कार्य लगता है। इसके लिए सरकार किन आंकड़ों का उपयोग कर सकती है? आप किस प्रकार के टार्गेटिंग मैकेनिज्म का सुझाव देंगे?
लक्ष्यीकरण कभी भी समस्याओं से रहित नहीं रहा है। लेकिन इस समस्या का कोई उत्तम समाधान नहीं होना हमें नए कार्यक्रम शुरू करने से नहीं रोक सकता है। कुछ अन्य संभावित तरीके भी हैं लेकिन वे भी त्रुटिरहित नहीं हैं।
भारत सरकार द्वारा 2011-12 में सामाजिक-आर्थिक एवं जाति सर्वेक्षण (सोसिओ-इकनोमिक कास्ट सेन्सस) नामक सभी परिवारों का सर्वेक्षण किया गया था। इस सर्वेक्षण में परिवारों के बारे में इस तरह से सूचनाएं एकत्र की गई हैं कि उनके जरिए विशेष मापदंड अपनाकर जो परिवार गरीब नहीं हैं उनका बहिष्करण किया जा सकता है, और वंचना या असुरक्षित स्थिति के आधार पर गरीब परिवारों को शामिल किया जा सकता है। मापदंड आय के बजाय आवासीय मकान की स्थिति, वाहनों का स्वामित्व आदि प्रेक्षणीय विशेषताओं पर आधारित हैं। जाति के आंकड़ों को छोड़कर सारी चीजों की जानकारी सबके लिए उपलब्ध है। राज्यों द्वारा इस सर्वेक्षण के आंकड़ों का उपयोग राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (नैशनल फ़ूड सिक्योरिटी एक्ट) के लिए परिवारों को चुनने के लिए किया गया है।
यह सर्वेक्षण आठ साल पहले किया गया था इसलिए इसमें सुधार करके इसे पुनः किया जा सकता है। मापदंड और प्रविधि पर पुनर्विचार किया जा सकता है और इस डेटाबेस का उपयोग न्याय के लिए सूची उपलब्ध कराने में किया जा सकता है।
प्रस्तावित योजना आबादी के अच्छे-खासे हिस्से को विकृत प्रोत्साहन (परवर्स इंसेंटिव्स) देने के लिए बाध्य है। वे लोग यह दर्शाने की कोशिश करेंगे कि वे अपनी वास्तविक स्थिति से काफी अधिक गरीब हैं या इसकी पात्रता हासिल करने के लिए वे अपनी आमदनी को कम करके दिखाने की कोशिश करेंगे। आप योजना का निर्माण कैसे करेंगे कि इस स्वाभाविक समस्या के कारण कम से कम नुकसान हो?
अगर लिस्टिंग का मूल मापदंड आय है, तो यह गंभीर समस्या है। लेकिन अगर हम सामाजिक-आर्थिक जाति सर्वेक्षण के तरीके का उपयोग करें तो इतनी समस्या नहीं होगी। साथ ही, अगर हर परिवार के लिए एक निश्चित अवधि तक सहयोग हो, तो विकृत प्रोत्साहनों का भय नहीं फैलेगा।
वर्तमान गरीबी निवारण योजनाओं में मौजूद कमियां सरकार की कमजोर क्षमता की उपज हैं। क्या ‘न्याय’ योजना भी इस समस्या से पीडि़त नहीं होगी?
हां, इस बात की आशंका है कि जो सरकारी साधन अभी तक गरीबी निवारण कार्यक्रमों का क्रियान्वयन करते रहे हैं, अगर वही इसका भी क्रियान्वयन करने जा रहे हैं, तो वही लापरवाही, रिसाव, और अकुशलताएं न्याय में भी व्याप्त हो जाएंगी।
न्याय के लिए विशेष प्रयोजन माध्यम (स्पेशल पर्पस व्हीकल) तैयार करना बेहतर होगा – केंद्र सरकार द्वारा संचालित एक अलग प्रशासनिक हस्ती जिसे योजना निर्माण और क्रियान्वयन की पूरी आजादी हो। कार्यक्रम के लिए पूरा वित्तपोषण केंद्र सरकार द्वारा होना चाहिए। सामाजिक-आर्थिक जाति सर्वेक्षण का डिजाइन और क्रियान्वयन, समावेश के मापदंड, सूची निर्माण, और प्रत्यक्ष लाभांतरण (डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर) के लिए टेक्नोलॉजिकल फ्रेमवर्क (प्रौद्योगिकीय खाका) केंद्रीय कार्यालय की जिम्मेवारी होनी चाहिए। उन्हें राज्य सरकारों के परामर्श से काम करना चाहिए लेकिन मुख्य जिम्मेवारी केंद्र सरकार की होनी चाहिए। परिवार की महिलाओं को प्राप्तकर्ता बनाया जा सकता है।
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