भारत में मौसमी प्रवासी (सीजनल माइग्रेंट) श्रमिक ऐसे माहौल में अस्थायी अनौपचारिक काम करते हैं जिसमें मजदूरी, काम के घंटों, और जीवनदशा पर मौजूद श्रम संबंधी कानूनों की सक्रियता से उपेक्षा की जाती है। इसका सबसे महत्वपूर्ण प्रभाव श्रमिकों और उनके बच्चों के स्वास्थ्य से संबंधित परिणामों पर होता है। इस नोट में वर्मा और रविंद्रनाथ ने प्रवासियों की स्वास्थ्य संबंधी स्थितियों और इलाज संबंधी व्यवहार के बारे में गहराई से छानबीन करने और उनकी जरूरत के अनुरूप स्वास्थ्य कार्यक्रमों का निर्माण और क्रियान्वयन करने में आने वाली बाधाओं के बारे में बताया है।
अनुमान है कि भारत में लगभग 10 करोड़ लोग अल्पकालिक प्रवास1 करते हैं। आम तौर पर मौसमी प्रवास करने वाले अधिकांश लोग अनुसूचित जनजाति (शेड्यूल्ड ट्राइब) और अनुसूचित जाति (शेड्यूल्ड कास्ट) समूहों के होते हैं जो निर्माण स्थल, कारखाना, होटल और अन्य ऐसे उद्योगों में अस्थायी अनौपचारिक मजदूर के रूप में काम करते हैं। जहां रोजगार के मौके उपलब्ध कराने में ये क्षेत्र महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, वहीं श्रमिकों को काम के ऐसे माहौल में जोखिम और अधिक शारीरिक ताकत वाले काम करने के लिए बाध्य किया जाता है जिसमें मजदूरी, काम के घंटों और जीवनदशा संबंधी श्रम कानूनों की सक्रियता से उपेक्षा की जाती है। इस प्रकार के श्रम का श्रमिकों के स्वास्थ्य संबंधी परिणामों पर सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है लेकिन इस विषय पर भारत में बहुत कम ध्यान दिया गया है। समुदाय के रूप में प्रवासी मजदूरों और उनके बच्चों को ग्रामीण और शहरी, दोनो प्रकार की स्वास्थ्य प्रणाली की परिधि से आसानी से बाहर कर दिया जाता है, लेकिन उनके स्वास्थ्य संबंधी जोखिम, आघात (शॉक), और अनुभव ऐसे थीमेटिक क्षेत्र हैं जिन पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है (बोरहाडे 2011)। विभिन्न क्षेत्रों में प्रवासी मजदूरों के साथ हमारा काम दर्शाता है कि मजदूरों को स्वास्थ्य संबंधी ढेर सारे मामलों का सामना करना पड़ता है। जैसे, मौसमी प्रवासी मजदूरों पर काम करने वाली विशेषीकृत सार्वजनिक पहल आजीविका ब्यूरो द्वारा अहमदाबाद में संचालित मोबाइल क्लीनिकों में हमने मजदूरों में टीबी और मलेरिया के साथ-साथ उच्च रक्तचाप और मधुमेह जैसे रोगों के काफी मामले देखे हैं। इसी प्रकार, निर्माण स्थलों पर किए गए हाल के एक अध्ययन में पाया गया कि प्रवासी बच्चों का बड़ा हिस्सा कुपोषित है (रविंद्रनाथ 2018)।
प्रवासियों की स्वास्थ्य संबंधी स्थितियों और इलाज संबंधी व्यवहार पर गहराई से छानबीन करने और ऐसे स्वास्थ्य कार्यक्रम तैयार तथा क्रियान्वित करने की तत्काल जरूरत है जो उनकी स्वास्थ्य संबंधी जरूरतों के अनुकूल हों। लेकिन अनौपचारिक कार्यस्थलों पर ऐसी अनेक बड़ी चुनौतियां पेश की जाती हैं जो इन प्रक्रियाओं को नुकसान पहुंचाती हैं। प्रवासी मजदूरों के स्वास्थ्य संबंधी अनुभवों और उनकी स्वास्थ्य संबंधी चिंताएं दूर करने का प्रयास करने वाले हस्तक्षेपों पर किए जा रहे अपने शोध के आधार पर हमलोगों ने इस आलेख में इनमें आने वाली कुछ बाधाओं के बारे में बताने का प्रयास किया है।
कार्यस्थलों में प्रवेश
अनेक साइट प्रवासियों को काम की व्यवस्था के तहत कार्यस्थलों पर ‘आवास’ उपलब्ध कराते हैं जो प्रायः मजदूरों की चौबीसो घंटे उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए शोषण की व्यापक रणनीति भी होती है। इनमें से अनेक कार्यस्थल अनिबंधित होते हैं या वे सुरक्षा संबंधी आवश्यक मानकों को पूरा नहीं करते हैं। इसके कारण इन स्थानों पर नियोक्ताओं द्वारा तैनात ‘गेटकीपर्स’ का कड़ा पहरा होता है। ये ‘गेटकीपर्स’ अधिकांशतः ठेकेदार या बिचौलिए होते हैं जो बाहरी लोगों के प्रवेश पर जबर्दस्त नियंत्रण रखते हैं। विडंबना है कि ये वही लोग होते हैं जिन पर कार्यस्थलों में मजदूरों की सुरक्षा सुनिश्चित करने का दायित्व होता है।
ऐसी परिस्थिति में प्रवासियों के पेशागत स्वास्थ्य और सुरक्षा पर उनसे बात करना बहुत मुश्किल होता है। स्वास्थ्य संबंधी परिणामों पर काम करने वाले शोधकर्ताओं या हस्तक्षेप करने वाले गैर-मुनाफा संस्थाओं (नन-प्रोफिट ऍक्टर्स) को इन कार्यस्थलों पर अत्यंत संदेह भरी नजर से देखा जाता है। इसके अलावा, नियोक्ताओं के कई स्तर होते हैं (कुछ कार्यस्थलों पर तो हमलोगों ने उद्यम के मालिक से लेकर उप-उप-ठेकेदार तक नियोक्ताओं के सात स्तरों की पहचान की थी)। इनके कारण प्रवासी समुदायों के साथ संबंध स्थापित कर पाना मुश्किल हो जाता है जो उनके साथ सौहार्द स्थापित करने के इच्छुक शोधकर्ताओं और एजेंसियों को बाधित करता है।
बड़े पैमाने की चुनौतियां
प्रवासियों के उच्च घनत्व वाले क्षेत्रों में, खास कर उन क्षेत्रों में जहां प्रवास का पैटर्न अत्यंत मौसमी है, क्लीनिक स्थापित करना और उन्हें बनाये रखना मुश्किल है। ये अक्सर वित्तीय लिहाज से उपयुक्त नहीं होते हैं क्योंकि पूरे साल रोगियों की संख्या में काफी अंतर आता रहता है। ऐसी परिस्थिति में, चलंत (मोबाइल) स्वास्थ्य सेवाएं उनलोगों की सेवा के लिहाज से सबसे उपयुक्त हैं। लेकिन वे प्राथमिक देखरेख सुविधाओं के पूरे रेंज से शायद ही कभी सुसज्जित होती हैं। लिहाजा उससे ऐसे असुरक्षित समुदाय की की जाने वाली देखरेख की गुणवत्ता प्रभावित होती है। अहमदाबाद में आजीविका ब्यूरो समेत अनेक गैर-मुनाफा संस्थाएं निर्माण स्थलों पर पालनाघर चलाती हैं जिनमें प्रवासी मजदूरों के बच्चों की आरंभिक देखरेख की जाती है। हमारे अनुभव दर्शाते हैं कि पालनाघर सबसे अधिक व्यवहार्य तब होते हैं जब उनका संचालन बड़े पैमाने पर हो। इसका मुख्य कारण यह है कि इसके लिए भौतिक संसाधनों (जगह, पानी, बिजली) और वित्तीय संसाधनों की (खाने-पीने और खेलने की चीजें खरीदने के लिए) जरूरत पड़ती है। गैर-मुनाफा संस्थाएं सामान्यतः ऐसे बड़े निर्माणस्थलों पर डे केयर फैसिलिटी चलाती हैं जहां या तो काम कम से कम कुछ वर्षों तक चलने की संभावना होती है या प्रवासी बच्चों की बड़ी संख्या में उपस्थिति होती है। बड़े कार्पोरेट घराने अपने कार्यस्थलों पर पालनाघर की सुविधा के लिए कभी-कभार निवेश करना चाहते हैं, लेकिन मध्यम या छोटे आकार के अधिकांश उद्यम ऐसी प्रतिबद्धता नहीं दिखा पाते हैं। इसके कारण पूरे शहर में फैले हजारों छोटे कार्यस्थलों में बच्चे अक्सर देखरेख और सुरक्षा के वातावरण से वंचित और चोट तथा दुर्घटना के जोखिम के लिहाज से असुरक्षित रहते हैं। बच्चों के स्वास्थ्य और खैरियत के लिए इसके दूरगामी निहितार्थ होते हैं।
अवसर की कम उपलब्धता
मोबिलिटी प्रवासी मजदूरों के जीवन की एक स्थायी विशेषता होती है। मजदूरों की ठेकेदारी करने वाले खास ठेकेदारों के साथ जुड़े प्रवासी अपने गांवों और शहरों के बीच यात्रा करते रहने के अलावा पूरे देश में एक शहर से दूसरे शहर में, एक कार्यस्थल से दूसरे कार्यस्थल तक जाते रहते है। ऐसी स्थिति में स्वास्थ्य शिक्षा और रोग से बचाव संबंधी देखरेख जैसे लोक स्वास्थ्य के महत्वपूर्ण मामलों में समुदाय के साथ टिकाऊ संलग्नता बहुत मुश्किल हो जाती है जिसके कारण रोग नियंत्रण और जागरूकता में लाभ दुर्लभ हो जाता है।
किशोरियों, गर्भवती महिलाओं और बच्चों को दी जाने वाली स्वास्थ्य देखरेख संबंधी आउटरीच सेवाएं उनके परिवारों के यहां से वहां आते-जाते रहने के कारण बाधित हेाती हैं। इसीलिए ऐसी एजेंसियों के लिए प्रभाव डाल सकने के लिहाज से अवसरों की गुंजाइश बहुत कम हो जाती है। इससे इन समुदायों के साथ काम करने वाले गैर-मुनाफा संस्थाओं के सामने वित्तीय चुनौतियां भी आ खड़ी होती हैं। समुदाय के अस्थायित्व के कारण उनके अल्पकालिक या दीर्घकालिक ‘प्रभाव’ को मापने की उनकी क्षमता में बाधा आती है। इससे डोनर एजेंसियों के प्रति उनकी वचनबद्धता पर और अधिक असर पड़ता है क्योंकि ‘परिणाम’ शायद ही कभी पारंपरिक फॉर्मेट में उपलब्ध होते हैं।
शहरी स्वास्थ्य व्यवस्था के साथ फॉर्वर्ड लिंकेज
लगातार जगह बदलते रहने की स्थिति में रहने के कारण प्रवासियों द्वारा शहरी और ग्रामीण, दोनो जगह की लोक स्वास्थ्य प्रणालियों तक पहुंच के मामले में कई तरह से असर पड़ता है। शहर और गांव के बीच और शहर के अंदर प्रवासियों के लगातार जगह बदलते रहने से गैर-मुनाफा संस्थाओं की गंभीर स्वास्थ्य सेवाओं के साथ उनके संपर्कों को बरकरार रखने की क्षमता भी प्रभावित होती है। उदाहरणस्वरूप : अपने जीवन की गतिमान प्रकृति के कारण गर्भवती प्रवासी महिलाओं की आवश्यक संख्या में प्रसवपूर्व देखरेख संबंधी जांच नहीं हो पाती है। इससे उनकी गर्भावस्था में जोखिम और भी बढ़ जाता है और नवजात शिशु के स्वास्थ्य के लिए भी जोखिम पैदा हो जाता है।
टीबी के अधिक संख्या में मामले मौजूद होने के बावजूद प्रवासी मजदूर अक्सर राष्ट्रीय टीबी नियंत्रण कार्यक्रम की परिधि से बाहर ही रह जाते हैं क्योंकि प्रभावित मजदूरों के लगातार यहां से वहां आते-जाते रहने के कारण उनका पता लगाना और उनके द्वारा इलाज संबंधी प्रक्रियाओं का पालन सुनिश्चित कराना बहुत मुश्किल हो जाता है।
नीति और आंकड़ों से संबंधित कमियां
इतने बड़े स्तर पर प्रवास के बावजूद, मौसमी प्रवासी परिवार अदृश्य, अलग-थलग जीवन बिताते हैं क्योंकि वे शहर के व्यापक विस्तार में इधर-उधर बिखरे रहते हैं। जिन शहरी गंतव्यों को वे अपनी मेहनत से तैयार करने में मदद करते हैं उनमें मतदान के अधिकार से रहित, उनकी जिंदगी किसी भी प्रकार की राजनीतिक आवाज या एजेंसी से वंचित रहती है। उनकी जरूरतें शायद ही कभी स्वास्थ्य व्यवस्था सहित शहरी लोक सेवाओं की कल्पना का हिस्सा होती हैं। जैसे, निवास संबंधी दस्तावेजों की गैर-मौजूदगी में प्रवासी परिवारों के छोटे बच्चे समेकित बाल विकास सेवा (आइसीडीएस)2 के जरिए स्थानीय आबादी को उपलब्ध होने वाली टीकाकरण और अनिवार्य पोषण आदि शैशवकालीन देखरेख सेवाओं से वंचित रह जाते हैं। इससे ऐसे बच्चों के स्वास्थ्य और वृद्धि से संबंधित परिणामों में भारी कमी आती है, जिसके चलते एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचने वाले खराब स्वास्थ्य, ठिगनापन, और गरीबी जैसे दीर्घकालिक प्रतिकूल प्रभाव पड़ते है।
उनका यह अदृश्यपन कई तरह से राष्ट्रीय स्तर के विश्वसनीय आंकड़ों की अनुपस्थिति में भी झलकता है। प्रवास पर एक दशक पहले हुए सर्वे (राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण अर्थात एनएसएस 2007-08) में प्रवासी मजदूरों के स्वास्थ्य पर कोई आंकड़ा नहीं दिया गया। वहीं, राष्ट्रीय पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) 2015-16 के अंतिम चक्र में आंकड़े दिए तो गए हैं लेकिन नितांत अपर्याप्त हैं। फलतः, प्रवासियों के बीच मौजूद स्वास्थ्य संबंधी रुझान और व्यापकता कैसी है, उनके स्वास्थ्य संबंधी अनुभव कैसे हैं या स्वास्थ्य संबंधी देखरेख के विभिन्न स्वरूपों तक उनकी किस हद तक पहुंच है, उनके बारे में बहुत कम समझ मौजूद है।
प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना 3 पर हाल में हुई चर्चा में देखरेख के माध्यमिक और तृतीयक स्वरूपों पर तो ध्यान आकृष्ट करने का प्रयास किया गया है, लेकिन गौरतलब है कि आज भी देश में मौसमी प्रवासियों के लिए कोई निरंतर और भरोसेमंद बुनियादी देखरेख उपलब्ध नहीं है। हालांकि राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना4 जैसी योजनाओं में प्रवासी समुदायों के हित में पोर्टेबिलिटी का प्रावधान तो है, लेकिन हमारे अनुभव के मुताबिक राज्यों में उनके क्रियान्वयन संबंधी दिशानिर्देशों में अंतर और उनके क्रियान्वयन में अनेक कमियों के कारण जमीनी स्तर पर इसका शायद ही कोई प्रभाव पड़ा है। स्वास्थ्य संबंधी नीतियों और कार्यक्रमों के लिए इस बात को स्वीकार करना निहायत जरूरी है कि मोबिलिटी का करोड़ों भारतीयों के जीवन-जीविका में केंद्रीय स्थान है। इसलिए ऐसे प्रावधान किए जाने चाहिए जिनमें अक्सर गरीबों में भी गरीब होने वाले ऐसे समुदायों की खास परिस्थितियों पर विशेष रूप से ध्यान दिया गया हो।
लेखक परिचय: दिव्या रविंद्रनाथ इंडियन इंस्टिट्यूट फॉर ह्यूमन सेट्लमेंट्स, बैंगलोर में पोस्ट-डाक्टरल रिसर्चर हैं। दिव्या वर्मा आजीविका ब्यूरो, अहमदाबाद के सेंटर फॉर माइग्रेशन एंड लेबर सोलूशन्स में नीतिगत पहलों का नेतृत्व करती हैं।
नोट्स:
- राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण (एनएसएस) में अल्पकालिक प्रवासियों को रोजगार के लिए एक महीने से अधिक लेकिन छः महीने से कम समय के लिए प्रवास करने वालो के बतौर परिभाषित किया गया है। शोधकर्ताओं के द्वारा अल्पकालिक, मौसमी, और वृत्तीय (सर्कुलर) प्रवास का उपयोग एक-दूसरे की जगह किया जाता है।
- वर्ष 1975 में शुरू की गई समेकित बाल विकास सेवा (आइसीडीएस) माताओं और बच्चों के स्वास्थ्य से संबंधित दुनिया का सबसे बड़ा कार्यक्रम है। इसके जरिए देश में छः वर्ष से कम उम्र वाले 10 करोड़ से अधिक बच्चों, किशोरियों, और गर्भवती तथा शिशुवती महिलाओं को पूरक पोषाहार और विद्यालय-पूर्व शिक्षा, टीकाकरण, और स्वास्थ्य जांच तथा रेफरल जैसी अन्य सेवाएं उपलब्ध कराई जाती हैं।
- प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना 2018 में शुरू की गई आयुष्मान भारत योजना (राष्ट्रीय स्वास्थ्य संरक्षण मिशन) की दो में से एक घटक है। इसका लक्ष्य गरीब और असुरक्षित समूहों पर अस्पतालों में भर्ती होने की विपत्तिपूर्ण घटनाओं के कारण होने वाले वित्तीय बोझ में कमी लाना है।
- भारत सरकार द्वारा 2008 में राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना का आरंभ बीपीएल (गरीबी रेखा के नीचे वाले) परिवारों को स्वास्थ्य बीमा का कवरेज उपलब्ध कराने के लिए किया गया था। इसका लक्ष्य बीपीएल परिवारों को अस्पताल में भर्ती की जरूरत वाले स्वास्थ्य संबंधी आघातों के कारण होने वाली वित्तीय देनदारियों से बचाना था। इसके अंतर्गत तृतीयक देखरेख पर खर्च के लिए पांच सदस्यों तक वाले हर परिवार को 30,000 रु. का वार्षिक कवरेज उपलब्ध कराया जाता है।
Comments will be held for moderation. Your contact information will not be made public.