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पोषण संकट को संबोधित करना: ओडिशा मिलेट मिशन के प्रभाव

  • Blog Post Date 30 अप्रैल, 2021
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Subhodeep Basu

Bharat Rural Livelihoods Foundation

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Arghadeep Saha

Bharat Rural Livelihoods Foundation

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Sayantani Sathpathi

Bharat Rural Livelihoods Foundation

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ओडिशा राज्य में कुपोषण एक गंभीर समस्या है, और साक्ष्य बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन के बढ़ते खतरों से संसाधन-प्रचुर चावल-गेहूं की उपज प्रणाली अस्थिर हो जाएगी। इस नोट में, साहा एवं अन्य द्वारा इस बात को रेखांकित किया गया है कि कमजोर आबादी में किस प्रकार पोषक तत्वों से भरपूर तथा संसाधन दक्ष बाजरे द्वारा कुपोषण दूर किया जा सकता है। हितधारकों के गुणात्मक सर्वेक्षण के आधार पर, लेखक 'ओडिशा मिलेट मिशन' के कार्यान्वयन, प्रगति और चुनौतियों पर चर्चा करते हैं।

ओडिशा में कुपोषण की समस्या शायद स्वतंत्र भारत में भूख और अभाव के सबसे अधिक चर्चित मामलों में से एक है। राज्य में कालाहांडी जिला सूखे और अकाल के लंबे इतिहास के कारण भीषण गरीबी और भुखमरी के लिए आम जन के अवचेतन स्मृति से जुड़ा हुआ है। हालांकि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएचएफ़एस) के साक्ष्य बताते हैं कि ओडिशा ने वास्तव में कुपोषण से संघर्ष की दिशा में एक लंबा सफर तय किया है, लेकिन इसका विकास सामाजिक समूहों में काफी हद तक असमान है, जिसमें आदिवासी आबादी सर्वाधिक असुरक्षित है। साक्ष्य यह भी दर्शाते हैं कि जलवायु परिवर्तन के बढ़ते जोखिमों के कारण संसाधन प्रचुरता वाले गेंहू और धान की उपज प्रणाली लंबे समय में आर्थिक और पर्यावरणीय रूप से असतत होगी (भट्ट एवं अन्य, 2016)।

पोषक तत्व से भरपूर होने के साथ-साथ, बाजरा बेहद संसाधन किफ़ायती भी माना जाता है। यह फसल उथली, कम उपजाऊ, 4.5(अम्लीय) पीएच (पावर ऑफ हाइड्रोजन) से 8 (क्षारीय) पीएच तक की भूमि में भी आसानी से उपज सकता है (गंगैय्या एन. डी)। 2017 में लॉन्च किए गए ओडिशा मिलेट मिशन (ओएमएम) के शुरुआती चरण में सर्वाधिक जनजातीय जनसंख्या1 वाले ओडिशा के सात जिलों को लक्षित किया गया । कार्यक्रम को बाद में विस्तारित करते हुए इसमें अब तक 14 जिलों के 76 प्रखंडों2 के 51,528 से अधिक किसानों को शामिल कर लिया गया है। जिलों के अंतर्गत आने वाले ब्लॉक सिविल सोसाइटी ऑर्गेनाइजेशन (सीएसओ) को सौंपे जाते हैं, जो कार्यक्रम की सहयोगकारी एजेंसियां हैं। सरकार सीएसओ और समुदाय-आधारित संगठनों (सीबीओ) के साथ तकनीकी पहलुओं और कार्यक्रम कार्यान्वयन पर बाहरी एजेंसियों से भी सलाह लेती है। यह उल्लेखनीय है कि सरकार और सिविल सोसायटी की साझेदारी विश्वास की कमी से प्रभावित है।

इस नोट में, हमने ओएमएम अपनाने और वितरण में अंतिम रूप से शामिल विभिन्न हितधारक समूहों के अनुभवों का परीक्षण किया है। हमारे फील्डवर्क में आदिवासी जिले कोरापुट3 के चार ब्लॉकों में कार्यक्रम को लागू कराने वाले तीन सीएसओ के कर्मचारियों के साथ महत्वपूर्ण जानकारी वाले साक्षात्कार शामिल हैं। हमने 100 से अधिक किसानों को शामिल करते हुए कृषि समुदाय के साथ आठ विषय-केन्द्रित समूह चर्चाएँ भी कीं। प्रशासनिक चुनौतियों और प्राथमिकताओं को समझने के लिए राज्य स्तर पर कार्यक्रम की देखरेख करने वाले दो तकनीकी कर्मियों के साथ गहन साक्षात्कार भी किए गए।

बाजरे की उन्नत उपज, अधिक खपत की ओर  

पिछले कुछ दशकों में मुख्य रूप से चावल और गेहूं पर संस्थागतीय केंद्रिकरण के कारण, अन्य खाद्यान्न फसलों जैसे बाजरे की फसल में कम नवीनीकरण हुआ है। किसानों को ‘छिटका बुवाई’4 से हटने के लिए प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से यह कार्यक्रम बाजरा किसानों को प्रणालीगत बाजरा (एसएमआई), कतार बुवाई (एलएस), और कतार प्रत्यारोपण(एलटीटी) 5 की बेहतर विधियों का पालन करने के लिए प्रशिक्षित करता है। जो किसान उपज के बेहतर तरीके अपनाते हैं, सत्यापन के बाद उन्हें सीधे अपने बैंक खातों में नकद हस्तांतरित किया जाता हैं। यह कार्यक्रम किसानों को बेहतर फसल प्रबंधन तरीकों जैसे कि निराई, रोलिंग, फसल-कटाई और बगैर-कीटनाशक कीट प्रबंधन (एनपीएम) को अपनाने के लिए भी सहयोग देता है। यह पारंपरिक कृषि विस्तार मॉडल के माध्यम से किया जाता है, जिसमें सीएसओ तथा सीबीओ जैसे किसान उत्पादक समूहों और महिलाओं के सामूहिक सहयोग से फील्ड प्रदर्शन और प्रशिक्षण कार्यक्रमों का आयोजन करके किया जाता है। किसानों के साथ हमारे विचार-विमर्श में एक समान सहमति थी कि उत्पादन की अनुशंसित विधियों के अपनाने और एलएस/एलटी उत्पादन प्रणालियों को अपनाने से उपज पहले से दोगुना, और यदि किसान एसएमआई अन्य रिकोर्ड किए गए समान अनुभव का अभ्यास करे, तो उससे भी अधिक हो जाता है (अधिकारी 2014)। 

जिन किसानों ने एसएमआई को अपनाया, उन्होंने रागी (फिंगर बाजरा) के लिए लगभग 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की पैदावार दर्ज की – जो इस क्षेत्र में औसत चावल पैदावार, 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर क्षेत्र6 से काफी अधिक रही। इसका एक अतिरिक्त लाभ यह हुआ कि खेतों में काम करने वाली महिलाओं द्वारा किए जाने वाले कठिन शारीरिक श्रम में उल्लेखनीय कमी आई। इन फायदों के बावजूद, इसे व्यापक रूप से अपनाना कुछ हद तक एक चुनौती जैसा ही है। सशर्त नकद हस्तांतरण घटक पूरी तरह से कार्यात्मक नहीं है और प्रायः जिलों की धीमी कृषि प्रौद्योगिकी प्रबंधन एजेंसी (ATMA)7 के कारण नगद हस्तांतरण में देरी और बढ़ जाती है। अधिकांश लाभार्थियों ने नगद हस्तांतरण न मिलने अथवा इसके मिलने में लगभग पूरे एक कृषि-काल की देरी रिपोर्ट की है। 2019-2020 के लिए, 51,000 से अधिक किसानों को डीबीटी का लाभ प्राप्त हुआ, जबकि सरकार का अनुमान है कि कौशल संवर्धन के माध्यम से व्यापक रूप से 50,000 अतिरिक्त किसानों को भी लाभ मिलेगा।

बाजरा मौसम भी धान के मौसम के साथ मेल खाता है और इसलिए, किसानों को अपने समय और संसाधनों (भूमि सहित) को दो फसलों के बीच विभाजित करने की आवश्यकता होती है। आम तौर पर जून-अगस्त के दौरान किसान को नर्सरी स्थापित करनी होती है और बाजरे की रोपाई को पूरा करना होता है, लेकिन साथ ही साथ उन्हें धान की रोपाई का काम करने की भी आवश्यकता होती है। हालंकि बाजरा बिना किसी बेहतर फसल विधियों के बावजूद भी स्व-उपभोग के लिए उचित उत्पादन कर सकता है, धान की फसल में अधिक सावधानीपूर्वक बीजारोपण और मिट्टी की तैयारी की आवश्यकता होती है। समुदाय ने इसे एक महत्वपूर्ण बाधा के रूप में पहचाना है, क्योंकि क्षेत्र के लगभग सभी किसान छोटे और सीमांत हैं, जो शायद ही कभी श्रमिकों को काम पर रखते हैं। यदि नगद हस्तांतरण समय पर किया जाये, तो इससे विशेषकर नए किसानों को अधिक सक्रिय रूप से बाज़रे की खेती करने की तरफ एक अतिरिक्त बल मिल सकता है। हालांकि, कार्यक्रम को शुरुआती दौर में अपनाने वालों के लिए प्रोत्साहन प्राप्त करने का खराब अनुभव अन्य किसानों के लिए हतोत्साही सिद्ध हो सकता है। 

यद्यपि समाज में बाजरे को गरीब आदमी के अनाज के रूप में देखा जाता रहा है, वे यह कहते हैं  कि वे अपने यहाँ आने वाले अतिथियों को चावल ही परोसेंगे। लक्ष्मीपुर के एक 60 वर्षीय किसान ने चुटकी लेते हुए कहा कि – “मांड्या (बाजरा) तो हम गरीब खाते हैं, आप शहर के लोग ये सब क्यू खाएँगे।” ओएमएम के कारण बाजरा उत्पादन में वृद्धि के बावजूद, यह प्रतीत होता है कि खपत बढ़ाने के लिए अधिक ठोस प्रयास की आवश्यकता होगी। हालांकि अब राज्य की सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) में बाजरे को शामिल किया जा रहा है। अन्य खाद्यान्नों के बीच बाजरे के 'सामाजिक स्तर' को बदलने की जरूरत है, विशेष रूप से युवा पीढ़ी के बीच। ग्रामीण क्षेत्रों में नवोन्मेषी प्रचार अभियान के माध्यम से इसे बड़े पैमाने पर ग्रामीण समुदायों में प्रसारित किया जा सकता है। सीबीओ द्वारा अपने संबंधित क्षेत्रों में कई विज्ञापन संबंधी जनसंपर्क कार्यक्रम आयोजित किए जाने के बावजूद भी वर्तमान में इसकी पहुँच सीमित है।

अधिशेष उपज की बिक्री

ओएमएम के तहत अधिशेष उपज की खरीद औपचारिक रूप से बाजरा मंडियों (कृषि बाजारों) के माध्यम से की जाती है जो वर्तमान में किसानों से केवल रागी ही खरीदती हैं । ये मंडियां आदिवासी विकास सहकारी निगम (टीडीसीसी),  वृहत क्षेत्र बहुउद्देश्यीय सोसायटी (एलएएमपीएस), ओडिशा राज्य कृषि विपणन बोर्ड के साथ-साथ राज्य कृषि विभाग के बीच सीबीओ जैसी सहयोगकारी एजेंसियों के सहयोग से संचालित की जाती हैं। प्रत्येक किसान को एक मंडी कार्ड प्रदान किया जाता है जिसमें होल्डिंग के आकार सहित उनकी भूमि के स्वामित्व का विवरण शामिल होता है। अन्य प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं के बीच, इसका उपयोग प्रत्येक किसान से खरीदी गई मात्रा, प्रति एकड़ जिसकी सीमा केवल 1.2  क्विंटल होती है, के नियमन हेतु किया जाता है, । उपज की खरीद फसल संबंधी विभिन्न मानदंडों पर आधारित है: बाजरा पूरी तरह से भूसी मुक्त होना चाहिए, इसमें नमी की मात्रा 12% से कम होनी चाहिए इत्यादि। विडंबना यह है कि हमारे फील्डवर्क के समय किसी भी ब्लॉक में कोई प्रसंस्करण केंद्र नहीं था जहां किसान अपनी उपज को खरीद के लिए तैयार कर सकते हैं। इसके अलावा ब्लॉक के अंदर सरकार द्वारा संचालित कुछ मंडियां हैं, जिनका कार्यक्षेत्र सीमित है। इन सीमाओं को देखते हुए, बिचौलिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाना जारी रखते हैं।

हालांकि, मंडियों की स्थापना से पूर्व, बिचौलियों द्वारा बाजरा के लिए पेशकश की गई कीमतें प्रति किलोग्राम 12 से 15 रुपये के बीच थीं। 2019-20 में मंडियों द्वारा बाजरे का भाव 31 रुपये प्रति किलो तय किया गया, जिसके कारण बिचौलियों को भी अपनी कीमत बढ़ानी पड़ी और यह 20-25 रुपये के बीच हो गया। इसकी तुलना में पिछले सीजन में धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य रु.18  प्रति किलो था। अल्पावधि में, सरकार के लिए यह जरूरी है कि वह अधिक से अधिक खरीद करे, अन्यथा बिचौलियों पर मूल्य-निर्भरता के चलते मूल्य और भी नीचे आ जाएंगे ।  

इस प्रकार, पोषण संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के अलावा, बाजरा किसान के आय में भी सुधार कर सकता है। हालांकि, किसानों को अधिशेष बेचने में जो बाधाएं आती हैं, वे उनकी चावल पर मुख्य वाणिज्यिक खाद्यान्न के रूप में निरंतर निर्भरता का कारण बनती हैं। लंबे समय में, जैसे-जैसे सुधार प्रक्रियाओं को अपनाने का प्रसार होता जाएगा, यह संभावना है कि गांवों के भीतर बाजरा का उत्पादन और आगे बढ़ेगा। उच्च उत्पादन के साथ किसानों को अधिशेष बेचने के लिए अन्य वैकल्पिक उपायों का होना अनिवार्य होगा। सिद्धांत रूप में, इसे ओएमएम8 के तहत परिकल्पित उद्यमों और निर्माता कंपनियों की स्थापना के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। हालाँकि, ओएमएम के पिछले तीन साल से संचालन होने के बाद भी इन तीन मोर्चों पर अब तक सीमित प्रगति ही हुई है। 

निष्कर्ष

भारत के संवेदनशील और सीमांत समुदायों के सामने कृषि और पोषण संबंधी संकट एक गंभीर खतरा बन गया है। एक खाद्य फसल के रूप में बाजरा कमज़ोर आबादी के बीच कुपोषण की गंभीर समस्या का समाधान करने की क्षमता रखता है, और ओएमएम 'बाजरा क्रांति' लाने के लिए की दिशा में एक अच्छा और सुसंगत प्रयास है। कार्यक्रम के शुरू होने के तीन वर्षों में ही बाजरे के उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। 

हालांकि, नौकरशाही की खामियाँ मौजूद हैं, और बाहरी एजेंसियों व समुदाय की अंतिम मील वितरण में भागीदारी भी इन सीमाओं को दरकिनार करने के लिए पर्याप्त नहीं है। ब्लॉक और जिला स्तर पर सरकारी एजेंसियों और नौकरशाहों की क्षमता, उनका प्रक्रियात्मक धीमापन और धन निकासी इस कार्यक्रम की प्रगति और गुणवत्ता में एक बुनियादी कारक बनी हुई है। इसके अलावा, बाजरा की खपत बढ़ाने हेतु घरेलू मांग उत्पन्न करने के लिए एक अधिक ठोस दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जो कि लंबे समय में उत्पादन को बढ़ावा देगा। किसानों को अधिशेष उपज बेचने में आने वाली समस्याएँ, बाजरे को वाणिज्यिक फसल और चावल के विकल्प के रूप में देखने में एक महत्वपूर्ण बाधक हैं। मूल्यवर्धन उद्यम न केवल ओएमएम के अधिक महत्वाकांक्षी घटकों में से एक है, बल्कि किसान आय में वृद्धि सुनिश्चित करने वालों में से भी एक है। सहयोगकारी एजेंसियों पर कार्यक्रम की भारी निर्भरता को देखते हुए, सीबीओ के क्षमता-निर्माण को अधिक प्राथमिकता दी जानी चाहिए क्योंकि आने वाले वर्षों में इनके द्वारा पूर्ण रूप से कार्यभार संभालने की उम्मीद है। केंद्र सरकार ने 2018 को ‘राष्ट्रीय बाजरा वर्ष ’के रूप में घोषित किया था और ओएमएम से मिलने वाले अनुभव बाजरे के लिए देशव्यापी उत्साहवर्धन की आधारशिला तैयार कर सकते है।

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टिप्पणियाँ:

  1. लक्षित जिलों में कोरापुट, मलकानगिरी, रायगडा, गजपति, कंधमाल, कालाहांडी और नुआपाड़ा थे।
  2. ब्लॉक जिला स्तर पर एक प्रशासनिक उप-खंड है।
  3. जिन चार ब्लॉकों को हमने कवर किया वे थे लमटापुट, बोरिगम्मा, बोईपदीगुडा और लक्ष्मीपुर।
  4. ब्रॉडकास्टिंग–बीजारोपन की एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें हाथ अथवा यंत्र से बड़े क्षेत्र में बीज को बिखेरा जाता है। 
  5. एसएमआई, बाजरा पर प्रणालीगत चावल की गहनता (SRI) के सिद्धांतों का अनुप्रयोग है, जिसमें नए अंकुरों को एक विशिष्ट वर्गाकार पैटर्न में लगाया जाता है । इसमें पौध के वृद्धि अवधि में मिट्टी का एक निश्चित स्तर बनाए रखना शामिल है। कतार बुवाई एक लाइन के रूप में सीधे मैदान पर बीज बोने और सटीक रिक्ति बनाए रखने की एक विधि है। कतार ट्रांसप्लांटिंग में नर्सरी में उठाए गए एक युवा पौधे को विशिष्ट स्पेसिंग के साथ लाइनों के रूप में प्रत्यारोपण करना शामिल है।
  6. संख्या कृषि और स्थलाकृतिक कारकों के आधार पर अलग-अलग क्षेत्रों में भिन्न होती है। कोरापुट में राज्य भर में सबसे अधिक बाजरा की पैदावार है। समग्र आंकड़े के कम होने की संभावना है।
  7. एटीएमए एक स्वायत्त निकाय है जो किसानों को कृषि संबंधी विस्तार सेवाएं देने के लिए उत्तरदायी है और सभी कृषि और संबद्ध विभागों के लिए एक विस्तार शाखा है।
  8. इस कार्यक्रम का उद्देश्य प्रति ब्लॉक एक एफपीओ बनाने का है, ताकि लंबे समय तक किसानों की सौदेबाजी की शक्ति सुनिश्चित की जा सके और साथ ही सेवाओं तक उनके पहुंचने की क्षमता में भी सुधार हो सके। कार्यक्रम में मूल्य संवर्धन के लिए प्रत्येक ग्राम पंचायत में कम से कम एक प्रसंस्करण इकाई रखने का विचार है, जिसमें डी-ह्यूलर, डी-स्टोनर और पुलवेइज़र शामिल हो।

लेखक परिचय: शुभदीप बासु भारत ग्रामीण आजीविका फाउंडेशन (बीआरएलएफ) में एक शोध कार्यकारी हैं। अर्घदीप साहा बीआरएलएफ में एक वरिष्ठ शोध कार्यकारी हैं। सायंतिनी सतपति बीआरएलएफ में एक शोध और संस्थागत भागीदारी अधिकारी हैं|

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