येल पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक की 180 देशों की सूची में भारत अंतिम स्थान पर है। अनंत सुदर्शन भारत में पर्यावरणीय क्षरण के व्यापक आर्थिक और विकासात्मक प्रभावों की जांच करते हैं। इस विषय पर उपलब्ध साहित्य और अपने स्वयं के अनुभव-जन्य कार्यों के आधार पर,वे तर्क देते हैं कि नियामक गतिरोध के चलते इसका समाधान पाना कठिन हो गया है, साथ ही अपनी पर्यावरण नीति में आशाजनक नवाचारों को पर्याप्त रूप से लागू करने में भारत विफल रहा है। उनका सुझाव है कि इस बारे में अधिक अनुसंधान-नीति सहयोग और व्यापक अनुशासनात्मक विशेषज्ञता से भारत में पर्यावरण नियमन को लाभ होगा।
अंतरराष्ट्रीय विकास सूचकांकों में भारत अत्यंत खराब प्रदर्शन कर रहा है। भारत को सबसे हालिया ग्लोबल हंगर इंडेक्स में 116 देशों की सूची में अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान और बांग्लादेश के बाद 101वां स्थान दिया गया है। लेकिन जून 2022 की शुरुआत में आते-आते, हम सबसे नीचले स्थान पर आ गए। 2022 येल विश्वविद्यालय पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक (ईपीआई) में 180 देशों का मूल्यांकन किये जाने पर भारत अंतिम स्थान पर रहा है।
बुरी खबरों पर सरकार की प्रतिक्रिया काफी हद तक उस खबर को फैलाने वाले को दोष देने की रही है,तथापि ईपीआई में कई ऐसी विशेषताएं हैं जिन्हें नजरअंदाज करना मुश्किल है। सबसे पहली, दुनिया के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में से एक द्वारा यह रैंकिंग तैयार की जाती है। दूसरी, किसी देश का स्कोर ज्यादातर नीति और नियमन के व्यक्तिपरक आकलन से निर्धारित नहीं होता है,बल्कि वह असाधारण रूप से व्यापक पर्यावरणीय परिणामों के आधार पर तय होता है, जिनमें से अधिकांश में भारत की स्थिति अत्यंत ख़राब है(तालिका 1 देखें)। तीसरी,इससे संबंधित डेटा छोटे सर्वेक्षणों या विशेषज्ञ द्वारा किये गए आकलनों के बजाय अधिकांश तौर पर वनों की कटाई या वायु प्रदूषण के सैटेलाइट पैमाने- जैसे वस्तुनिष्ठ वैज्ञानिक स्रोतों से प्राप्त होता है।
तालिका 1. वर्ष 2022 ईपीआई पर भारत का श्रेणीवार स्कोर
घटक |
रैंक |
ईपीआई स्कोर |
10 साल में परिवर्तन |
ईपीआई |
180 |
18.9 |
-0.6 |
जैव विविधता |
179 |
5.8 |
-0.5 |
पारिस्थितिकी तंत्र सेवाएं |
97 |
25 |
-14.3 |
मत्स्योद्योग |
42 |
24.5 |
-10.4 |
अम्लीकरण |
132 |
54.4 |
21.3 |
कृषि |
70 |
40 |
1.2 |
जल संसाधन |
112 |
2.2 |
- |
हवा की गुणवत्ता |
179 |
7.8 |
- |
स्वच्छता, पीने का पानी |
139 |
19.5 |
9.6 |
हैवी मेटल्स |
174 |
20.6 |
4.3 |
अपशिष्ट प्रबंधन |
151 |
12.9 |
0.6 |
जलवायु परिवर्तन |
165 |
21.7 |
-0.9 |
पर्यावरण क्षरण का आर्थिक प्रभाव
भारत में पर्यावरणीय परिणामों के बारे में नीतिगत बातचीत हमेशा समृद्ध होने और प्रकृति की रक्षा करने के बीच ‘तालमेल बिठाने' के बारे में बहस के साथ समाप्त होती है। भारत को अपने विकास पर नजर रखते हुए,क्या इस बात की चिंता करनी चाहिए कि हम ईपीआई पर कौन-सा रैंक हासिल करते हैं?
इस प्रश्न का समाधान पाने के लिए एक प्रारंभिक बिंदु यह पहचानना है कि यह एक मिथ्या द्विभाजन है। यह अंतर्निहित धारणा कि हम अर्थपूर्ण रूप से आर्थिक संपदा को पर्यावरणीय गुणवत्ता से अलग कर सकते हैं, इसके विपरीत स्थिति1 बनाने के दशकों के अपने कार्य के सामने उल्लेखनीय रूप से कायम है। वास्तव में इसमें से अधिंकाश शोध का कार्य भारत के अग्रणी अर्थशास्त्रियों में से एक- पार्थ दासगुप्ता ने किया है। दुर्भाग्य से,कई भारतीय नीति-निर्माता और विशेषज्ञ अभी भी पर्यावरणीय गुणवत्ता और आय के बीच एक प्रतिलोम यू-आकार की अनुभवजन्य नियमशीलता- अर्थात पर्यावरणीय कुज्नेट वक्र के घातक लेंस के माध्यम से पर्यावरणीय परिणामों को देखते हैं, जो एक खराब तरीके से मापे गए डेटा पर आधारित है जिसमें कार्य कारणता2 का कोई आधार नहीं है।
हाल के अनुभवजन्य कार्य उन तरीकों पर स्पष्ट कारण-प्रमाण प्रदान करते हैं जिनसे पर्यावरणीय क्षति निरंतर आर्थिक कल्याण में बाधा उत्पन्न करती है।उदाहरण के लिए, अनुसंधान से पता चलता है कि वायु प्रदूषण के कारण रोगों की संख्या में वृद्धि हो गई है और जीवन-काल कम हो गया है (एबेंस्टीन एवं अन्य 2017)। इन अनुमानों से पता चलता है कि यदि भारतीय अपने वायु गुणवत्ता मानकों3 को पूरा करते हैं तो लगभग तीन साल अधिक जीवित रहेंगे।आयु-संभाव्यता पर खराब वायु गुणवत्ता का प्रभाव धूम्रपान, शराब,मलेरिया, अस्वच्छता या एचआईवी से अधिक है। खराब वायु गुणवत्ता के चलते कम फसल पैदावार (बर्नी और रामनाथन 2014),कम श्रमिक उत्पादकता (चांग एवं अन्य 2019),तथा संज्ञानात्मक कौशल एवं शैक्षिक परिणामों में गिरावट(भारद्वाज एवं अन्य 2017) भी होती है।
एक अलग उदाहरण के रूप में, जैव विविधता पर विचार करें। विज्ञान और पर्यावरण केंद्र (सीएसई)ने हाल ही में अनुमान लगाया है कि भारत में जैव विविधता हॉटस्पॉट के तहत आने वाला 90% से अधिक क्षेत्र नष्ट हो गया है(सीएसई, 2021)। अन्य प्रजातियों के विलुप्त होने से मनुष्यों पर वास्तविक प्रभाव पड़ सकता है। हाल ही के एक अध्ययन (ईयाल और सुदर्शन 2022)में, मेरे सह-लेखक और मैंने पाया कि भारत में रासायनिक डिक्लोफेनाक के कारण गिद्धों के विलुप्त हो जाने से,अधिक जलर्करोग(रेबीज)और उच्च जल प्रदूषण जैसे चैनलों से शायद वयस्क मृत्यु दर में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है।
जब जलवायु परिवर्तन की बात आती है,तो भारत प्रति व्यक्ति उत्सर्जन बहुत कम होने के बावजूद, दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक और जलवायु परिवर्तन के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होने की मुश्किल स्थिति में है। कुछ अनुमान दर्शाते हैं कि भारत में CO2 उत्सर्जन की वर्तमान दर कायम रही तो वर्ष 2100 तक भारत में हर साल 15 लाख से अधिक लोग गर्मी के प्रभाव से मर सकते हैं (ग्रीनस्टोन और जीना 2019)। इस साल की शुरुआत में जो भी गर्मी की लहर(हीटवेव) के दौरान अपने घर से बाहर गया था,वह जानता है कि गर्मी का असर कितना बुरा हो सकता है। भविष्य में होने वाला वार्मिंग का प्रभाव भी मृत्यु दर से अधिक घातक और व्यापक होगा। इस संदर्भ में बढ़ते साक्ष्य श्रमिक उत्पादकता (सोमनाथन एवं अन्य 2021)और फसल की पैदावार(श्लेंकर और रॉबर्ट्स 2009, गुप्ता एवं अन्य 2016, झाओ एवं अन्य 2017) पर नकारात्मक प्रभाव दर्शाते हैं।
वर्तमान में भारतीय मीडिया में चल रही बहसों के अनुसार, सांस्कृतिक पुनरुत्थानवाद कभी-कभी गरीबी उन्मूलन से अधिक महत्वपूर्ण लगता है। यदि ऐसा है, तो पारिस्थितिक विन्यास पर बहुत ही उच्च अस्तित्व मूल्य4 रखा जाना चाहिए। आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष, पॉलीमैथिक बिबेक देबरॉय,कृतमाला नदी के आधुनिक संस्करण के बारे में एक कहानी बताते हैं,जहां मनु ने हिंदू भगवान विष्णु के मत्स्य अवतार- एक छोटी मछली को बचाया था, जिन्होंने बदले में उनकी जान बचाई थी(देबरॉय 2019)। मदुरै पहुंचते-पहुंचते यह पवित्र नदी आज रेलवे स्टेशन के पास से गुजरने वाले एक बदबूदार नाले का रूप धारण कर चुकी है। आधुनिक मनु को इस नदी में शायद ही कोई मछली बचाने के लिए मिलेगी।
परिणाम इतने निराशाजनक क्यों हैं?
ईपीआई जैसी रैंकिंग का उद्देश्य सभी देशों में तुलना की अनुमति देना है। भारत उन लोगों से भी बदतर कर रहा है जो तेजी से या धीमी गति से बढ़ रहे हैं,जो अमीर या गरीब हैं, या जो घनी आबादी वाले या कम आबादी वाले हैं। इस प्रकार के ये विनाशकारी पर्यावरणीय परिणाम गरीबी, या पूंजीवाद, या अधिक जनसंख्या के कारण नहीं हैं। बजाय इसके,हम ये जो परिणाम देख रहे हैं, वे विकास का नतीजा नहीं हैं,बल्कि भारत में पर्यावरण विनियमन के हानिकारक अभियोग के कारण हैं।
भारत में पर्यावरण नियमन का आधार तीन कानून हैं- पर्यावरण संरक्षण अधिनियम (1986), जल अधिनियम (1974), और वायु अधिनियम (1981)। जब उन्हें पहली बार पारित किया गया था, तो ये दुनिया के सबसे सख्त और दूरंदेशी पर्यावरण कानूनों में से एक थे। फिर भी उन्हें लागू करना मुश्किल साबित हुआ है,उन्हें व्यापक रूप से अनदेखा किया गया है,और ऐसा लगता है कि उन्होंने अपना उद्देश्य पूरा नहीं किया है।
ऐसा क्यों है? एक कारण यह हो सकता है कि भारत के पर्यावरण कानून विरोधाभासी रूप से बहुत सख्त हैं (घोष 2016)। पर्यावरण के उल्लंघन के लिए दिए जाने वाले दंड बड़े पैमाने पर आपराधिक स्वरूप के हैं,जिसमें कारावास भी शामिल है। कठोर आपराधिक दंडों के उपयोग का अर्थ है कि पर्यावरण को प्रदूषित करने वालों को दंडित करने के लिए इन कानूनों के नियामकों को अदालतों में एक लंबी प्रक्रिया के माध्यम से अपने तरीके से लड़ना पड़ता है,और इस तरह की लड़ाई जीतने का नतीजा अपराध के अनुपात से बाहर की सजा हो सकता है। ये समझौते प्रभाव प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों को अपने विवेक का प्रयोग करने के लिए मजबूर करते हैं, और अधिकांश उल्लंघनों को अनियंत्रित होने देते हैं(डफ्लो एवं अन्य 2013, डफ्लो एवं अन्य 2018)। दूसरे शब्दों में कहें तो, यदि निवारक पूर्ण रूप में केन्द्रित होते हैं, तो कोई निवारण नहीं हो सकता है। चित्र 1 दिखाता है कि यह व्यापक गैर-अनुपालन के रूप में कैसे सामने आता है।
चित्र 1. महाराष्ट्र के उद्योगों द्वारा रिपोर्ट किए गए उत्सर्जन स्तर
स्रोत: ग्रीनस्टोन एवं अन्य (2017) से पुन: प्रस्तुत
नोट: i) महाराष्ट्र के उद्योगों से वायु प्रदूषण के लिए एक ग्रीन रेटिंग योजना तैयार करने के लिए एक परियोजना के हिस्से के रूप में एकत्र किए गए 13,200 से अधिक डिजीटल नियामक निरीक्षण डेटा के आधार पर, नियामक परीक्षणों में रिपोर्ट किए गए हिस्टोग्राम प्लॉट उत्सर्जन स्तर। ii) ऊर्ध्वाधर रेखा 150 मिलीग्राम /एनएम3 की मानक नियामक सीमा दर्शाती है, हालांकि कुछ उद्योगों में इससे भी कठोर सीमाएं हैं। गैर-अनुपालन व्यापक है।
सबसे खराब स्थिति में,यह प्रणाली भ्रष्टाचार और नियामक उत्पीड़न का एक साधन है। अपने सबसे अच्छे रूप में,यह उप-इष्टतम पर्यावरणीय परिणाम दर्शाने का एक अप्रत्याशित और महंगा तरीका है। यह एक ऐसे विनियमन के रूप में भी विकसित हुआ है जो न्यायिक प्रणाली पर अत्यधिक निर्भर है। प्रवर्तन को अक्सर आपराधिक मामले दर्ज करने की आवश्यकता होती है, जो किसी भी उचित समय-सीमा में अदालतों में निष्कर्ष तक पहुंचने में विफल होते हैं। उदाहरण के लिए,सीएसई का अनुमान है कि भारत में हर दिन वन्यजीव से संबंधित लगभग दो मामले अदालत में लाए जाते हैं,जो लगभग 50,000 मामलों के बैकलॉग की एक प्रणाली में शामिल हो जाते हैं और इनके निपटान की दर नए मामलों के आने (सीएसई, 2021) की तुलना में कम है।
नियामक मामले ही न्याय प्रणाली के हस्तक्षेप का एकमात्र तरीका नहीं हैं। अदालतों को भी जनहित याचिका का निपटान करना पड़ता है। न्यायिक प्रतिक्रिया में अक्सर कठोर उपाय शामिल होते हैं। उदाहरण के लिए, वर्ष 1996 और 2000 के दो प्रसिद्ध निर्णयों में,सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली के हजारों उद्योगों को अचानक बंद करने का आदेश दिया। इनमें से कुछ निर्णयों के सन्दर्भ में पर्यावरण संरक्षण को लेकर व्यापक असंतोष का कारण हो सकता है।
नियामक प्रणाली में व्याप्त संरचनात्मक कमजोरियां भी भूमिका निभाती हैं। भारत के प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों में लंबे समय से कर्मचारियों की कमी है और उन्हें निधि भी कम मिलता है (ग्रीनस्टोन एवं अन्य 2017)। उनके पास व्यापक क्रॉस-डिसिप्लिनरी विशेषज्ञता का भी अभाव है। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में कार्यरत तकनीकी कर्मचारी अत्यधिक मात्रा में वैज्ञानिक और इंजीनियर हैं। फिर भी विनियमन को डिजाइन करना और उसे लागू करना कोई इंजीनियरिंग समस्या नहीं है। इसके लिए प्रोत्साहन, व्यवहार और नीति डिजाइन की समझ की आवश्यकता होती है। भारत के नियामक कर्मचारियों में वस्तुतः कोई पर्यावरण अर्थशास्त्री या सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ नहीं हैं।
अच्छा पर्यावरण नियामक कैसा होना चाहिए,इस बारे में भारत में यह अदूरदर्शी दृष्टिकोण वर्तमान में इतना अंतर्निहित है कि केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अध्यक्ष की नियुक्ति के नियमों की आवश्यकता है कि "उसने पर्यावरण से संबंधित विज्ञान में मास्टर डिग्री या इंजीनियरिंग में स्नातक की डिग्री प्राप्त की है ..."। यह निश्चित रूप से एक अलग समस्या है कि इस प्रश्न में सर्वनाम ‘पुरुष’ है।
पर्यावरण नियमन की बात करें तो,वर्ष 1991 का दौर5 भारत में कभी नहीं आया। 1970 और 1980 के दशक में बनाए गए हमारे कानूनों में बहुत कम बदलाव आया है। कमांड-एंड-कंट्रोल दृष्टिकोण और समितियों के जरिये प्रवर्तित लाइसेंस और मंजूरी की एक प्रणाली पर निर्मित और आपराधिक प्रतिबंधों से समर्थित इन कानूनों से थोड़ा-सा नवाचार हुआ है तथा इनके निराशाजनक परिणाम मिले हैं।
नियामक नवाचार की भूमिका
अगर मैं इसे लिखने के बजाय पढ़ रहा होता, तो यह उस समय के बारे में होता जब मैं भारत की पर्यावरणीय समस्याओं के समाधान हेतु एक बड़े खुलासे की उम्मीद करता। दुर्भाग्य से,इसका कोई सम्पूर्ण समाधान उपलब्ध नहीं हैं। हालांकि, विनियमन के वैकल्पिक रूपों के प्रयोग से इसके संभावित बड़े लाभ हैं।
यह अनुसंधान-नीति सहयोग के लिए तैयार की गई भूमिका है। राजनेताओं और नौकरशाहों को यह पहचानने की जरूरत है कि समाधान केवल नियामक नवाचार के माध्यम से ही मिल सकते हैं,जिससे अंततः पर्यावरण नियमन में साक्ष्य-संचालित परिवर्तन हो सकते हैं। इस दौरान शोधकर्ताओं को अंतर-अनुशासनात्मक,लंबे समय तक चलने वाली अनुभव-जन्य परियोजनाओं में संलग्न होने की चुनौती स्वीकारनी चाहिए।
इस दृष्टिकोण को अपनाने से सफलता मिलने के उदाहरण हैं। मेरे अध्ययन (ग्रीनस्टोन एवं अन्य 2019) के दौरान मैंने और मेरे सहयोगियों ने सूरत में उद्योगों से हो रहे कण-उत्सर्जन को लक्षित करने वाले भारत के पहले कैप और ट्रेड मार्केट को लागू कराने हेतु गुजरात प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के साथ काम करते हुए 10 साल बिताए। हमारे प्रायोगिक परीक्षण में बड़े पैमाने पर यादृच्छिक नियंत्रण परीक्षण(आरसीटी) शामिल था, जिसमें शहर में और उसके आसपास स्थित कपड़ा क्षेत्र में 300 से अधिक छोटे और मध्यम उद्योगों को शामिल किया गया था, और बड़े पैमाने पर घरेलू कोयले को जलाया गया था। जब परियोजना शुरू हुई, एक सर्वेक्षण से पता चला कि लगभग 80% संयंत्र नियामक सीमा से अधिक उत्सर्जन कर रहे थे |
बाजार शुरू होने में 10 साल क्यों लगे? इसका एक कारण कठिन समस्याओं की एक श्रृंखला - उत्सर्जन की निगरानी कैसे करें तथा प्रौद्योगिकी के लिए किस-प्रकार के मानक तय करें (केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड,2013),एक व्यापार मंच कैसे बनाया जाए,बाजार हेतु विनियमन को बदलने की अनुमति कानूनी रूप से कैसे ली जाए आदि को हल करने की आवश्यकता थी। ये सीधी चुनौतियां नहीं हैं और इसके लिए एक क्रॉस-डिसिप्लिनरी टीम की आवश्यकता होगी जो विस्तारित अवधि के लिए काम करने के लिए तैयार हो। लेकिन देरी का एक अन्य प्रमुख कारण व्यापक नियामक प्रणाली में शामिल महत्वपूर्ण संदेह था जहां अनुसंधान-संचालित नीति नवाचार की संस्कृति मौजूद नहीं थी।
उत्सर्जन बाजारों के लिए उत्तम उदहारण बहुत सीधा है। संयंत्रों को प्रदूषण की एक निश्चित मात्रा का उत्सर्जन करने का अधिकार देने वाले ट्रेड परमिट जारी करने की अनुमति देना, जिससे बाजार उत्सर्जकों के बीच उपशमन प्रयास को अलग-अलग आवंटित कर पाता है और इससे लागत को कम किया जा सकता है। उदाहरण के लिए,एक बड़े संयंत्र को अपनी मौजूदा पूंजी निवेश के साथ केवल मौसमी रूप से काम करने वाली और जिन्हें बड़े पूंजी निवेश करने में मुश्किल है ऐसी छोटी कपड़ा इकाइयों को परमिट बेचकर प्रदूषण कम करने के लिए पुरुस्कृत किया जा सकता है। आपराधिक दंड के स्थान पर आनुपातिक जुर्माने का उपयोग करके अनुपालन लागू किया जाता है। प्रारंभिक जमा राशि प्राप्त करके ये जुर्माना स्वचालित रूप से लिया जा सकता है।
वर्तमान परिदृश्य में ऐसा नहीं होता। बड़े संयंत्र केवल कमांड-एंड-कंट्रोल मानक को हासिल करने के लिए आवश्यक न्यूनतम प्रयास कर सकते हैं, तथापि इससे अधिक नहीं; जबकि कई छोटे संयंत्र उल्लंघन करना चुन सकते हैं। चूंकि सैकड़ों प्रदूषकों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज करना राजनीतिक और तार्किक रूप से संभव नहीं है,इसलिए नियामक दंडित करने के लिए कुछ प्रमुख उत्सर्जक ही चुन सकते हैं।
तो व्यवहार में बाजारों ने कैसा प्रदर्शन किया? सूरत बाजार को चलाने के करीब दो साल बाद शुरुआती नतीजे उत्साहजनक नजर आ रहे हैं। सांख्यिकीय रूप से समान नियंत्रण समूह6 की तुलना में ट्रेडिंग योजना में शामिल संयंत्रों ने अपने उत्सर्जन में लगभग 20% की कटौती की। इन कटौतियों के चलते लागत में उल्लेखनीय वृद्धि का कोई सबूत नहीं था। बाजार में भी उच्च अनुपालन किया गया है- संयंत्रों ने परमिट खरीदे और जरूरत पड़ने पर जुर्माना लगाया(जो शायद ही कभी था)।
इसके दीर्घकालिक परिणामों के बारे में निर्णयात्मक बयान देना जल्दबाजी होगी। फिर भी अभी के लिए, ऐसा प्रतीत होता है कि जो संस्थाएं यथास्थिति के दृष्टिकोण को अपनाने में संघर्ष करती दिख रही हैं,वे उत्सर्जन व्यापार व्यवस्था को संचालित करने में सक्षम हैं। हमने पाया कि आम तौर पर उद्योग कुछ हद तक सहायक था,क्योंकि मौजूदा प्रणाली की अनिश्चितता के सामने बाजार की विश्वसनीयता को प्राथमिकता दी गई थी। गुजरात के मुख्यमंत्री ने 5 जून (विश्व पर्यावरण दिवस) 2022 को यह घोषणा की कि सूरत उत्सर्जन ट्रेडिंग योजनाओं (ईटीएस) को गुजरात के अन्य हिस्सों में लागू किया जाएगा।
यह परियोजना सिर्फ एक उदाहरण है। अन्य उच्च संभावित विचार भी हैं जिनका परीक्षण नहीं किया गया है। उदाहरण के लिए, परिवहन को देखें तो- इस बात के प्रमाण हैं कि दिल्ली की 'ऑड-ईवन' योजना ने कारों की संख्या को कम करके प्रदूषण में कटौती की है(हरीश एवं अन्य 2016), लेकिन इसने ऐसा एक कड़ा और कठिन जनादेश को लागू करने के लिए किया। हम जानते हैं कि ड्राइविंग को कम कराने के और भी बेहतर तरीके हैं। कारों पर रेडियो फ्रीक्वेंसी-आइडेंटिफिकेशन (आरएफआईडी)टैग का उपयोग करके उच्च प्रदूषण के दिनों में ड्राइविंग पर चार्ज लगाना तकनीकी रूप से सीधा है (दिल्ली का फास्टटैग सिस्टम ऐसा ही एक उदाहरण है)। फिर भी हमने कभी भी भारतीय शहर में वाहनों के यातायात से जुड़े गतिशील मूल्य-निर्धारण को लागू करने की कोशिश नहीं की है।
इसी प्रकार से, वनों की कटाई और जैव विविधता के नुकसान की समस्या पर उपलब्ध प्रमाण दर्शाते हैं कि सामुदायिक वन प्रबंधन टॉप-डाउन केंद्रीकृत नियंत्रण (सोमनाथन एवं अन्य 2009) की तुलना में सस्ता और अधिक प्रभावी है। लंबे समय में यह कितना टिकाऊ है, इस बारे में सवाल हैं, लेकिन पारिस्थितिकी तंत्र में परिशोधन उस समस्या को हल कर सकता है।अन्य देशों के अनुभवजन्य साक्ष्य बताते हैं कि इस तरह के परिशोधन कारगर हैं (जयचंद्रन एवं अन्य 2017)। फिर भी भारत में हम एक केंद्रीकृत,औपनिवेशिक दृष्टिकोण से बंधे हुए हैं कि भयानक परिणामों के सामने अपने जंगलों की रक्षा कैसे करें।
निष्कर्ष
पर्यावरण नीति विकास की नीति भी है। इन दोनों के बीच अंतर करने से,जैसा कि नीति निर्माता और शिक्षाविद- दोनों चाहते हैं,पर्यावरण नीति में प्रेरणा समाप्त होने और विकास की नीति में एक प्रमुख निर्धारक की अनदेखी होने का जोखिम है।
ईपीआई रैंकिंग के प्रति पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की एक अनुमानित रक्षात्मक प्रतिक्रिया सामने आई। यह अनावश्यक भी है और अनुपयोगी भी है। भारत का प्रदर्शन किसी एक शासन की गलती नहीं है। यह पारिस्थितिक पूंजी का संचयी परिणाम है जिसका पिछले सात वर्षों सहित दशकों से लगातार मूल्यह्रास हुआ है। और इसी कारण से, यह संभावना नहीं है कि पर्यावरणीय नियमन में संरचनात्मक परिवर्तन और नवाचार के बिना भविष्य बेहतर दिखाई देगा।
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टिप्पणियाँ:
- इस पर सुलभ चर्चा के लिए, डेली एवं अन्य 2000 देखें।
- पर्यावरण कुज्नेट वक्र से जुड़े तर्कों और साक्ष्यों के बारे में अधिक जानकारी के लिए दासगुप्ता एवं अन्य (2002) देखें।
- राज्य-विशिष्ट अनुमानों और अंतर्निहित डेटा हेतु शिकागो विश्वविद्यालय वायु गुणवत्ता जीवन सूचकांक देखें।
- अस्तित्व मूल्य लोगों द्वारा इस जानकारी से प्राप्त लाभ को दर्शाते हैं कि एक विशेष पर्यावरणीय संसाधन उपलब्ध है। यह गैर-उपयोग मूल्य का एक उदाहरण है, क्योंकि उन्हें संसाधन के प्रत्यक्ष उपयोग से उपयोगिता प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं होती है; बल्कि उपयोगिता केवल यह जानने से आती है कि संसाधन उपलब्ध है।
- वर्ष 1991 में भारत का विदेशी भंडार अब तक के सबसे निचले स्तर पर आ गया, जिससे आर्थिक उदारीकरण,निजीकरण और वैश्वीकरण (एलपीजी) सुधारों को लागू करना आवश्यक हो गया। परिणामस्वरूप, वर्ष 1991 भारत के आर्थिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण वर्ष बन गया।
- उपचार समूह को प्रयोगात्मक स्थिति की जानकारी मिली, इस मामले में उत्सर्जन ट्रेड व्यवस्था का उपयोग करके विनियमित किया जा रहा है, जबकि नियंत्रण समूह को जानकारी नहीं मिली और उन्हें यथास्थिति के अनुसार विनियमित किया जा रहा है।
लेखक परिचय: अनंत सुदर्शन शिकागो विश्वविद्यालय (ईपीआईसी-इंडिया) में ऊर्जा नीति संस्थान के भारत निदेशक हैं।
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