इस आलेख के पहले भाग में, लेखकों ने भारत में कोविड-19 के प्रति सरकार की प्रतिक्रिया का मार्गदर्शन करने हेतु व्यापक सिफारिशें कीं। इस भाग में, वे पांच ऐसे समूहों की पहचान करते हैं जिनके वर्तमान संकट से उत्पन्न आर्थिक एवं स्वास्थ्य संबंधी झटकों की चपेट में आने की आशंका ज्यादा है, और ऐसे क्षेत्र जहां राहत प्रयासों को केंद्रित करने की आवश्यकता है।
इस आलेख के पहले भाग में, हमने भारत में महामारी के लिए सरकार की प्रतिक्रिया का मार्गदर्शन करने हेतु व्यापक सिफारिशों पर चर्चा की। इस भाग में, हम वर्तमान संकट का विशेष रूप से लाचार समूहों पर पड़ने वाले आर्थिक प्रभाव पर चर्चा की है। हम ऐसे पांच प्रमुख समूहों की पहचान करते हैं जिनके सार्स-कोव-2 से उत्पन्न होने वाले आर्थिक और स्वास्थ्य संबंधी की चपेट में आने की आशंका ज्यादा है, और वे हैं - बच्चे, महिलाएं, प्रवासी, दैनिक वेतनभोगी और स्वरोजगार से जुड़े व्यक्ति। प्रत्येक समूह के लिए, हम उन क्षेत्रों की पहचान करते हैं जहां राहत प्रयासों को केंद्रित करने की आवश्यकता है और चर्चा करते हैं कि कैसे उनकी सहायता के लिए नीतियां तैयार की जाएं। हम वेतनभोगी श्रमिकों पर लॉकडाउन के आर्थिक प्रभावों पर भी चर्चा करते हैं - जबकि उन्हें कम असुरक्षित माना जाता है, उनमें से कुछ (जैसे कारखाने के श्रमिक और अन्य श्रमिक वर्ग) लॉकडाउन बढ्ने के कारण आर्थिक कठिनाई का सामना कर सकते हैं।
बच्चे
शुरुआती बाल्यावस्था में कुपोषण भारत में एक व्यापक स्वास्थ्य संबंधी समस्या है, जो आयु के अनुपात में कम ऊंचाई (नाटापन), आयु के अनुपात में कम वजन (लाचारी) और ऊंचाई के अनुपात में कम वजन (क्षयकारी) के रूप में दिखाई देती है। दुनिया के कई हिस्सों से इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं कि किसी व्यक्ति के बचपन के कुपोषण का उसके जीवन पर स्थायी प्रभाव पड़ता है। अन्य सभी जोखिम कारकों से गणना करने के बाद, कुपोषित बच्चों में सीखने की कम क्षमता होने, कम उत्पादक होने, अधिक बीमार रहने और गैर-संचारी रोगों के प्रति जोखिम की अधिक संभावना होती है।
2015-16 के राष्ट्रीय परिवार एवं स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़ों के अनुसार, दुनिया के सभी कम कद वाले बच्चों में से एक-तिहाई भारत में रहते हैं, और उसी वर्ष में 0-5 साल के बीच के सभी बच्चों में से 38% बच्चे नाटे थे। यह पहले से ही एक बहुत बड़ा सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट है। महामारी और लॉकडाउन की परिस्थितियों में, ऐसे बच्चे स्वयं न केवल इस बीमारी के प्रति लाचार हैं, बल्कि इनकी कुपोषण की स्थिति और बदतर हो रही है (अपने माता-पिता की आजीविका के नुकसान, और भोजन एवं चिकित्सा संसाधनों की कम उपलब्धता के कारण), इन दोनों कारकों का उनके जीवन पर काफी आगे तक (यानि वयस्क होने तक) प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
जातियों के बीच नाटेपन के फैलाव में भी काफी फासला है। 2015-16 में, एससी-एसटी (अनुसूचित जाति और जनजाति) के 45% और ओबीसी (अन्य पिछड़े वर्ग) के 39% बच्चों की तुलना में हिंदू उच्च जाति के 32% बच्चे नाटे थे। अनुदैर्ध्य डेटा (देशपांडे और रामचंद्रन 2020) पर आधारित गणनाओं से पता चलता है कि जो बच्चे अपने पहले वर्ष में नाटे थे, उनके 15 वर्ष की आयु तक नाटा रहने की अधिक संभावना है (देशपांडे और रामचंद्रन 2020)। एक वर्ष की आयु तक लंबे कद वाले बच्चों की तुलना में छोटे कद वाले बच्चों की स्कूल में शिक्षा प्राप्त करने के परिणामों में अधिक कमी प्रदर्शित होती है। एससी-एसटी बच्चों के नाटे होने और नाटे रहने की बहुत अधिक संभावना को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि उनके जीवन पर प्रतिकूल परिणाम उतने ही गंभीर होंगे।
नकद और वस्तु रूपी अंतरणों के माध्यम से एक सामाजिक सुरक्षा जाल का प्रावधान करना आरंभिक बचपन (दासगुप्ता 2017) में नकारात्मक झटकों के प्रभाव को कम करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। हम सरकार द्वारा पहले ही की गई ऐसी सिफ़ारिशों का समर्थन करते हैं जिनके अंतर्गत सरकार आंगनवाड़ी और आशा (मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता) कार्यकर्ताओं के नेटवर्क का उपयोग करके लॉकडाउन के समय स्कूल बंद होने के दौरान बच्चों को, विशेषकर सूखे राशन (जैसे चावल, दाल, अंडे) और खाने के लिए तैयार भोजन पैकेट, फल एवं नट्स के संवितरण के माध्यम से उनके घरों तक खाना पहुंचाएगी। आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के पास पहले से ही गर्भवती और स्तनपान कराने वाली माताओं और बहुत छोटे बच्चों के लिए घर-घर राशन पहुंचाने का एक तंत्र है। इस व्यवस्था का विस्तार कर इसमें पूर्व-स्कूली आयु वर्ग के बच्चों और दोपहर के भोजन के लाभार्थियों को शामिल किया जा सकता है और साथ ही घर ले जाने वाले राशन की मात्रा बढ़ाई जा सकती है।
ऐसा करते वक्त आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के स्वास्थ्य को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। इन स्वास्थ्य कर्मियों को उनकी सेवाओं के लिए पूर्ण भुगतान करने के साथ उन्हें उचित मास्क और सैनिटाइज़र दिए जाने चाहिए। सरकार को यह एहसास होना ज़रूरी है कि ये स्वास्थ्य सेवाकर्मी रोगियों के साथ निकट संपर्क में आने और बीमारी को फैलाने की उच्च जोखिम वाली श्रेणी के अंतर्गत आते हैं। इन अग्रपंक्ति स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को उनकी स्वयं की संरक्षा और जिन लोगों के साथ वे काम कर रहे हैं उनकी संरक्षा सुनिश्चित करने हेतु उन्हें अनुशंसित सुरक्षात्मक उपकरण दिए जाने चाहिए, जो जमीन पर उनकी प्रभावकारिता में अत्यधिक सुधार कर सकते हैं।
महिलाएं
इस लॉकडाउन के दौरान एक प्रमुख चिंता गर्भ निरोधकों और परिवार नियोजन उत्पादों तक पहुंच की है, जो कि उनके उत्पादकों के प्रारंभिक शट डाउन होने और स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की कम उपस्थिति के कारण हुई है। पिछले शोध में पाया गया है कि प्राकृतिक आपदाओं ने प्रसव की दर में उल्लेखनीय वृद्धि की है और दो बच्चों के जन्मों के बीच अंतर को कम किया है, खासकर अशिक्षित महिलाओं (नंदी एवं अन्य 2018) के लिए। इससे बच्चों, विशेष रूप से लड़कियों में कम निवेश जैसी महत्वपूर्ण जनसांख्यिकीय चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। सामाजिक सुरक्षा जाल की भूमिका यह सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण होगी कि इस आपदा की लागत महिलाओं पर बिल्कुल न पड़े। इसके अतिरिक्त, सरकार को प्रजनन स्वास्थ्य सेवाओं के व्यवधानों को कम करना चाहिए, गर्भ निरोधकों एवं सैनिटरी उत्पादों की उपलब्धता सुनिश्चित करानी चाहिए, और जमीन पर स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की निरंतर उपस्थिति के माध्यम से प्रजनन स्वास्थ्य संबंधी जरूरतों के लिए परामर्श और समर्थन प्रदान करना चाहिए।
लॉकडाउन का एक और भयानक प्रभाव अमेरिका, ब्रिटेन और चीन समेत दुनिया के कई देशों में घरेलू और अंतरंग साथी के साथ होने वाली हिंसा में वृद्धि रहा है, जिससे महिलाओं के जीवन के लिए जोखिम बढ़ गया है। प्रशासन एवं कानून प्रवर्तन एजेंसियों के लिए पहला कदम है कि वे समस्या की गंभीरता को पहचानें, महिलाओं की बात सुनें और उनसे सहानुभूति रखें। इस समय, किसी भी अन्य समय की तुलना में, महिलाओं को इस आश्वासन की आवश्यकता होती है कि उन्हें सुना जाएगा और यदि उन्हें या उनके बच्चों के जीवन पर कोई खतरा है तो मदद भेजी जाएगी। संकटग्रस्त महिलाओं तक पहुंचने को एक आवश्यक सेवा के रूप में वर्गीकृत किया जाना चाहिए। पुलिस को सख्त शब्दों में यह बताया जाना होगा कि उन्हें महिलाओं से प्राप्त होने वाले चिंताजनक कॉल का जवाब देना होगा चाहे उनका वर्ग, जाति या धर्म कुछ भी हो।
प्रवासी श्रमिक
मीडिया ने प्रवासी श्रमिकों पर उचित रूप से काफी ध्यान दिया है और यह बताया है कि यह समूह विशेष रूप से संकट के इस घड़ी में किस प्रकार से लाचार है। इसे ध्यान में रखते हुए, प्रवासी श्रमिकों की संख्या और उनके भौगोलिक केंद्रीयकरण को प्रतिबिंबित करना महत्वपूर्ण है, ताकि इस समूह पर ध्यान केंद्रित करने वाले राहत प्रयासों को बेहतर ढंग से डिजाइन और लक्षित किया जा सके। वर्ष 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, लगभग 4.1 करोड़ व्यक्ति या श्रमिकों की कुल आबादी का लगभग 8.5% प्रवासी श्रमिक हैं।1 कुछ अस्थायी प्रवासी (सभी श्रमिकों का लगभग 3.5%) हैं जो विशेष रूप से संकट सहने की क्षमता कम है क्योंकि वे घर से दूर रहते हैं और ज्यादातर अनौपचारिक क्षेत्र में काम करते हैं। हमने स्थायी प्रवासियों के बजाय अस्थायी प्रवासियों पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जो अपने सामान्य घरों में रह रहे हैं।2
आकृति 1. श्रमिकों के बीच अस्थायी प्रवासियों का हिस्सा
हम देश में अस्थायी श्रमिकों के उच्च केंद्रीयकरण वाले क्षेत्रों की पहचान करने में मदद करने के लिए रंग आधारित नक्शे (हीट मैप) का उपयोग करके जिलों में ऐसे श्रमिकों के अनुपात को अंकित करते हैं। हमारा मानना है कि चित्र में दर्शाए गए अनुपात का स्थानिक पैटर्न आज की स्थिति के बहुत करीब होगा। हमने यह भी पाया है कि अधिकांश अस्थायी प्रवासी श्रमिक पश्चिमी और दक्षिण-पश्चिमी तटीय जिलों में, तथा हरियाणा, पंजाब और हिमाचल प्रदेश के कुछ जिलों में स्थित हैं।
इस समूह को सहायता प्रदान करना विशेष रूप से कठिन है क्योंकि वे आपूर्ति श्रंखला में बाधा के कारण मुद्रा संकट और आवश्यक वस्तुओं की ऊंची कीमतों का सामना करते हैं। भले ही वे सैद्धांतिक रूप से, अपने कार्यस्थल पर उचित मूल्य की दुकानों से केंद्र सरकार के पीडीएस (सार्वजनिक वितरण प्रणाली) राशन का हिस्सा प्राप्त कर सकते हैं, परंतु ये व्यक्ति अक्सर अपने साथ राशन कार्ड नहीं ले जाते हैं। इसलिए, हालांकि नकद अंतरण की हमारी प्रस्तावित नीति उन्हें मौद्रिक रूप से मदद कर सकती है, फिर भी उन्हें आवश्यक वस्तुओं की पर्याप्त उपलब्धता नहीं हो सकती है। भोजन की पर्याप्त पहुंच सुनिश्चित करने के लिए, राज्यों को विशेष रूप से प्रवासी श्रमिकों की बड़ी आबादी वाले जिलों में सामुदायिक रसोई की व्यवस्था करनी चाहिए। इस मुद्दे के संबंध में कुछ रचनात्मक समाधान भी संभव हैं। उदाहरण के लिए, केरल में एकांतवासी लोगों को घर तक खाना पहुंचाने की कोशिश की जा रही है। ऐसी व्यवस्था विशेष रूप से प्रवासी आबादी के लिए भी की जा सकती है। इसके अलावा, सार्वजनिक इमारतों (जैसे इनडोर स्टेडियम, स्कूल भवन, आदि) का उपयोग लॉकडाउन के दौरान उन्हें आश्रय प्रदान करने के लिए किया जा सकता है। साथ ही, कई प्रवासी श्रमिक, जो छोटे कारखानों में या अनिश्चित अर्थव्यवस्था (जैसे ऐप-आधारित कैब सेवाओं में ड्राइवर, आदि) में काम करते हैं वे इस अनिश्चितता का सामना करते हैं कि जब लॉकडाउन खत्म होगा तो उनका काम फिर कब शुरू होगा। नतीजतन, वे घर वापस आना पसंद कर सकते हैं। उनके सुरक्षित परिवहन की व्यवस्था करना राज्य सरकारों का एक आवश्यक कार्य होन चाहिए। ज़ाहिर है, भविष्य में आने वाले इस प्रकार के संकट से पहले ऐसे संभावित समाधानों की पहचान करना जरूरी है जो अपनी सरकार की एक राज्य और संगठनात्मक क्षमताओं के संदर्भ में उपयुक्त हों, ताकि घबराहट की स्थिति में आने से पहले ही स्पष्ट घोषणाएं की जा सकें। हमारी प्रस्तावित महामारी तैयारी समूह जरूरत के समय अराजकता से बचने के लिए इस पर ध्यान दे सकती है।
दैनिक वेतनभोगी
दैनिक मजदूरी कमाने वाले आकस्मिक मजदूरों की आबादी अन्य संबंधित, लेकिन लाचार लोगों की अलग श्रेणी है। लॉकडाउन के दौरान वे सबसे अधिक प्रभावित होते हैं क्योंकि उनकी आजीविका तुरंत बाधित हो जाती है। भारत में श्रमिकों की काफी बड़ी संख्या इसी श्रेणी की है। हम शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में दैनिक मजदूरी कमाने वाले श्रमिकों के अनुपात की गणना करने के लिए 2017-18 में पीएलएफएस (आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण) का उपयोग करते हैं।3
कामगार आबादी में दैनिक मजदूरी कमाने वाले आकस्मिक मजदूरों का हिस्सा शहरी क्षेत्रों में 14.5% और ग्रामीण क्षेत्रों में 29% है। हम विशेष रूप से शहरी क्षेत्रों में दैनिक मजदूरी कमाने वाले श्रमिकों के बारे में चिंतित हैं, जिनमें से कई निर्माण स्थलों पर काम करते हैं, और कई अकुशल या अर्ध-कुशल गतिविधियों में लगे हुए हैं, और जो तत्काल बेरोजगारी का सामना करते हैं। इसके अतिरिक्त, ग्रामीण क्षेत्रों में अपने समकक्षों की तुलना में, आपूर्ति श्रंखला में बाधा आने के कारण आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि का प्रभाव उन पर बहुत अधिक होगा।
आकृति 2. शहरी श्रमिकों में दैनिक-वेतनभोगी श्रमिकों का हिस्सा
हम आकृति 2 में शहरी क्षेत्र में दैनिक वेतनभोगी श्रमिकों के अनुपात के राज्य स्तर पर भौगोलिक भिन्नता को दिखाते हैं।4 हम पाते हैं कि शहरी क्षेत्र में दक्षिणी राज्यों और छत्तीसगढ़ में दैनिक वेतनभोगियों के अपेक्षाकृत उच्च भागीदारी है। इन राज्यों को विशेष रूप से इस समूह के कल्याण के प्रति सचेत रहने की आवश्यकता है। उन्हें नकद अंतरण के साथ-साथ पीडीएस के माध्यम से आवश्यक वस्तुएं उपलब्ध कराने का प्रावधान संबंधी हमारा प्रस्ताव लॉकडाउन के दौरान उनके संकट को कम करने के लिए एक महत्वपूर्ण कदम होगा।
स्व-नियोजित व्यक्ति
घरेलू उत्पादन या खुदरा सेवाओं में लगे हुए किसानों और व्यक्तियों सहित स्व-नियोजित व्यक्ति हमारी कामकाजी आबादी के एक और बड़े वर्ग का निर्माण करते हैं, जो लॉकडाउन के इस अनिश्चितता वाले समय का सामना करते हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार लगभग 30% श्रमिक स्व-नियोजित हैं। आकृति 3 में उन जिलों की पहचान करते हुए जहाँ श्रमिकों का यह समूह केंद्रित है, भारत के जिलों में स्व-नियोजित व्यक्तियों के अनुपात को दर्शाया गया है। हम पाते हैं कि भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों (पंजाब, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और उत्तर प्रदेश) के कई जिलों में बड़ी स्व-नियोजित आबादी है।
आकृति 3. श्रमिकों के बीच स्व-नियोजित व्यक्तियों का हिस्सा
लोगों के इस समूह के लिए नीति प्रतिक्रिया दैनिक मजदूरी वाले लोगों के समान होनी चाहिए। इसके अतिरिक्त, सरकार को लॉकडाउन क्षेत्रों में खुदरा दुकानों के लिए किराये के भुगतान को माफ करने पर विचार करना चाहिए। किसानों के लिए, हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि कृषि उत्पादन बाधित न हो और वे अपने आवश्यक इनपुटों का स्रोत बनाने में सक्षम हों।
वेतनभोगी कर्मचारी
नियमित/वेतनभोगी कर्मचारियों का गठन कार्यबल का लगभग 18.5% है।5 वे अधिक कुशल हैं और आकस्मिक या स्व-नियोजित श्रमिकों के वेतन से लगभग दोगुना कमाते हैं। दो-तिहाई नियमित/वेतनभोगी श्रमिक सेवाओं में कार्यरत हैं और लगभग तीन-चौथाई शहरी क्षेत्रों (लगभग 75%) में केंद्रित हैं।
सरकार ने हाल ही में घोषणा किया कि वह कर्मचारी भविष्य निधि में अतिरिक्त अंशदान देगी और इसकी जल्दी निकासी की अनुमति देगी; हालांकि यह सुविधा अगले 1-3 महीनों में वेतनभोगी श्रमिकों के लिए जीवन को आसान बना सकती है परंतु लंबे समय के लिए यह अपर्याप्त होगी। विश्व स्तर पर कंपनियों ने पहले ही श्रमिकों की मजदूरी में कटौती शुरू कर दी है - जैसे कि क्वांतास, इंडिगो, कूव्स, ओयो आदि। भारत सरकार ने फर्मों को श्रमिकों को हटाने से मना किया है, लेकिन कंपनियों के भीतर लागत प्रबंधन व्यवस्थाएं निर्णायक कारक हो सकता है। उम्मीद यह है कि सीईओ (मुख्य कार्यकारी अधिकारी) और उच्च रैंक वाले पेशेवर पहले अपने वेतन में कटौती करेंगे और फिर इसे कम वेतन वाले कर्मचारियों पर लागू किया जाएगा।
कोरिया और चीन का महामारी संबंधी अनुभव क्षेत्रों में छंटनी के अंतर प्रभावों पर प्रकाश डालता है। आवश्यक सेवाएं जैसे चिकित्सा सेवाएं, उपयोगिताओं, परिसंचालन, आईसीटी (सूचना और संचार प्रौद्योगिकी) सेवाएं, बैंकिंग, लोक प्रशासन एवं रक्षा, तथा कृषि, बिजली एवं चिकित्सा उपकरणों जैसी आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन प्रचालनरत रहा है। कुछ अन्य वस्तुओं और सेवाओं में उत्पादन प्रक्रियाएं अनुकूलनीय हैं, जिन्हें ऑनलाइन डिलीवरी जैसे माध्यम से किया जा सकता है जैसे कि शैक्षिक सेवाएं। ये क्षेत्र प्रौद्योगिकी और कौशल में कुछ अल्पकालिक निवेशों के माध्यम से संचालित किए जाने में सक्षम होंगे। शेष क्षेत्र जैसे खनन, कुछ विनिर्माण उप-क्षेत्र (जैसे कि कपड़े, ऑटोमोबाइल, और फर्नीचर आदि), निर्माण, व्यक्तिगत सेवाएं, और व्यापार, आदि छोटे से लंबी अवधि में प्रतिकूल रूप से प्रभावित होंगे। कोरोनावायरस महामारी पर नियंत्रण के लिए न्यूनतम मानव-संपर्क की आवश्यकता होती है, इसलिए इन वस्तुओं और सेवाओं की मांग एवं आपूर्ति में कमी आएगी। इसका तात्पर्य यह है नियमित/वेतनभोगी या आकस्मिक या स्व-नियोजित किसी भी प्रकार के श्रमिक हों, वे जिस क्षेत्र में कार्यरत हैं उस आधार पर उन्हें अलग-अलग प्रकार का अनुभव होगा।
संक्षेप में, महामारी लाचार समूहों पर गंभीर प्रभाव डालेगी। इस समय में, हमें अपनी मानवता के भाव को जगाए रखना होगा, और यह सुनिश्चित करना होगा कि अधिक पीड़ा को दूर करने के लिए नीतियां बनाई जाएं।
इस आलेख का अङ्ग्रेज़ी संस्करण द वायर और हमारे ब्लॉग के अङ्ग्रेज़ी पृष्ट पर उपलब्ध है:
https://www.ideasforindia.in/topics/macroeconomics/covid-19-are-we-ready-for-the-long-haul-ii.html
नोट्स:
- यह भारत में कुल प्रवासियों की संख्या से अलग है, जो 450 मिलियन है, जैसा कि मीडिया में उद्धृत किया गया है। हालांकि, सभी प्रवासी केवल कार्य करने के उद्देश्यों से ही पलायन नहीं करते हैं। उदाहरण के लिए, विवाह के कारण लगभग 210 मिलियन व्यक्तियों ने पलायन किया। इसलिए, हम केवल उन प्रवासियों पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जो जनगणना 2011 से हमारे आंकड़े में प्रवासन के कारण के रूप में "काम या रोजगार" की सूचना देते हैं। हम उन्हें प्रवासी श्रमिकों के रूप में संदर्भित करते हैं।
- हम किसी जिले में प्रवासी श्रमिकों को अस्थायी के रूप में वर्गीकृत करते हैं यदि वे एक वर्ष से भी कम समय पहले अपने पिछले निवास से गणना की जगह पर चले गए थे।
- हम इसके लिए पीएलएफएस सर्वेक्षण डेटा का उपयोग करते हैं क्योंकि जनगणना में दैनिक-वेतन श्रमिकों के बारे में जानकारी नहीं दी गई है।
- हम आंकड़ों में जिला-स्तरीय भिन्नता नहीं दिखाते हैं क्योंकि संख्याओं की गणना एक सर्वेक्षण से प्राप्त आंकड़ों का उपयोग करके की जाती है, न कि जनगणना से। इसलिए, जिला स्तर पर अनुपात का अनुमान अपेक्षाकृत उच्च स्तर के प्रतिदर्श अनिश्चितता के साथ आता है। राज्य-स्तरीय अनुमान उस संबंध में अधिक स्थिर हैं।
- एनएसएसओ (राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण कार्यालय) 2011-12 के रोजगार और बेरोजगारी सर्वेक्षण पर आधारित अनुमान, जैसा कि आईएलओ (अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन) की इंडिया वेज रिपोर्ट (2018) में उद्धृत किया गया है।
लेखक परिचय: यह लेख, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के सोनीपत में स्थित, अशोका विस्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग के प्राध्यापकों (अभिनाश बोरा, सब्यसाची दास, अपराजिता दासगुप्ता, अश्विनी देशपांडे, कनिका महाजन, भरत रामास्वामी, अनुराधा साहा, अनिशा शर्मा) द्वारा लिखा गया है।
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