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कृषि कानून: कायापलट करने वाले बदलाव लाने की संभावना कम है

  • Blog Post Date 29 अक्टूबर, 2020
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Sanjay Kaul

Former IAS officer

sanjkaul@yahoo.com

इस पोस्ट में संजय कौल ने कृषि कानून से सभी हितधारकों (किसानों, व्यवसायियों, कमीशन एजेंटों, और सरकार) को होने वाले लाभों और कमियों पर चर्चा की है। इसमें शामिल गतिशीलता को देखते हुए उन्होने यह निष्कर्ष निकाला है कि इन सुधारों से भारतीय कृषि पर कोई भी परिवर्तनकारी प्रभाव पड़ने की संभावना नहीं है।

तीन कृषि कानून जो अध्यादेश के माध्यम से अधिसूचित किए गए थे और संसद के दोनों सदनों में बिना बहस के पारित हो गए थे, अब कानून बन गए हैं। पंजाब और हरियाणा जैसे कुछ राज्यों में बड़े स्‍तर पर किसानों के विरोध ने विवादों को और भड़का दिया है। इन विरोध प्रदर्शनों ने केंद्र सरकार के एक सहयोगी अकाली दल1 को अपना समर्थन वापस लेने के लिए मजबूर कर दिया।

इन तीन कानूनों को किसानों से व्यापक समर्थन मिलना चाहिए था क्योंकि इन्‍हें उनके लिए सबसे बड़ा परिवर्तनकारी माना जा रहा है। इनका उद्देश्य और आर्थिक औचित्य किसानों को अपनी उपज बेचने के लिए व्यापक विकल्प और स्वतंत्रता प्रदान करना है। इनके समर्थकों का तर्क है कि यह विपणन लागत को कम करके और बेहतर कीमत की खोज का समर्थ करके कृषि में अधिक कुशल मूल्य श्रृंखलाओं का निर्माण करने में मदद करेगा, और इस प्रकार किसानों को प्राप्‍त होने वाले मूल्‍य में सुधार होगा। साथ ही उपभोक्ताओं द्वारा भुगतान की जाने वाली कीमत कम होंगी। इसके अलावा यह भंडारण में निजी निवेश को प्रोत्साहित करेगा, अपव्यय को कम करेगा और मौसमी मूल्य अस्थिरता को कम करने में मदद करेगा। सरकार का कहना है कि नए कानून किसानों को शोषणकारी बिचौलियों के चंगुल से मुक्त करेंगे। ऐसा अनुमान है कि एक बार जब बाजार स्वतंत्र, कुशल और प्रतिस्पर्धी हो जाएंगे तो किसानों को अधिक मूल्य प्राप्त होगा। तो क्या किसान संगठनों को गुमराह किया गया है?

दो प्रमुख फसल, गेहूं और धान, के लिए हमारे पास एक क्रेताधिकार वाला बाजार है, जिसमें सरकार प्राथमिक क्रेता है। मौजूदा व्यवस्था से सबसे अधिक लाभ पंजाब और हरियाणा के किसानों को होता है। इन दो राज्यों में किसान अपनी उपज का 95% से अधिक माल एपीएमसी (कृषि उपज विपणन समिति) के बाजारों में लाते हैं, जिन्हें मंडियों के रूप में भी जाना जाता है। अपनी खरीद (गेहूं और धान) को कमीशन एजेंटों (आढ़तियों) के माध्यम से सरकारी खरीद एजेंसियों को बेचते हैं, और पूरा एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) प्राप्त करते हैं। सरकारी एजेंसियां मंडी करों और कमीशन का भुगतान करती हैं। इसलिए, किसानों को एमएसपी के किसी भी हिस्से के लिए ठगे महसूस किए जाने का सवाल ही नहीं उठता। किसानों के पास यह सोचने का कोई कारण नहीं है कि वे अपनी उपज को एपीएमसी बाजारों के बाहर बेचें। एफसीआई (भारतीय खाद्य निगम) ग्रेडों के धान और गेंहू, उदाहरण के लिए बेहतर गुवणत्ता का धान (जैसे बासमती) जिनका एमएसपी नहीं है, को छोड़ कर उपज का केवल एक छोटा सा हिस्सा निजी व्यापारियों द्वारा खरीदा जाता है। इन दोनों राज्यों नें कई सालों में अच्छी गुणवत्ता वाली मंडी इनफ्रास्ट्रक्चर स्थापित की हैं जहां खरीद संबंधी कार्य बड़े पैमाने पर सुचारू रूप से और कुशलता से होते हैं (ऐसा महामारी के दौरान लॉकडाउन के सबसे गंभीर वक्त के दौरान भी हुआ था)। इसलिए, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए कि इस प्रणाली को समाप्त करने के लिए केंद्र द्वारा उठाये गये किसी भी बड़े कदम का विरोध किया जाएगा और इससे यह आशंका भी उत्‍पन्‍न होगी कि यह कदम एमएसपी को समाप्‍त करने के लिए एक उदार व्‍यवस्‍था का प्रणेता हो सकता है।

इस बात के प्रमाण हैं कि एमएसपी व्‍यवस्‍था केवल किसानों के एक छोटे से हिस्से के लिए लाभकारी है, जबकि अधिकांश के लिए विकृतिकारी है और इसने तर्कहीन फसल पद्धति को जन्म दिया है। इसके अलावा, जब तक एमएसपी व्‍यवस्‍था जारी रहेगी तब तक सरकार निजी क्षेत्र को बाहर ही रखेगी। एमएसपी व्‍यवस्‍था और बाजार उदारीकरण एक साथ अस्तित्‍व में नहीं रह सकते। कोई भी कॉर्पोरेट फर्म एमएसपी की कीमतों पर बाजार में प्रवेश नहीं करेगी। यदि उद्देश्य इन बाजार गतिशीलताओं को बदलने का है, तो सरकार के पास एक वैकल्पिक योजना होनी चाहिए। ऐसा करने के लिए कानून की आवश्यकता नहीं है। इसका एक तरीका यह है कि यदि किसान अपनी उपज को सरकार को नहीं बेचते हैं तो उन्‍हें उदार सशर्त आय क्षतिपूर्ति प्रदान की जाए। पंजाब सरकार द्वारा गठित जोहल समिति ने कई साल पहले इसी तर्ज पर सुझाव दिए थे।

जोत के बंटने और खराब कृषि पद्धतियों के कारण भारतीय कृषि संकट में है, जिसका परिणाम कम कृषि उपज और उच्च उत्पादन लागत के रूप में सामने आता है। कृषि किसानों की आजीविका को कायम रखने में असमर्थ है। बाजार की कीमतें काफी हद तक गैर-एमएसपी फसलों में मांग और आपूर्ति को दर्शाती हैं, और बाजार सुधारों से किसान को प्राप्‍त होने वाली आय में वास्‍तविक रूप से कोई परिवर्तन नहीं आएगा। वास्तव में, हम उत्पादन अक्षमताओं के कारण कई फसलों में वैश्विक रूप से प्रतिस्पर्धी नहीं हैं। कई कृषि जिंसों के लिए कृषि-गेट2 और मंडी की कीमतें वैश्विक रूप से कारोबार की कीमतों की तुलना में पहले से ही ज्यादा हैं। कानून स्‍वयं अल्पावधि में उत्पादन क्षमता में वृद्धि नहीं कर सकते हैं। हालांकि, यदि थोक खरीदार बाजार में प्रवेश करते हैं और गुणवत्ता की मांग करते हैं तो समय के साथ ये कानून बेहतर कृषि पद्धतियों और कुछ फसलों के लिए उन्नत पौध किस्मों को ला सकते हैं। यह विकास बिना किसी कानून के पहले से ही हो रहा है, उदाहरण के लिए - जैविक उत्पादन और बागवानी फसलों में।

क्या किसानों की कुछ आशंकाएँ सच हैं? और क्या सरकार की प्रतिक्रिया से आशंकाएँ दूर हो गई हैं? अनुबंध कृषि और आवश्यक वस्तु अधिनियम (ईसीए) से संबंधित कानून का कम विरोध हुआ है। मुख्य आशंका एपीएमसी कानून के बारे में है। यदि वर्तमान आढ़तिया (कमीशन एजेंट) और एपीएमसी प्रणाली अपारदर्शी और प्रतिबंधात्मक थी, तो किसान समूहों द्वारा स्वतंत्र कृषि बाजारों की मांग करनी चाहिए थी। इसके बजाय, इन कानूनों के पक्षधर उद्योग समूह और अर्थशास्त्री रहे हैं जो कभी किसी किसान समूह के एजेंडे में नहीं थे। आढ़तियों द्वारा प्रदान की जाने वाली सेवाओं को अक्सर पूरी तरह से समझा नहीं जाता है - वे समूहकों, जोखिम प्रबंधक, स्थानीय साहूकार और अंतिम-सहारा देने वाले खरीदार के रूप में कार्य करते हैं। यह कोई भी नहीं मानता कि एपीएमसी अपने कार्य पारदर्शी तरीके से करती हैं। हालांकि किसानों को यह यकीन नहीं है कि यदि उन्‍हें एपीएमसी के बाहर व्यापक विकल्प दिए जाएंगे तो उन्हें बेहतर कीमत मिलेगी। आज वे आढ़तियों के साथ मिल कर विरोध कर रहे हैं; वे इस को लेकर अनिश्चितता में हैं कि भविष्‍य में जब आढ़तिये समाप्‍त हो जाएंगे और केवल कुछ बड़े कॉरपोरेट खरीदार रह जाएंगे तो उनका क्या होगा। फिर उन्हें छोटे व्यापारियों के बजाय, एक प्रबल निजी व्‍यापारी के साथ सौदा करना होगा। कौन यह गारंटी देगा कि तब उनका शोषण नहीं होगा?

हमें उस मूल प्रश्न पर वापस जाना चाहिए: क्या ये कानून कायापलट करने वाले होंगे? वे कितने परिवर्तनशील होंगे? एक वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन यह है कि वे जमीनी स्‍तर पर ज्‍यादा अंतर पैदा नहीं करेंगे, कम से कम लघु और मध्यम अवधि में। अर्थशास्त्रियों के एक वर्ग द्वारा व्यक्त किया गया दृष्टिकोण कि ये कानून 1991 में उद्योग के क्षेत्र में किए गए सुधारों के बराबर हैं, अतिशयोक्तिपूर्ण है। इनके प्रभाव सीमित होने की संभावना के कई कारण हैं। सर्वप्रथम, कई राज्य पहले ही अपने एपीएमसी अधिनियमों को संशोधित कर किसी लाइसेंसधारी को कई बाजारों में व्यापार करने की अनुमति दे चुके हैं; यहां आपको मंडी प्रतिभागी बनने के लिए एक आढ़तिया होने की आवश्यकता नहीं है। दूसरा, पहले ही बड़ी मात्रा में कारोबार एपीएमसी के बाहर किया जा रहा है। अधिकांश राज्यों में केवल यह आवश्यकता है कि खरीदार मंडी उपकर को वापस करे - किसान पहले ही अपनी उपज को ले जाकर अन्यत्र बेचने के लिए स्वतंत्र हैं। तीसरा, बिहार जिसने एक दशक पहले मंडी प्रणाली को समाप्त कर दिया था, वहां कोई ठोस परिवर्तन नहीं दिखा है बल्कि इसके परिणामस्‍वरूप खाली स्‍थान आ जाने के कारण कमजोर खरीद प्रणाली और कमजोर हो गई। पश्चिम बंगाल एक और राज्य है जिसमें एक कमजोर मंडी प्रणाली है जहां आलू उत्पादक अपनी उपज को सीधे कोल्‍ड  स्‍टोरेज में ले जाते हैं, जबकि धान को चावल मिलों में पहुंचा दिया जाता है। इसी तरह आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में मुख्य फसल धान को प्राथमिक रूप से किसानों द्वारा सीधे चावल मिलों में ले जाया जाता है। चौथा, ईसीए में संशोधन से बहुत अंतर आने की संभावना नहीं है। आज भी जब व्यापारी सट्टा लाभ को भांप लेते हैं, तो वे कई नामों के तहत स्टॉक करके ईसीए को दरकिनार कर देते हैं। किसान स्टॉक और प्रोसेसर (ज्यादातर मामलों में) किसी भी मामले में भंडारण सीमा से मुक्त थे। हो सकता है कि केवल बड़े कॉरपोरेट्स ने ईसीए को स्टॉकिंग के लिए बाधा के रूप में देखा हो। जब मांग में कमी होती है और कमोडिटी की कीमतों में गिरावट होती है, जैसा कि हाल ही में कई फसलों के साथ हुआ है, तो वे खरीदारी करने से बचते हैं। ऐसी स्थितियों में उपज की बिक्री पर संकट बना रहेगा।

इसके अलावा कई राज्य पूर्व में परिचालित मॉडल अनुबंध कृषि अधिनियम के अनुसार किसी न किसी रूप से अनुबंध कृषि की अनुमति दे चुके थे। इसके बावजूद कुछ क्षेत्रों जैसे कि बीज अनुबंधों को छोड़ कर अनुबंध कृषि ने गति नहीं पकड़ी है। कॉरपोरेट्स के एक वर्ग की तत्काल प्रतिक्रिया है कि नया केंद्रीय खाका बहुत कठोर और एकतरफा हो सकता है और उन्हें आशंका है कि वे नए कानून के तहत वे उचित, लागू करने योग्य अनुबंध करने में असमर्थ हो सकते हैं। अनुबंध संबंधी व्‍यवस्‍था पर कृषक समूहों और खरीदारों के बीच द्विपक्षीय रूप से बातचीत करने की आवश्यकता है जबकि अतिमहत्‍वपूर्ण केंद्रीय कानून आवश्यक लचीलापन प्रदान नहीं कर सकता है।

अंत में एपीएमसी कानून का संवैधानिक आधार कमजोर है। संविधान के अंतर्गत कृषि राज्य का विषय है। केंद्र ने इन कानूनों को लाने के लिए उत्पादन एवं आपूर्ति तथा अंतरराज्यीय व्यापार और वाणिज्य से संबंधित अपनी शक्तियों की व्‍यापक व्याख्या की है। केंद्रीय कानून राज्य कानूनों को स्वचालित रूप से उस प्रकार समाप्त नहीं कर सकते जिस प्रकार कि यह विषय केंद्रीय या समवर्ती सूची में होने पर किया जा सकता था। हालाँकि अदालतों द्वारा इन केंद्रीय कानूनों को निष्‍फल करने की संभावना नहीं है। लेकिन विपक्ष के नेतृत्व वाले राज्य केंद्र के कानूनों के विरोधी कानून बना कर भ्रम की स्थिति पैदा कर सकते हैं। राजस्थान ने हाल ही में अधिसूचित किया है कि यदि उत्‍पाद मंडी को दरकिनार कर सीधे गोदामों में लाया जाता है तो उस पर मंडी उपकर लगेगा। महाराष्ट्र ने भी घोषणा की है कि वह इन कानूनों को लागू नहीं करेगा। कृषि परिदृश्य की इस भ्रामक और धुंधली तस्‍वीर के कारण कायापलट करने वाले बदलाव आने की संभावना नहीं है। 

टिप्पणियाँ:

  1. अकाली दल भारतीय राज्य पंजाब में एक क्षेत्रीय पार्टी है और पहले केंद्र में सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का एक हिस्सा थी।
  2. कृषि-गेट कीमतें वे कीमतें हैं जो किसी भी उपज को खेत में बेचने पर किसानों को उनके खेत के स्थान पर प्राप्त होती हैं। 

लेखक परिचय: संजय कौल एक सेवानिवृत्त भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) अधिकारी हैं। वे मोबाइल क्रेच नामक एक एनजीओ से जुड़े हुए हैं। मोबाइल क्रेच एक प्रमुख एनजीओ है जो युवा वंचित बच्चों का समर्थन प्रदान करता है।

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