श्रम ब्यूरो और राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय के नए नए आँकड़े पिछले एक दशक में भारत में वास्तविक मज़दूरी के वास्तविक ठहराव की ओर इशारा करते हैं। इस शोध आलेख में दास और ड्रेज़ तर्क देते हैं कि यह प्रवृत्ति देश के अनौपचारिक क्षेत्र में गहरे संकट को इंगित करती है तथा इस पर अब तक की तुलना में कहीं अधिक नीतिगत ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है।
वास्तविक मज़दूरी1 सबसे महत्वपूर्ण आर्थिक संकेतकों में से एक है। यदि देश का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) तेज़ी से बढ़ रहा है और वास्तविक मज़दूरी में कोई ख़ास वृद्धि नहीं हो रही है, तो विकास के पैटर्न में कुछ गड़बड़ है। श्रम ब्यूरो और राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) द्वारा जारी किए गए हाल के आँकड़ों से पता चलता है कि आज भारतीय अर्थव्यवस्था में ठीक यही हो रहा है। दोनों स्रोत पिछले 10 वर्षों में वास्तविक मज़दूरी में एक तरह की स्थिरता की ओर इशारा करते हैं।
श्रम ब्यूरो की 'ग्रामीण भारत में मज़दूरी दरों की श्रृंखला’
भारत का श्रम ब्यूरो पूरे देश में 66 क्षेत्रों में फैले 600 गाँवों के एक निश्चित नमूने से दैनिक मज़दूरी के बारे में मासिक जानकारी एकत्र करता है- यह ग्रामीण भारत में मज़दूरी दरों (डब्ल्यूआरआरआई) की श्रृंखला है। यह श्रृंखला 25 कृषि और गैर-कृषि व्यवसायों (उदाहरण के लिए, जुताई, बुवाई, कटाई, बढ़ईगीरी, प्लंबिंग, बीड़ी-निर्माण आदि) के लिए व्यवसाय-विशिष्ट मौद्रिक मज़दूरी पर केन्द्रित है। इसमें कुछ सामान्य श्रेणियाँ भी शामिल हैं, ख़ास तौर पर ‘सामान्य कृषि मज़दूर’, ‘गैर-कृषि मज़दूर’ और ‘निर्माण मज़दूर’। हम अपना ध्यान यहाँ इन तीन श्रेणियों पर केन्द्रित करते हैं।
श्रम ब्यूरो द्वारा वार्षिक राज्यवार और अखिल भारतीय मज़दूरी के आँकड़ों की गणना प्रासंगिक महीनों और गाँवों के अनिर्धारित औसत के रूप में की जाती है। वास्तविक मज़दूरी का अनुमान लगाने के लिए इन वार्षिक मौद्रिक मज़दूरी को कृषि मजदूरों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई-एएल) से आसानी से विभाजित किया जा सकता है। अखिल भारतीय आँकड़ों की गणना राज्य के आँकड़ों के जनसंख्या-भारित औसत के रूप में भी की जा सकती है, लेकिन इससे बहुत कम फर्क पड़ता है।
अपने पहले के शोध अध्ययनों में (ड्रेज़ 2023, दास और उसामी 2024), हमने दर्शाया था कि डब्ल्यूआरआरआई के आँकड़े वर्ष 2014 के बाद से ग्रामीण क्षेत्रों में वास्तविक मज़दूरी में खतरनाक ठहराव की ओर इशारा करते हैं, जबकि इसके विपरीत पिछले सात वर्षों में इसमें तीव्र वृद्धि हुई थी। वर्ष 2023-24 के डब्ल्यूआरआरआई के नवीनतम डेटा से पता चलता है कि यह ठहराव पैटर्न जारी है, जैसा कि आकृति-1 में दिखाया गया है।
आकृति-1. वास्तविक मज़दूरी (2014-15 के मूल्यों पर रु/दिन)
नोट : सीपीआई-एएल के उपयोग से मौद्रिक मज़दूरी को सपाट यानी डिफ़्लेट किया गया है।
यह देखने के लिए किसी परिष्कृत अर्थमिति की आवश्यकता नहीं है कि अखिल भारतीय स्तर पर पिछले 10 वर्षों में वास्तविक मज़दूरी की वार्षिक वृद्धि दर शून्य के करीब है। रिकार्ड के लिए अनुमान तालिका-1 में प्रस्तुत किए गए हैं। केवल कृषि श्रम के लिए ही विकास की झलक देखी जा सकती है, जो प्रति वर्ष लगभग 1% की निराशाजनक दर है।
तालिका-1. वास्तविक मज़दूरी की वार्षिक वृद्धि दर, वर्ष 2014-15 से 2023-24 (%)
पुरुष |
महिला |
|
सामान्य कृषि मज़दूर |
0.8 |
1.1 |
गैर-कृषि मज़दूर |
0.1 |
-0.0 |
निर्माण मज़दूर |
-0.2 |
0.5 |
स्रोत : इसकी गणना सीपीआई-एएल द्वारा डिफ़्लेट किए गए डब्ल्यूआरआरआई डेटा से समय पर वास्तविक मज़दूरी के सेमी-लॉग रिग्रेशन के ज़रिए की गई है।
नोट : आँकड़े प्रथम दशमलव तक पूर्णांकित किए गए हैं।
एनएसएसओ का 'असंगठित क्षेत्र के उद्यमों का वार्षिक सर्वेक्षण'
हाल ही में एनएसएसओ द्वारा वर्ष 2021-22 और 2022-23 में किए गए असंगठित क्षेत्र उद्यमों के वार्षिक सर्वेक्षण (एएसयूएसई) से रुचि के और सबूत सामने आए हैं। एनएसएसओ के असंगठित उद्यमों के पहले के दो सर्वेक्षण क्रमशः वर्ष 2010-11 और 2015-16 के लिए उपलब्ध हैं। एनएसएसओ ने वर्ष 2021-22 के सर्वेक्षण के लिए सम्भावित तुलनात्मक मुद्दों पर ध्यान दिया है, जो आंशिक रूप से कोविड-19 संकट के दौरान आयोजित किया गया था, लेकिन अन्य सर्वेक्षण हमारे उद्देश्यों के लिए तुलनीय प्रतीत होते हैं। सभी चार सर्वेक्षण निर्माण को छोड़कर गैर-कृषि असंगठित उद्यमों पर केन्द्रित हैं। सभी में एक ही पद्धति के आधार पर वार्षिक ‘प्रति नियोजित कर्मचारी पारिश्रमिक’ का अनुमान शामिल है। इन परिलब्धियों में सामाजिक सुरक्षा लाभ शामिल हैं, लेकिन अनौपचारिक क्षेत्र में ये लाभ छोटे होने की सम्भावना है, इसलिए परिलब्धियों को मोटे तौर पर मौद्रिक वेतन के समानार्थी माना जा सकता है। चाहे हम सीपीआई-एएल का उपयोग मूल्य सूचकांक या औद्योगिक श्रमिकों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के रूप में करें, या ग्रामीण क्षेत्रों के लिए पूर्व और शहरी क्षेत्रों के लिए बाद वाले का उपयोग करें, संबंधित वास्तविक मज़दूरी कमोबेश एक समान ही रहती है। चीजों को सरल रखने के लिए, हम सीपीआई-एएल पर ही ध्यान देंगे। वर्ष 2015-16 से पहले और बाद में संबंधित वार्षिक वृद्धि दरें तालिका-2 में प्रस्तुत की गई हैं।
तालिका-2. प्रति नियोजित कर्मचारी वास्तविक पारिश्रमिक की वार्षिक वृद्धि दर (%)
2010-11 से 2015-16 |
2015-16 से 2022-23 |
|
विनिर्माण |
3.7 |
1.6 |
व्यापार |
3.4 |
0.8 |
अन्य सेवाएँ |
5.3 |
-0.4 |
सभी |
4.6 |
0.5 |
सभी, केवल ग्रामीण |
6.6 |
0.1 |
सभी, केवल शहरी |
3.8 |
0.8 |
स्रोत : प्रासंगिक अंतिम बिंदुओं पर एनएसएसओ सर्वेक्षण डेटा से अनुमानित। वास्तविक परिलब्धियों की गणना सीपीआई-एएल का उपयोग करके एएसयूएसई और असंगठित उद्यमों के पहले एनएसएसओ सर्वेक्षणों से उपलब्ध मौद्रिक परिलब्धियों को कम (डिफ़्लेट) करके की गई है।
एक चौंकाने वाला पैटर्न सामने आता है- वर्ष 2015-16 से पहले वास्तविक मज़दूरी तेज़ी से बढ़ रही थी, लेकिन उसके बाद लगभग स्थिर हो गई। ग्रामीण क्षेत्रों में यह अंतर ख़ास तौर पर बहुत ज़्यादा है। जहाँ वर्ष 2010-11 और 2015-16 के बीच प्रति कर्मचारी पारिश्रमिक की वार्षिक वृद्धि दर 7% के करीब थी वहीं वर्ष 2015-16 और 2022-23 के बीच यह लगभग शून्य थी। यह पैटर्न डब्ल्यूआरआरआई डेटा के अनुरूप है।
दूसरी अवधि में, वर्ष 2021-22 और 2022-23 के बीच, वास्तविक मज़दूरी वृद्धि दर एक हैरान करने वाली गिरावट की हद तक कम हो गई है। संयोग से, आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) भी वर्ष 2022-23 में वास्तविक मज़दूरी में गिरावट को इंगित करता है। लेकिन अगर हम उस गिरावट को नजरअंदाज करके दूसरी अवधि को 2021-22 तक सीमित कर दें (पहले उल्लेखित सम्भावित तुलनात्मक मुद्दों को नजरअंदाज करते हुए), तो उस अवधि में वास्तविक मज़दूरी की वृद्धि दर 2% से कम होगी, जो कि पहली अवधि की तुलना में बहुत कम है।
निरपेक्ष रूप से, एएसयूएसई सर्वेक्षणों से पता चलता है कि वर्ष 2022-23 में प्रति काम पर रखे गए कर्मचारी का औसत पारिश्रमिक विनिर्माण क्षेत्र में 1,16,000 रुपये प्रति वर्ष और ‘अन्य सेवाओं’ में 1,35,000 रुपये प्रति वर्ष के बीच भिन्न होता है। यह लगभग 10,000 रुपये प्रति माह है, अर्थात एक मामूली राशि है। ग्रामीण क्षेत्रों में वास्तविक मज़दूरी इससे भी कम है।
स्थिर वास्तविक मज़दूरी और गरीबी में कमी विरोधाभासी नहीं है
ये निष्कर्ष पिछले 20 वर्षों में गरीबी में निरंतर गिरावट के स्वतंत्र साक्ष्य का खंडन करते प्रतीत हो सकते हैं। वास्तव में इनमें कोई विरोधाभास नहीं है। भले ही व्यवसाय-विशिष्ट मज़दूरी वास्तविक रूप में स्थिर हो, लेकिन यदि श्रमिक धीरे-धीरे बेहतर वेतन वाले व्यवसायों (या प्रवासी श्रमिकों के लिए उच्च मज़दूरी वाले राज्यों) की ओर चले जाते हैं, या कार्यबल भागीदारी दर में वृद्धि होती है, तो प्रति व्यक्ति व्यय समय के साथ बढ़ सकता है। राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग के जनसंख्या अनुमानों के अनुसार, कुल जनसंख्या में कामकाजी आयु वर्ग की आबादी (मान लीजिए 15-59 वर्ष की) का हिस्सा पिछले 20 वर्षों में लगातार बढ़ रहा है। यह गरीबी में कमी लाने में सहायक होगा, भले ही वास्तविक मज़दूरी स्थिर हो। हालांकि, अनुमान बताते हैं कि यह 'जनसांख्यिकीय लाभांश' समाप्त होने वाला है।
अनौपचारिक क्षेत्र में गहराता संकट
वास्तविक मज़दूरी में ठहराव अनौपचारिक क्षेत्र में गहरे संकट की ओर इशारा करता है। यह संदेहास्पद है कि वास्तविक मज़दूरी में ज़्यादा वृद्धि के बिना 10 साल तक 6-7% प्रति वर्ष की दर से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था के कई अन्य उदाहरण हैं। इस अवधि के दौरान अनौपचारिक क्षेत्र ने लगातार तीन झटके महसूस किए- विमुद्रीकरण, माल और सेवा कर (जीएसटी) का तेज़ी से क्रियान्वयन और कोविड-19 महामारी से उत्पन्न संकट। प्रत्येक मामले में कृषि तुलनात्मक रूप से बची रही और कॉर्पोरेट क्षेत्र ने कम से कम इनमें से कुछ संकटों के दौरान काफी अच्छा प्रदर्शन किया। जैसा कि विरल आचार्य ने दर्शाया है, शीर्ष पांच निजी कम्पनियों में 2010 से 2015 के बीच शक्ति का संकेन्द्रण घट रहा था, लेकिन 2015-16 के बाद से इसमें तेज़ी से वृद्धि हुई। यह सम्भव है कि बढ़ते बाज़ार संकेन्द्रण के साथ-साथ इन क्रमिक झटकों के अन्य प्रभावों ने अनौपचारिक क्षेत्र में रोज़गार सृजन पर प्रतिकूल प्रभाव डाला हो। यह परिकल्पना पीसी मोहनन और अमिताभ कुंडू द्वारा एएसयूएसई डेटा के हाल ही में किए गए विश्लेषण के अनुरूप है।
चाहे इसकी जड़ कुछ भी हो, अनौपचारिक क्षेत्र में वास्तविक मज़दूरी में ठहराव भारतीय अर्थव्यवस्था की एक गम्भीर विफलता है। इस पर अब तक जितना ध्यान दिया गया है, उससे कहीं अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। यह विफलता उन आर्थिक नीतियों पर भी दोषारोपण है जो अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों के हितों पर बहुत कम ध्यान देती प्रतीत होती हैं।
यह लेख सबसे पहले द वायर पर प्रकाशित हुआ था।
टिप्पणी:
- ‘वास्तविक मज़दूरी’ से तात्पर्य मुद्रा मज़दूरी से है जिसे मुद्रास्फीति के लिए समायोजित किया जाता है। यानी इसे उपयुक्त मूल्य सूचकांक से विभाजित किया जाता है। इसमें आकस्मिक मज़दूरों के लिए एक दिन के काम की क्रय शक्ति को मापा जाता है।
अंग्रेज़ी के मूल लेख और संदर्भों की सूची के लिए कृपया यहां देखें।
लेखक परिचय : अरिंदम दास बेंगलुरु स्थित फाउंडेशन फॉर एग्रेरियन स्टडीज़ के संयुक्त निदेशक हैं और भारत में कृषि संबंधों की परियोजना (पीएआरआई) का नेतृत्व करते हैं। उनकी शोध रुचियों में ग्रामीण मज़दूरी दरें व निर्धारक, ग्रामीण रोज़गार व खेती का अर्थशास्त्र शामिल हैं। ज्याँ ड्रेज़ ने लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स और दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में पढ़ाया है और वर्तमान में वे रांची विश्वविद्यालय में विज़िटिंग प्रोफेसर तथा दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में मानद प्रोफेसर हैं। उन्होंने भारत के विशेष सन्दर्भ में विकास अर्थशास्त्र और सार्वजनिक नीति में बड़ा व्यापक योगदान दिया है।
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