सितंबर 2020 में, शहरी रोजगार के लिए ज्यां द्रेज़ का ड्यूएट (विकेंद्रीकृत शहरी रोज़गार एवं प्रशिक्षण) नामक प्रस्ताव आइडियाज फॉर इंडिया पर प्रस्तुत किया गया था। इसके बाद आयोजित एक गहन परिसंवाद में ख्यातिप्राप्त अर्थशास्त्रियों एवं पेशेवरों ने उस प्रस्ताव पर अपने-अपने मत व्यक्त किए। इस पोस्ट में द्रेज़ ने अपने मूल प्रस्ताव को महत्वपूर्ण मायने में अद्यतन करते हुए यह सुझाव दिया है कि यह कार्यक्रम शहरी महिलाओं के लिए होना चाहिए और उनके द्वारा ही संचालित किया जाना चाहिए। परिसंवाद के प्रतिभागियों के प्रश्नों और महत्वपूर्ण टिप्पणियों में से कुछ के उत्तर देते हुए द्रेज़ यह तर्क देते हैं कि ड्यूएट की प्रभावकारिता का आकलन करने का सर्वोत्तम तरीका उसको अमल में लाने का एक अवसर देना है।
मैं, आइडियाज फॉर इंडिया पर, ड्यूएट (विकेंद्रीकृत शहरी रोजगार एवं प्रशिक्षण) परिसंवाद के सभी प्रतिभागियों द्वारा दी गयी मूल्यवान टिप्पणियों के लिए उनका आभार प्रकट करता हूं। उनमें से अधिकांश का यह विचार है कि “ड्यूएट अमल में लाने-योग्य है”, जैसा कि देबराज रे ने बखूबी उल्लेख किया है। यह उत्साहवर्धक है, भले ही इसे पायलट परियोजना के रूप में ही शुरू करने की अनुमति क्यों ना प्राप्त हो। जैसा कि प्रस्ताव में कहा गया है कि इसे कुछ चुनिंदा जिलों और नगरपालिकाओं में आसानी से कार्यान्वित किया जा सकता है। यदि ड्यूएट कारगर नहीं भी हुआ तो भी हमारे पास खोने के लिए कुछ नहीं है, हम इससे कुछ-ना-कुछ तो सीख ही सकते हैं।
अधिकांश प्रतिभागियों की टिप्पणियों पर विचार किया गया है। इससे पहले कि मैं उनमें से कुछ पर अपना जवाब दूँ (विशेषकर ज्यादा संदेहास्पद वालों पे), मैं अपने प्रस्ताव के एक महत्वपूर्ण पहलू को अपडेट करना चाहूंगा।
महिलाओं के लिए ड्यूएट
ड्यूएट के इस संस्करण1 पर विशेष ध्यान की ज़रूरत है— महिला श्रमिकों को प्राथमिकता दिया जाना कैसा रहेगा? मैं महिलाओं के न्यूनतम आरक्षण के बारे में नहीं सोच रहा हूं, जैसा महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा)2 के अंतर्गत है (एक तिहाई आरक्षण), बल्कि एक निरपेक्ष प्राथमिकता के बारे में सोच रहा हूँ, अर्थात जब तक महिला श्रमिक उपलब्ध हैं, उन्हें काम मिलता रहेगा। वास्तव में महिलाएं रोजगार-प्रदाता एजेंसी या उसी प्रकार का कोई संपूर्ण कार्यक्रम भी संचालित कर सकती हैं।
महिलाओं कि भागीदारी को सुविधाजनक बनाने के लिए अधिकांश कार्य को अंशकालिक आधार पर संचालित किया जा सकता है, जैसे प्रतिदिन 4 घंटे। अंशकालिक रोजगार का विकल्प शहरी क्षेत्रों में कई गरीब महिलाओं के लिए आकर्षक सिद्ध होगा। पूर्णकालिक रोजगार उनके लिए अत्यंत कठिन साबित होता है, विशेषकर जब उनके बच्चे छोटे होते हैं। वैतनिक रोजगार के लिए दिन में कुछ घंटे निकालना अपेक्षाकृत अधिक आसान होगा। इससे उन्हें कुछ आर्थिक स्वतंत्रता मिलेगी और परिवार के अंदर उन्हें अपनी बात रखने का मौका मिलेगा तथा नए कौशल सीखने में भी सहायता मिलेगी। याद रहे, महिलाओं की पुरुषों पर आर्थिक निर्भरता भारत में महिला-पुरुष असमानता के बने रहने और महिला उत्पीड़न का एक महत्वपूर्ण कारक रही है।
महिलाओं को प्राथमिकता देने के दो और महत्वपूर्ण लाभ हैं। पहला, यह ड्यूएट के स्व-लक्ष्यीकरण पहलू को मजबूती प्रदान करता है क्योंकि अपेक्षाकृत समृद्ध परिवारों की महिलाओं के न्यूनतम वेतन पर अनौपचारिक श्रम करने (अथवा करने की स्वतंत्र्ता) की संभावना नगण्य है। दूसरा, इससे श्रमशक्ति में महिलाओं की सामान्य भागीदारी को प्रोत्साहन मिलेगा। भारत में महिला श्रमशक्ति प्रतिभागिता की दर विश्व की तुलना में बहुत कम है। राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण (एनएसएस) 2019 के अनुसार, 15-59 आयु वर्ग की केवल 20% शहरी महिलाएं एक औसत दिन में “रोजगार एवं संबंधित गतिविधि” को समय देती हैं। वे, औसतन, “वैतनिक गतिविधि” को 5% से भी कम समय देती हैं। इसमें केवल उन महिलाओं का नुकसान नहीं है जो पुरुषों पर निर्भर हैं, परंतु यह संपूर्ण समाज के लिए भी नुकसानदायक है, क्योंकि यह आर्थिक गतिविधि और सार्वजनिक जीवन में महिलाओं के योगदान को अवरुद्ध करता है।
मैं प्रायोगिक तौर पर यह भी जोड़ना चाहूंगा कि महिलाओं को प्राथमिकता देना भ्रष्टाचार को रोकने में सहायक हो सकता है। यदि मजदूरी का भुगतान सीधे श्रमिकों के खातों में किया जाता है, तो ड्यूएट निधि को हथियाने के लिए श्रमिकों के साथ सांठगांठ (वास्तविक या दिखावटी), की आवश्यकता होगी। किसी भी घोटाले में शामिल होने में पुरुषों की तुलना में महिलाएं ज्यादा अनिच्छुक होंगी, और यदि वे शामिल होती भी हैं तो यह केवल किसी भय के कारण ही होगा। इस तरह, महिलाओं (या महिलाओं के समूह) को संपूर्ण योजना का प्रभारी बनाया जाना, अपनी सत्यवादिता में से कुछ मूल्यों को हटाकर किए जाने वाले गबन, आदि के विरुद्ध एक उपयोगी सुरक्षोपाय साबित हो सकता है।
‘महिलाओं के लिए ड्यूएट’ के इर्द-गिर्द कई रचनात्मक विचारों और गतिविधियों का समावेश किया जा सकता सकता है। महिलाओं द्वारा संचालित रोजगार-प्रदाता एजेंसियां महिला श्रमिकों हेतु बेहतर सुविधाएं जैसे सुरक्षित परिवहन, संरक्षी गियर, बालवाड़ी एवं शौचालय इत्यादि उपलब्ध कराने में सहायक हो सकती हैं और सभी कार्यस्थलों के लिए एक उदाहरण प्रस्तुत कर सकती हैं। वे महिला श्रमिकों को विभिन्न सुविधाएं (जैसे सहायता केंद्र, स्वास्थ्य जांच, कैंटीन) भी मुहैया करा सकती हैं और श्रम के परंपरागत विभाजन को चुनौती देते हुए विशेष प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित कर सकती हैं। संक्षेप में, ड्यूएट शहरी महिलाओं के बीच सामूहिक कार्य और परस्पर सहयोग का एक प्रेरणा-पुंज बन सकता है। यह आदर्शवादी लग सकता है, परंतु इस प्रकार की पहल के पूर्ववर्ती उदाहरण मिलते हैं, जैसे केरल में कुदुम्बश्री कार्यक्रम।
अधूरे अंश
जैसा कि स्पष्ट है, इस संशोधित ड्यूएट (मुझे खुशी होगी यदि मूल के स्थान पर नया आए) से परिसंवाद में उभरे कुछ प्रश्नों और आलोचनाओं के उत्तर देना और आसान हो गया है। मैं उन चार मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करना चाहूंगा जो एक से अधिक बार सामने आए हैं।
कैसे से पहले क्यों
कुछ प्रतिभागी, विशेषकर अशोक कोटवाल ने ड्यूएट जैसी योजना के प्रारंभ किए जाने के मामले में और अधिक स्पष्टता के संबंध में पूछा है। वास्तव में, अशोक ने इस शीर्षक के अंतर्गत बहुत सारे प्रश्न पूछे हैं जिनका उत्तर देना असंभव-सा प्रतीत होता है। भाग्यवश, उन्होंने अपने ही कुछ प्रश्नों के स्पष्ट उत्तर देकर मेरा काम आसान कर दिया है।
कोविड-19 महामारी ने उस असुरक्षा की ओर ध्यान खींचा है जो शहरी गरीबों के जीवन पर मंडराती रहती है। सामान्यत: वे ग्रामीण गरीबों की तुलना में अपेक्षाकृत कम असुरक्षित हैं, अंशत: इसलिए क्योंकि वैकल्पिक काम ढूंढना शहरी क्षेत्रों में अपेक्षाकृत आसान है – चाहे वह रिक्शा चलाना हो या चाय-नाश्ते की दुकान चलाना। फिर भी, शहरी गरीब व्यक्तिगत रूप में (बीमारी और बेरोजगारी) और सामूहिक रूप में (लॉकडाउन, बाढ़, चक्रवात, वित्तीय संकट, इत्यादि) कई गंभीर अनिश्चितताओं को झेलने के लिए अभिशप्त हैं । सामाजिक तंत्र और परस्पर सहयोग मददगार साबित हो सकते हैं परंतु उनकी भी अपनी सीमाएं हैं, विशेषकर सामूहिक संकट की घड़ी में।
इसलिए, शहरी क्षेत्रों में बेहतर सामाजिक सुरक्षा की आवश्यकता है। वहां बहुत अधिक विकल्प नहीं हैं। शहरी झुग्गी–बस्तियों में सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) को सर्वव्यापी बनाना एक सकारात्मक कदम होगा (और इसे राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के अंतर्गत कार्यान्वित किया जा सकता है), परंतु खाद्यान्न राशन से लोग बहुत आगे नहीं जा पाएंगे। रोजगार-आधारित सहायता एक तरीका है जिससे अधिक बदलाव लाया जा सकता है। इसके दो महत्वपूर्ण लाभ हैं : स्व-लक्ष्यीकरण और मूल्यवान संपदा या सेवाओं के सृजन की संभावना।
अशोक कोटवाल पूछते हैं कि ड्यूएट से न्यूनतम वेतन मिलने पर भी क्या स्व-लक्ष्यीकरण वास्तव में कारगर होगा। वे तर्क देते हैं कि अनौपचारिक क्षेत्र की आमदनी प्राय: बहुत कम होती है, इसलिए ड्यूएट कार्य की मांग बहुत अधिक होगी। मैं इस बारे में उतना आश्वस्त नहीं हूँ। अभी तक, भारत में न्यूनतम मजदूरी ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में भेद नहीं करती है। ग्रामीण क्षेत्रों में, यह बाज़ार मूल्य से अधिक होती है परंतु शहरी क्षेत्रों में ऐसी ही स्थिति आवश्यक नहीं है। यदि ड्यूएट महिलाओं को प्राथमिकता देता है तो संभव है कि अधिकतर श्रमिक गरीब परिवारों से आएं क्योंकि अनौपचारिक श्रम में समृद्ध महिलाओं की अधिक रुचि होने की संभावना कम है।
ऐसा होने पर भी बेशक, ड्यूएट कार्य के लिए अतिरिक्त मांग हो सकती है। जब तक इसमें काम करने वाले गरीब परिवारों से आते हैं तब तक यह कोई बड़ा मुद्दा नहीं है। आखिरकार, ड्यूएट को रोजगार गारंटी योजना के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए, कानून तो रहने ही दें । रोजगार गारंटी एक अधिक महत्वाकांक्षी विचार है।
यह तथ्य कि ड्यूएट एक रोजगार गारंटी नहीं है, सामाजिक सुरक्षा के तौर पर इसका मूल्य घटाता है। फिर भी इसके कुछ मायने हैं। यह योजना के अंतर्गत पंजीकरण करने वाले श्रमिकों को आय अथवा संभावित आय का एक अतिरिक्त स्रोत प्रदान करेगा। शहरी क्षेत्रों में – या संभवत: कम-से-कम शहरी महिलाओं के लिए रोजगार गारंटी योजना की दिशा में ड्यूएट एक उपयोगी कदम साबित हो सकता है।
ड्यूएट बनाम अनुरक्षण निधि
अशोक कोटवाल और अन्य प्रतिभागी भी प्रश्न करते हैं कि क्या ड्यूएट की कार्यप्रणाली नगरपालिकाओं और अन्य सार्वजनिक संस्थाओं को अधिक अनुरक्षण निधि प्रदान करने से भिन्न है। इस पर मैं यह स्पष्ट करना चाहूंगा कि ड्यूएट को सिर्फ अनुरक्षण कार्य तक ही सीमित न किया जाए। मान्यता-प्राप्त सावर्जनिक संस्थाओं द्वारा समय-समय पर आवश्यक समझे जाने वाले अन्य उपयोगी, श्रम-प्रधान, अल्पकालिक कार्यों - जैसे सार्वजनिक समारोह, अस्थायी सुरक्षा सेवाएं, आवधिक स्वच्छता अभियान में सहयोग, पर्यावरणीय सुधार, सार्वजनिक स्वास्थ्य अभियान, या किसी तूफान के बाद मलबा हटाने इत्यादि के लिए अतिरिक्त सहायता को भी अनुमेय कार्यों की सूची में शामिल किया जा सकता है। फिर भी संभव है कि अनुरक्षण कार्य ड्यूएट का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहे क्योंकि इसके लिए बहुत अधिक अवसर है (यह मैं विश्वविद्यालय के कार्यालय में लिख रहा हूँ जहां प्लास्टर गिरता है और खिड़कियों पर केक-नुमा परत जम जाती है)।
बेशक, सार्वजनिक स्थलों और संस्थानों के आवधिक अनुरक्षण के लिए पर्याप्त निधि और व्यवस्था होना बहुत अच्छी बात है। ये भारत के सभी समृद्ध राज्यों और सुशासित राज्यों में अच्छी खासी व्यवस्था के रूप में पहले ही विद्यमान है। परंतु गरीब राज्यों (जहां ड्यूएट विशेष रूप से प्रभावी हो सकता है) में, कामचलाऊ अनुरक्षण ही प्रचलन में है और बेहतर अनुरक्षण व्यवस्थाएं स्थापित करने में बहुत समय लगेगा- मेरे हिसाब से कम-से-कम 10 साल की समय-तालिका। इस समस्या का समाधान इतना आसान न होने का एक कारण यह है कि कुछ अनुरक्षण आवश्यकताओं का पूर्वानुमान ही कठिन है। आकस्मिक निधि के अभाव में उन्हें कई प्रशासनिक चरणबद्ध प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है- आवश्यकता का आकलन, प्रस्ताव भेजना, निधि की मंजूरी, संविदाकारों को काम पर लगाना, इत्यादि। मैंने देखा है कि झारखंड जैसे राज्यों में सरलतम निर्माण, अनुरक्षण और मरम्मत कार्यों में वर्षों लग जाते हैं। बेहतर व्यवस्था के लागू होने तक, क्यों न वर्तमान अनुरक्षण व्यवस्थाओं के पूरक के तौर पर ड्यूएट जैसे कहीं अधिक लचीले विकल्प को कार्यान्वित किया जाए?
प्रवासन के प्रभाव
अपेक्षानुसार, मार्टिन रेवलियन (अन्य में से) ने यह प्रश्न उठाया कि क्या ड्यूएट से ग्रामीण-शहरी प्रवासन को बढ़ावा मिल सकता है। यदि ड्यूएट अधिकतर श्रमिकों को शहर की ओर आकर्षित करता है, तो क्या इससे शहरी बेरोजगारी को कम करने का उद्देश्य विफल नहीं होगा? इस पर कुछ बिंदु :
पहला, यह शहरी रोजगार गारंटी अधिनियम के लिए एक गंभीर प्रश्न है, परंतु ड्यूएट के लिए शायद नहीं, जब तक कि योजना में बड़ी संख्या में लोग नियोजित न हों। ध्यातव्य है कि ड्यूएट खुला कार्यक्रम नहीं है - इस योजना का स्तर सार्वजनिक नीति का विषय है।
दूसरा, महिलाओं के लिए ड्यूएट के ग्रामीण-शहरी प्रवासन पर खास प्रभाव पड़ने की संभावना नगण्य है। प्रवासन का निर्णय सामान्यत: पुरुषों का होता है और इसकी संभावना क्षीण है कि उनकी पत्नियों (या उनके परिवार की अन्य महिला सदस्यों) को समय-समय पर अनौपचारिक ड्यूएट कार्य मिलना एक महत्वपूर्ण कारक हो ।
तीसरा, यदि यह एक महत्वपूर्ण मामला है, तो इसका सर्वोत्तम तरीका ड्यूएट को स्थानीय लोगों तक ही सीमित रखा जाए, यह नहीं कि ड्यूएट को लागू ही न किया जाए। स्थायी प्रवासन, जिसमें निवास परिवर्तित होता है, ऐसा ड्यूएट के प्रभाव में होने की संभावना न के बराबर है, क्योंकि इस प्रकार का प्रवासन सामान्यत: तब होता है जब परिवार के सदस्य को शहरी क्षेत्रों में स्थायी काम मिल जाए। अस्थायी प्रवासियों को आवश्यकता पड़ने पर ड्यूएट से अलग किया जा सकता है, परंतु इससे योजना के उद्देश्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ना संभावित है।
अंत में, यदि ड्यूएट से ग्रामीण-शहरी प्रवासन को प्रोत्साहन मिलता है तो क्या यह बुरी बात होगी? दिलीप मुखर्जी के अुनसार (परिसंवाद में उनके योगदान के सन्दर्भ में), “कई दिनों की क्रमिक शोध यह दर्शाती है कि गाँव के शहरी क्षेत्रों में संरचनात्मक परिवर्तन की अत्यंत मंद दर ने भारत में विकास को बाधित किया है।” यह इस दृष्टिकोण से भी मेल खाता है कि श्रम बाजारों की स्थिरता के कारण बहुत अधिक की अपेक्षा बहुत कम श्रम प्रवासन की प्रवृत्ति रही है (बैनर्जी एवं डूफ्लो 2019)। यदि ग्रामीण-शहरी प्रवासन बुरी चीज़ नहीं है तो प्रवासन निर्णयों पर ड्यूएट का संभावित प्रभाव कोई महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं हो सकता है। एक पहलू यह है कि भारत के बड़े महानगर पहले ही काफी बड़े हैं। प्रणब बर्धन और अश्विनी कुलकर्णी द्वारा सुझाए अनुसार, यह अच्छा होगा कि ड्यूएट को मुख्यत: छोटे कस्बों में ही केंद्रित करते हुए कम-से-कम प्रारंभ तो किया जाए।
मुझे यह प्रतीत होता है कि शहरी गरीबों के जीवन में सुधार हेतु किसी भी प्रयास से कुछ-न-कुछ ग्रामीण शहरी प्रवासन को बढ़ावा मिलेगा ही। राशन कार्ड प्रदान करने या झुग्गी बस्तियों में बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराने से शहरी गरीबों को सहायता मुहैया कराने के विरोध में, एक वैध तर्क के रूप में इसे सामान्यत: स्वीकार नहीं किया जाता है। इसका कारण यह है कि हम इन सुविधाओं को अपना अधिकार समझते हैं। इसी कारण से दिल्ली की सीमाओं पर आंदोलन कर रहे किसानों को भी सरकार पानी और अन्य स्वास्थ्य-रक्षा सुविधाएं प्रदान करती है, जिन्हें भले ही बाधा समझा जा रहा हो । क्या समान सिद्धांत को गारंटित रोजगार के लिए भी लागू किया जा सकता है, यह शहरी रोजगार गारंटी अधिनियम के लिए एक मूलभूत विडंबना है। ड्यूएट, और विशेषकर महिलाओं के ड्यूएट से संभावित प्रवासन योजना का न्यून नकारात्मक पहलू है। आशा है कि इसके लाभ से उसकी पूर्ति हो जाएगी।
भ्रष्टाचार
अंत में, कई टिप्पणीकर्ताओं ने संभावित भ्रष्टाचार को लेकर चिंता व्यक्त की है। बेशक, भारत में किसी भी कल्याणकारी योजना के लिए यह लगभग एक चुनौती है – यहां तक कि आधार3–आधारित नकद अंतरण जिसे आम तौर पर भ्रष्टाचार-मुक्त4 समझा जाता था। कुछ प्रतिभागियों ने विभिन्न सुरक्षोपाय प्रस्तावित किए हैं जैसे स्वतंत्र निरीक्षण, सामाजिक पर्यवेक्षण एवं लागत-साझा करना इत्यादि। और भी संभावनाओं का उल्लेख सतत रोजगार (2019) के लिए केंद्र सरकार द्वारा तैयार शहरी रोजगार गारंटी प्रस्ताव में किया गया है। ये और अन्य सुरक्षोपाय वास्तव में अनिवार्य हैं।
ड्यूएट प्रस्ताव में, नियोक्ता और श्रमिकों के बीच सांठगांठ रोकने के उद्देश्य से रोजगार-प्रदाता एजेंसी को एक अन्य सुरक्षोपाय के रूप में प्रस्तुत किया गया है। मेरा यह मानना है कि यह वास्तव मददगार हो सकता है। जब वेतन का भुगतान सीधे श्रमिकों के बैंक खाते में किया जाता है तो एक भ्रष्ट उद्यमी के लिए उन्हें (श्रमिकों को) ‘नियंत्रित’ करना कुछ बाधित होगा, यदि वह उस पैसे को हथियाना चाहता है। सबसे आसान तरीका है सांठगांठ5: उद्यमी ही श्रमिकों का चयन करता है, कागज़-पत्र संभालता है, और इन सब सुविधाओं के बदले में, बिना कुछ काम किए ही, उनसे उनके वेतन का हिस्सा मांगता है। श्रमिक, सामान्यत:, उद्यमी के अपने मित्र, रिश्तेदार, ग्राहक या घनिष्ठ मित्र होते हैं। यह भ्रष्टाचार मॉडल मनरेगा में बहुत आम है जिससे निज़ात पाना टेढ़ी खीर प्रतीत होता है। एक प्रकार से, सामाजिक पर्यवेक्षण की भी अपनी सीमा है क्योंकि ऐसे श्रमिक (संभावित श्रमिक) जो आम तौर पर भ्रष्टाचार का पर्दाफाश कराने में मदद कर सकते हैं, वे भी घोटाले का हिस्सा हैं।
श्रमिकों की चयन प्रक्रिया से उद्यमी को अलग रखते हुए एक रोजगार-प्रदाता एजेंसी इस सांठगांठ को तोड़ने में सहायक हो सकती है। ड्यूएट की कार्यप्रणाली में एक भ्रष्ट उद्यमी को अपने घनिष्ठ मित्रों को काम पर रखा जाना सुनिश्चित कराने के लिए न केवल श्रमिकों को, बल्कि रोजगार-प्रदाता एजेंसी को भी ‘नियंत्रित’ करना होगा । यह सिर्फ श्रमिकों को नियंत्रित करने से कहीं अधिक कठिन काम होगा – शायद असंभव नहीं (रोजगार प्रदाता की विश्वसनीयता को पर निर्भर करते हुए) परंतु कम-से-कम कठिन अवश्य है। इसलिए, मैं अश्विनी कुलकर्णी से पूर्णत: सहमत नहीं हूँ कि “यदि दो लोगों में सांठगांठ हो सकती है तो तीन में क्यों नहीं”।
ड्यूएट की रूपरेखा में, एक महत्वपूर्ण पहलू यह सुनिश्चित करना है कि रोजगार-प्रदाता एजेंसी विश्वसनीय व जवाबदेह हो। यह हजारों असंगठित उद्यमियों पर निगरानी रखने, जो मनरेगा के लिए आवश्यक है, से कहीं अधिक आसान होगा। मनरेगा की तुलना में ड्यूएट में भ्रष्टाचार पर काबू पाना अपेक्षाकृत अधिक आसान होने के अन्य कारण भी हैं। उदाहरण के तौर पर, कम दूरी और बेहतर परिवहन सुविधाओं के कारण कार्यस्थल निरीक्षण (अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष) करना अधिक आसान होगा। इसी तरह शहरी क्षेत्रों में शिक्षा के उच्चतर स्तर से यह सुनिश्चित करना कहीं अधिक आसान है कि श्रमिक अपने अधिकारों के प्रति सजग हों और वे योजना की कार्यप्रणाली से भलीभांति वाकिफ़ हों। जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है कि महिलाओं को ड्यूएट का प्रभारी बनाया जाना भी कारगर होगा।
समापन टिप्पणी
ड्यूएट के बारे में अपने ही संशय के साथ मैं इसे इस तरह समाप्त करना चाहूंगा – क्या संबंधित सार्वजनिक संस्थाएं जॉब स्टैंप का पूरा लाभ उठा सकेंगी? किसी विश्वविद्यालय के प्रमुख के बारे में विचार करिए जो देखता है कि दीवारों पर रंग-रोगन किया जाना चाहिए। इस कार्य के लिए जॉब स्टैंप की उपलब्धता और यह कार्य करवाने के लिए उसे विशेष पहल नहीं करनी पड़ेगी। परंतु, कुछ न करना तो और आसान है न।
ड्यूएट और ‘सेवा प्रमाणपत्र’ योजनाओं में यह एक बड़ा अंतर है जो कुछ यूरोपीय देशों6 में बहुत लोकप्रिय साबित हुआ है। सेवा प्रमाणपत्र जॉब स्टैंप की तरह ही है सिवाय इसके कि उनका उपयोग सार्वजनिक संस्थानों के स्थान पर घरेलू परिवारों द्वारा भोजन पकाने और साफ-सफाई जैसी घरेलू सेवाओं के प्रयोजनार्थ किया जाता है। ये सेवा प्रमाणपत्र नि:शुल्क नहीं हैं परंतु उन पर बहुत आर्थिक-सहायता मिलती है और परिवार उनका उपयोग करने के लिये प्रोत्साहित होते हैं क्योंकि ये अत्यंत सस्ती घरेलू सेवा प्राप्त करने का तरीका है। ड्यूएट योजना में, जॉब स्टैंप का उपयोग सार्वजनिक संस्थानों के प्रमुखों के उत्तरदायित्व की भावना पर टिका है, न कि उनके अपने निजी-हितों पर।
इसलिए, यह अनुमान लगाना आसान नहीं है कि जॉब स्टैंप का उपयोग कितनी गहनता से किया जाएगा। एक बार फिर, इसका पता लगाने का सर्वोत्तम तरीका है कि ड्यूएट को एक बार अवसर दिया जाए।
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टिप्पणियाँ:
- इस प्रकार को प्रारंभ में द्रेज़ (2020) ने प्रस्तावित किया गया था।
- मनरेगा ग्रामीण क्षेत्रों में किसी भी ऐसे वयस्क को स्थानीय सार्वजनिक कार्यों में गारंटित रोजगार प्रदान करता है जो निर्धारित वेतन पर, 100 दिनों तक प्रति परिवार प्रति-वर्ष, अकुशल मेहनती कार्य करने का इच्छुक हो।
- आधार या विशिष्ट पहचान संख्या (यूआईडी) एक 12 अंकों की पहचान संख्या है जो व्यक्ति के बायोमीट्रिक (अंगुली की छाप, पुतली और छायाचित्र) से लिंक है और भारत सरकार की ओर से भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) द्वारा भारतीय निवासियों को जारी किया जाता है।
- हाल ही में झारखंड में हुआ ‘छात्रवृत्ति घोटाला’ इन अरक्षितताओं के लिए एक उपयोगी अनुस्मारक है। (अंगद 2020)
- दो अन्य तरीके हैं प्रपीड़न (श्रमिकों को उनके वेतन में से कुछ हिस्सा देने के लिए उन पर दबाव डालना) और छल (उनके बैंक खातों से उनकी जानकारी के बगैर पैसा निकाल लेना) – अधिकारी और भाटिया (2010) देखें। इन तरीकों में श्रमिक उन घोटालों का शिकार हुए हैं न कि वे उसमें सहभागी हैं। जब श्रमिक अपने अधिकारों और प्रति तार्किक रूप से सजग हों और कार्य-प्रणाली से वाकिफ़ हों, जब प्रपीड़न और छल कठिन हो जाते हैं, तब सांठगांठ ही गबन की मुख्य कार्यविधि बन जाती है। ऐसा प्रतीत होता है कि हाल के वर्षों में मनरेगा में यही घटित हुआ है।
- इन योजनाओं की जानकारी के लिए कृपया संदर्भ लें- जैसे राज़-यूरोविच एंड मार्क्स (2018), डेज़ीएरे एंड गोसेएर्ट (2019) और वहां वर्णित साहित्य।
लेखक परिचय: ज्यां द्रेज़ रांची विश्वविद्यालय में विजिटिंग प्रोफेसर और दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में मानद प्रोफेसर हैं।
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