2020 में कोविड -19 के प्रसार को रोकने के लिए भारत में लगाए गए राष्ट्रीय लॉकडाउन ने लाखों लोगों को बेरोजगार कर दिया और जो लोग रोज़गार में बने रहे उनकी कमाई में तेजी से कमी आई। बहु-राज्य सर्वेक्षणों के आंकड़ों के आधार पर, द्रेज़ और सोमंची खाद्य-सुरक्षा पर महामारी के विनाशकारी प्रभाव को उजागर करते हैं, और मजबूत राहत उपायों का पक्ष रखते हैं।
कोविड -19 संकट से बचने हेतु 2020 में भारत में किया गया राष्ट्रीय लॉकडाउन, दुनिया में सबसे कठोर लॉकडाउन में से एक था। लॉकडाउन के चलते लाखों लोग बेरोजगार हुए, और जो लोग किसी न किसी तरीके से रोज़गार में बने रहे, उन लोगों की कमाई में तेजी से कमी आई । लोगों की खर्च करने की क्षमता में पतन और कई क्षेत्रों में निरंतर प्रतिबंधों के साथ, राष्ट्रीय लॉकडाउन के बाद भी आर्थिक संकट जारी रहा। इसके अलावा, पोषण संबंधी सेवाओं सहित सार्वजनिक सेवाओं में गंभीर बाधाएं आईं- विशेष रूप से मध्याह्न भोजन को बंद कर दिया गया, क्योंकि अधिकांश राज्यों में 2020 के दौरान स्कूल और आंगनवाड़ी एक लम्बी अवधि के लिए बंद थे। लॉकडाउन के दौरान और बाद में भी कोविड से अन्य स्वास्थ्य सेवाओं में भी तेजी से गिरावट आई - आधिकारिक स्वास्थ्य प्रबंधन सूचना प्रणाली (एचएमआईएस) के अनुसार, अप्रैल-मई 2019 के अनुपात में अप्रैल-मई 2020 में दी गई सेवाएं प्रसव-पूर्व देखभाल के लिए केवल 80%, बच्चे के टीकाकरण के लिए 74%, और आउट पेशेंट सेवाएं के लिए 53% रहीं जबकि यह बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में और भी कम अनुपात में रही।
इन झटकों की भरपाई राहत उपायों द्वारा केवल आंशिक रूप से की गई। सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत खाद्यान्न राशन अप्रैल से नवंबर 2020 तक तकरीबन दोगुना हो गया; महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के तहत रोजगार सृजन पिछले वर्ष की तुलना में लगभग 50% बढ़ा; और कुछ नकद हस्तांतरण (कॅश ट्रांसफर) भी किए गए, उदाहरण के लिए, वृद्धावस्था पेंशनभोगियों को और महिलाओं के जन धन योजना (जेडीवाई)1 खातों में। कुछ राज्य सरकारों ने अपने राजकीय राहत उपायों को इस राष्ट्रीय पैकेज के साथ जोड़ा (खेड़ा और मल्होत्रा, आगामी)। हालांकि, अधिकांश परिवारों के लिए ये नकद हस्तांतरण लॉकडाउन और उसके बाद के आर्थिक नुकसान का एक अंश मात्र ही था।
आधिकारिक और आर्थिक आंकड़े इस आजीविका संकट पर ज्यादा प्रकाश नहीं डालते । हालांकि, 2020 में स्वतंत्र अनुसंधान संस्थानों और नागरिक समाज संगठनों द्वारा बड़ी संख्या में घरेलू सर्वेक्षण किए गए। ऐसे 76 सर्वेक्षणों का एक मूल्यवान संकलन अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय (सीएसई-एपीयू) के सतत रोजगार केंद्र की वेबसाइट पर उपलब्ध है। हम इन सर्वेक्षणों का उपयोग 2020 में भारत में खाद्य स्थिति का आकलन करने के लिए करते हैं (द्रेज़ और सोमंची 2021अ)। हम मुख्य रूप से बहु-राज्य सर्वेक्षणों पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जिनका नमूना आकार कम से कम 1,000 है और जिनकी नमूना पद्धति उपयुक्त और स्पष्ट है (अब से 'संदर्भ सर्वेक्षण')2।
संदर्भ सर्वेक्षण, मोटे तौर पर, अर्थव्यवस्था के अनौपचारिक क्षेत्र, या इसके उप-समूहों जैसे झुग्गी-झोपड़ियों या प्रवासी श्रमिकों पर ध्यान केंद्रित करते हैं। राष्ट्रीय लॉकडाउन के दौरान, सर्वेक्षण मुख्य रूप से टेलीफोनिक किये गए थे, और संभवतः इनमें सबसे गरीब घर के परिवार शामिल नहीं थे। हम सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के कंस्यूमर पिरॅमिडस हाउसहोल्ड सर्वे (सीपीएचएस) के आधार पर निष्कर्षों का भी थोड़ा संदर्भ देते हैं – जो सीएसई-एपीयू संकलन में शामिल नहीं है।
आय और रोजगार
इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि कई सर्वेक्षण राष्ट्रीय लॉकडाउन के दौरान अप्रैल-मई 20203 में रोजगार और आय में तेज गिरावट के प्रमाण प्रस्तुत करते हैं । डालबर्ग द्वारा 15 राज्यों में किया गया एक बड़ा (और बड़े पैमाने पर प्रतिनिधि) सर्वेक्षण दर्शाता है कि 80% से अधिक परिवारों की आय में कटौती हुई। , लगभग एक चौथाई परिवारों की आय शून्य थी । यह सीएमआईई डेटा के अनुरूप है - सीपीएचएस नमूने के अनुसार प्रति व्यक्ति आय वितरण के निचले चतुर्थक ने अप्रैल और मई माह में कुछ भी अर्जित नहीं किया। तालिका 1 लॉकडाउन-पूर्व स्तरों की तुलना में विभिन्न महीनों में औसत आय में कमी के उपलब्ध अनुमान प्रस्तुत करती है। स्पष्ट रूप से, राष्ट्रीय लॉकडाउन के बाद भी आय में भारी नुकसान जारी रहा।
तालिका 1. लॉकडाउन-पूर्व स्तरों से औसत आय में गिरावट
स्रोत |
संदर्भ अवधि (2020) |
औसत आय में गिरावट (%) |
सीपीएचएस (सीएमआईई) |
अप्रैल मई |
42 |
डलबर्ग |
अप्रैल मई |
56 |
सीएसई-एपीयू (चरण 1) |
अप्रैल मई |
64 |
आईडीइनसाइट+ (चरण 1) |
मई |
72अ |
सीईपी-एलएसई (आर्थिक प्रदर्शन केंद्र-लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स) |
मई से जुलाई |
48 |
आईडीइनसाइट+ (चरण 2) |
जुलाई |
68अ |
आईडीइनसाइट+ (चरण 3) |
सितंबर |
74अ |
सीएसई-एपीयू (चरण 2) |
सितंबर-नवंबर |
50 |
जहां तक आय और रोजगार का संबंध है, कुछ संदर्भ सर्वेक्षण विशेष रूप से सूचनाप्रद हैं। छह राज्यों में लगभग 5,000 घरों को कवर करने वाले "आईडीइनसाइट+" सर्वेक्षण में पाया गया कि गैर-कृषि उत्तरदाताओं की औसत साप्ताहिक आय मार्च 2020 में 6,858 रुपये की तुलना में घटकर मई में 1,929 रुपये हो गई और सितंबर में भी वह उस स्तर के आसपास ही थी। एक भी दिन काम नहीं मिलने की सूचना देने वाले गैर-कृषि उत्तरदाताओं का अनुपात मार्च 2020 की शुरुआत में 7.3% से बढ़कर मई के पहले सप्ताह में 23.6% हो गया और वह सितंबर के पहले सप्ताह में भी 16.2% के उच्च स्तर पर ही रहा।
डलबर्ग सर्वेक्षण (15 राज्यों में 47,000 परिवार) ने पाया कि 52% परिवारों के प्राथमिक आय अर्जक लॉकडाउन से पहले नौकरी होने के बावजूद मई में बेरोजगार थे, और अन्य 20% जो फिर भी नौकरियों में थे वे पहले से कम कमा रहे थे। ग्रामीण परिवारों की तुलना में शहरी परिवार अधिक प्रभावित हुए – इसकी पुष्टि अन्य सर्वेक्षणों भी करते हैं । सीईपी-एलएसई सर्वेक्षण (बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश के शहरी क्षेत्रों में 8,500 व्यक्ति) भी बेरोजगारी में तेज वृद्धि का संकेत देते हैं – 18-40 वर्ष की आयु के लोगों में बेरोजगारी लॉकडाउन से पहले 1.9% से मई-जुलाई 2020 में 15.5% तक हो गई। नमूने में औसत आय में 48% की गिरावट आई और शीर्ष चतुर्थक में जाने वाली आय का हिस्सा 64% से बढ़कर 80% हो गया, जो पूर्व-मौजूदा आय असमानताओं में तेज वृद्धि को दर्शाता है।
सीएसई-एपीयू द्वारा विस्तृत आय डेटा के साथ सबसे हालिया सर्वेक्षण में पाया गया कि 19% अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिक जिनके पास लॉकडाउन से पहले नौकरी थी, वे सितंबर-नवंबर 2020 में बेरोजगार थे (पुरुषों और महिलाओं के लिए संबंधित आंकड़े क्रमशः 15% और 22% थे)। हालाँकि, बाकी लोगों ने ज़्यादातर अपनी लॉकडाउन से पहले की कमाई के स्तर को पुनः प्राप्त कर लिया था। पुरुषों की तुलना में महिलाओं के लिए रोजगार की हानि बदतर थी, ये अन्य सर्वेक्षणों4 द्वारा स्पष्ट होता है।
संक्षेप में, संदर्भ सर्वेक्षण स्पष्ट रूप से न केवल राष्ट्रीय लॉकडाउन के दौरान बल्कि 2020 की बाकी अवधि में भी बड़े पैमाने पर बेरोजगारी और आय के भारी नुकसान की ओर इशारा करते हैं। यह संदिग्ध है कि देश में 2021 में कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर से पहले आय और रोजगार ने अपने पूर्व-लॉकडाउन स्तर को वापस पाया होगा5।
खाद्य असुरक्षा
जैसा कि कोई उम्मीद कर सकता है, 2020 में रोजगार और आय में भारी गिरावट के कारण खाद्य असुरक्षा में वृद्धि हुई। तालिका 2 संदर्भ सर्वेक्षणों से इस पर सारांश साक्ष्य प्रस्तुत करती है। विभिन्न सर्वेक्षण पूरी तरह से तुलनीय नहीं हैं, लेकिन वे स्पष्ट रूप से राष्ट्रीय लॉकडाउन के दौरान गंभीर खाद्य असुरक्षा को दर्शाते हैं। यहां तक कि आईडीइनसाइट के न्यूनतम संकेतक दर्शाते हैं कि एक बड़ी संख्या में परिवार (26%) उन दिनों में सामान्य से कम मात्रा में भोजन कर रहे थे। एक बार फिर, राष्ट्रीय लॉकडाउन के बाद भी कठिनाई बनी रही। उदाहरण के लिए, सीएसई-एपीयू सर्वेक्षण में पाया गया कि अक्टूबर-दिसंबर 2020 में 60% परिवार लॉकडाउन के पूर्व की तुलना में कम खाना खा रहे थे | लॉकडाउन के दौरान, अप्रैल और मई में, 77% परिवार कम खाना खा रहे थे।
तालिका 2. खाद्य असुरक्षा
संकेतक और स्रोत |
संदर्भ अवधि (2020)अ |
घटना (%) |
पहले की तुलना में कम खाना (%) |
||
सीएसई-एपीयू (चरण 1) |
अप्रैल - मई |
77 |
एक्शन एड (चरण 1) |
मई* |
67 |
हंगर वॉचब |
अक्टूबर |
53स |
सीएसई-एपीयू (चरण 2) |
सितंबर से नवंबर |
60 |
कम मात्रा में भोजन का छोटा या भोजन में कम आइटम (%) |
||
प्रदान+ (चरण 1) |
अप्रैल* |
68 |
आईडीइनसाइट+ (चरण 1) |
मई |
26 |
प्रदान+ (चरण 2) |
जून* |
55 |
गांव कनेक्शन |
जून जुलाई* |
46 |
आईडीइनसाइट+ (चरण 2) |
जुलाई |
14 |
आईडीइनसाइट+ (चरण 3) |
सितंबर |
13 |
आरसीआरसी (रैपिड रूरल कम्युनिटी रिस्पांस) (चरण 2) |
दिसंबर 2020 - जनवरी 2021* |
40 |
कम मात्रा में भोजन (%) |
||
प्रदान+ (चरण 1) |
अप्रैल* |
50 |
प्रदान+ (चरण 2) |
जून* |
43 |
गांव कनेक्शन |
जून जुलाई* |
38 |
दिन में दो बार से कम भोजन करना (%) |
||
एक्शन एड (चरण 1) |
मई* |
34 |
एक्शन एड (चरण 2) |
जून* |
19 |
नोट: (i) अंतिम कॉलम नमूने में प्रभावित परिवारों (या व्यक्तियों, एक्शन एड के मामले में) के अनुपात को दर्शाता है। नमूनों के विवरण के लिए, द्रेज़ और सोमंची (2021अ) में परिशिष्ट देखें। (ii) 'अ' सर्वेक्षण अवधि को संदर्भित करता है, ऐसे मामलों में (तारांकित) जहां संदर्भ अवधि स्पष्ट नहीं है। (ii) 'ब' उन नमूनों को संदर्भित करता है जो विशेष रूप से कमजोर समूहों पर ध्यान केंद्रित करते हैं। (iii) 'स' अनाज (चावल और गेहूं) की खपत को संदर्भित करता है।
वंचित समूहों के बीच स्थिति अनुमानित रूप से बदतर थी। उदाहरण के लिए, एक्शन एड की रिपोर्ट के मुताबिक लगभग 10,000 अनौपचारिक श्रमिकों (मुख्य रूप से प्रवासी) में से 35% मई 2020 के दौरान दिन में दो से कम समय का भोजन कर रहे थे। इसी तरह, बिहार में लगभग 20,000 लौटने वाले प्रवासी श्रमिकों के एक सर्वेक्षण में पाया गया कि उनमें से 60% के करीब जून 2020 में अपने परिवार के सभी सदस्यों के लिए एक दिन में दो वक्त का भोजन सुनिश्चित करने में असमर्थ थे और यही अनुपात जुलाई में भी रहा। सितंबर-अक्टूबर 2020 में, भोजन का अधिकार अभियान के "हंगर वॉच" सर्वेक्षण (भारत के सबसे गरीब घरों के वयस्क) में दो-तिहाई उत्तरदाताओं ने कहा कि वे उस समय लॉकडाउन से पहले की तुलना में कम पौष्टिक भोजन खा रहे थे – जो भयावह है ।
सीपीएचएस आंकड़ों के अनुसार भी भोजन की मात्रा में गिरावट स्पष्ट है। चित्र 1 में चयनित खाद्य पदार्थों पर स्थिर कीमतों में प्रति व्यक्ति व्यय (पीसीई) तीन समूहों के लिए प्रदर्शित किए गए हैं - समग्र पीसीई पैमाने का शीर्ष चतुर्थक, मध्य आधा और निचला चतुर्थक6 । अनाज के लिए व्यय में गिरावट अपेक्षाकृत कम थी (और दालें भी - यहां नहीं दिखाई गई हैं), लेकिन सभी समूहों में फल, अंडे, मछली और मांस जैसे पौष्टिक खाद्य पदार्थों पर खर्च में गंभीर नाटकीय रूप से गिरावट आई। 2019 के औसत की तुलना में, राष्ट्रीय लॉकडाउन (अप्रैल-मई 2020) के दौरान, निचले पीसीई चतुर्थक में स्थिर कीमतों में भोजन व्यय फलों के लिए सिर्फ 51%, अंडे के लिए 58% और मांस और मछली के लिए 38% था। बाद में इसमें धीरे-धीरे सुधार हुआ, लेकिन सिर्फ दो महीने के लिए भी यह एक पोषण संबंधी आपदा है, इस बात को ध्यान में रखते हुए कि लॉकडाउन से पहले भी गरीब परिवारों के पोषण की स्तिथि गंभीर थी । साथ ही, इस सुधार को हमें इस बात को ध्यान में रखते हुए पढ़ना चाहिए की ऐसा प्रतीत हो रहा है की गरीब घर सीपीएचएस सर्वेक्षण में पर्याप्त रूप से शामिल नहीं हैं (द्रेज़ और सोमंची 2021ब)।
चित्र 1. चयनित खाद्य पदार्थों पर औसत मासिक प्रति व्यक्ति व्यय
नोट: (i) परिवारों को समग्र व्यय के आधार पर पीसीई वितरण के अंतराल के आधार पर समूहीकृत किया गया है। (ii) नमूने के डिजाइन को ध्यान में रखते हुए आंकड़ों को उचित रूप से भारित किया गया है।
स्रोत: सीपीएचएस (सीएमआईई) डेटा के आधार पर लेखकों द्वारा की गई गणना।
राहत के उपाय: बहुत कम, बहुत देर से
संदर्भ सर्वेक्षण यह स्पष्ट करते हैं कि राष्ट्रीय लॉकडाउन के दौरान और बाद में गरीब लोगों की सहायता करने में राज्य के समर्थन ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। विशेष रूप से राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एनएफएसए)7 के तहत निर्धारित पीडीएस, आबादी के एक विशाल समूह तक पहुंचा। छह बहु-राज्य के बड़े पैमाने के सर्वेक्षणों में, राशन कार्ड (मुख्य रूप से एनएफएसए कार्डधारक) वाले परिवारों का अनुपात 75% और 91% के बीच था (तालिका 3 देखें)। गरीब परिवारों में पीडीएस तक पहुंच की संभावना औसत से अधिक होती है। एक सर्वेक्षण (गांव कनेक्शन) को छोड़कर सभी संदर्भ सर्वेक्षणों में, राशन कार्ड होने पर पर सशर्त, पीडीएस से कुछ खाद्यान्न प्राप्त करने वाले उत्तरदाताओं का अनुपात 80% से अधिक था, और चार सर्वेक्षणों में 90% से अधिक था (तालिका 3)।
तालिका 3. सार्वजनिक वितरण प्रणाली तक पहुंच
स्रोत |
संदर्भ अवधि (2020)अ |
केन्द्रित राज्य |
पीडीएस से अनाज प्राप्त करने वाले नमूना परिवारों का प्रतिशत |
उन नमूना परिवारों का प्रतिशत जिनके पास राशन कार्ड था |
पीडीएस से अनाज प्राप्त करने वाले कार्ड धारक परिवारों का प्रतिशत |
पीडीएस से मुफ्त अनाज प्राप्त करने वाले कार्ड धारक परिवारों का प्रतिशतब |
प्रदान+ (चरण 1) |
अप्रैल |
असम, बिहार, छत्तीसगढ़, गुजरात, झारखण्ड, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, ओडिशा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल |
- |
- |
84 |
- |
डलबर्ग |
अप्रैल-मई |
असम, बिहार, गुजरात, हरयाणा, झारखण्ड, कर्नाटक, केरला, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, ओडिशा, पंजाब, राजस्थान, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल |
89 |
87 |
92 |
92 |
एनसीडीएचआर (दलित मानवाधिकारों पर राष्ट्रीय अभियान) |
अप्रैल- मई* |
आंध्र प्रदेश, बिहार, केरला, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, ओडिशा, उत्तर प्रदेश |
- |
80 |
83 |
- |
सीएसई-एपीयू (चरण 1) |
अप्रैल-मई |
आंध्र प्रदेश, बिहार, दिल्ली, गुजरात, जम्मू और कश्मीर, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, ओडिशा, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल |
78 |
- |
- |
- |
आरसीआरसी (चरण 1) |
अप्रैल मई* |
आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, झारखण्ड, मध्य प्रदेश, ओडिशा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश |
- |
- |
- |
88 |
आरसीआरसी (चरण 2) |
अप्रैल-जून* |
आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, छत्तीसगढ़, गुजरात, झारखण्ड, मध्य प्रदेश, मेघालय, ओडिशा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश |
- |
90 |
- |
92 |
माइक्रोसेव (चरण 1) |
मई |
छत्तीसगढ़, झारखण्ड, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड को छोड़कर सभी प्रमुख राज्य और कुछ छोटे राज्य (कुल मिलाकर 18) |
- |
- |
91 |
- |
प्रदान+ (चरण 2) |
जून* |
असम, बिहार, छत्तीसगढ़, गुजरात, झारखण्ड, मध्य प्रदेश, ओडिशा, राजस्थान, त्रिपुरा, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल |
- |
- |
84 |
- |
गांव कनेक्शन |
जून-जुलाई |
आंध्र प्रदेश को छोड़कर सभी प्रमुख राज्य, साथ ही कुछ छोटे राज्य (कुल 20) |
63 |
83 |
71 |
- |
माइक्रोसेव (चरण 2) |
सितंबर |
छत्तीसगढ़, झारखण्ड, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड को छोड़कर सभी प्रमुख राज्य और कुछ छोटे राज्य (कुल मिलाकर 18) |
- |
- |
94 |
- |
आईडीइनसाइट+ (चरण 3) |
सितंबर |
आंध्र प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश |
68 |
75 |
89 |
88 |
सीएसई-एपीयू (चरण 2) |
सितंबर से नवंबर |
आंध्र प्रदेश, बिहार, दिल्ली, गुजरात, जम्मू और कश्मीर, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, ओडिशा, राजस्थान, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल |
- |
91 |
91 |
- |
टिप्पणियाँ: (i) 'अ' सर्वेक्षण अवधि को संदर्भित करता है, ऐसे मामलों में (तारांकित) जहां इन संकेतकों के लिए संदर्भ अवधि स्पष्ट नहीं है। (ii) 'ब' प्रधान मंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (पीएमजीकेएवाई) के तहत मुफ्त में वितरित पूरक खाद्यान्न राशन को संदर्भित करता है। अधिक जानकारी के लिए, द्रेज़ और सोमंची (2021अ) देखें।
राशन कार्ड धारकों में से उल्लेखनीय अल्प संख्या को संदर्भ अवधि के दौरान कोई खाद्यान्न राशन नहीं मिला। इसके अलावा, पीडीएस उपयोग का अर्थ यह नहीं है कि संबंधित परिवारों को उनकी पूरी पात्रता प्राप्त हुई । उनकी सामान्य एनएफएसए पात्रता (प्राथमिकता वाले परिवारों के लिए 5 किलोग्राम प्रति व्यक्ति प्रति माह और अंत्योदय परिवारों - गरीबों में से सबसे गरीब - के लिए 35 किलोग्राम प्रति माह,) के अलावा, पीएमजीकेएवाई के तहत एनएफएसए कार्डधारकों को अप्रैल से नवंबर 2020 तक प्रति व्यक्ति 5 किलोग्राम अतिरिक्त मासिक राशन मुफ्त में मिलना चाहिए था। चार प्रमुख सर्वेक्षणों में पाया गया कि लगभग 90% नमूना परिवारों को संदर्भ अवधि के दौरान कुछ अनाज मुफ्त में प्राप्त हुआ था (तालिका 3 देखें)। यह आश्वासनपूर्ण आंकड़े हैं (नियमित राशन मूल्य पर बेचा जाता है, इसलिए मुफ्त अनाज का उल्लेख पीएमजीकेएवाई के तहत अतिरिक्त राशन ही होगा), लेकिन यह अभी भी संभव है कि बहुत से लोगों को मुफ्त अनाज उनके बकाया से कम प्राप्त हुआ। काश, किसी भी संदर्भ सर्वेक्षणों में पीडीएस से जुडी जानकारी (राशन कार्ड का प्रकार, प्राप्त पीडीएस अनाज की मात्रा, नियमित और पीएमजीकेएवाई कोटा आदि के बीच ब्रेकडाउन) की सावधानीपूर्वक रिकॉर्डिंग शामिल होती। फिर विश्वास के साथ राशन 'कटौती' का अनुमान लगाना संभव होता।
इसी तरह के मुद्दे मनरेगा और नकद हस्तांतरण में भी उत्पन्न होते हैं। केंद्र सरकार के राहत पैकेज के तहत अप्रैल-जून 2020 में महिलाओं के सभी जेडीवाई खातों में 500 रुपये के नकद हस्तांतरण का मामला लें। । न केवल लगभग 40% गरीब परिवार इससे वंचित रह गए क्योंकि उनके परिवार में किसी भी व्यस्क महिला के नाम पे जेडीवाई खता नहीं था (पांडे और अन्य 2020, सोमंची 2020), कई सर्वेक्षणों के अनुसार, एक-तिहाई जेडीवाई खाताधारक महिलाओं ने भी कोई लाभ प्राप्त करने से इनकार किया (टोटपल्ली और अन्य, 2020, आरसीआरसी 2020, नागरिक समाज संगठन का राष्ट्रीय गठबंधन, 2020)। कम जागरूकता और नियमों और पात्रता पर स्पष्टता की कमी के अलावा, जेडीवाई हस्तांतरण खाता निष्क्रियता, ट्रांसक्शन विफलताओं, और धोखाधड़ी की भेद्यता (सोमंची, आगामी) से भी ग्रस्त थे। भारत में अभी भी नकद हस्तांतरण का बुनियादी ढांचा संतोषजनक नहीं है।
राहत उपाय सीमित और ग़ैरभरोसेमंद थे, अतः वे राष्ट्रीय लॉकडाउन और उसके बाद आए आर्थिक संकट से प्रेरित आय-हानि के एक छोटे से हिस्से को पूरा करने में भी विफल रहे, गरीब परिवारों के बीच भी। इस संभावना को देखते हुए कि निकट भविष्य में फिर से राहत उपायों की आवश्यकता हो सकती है, अधिक व्यापक और प्रभावी हस्तक्षेपों को लक्षित करना महत्वपूर्ण है। इस संबंध में तदर्थ, अल्पकालिक उपायों से टिकाऊ अधिकारों में परिवर्तन से मदद मिल सकती है।
समापन टिप्पणी
सीएसई-एपीयू द्वारा संकलित 76 घरेलू सर्वेक्षण (सीएमआईई डेटा के साथ) एक अमूल्य प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। वे कोविड -19 संकट के मानवीय प्रभाव पर समृद्ध अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं, जिसमें कई पहलू शामिल हैं जिनका ज़िक्र हमने यहां नहीं किया है, जैसे कि मनोवैज्ञानिक क्षति, बच्चों की भलाई, और हाशिए के समुदायों की दुर्दशा। जहां तक खाद्य सुरक्षा का संबंध है, कुछ बिंदु उपस्थित होते हैं।
सबसे पहले, यह बात स्पष्ट है कि अप्रैल-मई 2020 का राष्ट्रीय लॉकडाउन विनाशकारी खाद्य संकट से जुड़ा था। बड़ी संख्या में लोगों ने अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए संघर्ष किया, और बहुसंख्यक आबादी के लिए भोजन का सेवन गुणात्मक और मात्रात्मक दोनों दृष्टि से कम हो गया। विशेष रूप से मांसाहारी वस्तुओं सहित पौष्टिक भोजन की खपत में तेज गिरावट आई।
दूसरा, जून 2020 के बाद से कुछ सुधार हुआ, जब लॉकडाउन में धीरे-धीरे ढील दी गई, लेकिन कठिनाई इससे आगे भी बनी रही। वर्ष के अंत में भी रोजगार, आय और पोषण स्तर अभी भी पूर्व-लॉकडाउन स्तरों से काफी नीचे थे।
तीसरा, राहत उपायों ने मदद की, लेकिन वे कमजोर थे, और उनकी प्रभावी पहुंच अनिश्चित है। 2020 में आबादी के एक बड़े हिस्से ने पीडीएस का उपयोग किया (आठ महीने के लिए बढ़े हुए मासिक राशन के साथ), और इसने सबसे खराब स्थिति को टालने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लेकिन यह संभव है कि कुछ पूरक राशन डायवर्ट हो गया हो कम से कम शुरू में, और गरीब परिवारों की एक महत्वपूर्ण अल्पसंख्या की राशन कार्ड नहीं होने के कारण पीडीएस तक पहुंच बिल्कुल भी नहीं थी। मनरेगा और नकद हस्तांतरण जैसे अन्य राहत उपायों की पहुँच भी सीमित ही रही । कोविड -19 संकट ने एक बार फिर से उजागर किया कि भारत को अधिक भरोसेमंद और व्यापक सामाजिक सुरक्षा प्रणाली की आवश्यकता है।
हालाँकि, यह सबक 2021-22 के बजट के समय केंद्र सरकार ने भुला दिया। 2021 में और राहत उपायों के लिए कोई प्रावधान नहीं किया गया (यहां तक कि आकस्मिक निधि के सीमित रूप में भी), जबकि आर्थिक प्रोत्साहन के नाम पर व्यावसायिक रियायतों के लिए भारी रकम आवंटित की गयी। केंद्र सरकार निरंतर आजीविका संकट से सहज इनकार करती दिख रही थी और "वी-आकार की रिकवरी" पर भरोसा कर रही थी।
2021-22 के केंद्रीय बजट की घोषणा के कुछ सप्ताह बाद, कोविड -19 की दूसरी लहर ने देश को पूरी ताकत से प्रभावित किया। आजीविका का संकट 2020 की तुलना में 2021 में बदतर हो भी सकता है और नहीं भी। इस बार कोई राष्ट्रीय लॉकडाउन नहीं है, लेकिन देश भर में अलग-अलग तीव्रता और अवधि के स्थानीय लॉकडाउन हैं। और कुछ मायनों में आज परिस्थितियां अधिक चुनौतीपूर्ण हैं। लोगों का भंडार समाप्त हो गया है और कई भारी कर्ज में डूबे हुए हैं। संक्रमण और मौतों की संख्या 2020 की तुलना में बहुत अधिक है, जिससे बड़ी संख्या में परिवारों को भारी स्वास्थ्य व्यय का सामना करने के लिए मजबूर होना पड़ता है, अगर उन्हें अपने परिवार के कमाने वाले सदस्य को खो न दिया हो । बड़े पैमाने पर टीकाकरण की धीमी प्रगति के साथ, कठिन समय कई महीनों तक जारी रहने की संभावना है। पिछले साल के दुखद मानवीय संकट की पुनरावृत्ति से बचने के लिए राहत उपायों की एक दूसरी और मजबूत लहर आवश्यक है।
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टिप्पणियाँ:
- जेडीवाई भारत सरकार का एक वित्तीय समावेशन कार्यक्रम है, जिसका उद्देश्य भारतीय नागरिकों के बीच बैंक खातों, प्रेषण और बीमा जैसी वित्तीय सेवाओं तक पहुंच का विस्तार करना है।
- सन्दर्भ सर्वेक्षणों के नमूना पद्धति और जुडी जानकारी के लिए, ड्रेज़ और सोमंची (2021अ) देखें।
- राष्ट्रीय लॉकडाउन (24 मार्च 2020 से लागू) जून के महीने तक चला, और इसके कुछ पहलू (उदाहरण के लिए, स्कूलों और आंगनवाड़ी को बंद करना) उसके बाद भी जारी रहे। हालाँकि, अप्रैल-मई 2020 पूर्ण राष्ट्रीय लॉकडाउन के लिए एक उपयोगी संदर्भ अवधि है।
- इस पर, देशपांडे (2020अ) भी देखें। ऐसा लगता है कि महिलाओं के लिए भुगतान-योग्य रोजगार के अवसरों में गिरावट के साथ ही घरेलू काम के बोझ में वृद्धि हुई, संभवतः इसलिए कि परिवार के अधिक सदस्य घर पर थे (देशपांडे 2020ब)। सकारात्मक बात यह है कि, 2020 में मनरेगा रोजगार के विस्तार से महिलाओं को पुरुषों की तुलना में अधिक लाभ हुआ , क्योंकि उनके पास कम विकल्प थे (अफरीदी और अन्य, 2021)।
- इसकी एक महत्वपूर्ण पुष्टि जनवरी-मार्च 2021 में अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों के एक सर्वेक्षण के आधार पर चल रहे एक अध्ययन (ढींगरा और कोंडिरोली आगामी) से होती है।
- चित्र 1 में, हमने उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई, संयुक्त सामान्य सूचकांक) का उपयोग धन व्यय को डीफ़्लेट करने के लिए किया है। जब हम सीपीआई (संयुक्त खाद्य और पेय पदार्थ) का उपयोग करते हैं तो ग्राफ़ बहुत समान होते हैं।
- नवीनतम जनगणना के आंकड़ों के आधार पर एनएफएसए के तहत पीडीएस को कम से कम 75% ग्रामीण आबादी और 50% शहरी आबादी को कवर करने की आवश्यकता है। इन राष्ट्रीय अनुपातों को राज्य-वार समायोजित किया गया है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि गरीब राज्यों में पीडीएस कवरेज अधिक हो (उदाहरण के लिए, ग्रामीण/शहरी झारखंड में 86%/60%)। कुछ राज्यों ने अपने खर्च पर एनएफएसए के बाहर अतिरिक्त राशन कार्ड वितरित किए हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग सार्वभौमिक कवरेज के साथ छत्तीसगढ़ का अपना खाद्य सुरक्षा अधिनियम है। अधिक जानकारी के लिए खेरा और सोमंची (2020) देखें ।
लेखक परिचय: ज्यां द्रेज़ रांची विश्वविद्यालय में विजिटिंग प्रोफेसर के साथ-साथ दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में मानद प्रोफेसर हैं। अनमोल सोमंची एक स्वतंत्र शोधकर्ता हैं।
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