भारत में सिंचाई का एक महत्वपूर्ण स्रोत नहरों का पानी है, जिसका वितरण किसी भौगोलिक क्षेत्र के भीतर किसानों के बीच अक्सर असमान रूप से होता है। इस लेख में, ओडिशा राज्य में नहर सिंचाई प्रणालियों के प्रबंधन के विकेन्द्रीकरण के बाद किए गए एक सर्वेक्षण के आधार पर पाया गया कि नीतिगत सुधार के सकारात्मक प्रभाव पड़ते हैं, लेकिन सुधार का संस्थागत डिज़ाइन भी मायने रखता है।
भारत में नहरें सिंचाई का एक महत्वपूर्ण स्रोत हैं। नहरों में पानी के वितरण के बारे में एक लम्बे समय से चली आ रही चिंता यह है कि प्रत्येक नहर प्रणाली के अंतर्गत एक बड़ा भौगोलिक क्षेत्र आता है, इसलिए इस प्रणाली के भीतर किसानों को पानी का वितरण अत्यधिक असमान होता है। कई नृवंशविज्ञान यानी एथ्नोग्राफी फ़ील्डवर्क अध्ययनों (ब्रोमली एवं अन्य 1980, चेम्बर्स 1988, वेड 1982) और अनुभवजन्य शोधों (जैकोबी और मंसूरी 2020) ने इस तथ्य को उजागर किया है कि नहर के मुहाने पर स्थित किसानों में पानी की अधिक मात्रा निकालने की प्रवृत्ति होती है क्योंकि उन्हें सबसे पहले पानी मिलता है। इसका परिणाम यह होता है कि नहर के अंतिम छोर पर स्थित किसानों को बहुत कम पानी मिल पाता है। चूंकि नहर सिंचाई प्रणाली का संचालन आमतौर पर स्रोत पर पानी का आवंटन करने वाले एक केन्द्रीय प्राधिकरण द्वारा किया जाता है और संपूर्ण प्रणाली में निगरानी और प्रवर्तन की क्षमता सीमित होती है, इसलिए स्थानिक (स्पेशियल) आवंटन की गलत सीमा और अधिक हो सकती है।
इस सन्दर्भ में, हम अपने हालिया शोध (दास और दत्ता 2023) में, भारत के एक राज्य ओडिशा में नहर सिंचाई के प्रबंधन को विकेन्द्रीकृत किए जाने पर किसानों में पानी के वितरण और उनके कृषि प्रदर्शन पर पड़ने वाले प्रभाव की जाँच करते हैं। हम परिकल्पना करते हैं कि विकेन्द्रीकरण के परिणामस्वरूप जल वितरण में सुधार होगा, नहर से दूर स्थित किसानों के लिए पानी की उपलब्धता बढ़ेगी।
पृष्ठभूमि और संस्थागत विवरण
ओडिशा में राज्य सरकार ने वर्ष 2002 में उड़ीसा पानी पंचायत अधिनियम1 को लागू करके विकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया शुरू की। अधिनियम के पारित होने के बाद, ओडिशा सरकार के जल संसाधन विभाग ने क्रमिक तरीके से राज्य के विभिन्न हिस्सों में स्थानीय रूप से निर्वाचित नहर प्रबंधन निकायों का गठन करना शुरू किया, जिन्हें ‘पानी पंचायत’ (पीपी) के रूप में जाना जाता है। पीपी मुख्य रूप से किसी क्षेत्र के किसानों के बीच जल प्रबंधन और पानी के समान वितरण के लिए ज़िम्मेदार होते हैं। वे पानी के आवंटन के बारे में किसानों के साथ समन्वय करते हैं, नहर के तटबंधों की सफाई और सभी किसानों को पानी के बेहतर प्रवाह की सुविधा के लिए खेत के भीतर की चैनलों का रखरखाव व निर्माण जैसे अन्य कर्तव्यों का पालन करते हैं। पीपी के लिए धन का प्रमुख स्रोत राज्य सरकार से प्राप्त अनुदान है। वर्ष 2014 तक ओडिशा के 30 जिलों में सभी प्रकार की सिंचाई प्रणालियों2 को कवर करने वाले लगभग 25,000 पीपी कार्यरत थे।
प्रत्येक पीपी एक सिंचाई परियोजना के 300-600 हेक्टेयर कमांड क्षेत्र को कवर करता है। इसे कई अधिकार क्षेत्रों में विभाजित किया गया है जिन्हें आउटलेट कमांड क्षेत्र या ‘चक’ कहा जाता है। प्रत्येक पीपी के अंतर्गत औसतन लगभग 15 चक होते हैं। प्रत्येक चक में तीन निर्वाचित सदस्यों से बनी एक ‘चक समिति’ होती है। चक के ऊपरी, मध्य और निचले क्षेत्रों से एक-एक सदस्य चुना जाता है। प्रत्येक समिति में एक प्रतिनिधि, जो चक नेता कहलाता है और जिसे पीपी की कार्यकारी समिति में सदस्य के रूप में कार्य करने के लिए रोटेशन के ज़रिए चुना जाता है।
पीपी की कार्यकारी समिति अपने अधिकार क्षेत्र में आने वाली सिंचाई प्रणाली के संबंधित हिस्से के संचालन और रखरखाव के बारे में निर्णय लेती है। पीपी के निर्वाचित सदस्यों का कार्यकाल छह वर्ष का होता है। सभी किसान पीपी की आम सभा के सदस्य होते हैं।
सर्वेक्षण और कार्यप्रणाली
हमने पानी के आवंटन सहित कृषि परिणामों के बारे में डेटा एकत्र करने के लिए अप्रैल-जून 2019 के दौरान ओडिशा के किसानों और पीपी के निर्वाचित सदस्यों का एक सर्वेक्षण किया। इस सर्वेक्षण में 8 जिलों के 10 सिंचाई प्रभागों में नहर सिंचाई से संबंधित 80 पीपी शामिल की गईं थीं। आकृति-1 में सर्वेक्षण किए गए जिलों को लाल रंग में दर्शाया गया है।
आकृति-1. ओडिशा में सर्वेक्षण किए गए जिले
हमने अपने सर्वेक्षण में प्रश्नावली के दो सेट रखे थे- एक सेट पीपी के निर्वाचित सदस्यों के लिए और दूसरा लाभार्थियों या किसानों के लिए था। प्रत्येक पीपी में, दो चकों को यादृच्छिक रूप से चुना गया और इनमें से प्रत्येक में, यादृच्छिक रूप से चुने गए नौ लाभार्थियों का साक्षात्कार किया गया। हमने कुल मिलाकर, 1,423 किसानों और 562 निर्वाचित पीपी सदस्यों का साक्षात्कार किया।
जल आपूर्ति के आँकड़े किसानों द्वारा बताए गए हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि जल संसाधन विभाग जल मीटर का उपयोग करके जल आवंटन के आँकड़े एकत्र नहीं करता है। विभाग नहरों में किश्तों में पानी छोड़ता है। एक मौसम में विभाग पानी की कई ऐसी किश्तें छोड़ता है। पानी की हर किश्त से खेतों में करीब 7-10 दिन की आपूर्ति सुनिश्चित होती है। हालांकि, अगर नहर के मुहाने पर किसानों द्वारा अधिक मात्रा में पानी निकाला जाता है, तो कुछ किसानों को, ख़ासकर जो नहर के आखिरी छोर पर हैं, एक निश्चित हिस्से का पानी नहीं मिल पाता है। इसलिए, एक मौसम में एक किसान द्वारा प्राप्त पानी की किश्तों की संख्या अलग-अलग हो सकती है। हम प्राथमिक कृषि मौसम में किसान को मिलने वाले पानी की मात्रा का उपयोग जल आवंटन के मुख्य ‘चर’ के रूप में करते हैं। हम अपने सर्वेक्षण में किसानों से 10 साल पहले पानी की उपलब्धता, उत्पादन और कीमत के बारे में भी पूछते हैं। इससे हमें किसानों के स्तर पर (समय के साथ इन चरों का) एक ‘पैनल डेटा’ बनाने में मदद मिलती है।3
हमारे सर्वेक्षण के समय राज्य के अधिकांश हिस्सों में विकेन्द्रीकरण के साथ 'उपचार' (हस्तक्षेप के अधीन) किया गया था। लेकिन पीपी के गठन के अलग-अलग समय के कारण, पीपी के कार्यकाल की संख्या में भिन्नता है। इसलिए, हम ‘उपचार’ की मात्रा में भिन्नता या विकेन्द्रीकृत संस्थान में सम्पर्क की अवधि को अपने ‘उपचार चर’ के रूप में उपयोग करते हैं। नई संस्था के सम्पर्क की अवधि हमारे सन्दर्भ में प्रासंगिक है क्योंकि केवल सरकारी अधिकारियों द्वारा केन्द्रीय रूप से प्रबंधित प्रणाली में और नहर प्रबंधन के लिए ज़िम्मेदार स्थानीय रूप से निर्वाचित परिषदों में बड़ा स्पष्ट अन्तर था। इसलिए, किसानों और विशेष रूप से सिंचाई विभाग के इंजीनियरों, जिनके पास चुनाव कराने का अनुभव नहीं था, को नई संस्था से परिचित होने और इसके कार्यान्वयन से जुड़े मुद्दों को सुलझाने में कुछ समय लगा।
प्रमुख निष्कर्ष
सर्वेक्षण के आँकड़ों का उपयोग करते हुए तथा समय के साथ समान पीपी में स्थित किसानों की तुलना करते हुए, हम पाते हैं कि पीपी की अनुपस्थिति में, दूर के किसानों को नहर के नजदीक स्थित किसानों की तुलना में कम मात्रा में पानी मिलता है। जिन क्षेत्रों में पीपी अवधियों की संख्या अधिक रही, वहाँ यह नकारात्मक सम्बन्ध काफी कम हो गया। इसके अलावा, हमें एक अधिक कठोर 'अनुभवजन्य विशेष विवरण' में भी यही परिणाम मिलता है जिसमें हम समय के साथ एक ही किसान की तुलना करते हैं। इस मज़बूत परिणाम के अनुरूप, हम पाते हैं कि दूरदराज़ के किसान पीपी के अभाव में कम आय (भूखंड के आकार पर सशर्त) प्राप्त करते हैं। विकेन्द्रीकरण के लम्बे समय तक सम्पर्क में रहने से उन किसानों की आय में अधिक सुधार होता है। उल्लेखनीय रूप से, यह परिणाम पूरी तरह से कीमत से प्रेरित होता है न कि उत्पादित मात्रा से। इससे पता चलता है कि दूरदराज़ के किसानों को पानी की सीमित आपूर्ति से उनके द्वारा उत्पादित चावल की गुणवत्ता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, लेकिन उत्पादन की मात्रा पर इसका न्यूनतम प्रभाव पड़ता है। हमने यह भी पाया कि दूरदराज़ के किसानों द्वारा प्रत्येक अतिरिक्त पीपी अवधि पूरी होने पर भूमि खरीदने की संभावना काफी अधिक होती है। इससे पता चलता है कि जल प्रबंधन के विकेन्द्रीकरण के कारण बेहतर कृषि प्रदर्शन से अधिक लाभ और बचत हुई होगी, जिससे उन किसानों को अपने खेत बढ़ाने में मदद मिली होगी।
हमारे परिणाम उन पीपी में अधिक स्पष्ट हैं जहाँ भूमि असमानता अधिक है। ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि सिंचाई के केन्द्रीकृत प्रबंधन के तहत किसानों द्वारा पानी का अधिक दोहन करने की क्षमता उनके बीच भूमि असमानता की सीमा पर निर्भर हो सकती है। उदाहरण के लिए, यह हो सकता है कि अधिक समान भूमि वाले पीपी में, किसानों के बीच सहयोग सुनिश्चित करना आसान होता है, जिससे केन्द्रीकृत प्रबंधन के तहत दोहन कम होता है। उच्च भूमि असमानता वाले गाँवों में, सहयोग सुनिश्चित करना संभवतः कठिन होता है। इसलिए, विकेन्द्रीकृत प्रबंधन संभावित रूप से उन क्षेत्रों में बड़ा प्रभाव डाल सकता है। इसके अतिरिक्त, हम पाते हैं कि हमारे मुख्य परिणाम उन किसानों के चलते संचालित होते हैं जो निर्वाचित पीपी सदस्यों के साथ अक्सर बातचीत करते हैं। इससे पता चलता है कि असंतुष्ट किसानों द्वारा पानी के गलत आवंटन के बारे में पीपी सदस्यों के समक्ष शिकायत करना आसान होता है, क्योंकि पीपी सदस्य स्थानीय रूप से चुने जाते हैं और इसलिए सरकारी अधिकारियों की तुलना में उनसे सम्पर्क करना अधिक आसान होता है। पीपी सदस्यों को स्थानीय सन्दर्भ के बारे में अधिक जानकारी होने की संभावना होती है।4
संबंधित शोध साहित्य
हमारा कार्य प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन के विकेन्द्रीकरण पर शोध साहित्य से संबंधित है। बालंद एवं अन्य (2010) ने भारत में सरकारी नौकरशाहों द्वारा वनों के प्रबंधन के स्थान पर स्थानीय वन प्रबंधन निकायों (जिन्हें ‘वन पंचायत’ के नाम से भी जाना जाता है) के गठन के वन संरक्षण पर पड़ने वाले प्रभाव की जाँच की। उन्हें स्थानीय प्रबंधन के सकारात्मक परिणाम मिले। सोमनाथन एवं अन्य (2009) ने पाया कि उत्तराखंड राज्य में जब वनों का प्रबंधन ग्राम परिषदों द्वारा किया जाता है, तो वे राज्य सरकार द्वारा केन्द्रीय रूप से प्रबंधित किए जाने वाले वनों की तुलना में सात गुना अधिक लागत प्रभावी होते हैं। दूसरी ओर, जैकोबी एवं अन्य (2021) ने पाया कि नहर सिंचाई के विकेन्द्रीकरण से पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में भ्रष्टाचार और पानी की चोरी बढ़ गई, जिसके परिणामस्वरूप पानी के स्थानिक आवंटन की स्थिति बिगड़ गई।
एलिनोर ऑस्ट्रोम (ऑस्ट्रोम 1990, ऑस्ट्रोम और गार्डनर 1993, ऑस्ट्रोम एवं अन्य 1994) के प्रमुख कार्य ने दर्शाया है कि स्थानीय रूप से साझा संसाधनों का प्रबंधन करने वाली सामुदायिक संस्थाएँ प्राकृतिक संसाधनों के निरंतर उपयोग में प्रभावी हो सकती हैं। बर्धन (2000) ने दक्षिण भारत में सिंचाई परियोजनाओं के सामुदायिक प्रबंधन की जाँच की है ताकि उनके प्रबंधन में बेहतर सहयोग के निर्धारकों का विश्लेषण किया जा सके। हम इस साहित्य में एक ऐसे सन्दर्भ का विश्लेषण करके योगदान दे रहे हैं, जिसमें स्थानीय प्रबंधन को औपचारिक विकेन्द्रीकरण के माध्यम से सुगम बनाया गया है और भारत के एक बड़े राज्य में इसे बड़े पैमाने पर क्रियान्वित किया गया है।
नीतिगत निष्कर्ष
हमारे नतीजे जैकोबी एवं अन्य (2021) के निष्कर्षों के विपरीत हैं, जिन्होंने सिंचाई विकेन्द्रीकरण के नकारात्मक प्रभाव पाए हैं। इस अलग-अलग निष्कर्ष का एक महत्वपूर्ण कारण यह हो सकता है कि विकेन्द्रीकरण संस्थाएं दोनों सन्दर्भों में महत्वपूर्ण रूप से भिन्न थीं। जैकोबी एवं अन्य (2021) लिखते हैं कि पाकिस्तान के सन्दर्भ में, नहर आउटलेट-स्तर के अध्यक्ष का चयन स्थानीय जमींदारों द्वारा हाथ उठाकर किया गया था, जिसके परिणामस्वरूप अधिकांश मामलों में स्थानीय रूप से शक्तिशाली जमींदारों को अध्यक्ष के रूप में चुना गया। इसके अतिरिक्त, भले ही स्थानीय परिषद को आउटलेट अध्यक्षों में से गुप्त मतदान के माध्यम से चुना गया था, लेकिन कई मामलों में परिषद के सदस्यों को भविष्य के चुनाव आयोजित करने में कानूनी चुनौतियों के कारण प्रभावी चुनावी जवाबदेही का सामना नहीं करना पड़ा। इन दोनों कारकों से यह सुनिश्चित हुआ कि स्थानीय रूप से शक्तिशाली किसान स्थानीय नहर प्रबंधन पर नियंत्रण बनाए रखें। इसके परिणामस्वरूप, विकेन्द्रीकरण के बाद पानी के बहुत अधिक दोहन की समस्या और अधिक गंभीर हो गई। इसके विपरीत, ओडिशा में विकेन्द्रीकरण के हमारे सन्दर्भ में, स्थानीय परिषद के सदस्यों को हमेशा गुप्त मतदान के माध्यम से चुना गया था और कुछ मामलों में देरी होने के बावजूद, पुनःचुनाव कहीं भी रुके नहीं। महत्वपूर्ण बात यह है कि चुनाव डिज़ाइन के हिस्से के रूप में, आउटलेट कमांड क्षेत्र के ऊपरी, मध्य और निचले इलाकों के किसानों ने अलग-अलग निर्वाचन क्षेत्र बनाए, जिससे नहर के विभिन्न हिस्सों से समान प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हुआ। इसलिए इस सन्दर्भ में स्थानीय किसानों के बीच शक्ति का वितरण ख़ासकर नहर से दूरी के सम्बन्ध में, अधिक समान था। इसलिए, सिंचाई विकेन्द्रीकरण की प्रभावशीलता संस्था के विवरण पर निर्भर हो सकती है।
हमारे सभी परिणाम इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि उचित रूप से डिज़ाइन किए गए संस्थागत सुधार कृषि में सिंचाई जल के अकुशल और असमान वितरण की समस्या को हल करने का एक महत्वपूर्ण तरीका है। यह देखते हुए कि नहर सिंचाई भारत में सिंचित भूमि के एक बड़े हिस्से को कवर करती है, यदि ऐसे सुधारों को देश के बाकी हिस्सों में भी लागू किया जाए तो संभवतः इससे होने वाले संभावित लाभ बहुत बड़े होंगे।
टिप्पणियाँ :
- उड़ीसा पानी पंचायत अधिनियम 2002 के तहत ओडिशा राज्य में किसान सिंचाई प्रणालियों के प्रबंधन में भाग ले सकते हैं।
- नहर सिंचाई परियोजनाओं को उनके कमांड क्षेत्र, अर्थात् एक सिंचाई परियोजना द्वारा कवर किए गए क्षेत्र के आधार पर तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है। 40 से 2,000 हेक्टेयर के बीच भूमि क्षेत्र को कवर करने वाली परियोजनाओं को लघु परियोजनाएँ कहा जाता है, 2,000 से 6,000 हेक्टेयर के बीच की परियोजनाओं को मध्यम और 6,000 हेक्टेयर से ऊपर की परियोजनाओं को बड़ी सिंचाई परियोजनाएँ कहा जाता है।
- किसानों द्वारा बताए गए मूल्य आँकड़े उन वर्षों में संबंधित जिलों के थोक बाजार मूल्यों से अच्छी तरह मेल खाते हैं, जो हमारे डेटा के अनुरूप हैं।
- हम आगे यह भी जाँच करते हैं कि क्या निर्वाचित प्रतिनिधि नहर से दूरदराज इलाकों के किसानों को पानी के बेहतर प्रवाह की सुविधा प्रदान करने के लिए स्थानीय नहर के बुनियादी ढांचे (मुख्य रूप से खेत चैनलों के निर्माण के रूप में) में अधिक निवेश करते हैं। हालांकि, हमें इसके बहुत कम सबूत मिले हैं।
अंग्रेज़ी के मूल लेख और संदर्भों की सूची के लिए कृपया यहां देखें।
लेखक परिचय : सब्यसाची दास अहमदाबाद विश्वविद्यालय के अमृत मोदी स्कूल ऑफ मैनेजमेंट में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। उन्होंने भारतीय सांख्यिकी संस्थान दिल्ली, अशोका विश्वविद्यालय और गोखले राजनीति और अर्थशास्त्र संस्थान, पुणे में पढ़ाया है। वे नॉर्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी में विज़िटिंग स्कॉलर भी रहे हैं। वे सोसाइटी फॉर इकोनॉमिक रिसर्च इन इंडिया के सक्रिय सदस्य हैं। उन्होंने येल विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में पीएचडी की है। शौभिक दत्ता इंद्रप्रस्थ सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान दिल्ली में अर्थशास्त्र के सहायक प्रोफेसर हैं। वह विकास अर्थशास्त्र, राजनीतिक अर्थव्यवस्था और खेल सिद्धांत के क्षेत्रों के विशेषज्ञ हैं। वे भारतीय प्रबंधन संस्थान बैंगलोर में एक संकाय सदस्य रहे हैं जहाँ उन्होंने यंग फैकल्टी रिसर्च चेयर (2015-18) प्राप्त किया था।
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