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कोविड-19 का केरल प्रबंधन: प्रमुख सीख

  • Blog Post Date 27 मई, 2020
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केरल वह पहला भारतीय राज्य था जहां एक समय कोविड-19 के सबसे अधिक मामले थे, लेकिन आज वहाँ संक्रमण वक्र सपाट हो गया है और आरोग्य प्राप्ति दर यहाँ भारत में सर्वाधिक है। इस पोस्‍ट में, एस.एम. विजयानंद, केरल सरकार के मुख्य सचिव (सेवानिवृत्त), राज्य में कोविड-19 संकट के प्रबंधन के लिए केरल के अनुभव का विश्लेषण करते हैं और उन महत्वपूर्ण उपायों पर प्रकाश डालते हैं जो अन्य राज्य केरल से सीखे सकते हैं। 

 

भारत में कोविड-19 से प्रभावित होने वाला पहला राज्य केरल था। मार्च की शुरुआत तक यहाँ मामले बढ़ते रहें और जल्द हीं यहाँ भारत में सक्रिय मामलों की संख्या सर्वाधिक हो गई। फिर धीरे-धीरे कोविड से निपटने की केरल की रणनीति ने अपना प्रभाव दिखाना शुरू किया और आज की तारीख में परिणाम भले पर्याप्त नहीं हों परंतु काफी उत्साहजनक अवश्य हैं। आज तक, देश में यहाँ ठीक होने की दर उच्चतम, मृत्यु दर सबसे कम और वाइरस फैलने का वृद्धि दर सबसे धीमा है। चिकित्सा व्‍यवसाय से जुड़े लोग, सामाजिक कार्यकर्ता, शिक्षाविदों और बड़े पैमाने पर लोगों ने इसकी सराहना की है। इसलिए केरल के अनुभव का विश्लेषण करना उपयोगी होगा।

केरल ने क्या किया? अनोखी योजना और क्रियान्‍वयन

प्रथम मामले का पता चलने से पहले ही केरल ने गंभीर कोविड हमले के खिलाफ तैयारी के लिए अग्रिम कार्रवाई करनी शुरू थी। निपा हमला, जोकि सौभाग्‍य से भौगोलिक रूप से सीमित क्षेत्र में ही हुआ था, तथा जिससे मुकाबला करना संभव हो गया था, से सबक लेते हुए स्वास्थ्य विभाग ने इस बार शीघ्रता से एवं मिलजुल कर अपना काम आरंभ किया और ऊपर से नीचे तक के अधिकारियों को सतर्क कर दिया। जैसे ही पहले मामले का पता चला, विस्तृत संपर्क अनुरेखण किया गया और उसे नक्शे का रूप दिया गया। थोड़े ही समय में, स्वास्थ्य विभाग ने संपर्क अनुरेखण में कुशलता प्राप्‍त कर ली, जो अक्सर विभिन्न एजेंसियों और व्यक्तियों के साथ साझेदारी से संभव होती है। एक बार जब मामले बढ़ने लगे तो संपर्क अनुरेखण की तीव्रता को भी कार्य में सीखते रहने की प्रक्रिया के माध्यम से बढ़ाना संभव हो गया।  इस अग्रिम तैयारी ने राज्य की प्रभावी प्रतिक्रिया की नींव रखी।

अच्छे कार्य निष्‍पादन का एक और क्षेत्र निगरानी तंत्र रहा है। फरवरी की शुरुआत से, चार हवाई अड्डों पर स्वास्थ्य कर्मचारी तैनात किए गए थे ताकि विदेश से आने वाले मरीजों की जांच की जा सके। इस  प्रक्रिया को सुव्यवस्थित रूप से विस्तृत और सक्रिय बनाया गया। इस आधार पर स्वास्थ्य विभाग की अगुवाई वाले निगरानी तंत्र में समुदाय-आधारित विशेषता के साथ स्थानीय सरकारों के निर्वाचित प्रतिनिधियों, विशेष रूप से ग्राम पंचायतों के निर्वाचित प्रतिनिधियों, स्व-सहायता समूह (एसएचजी) प्रणाली (जिसे केरल में 'कुडुम्बश्री' कहा जाता है) के सदस्यों, एवं स्‍वयं नागरिकों को शामिल किया गया। चूंकि केरल एक पर्यटन राज्य है और यहां के कई लोग देश के बाहर काम करते हैं (लगभग 25 लाख), इसलिए इसे दोगुना सावधान रहना पड़ा। चूंकि केरल की दूर दराज पहाड़ियों में पर्यटकों के रिसोर्ट हैं और केरल के गैर-निवासी लोग काफी छितरे हुए रहते हैं अत: इसे देखते हुए यहां के अंदरूनी ग्रामीण क्षेत्रों सहित पूरे राज्य पर भी ध्यान दिया जाना था। पुलिस विभाग इस प्रक्रिया में सक्रिय रूप से शामिल हो गयी। इस पूरी प्रक्रिया में समन्वय का जो स्तर देखा गया वह सरकारी तंत्र में हासिल करना बहुत मुश्किल है और वह भी वास्तविक व्यक्तिगत जोखिम के सामने होते हुए।

शुरू से ही, राज्य ने चरम परिदृश्य की आशंका को ध्‍यान में रखते हुए गतिशील योजना का सहारा लिया। निजी अस्पतालों का सहयोग मांगा गया और उन्‍होंने यह सहयोग प्रदान किया। लोगों को संगरोध (क्‍वारंटीन) करने हेतु सार्वजनिक और निजी अस्पतालों सहित खाली पड़े हुए बड़े-बड़े स्‍थानों और अंतिम उपाय के रूप में, केरल में अनेक खाली पड़े घरों को भी चिन्हित किया गया। अब राज्य ने अस्पताल में लगभग 100,000 बेड की पहचान कर ली है, जिसे आपातकाल में 200,000 तक बढ़ाया जा सकता है। मार्च के पहले पखवाड़े में, मास्‍क और हाथ के सैनिटाइज़र, जो बाजार से गायब हो गए थे या बहुत महंगे हो गए थे उनका स्‍थानीय रूप से, विशेष रूप से कुडुम्बश्री टीमों द्वारा उत्पादन किया गया। उसी समय टीके विकसित करने, परीक्षण प्रणालियों तथा सुविधाओं को बेहतर बनाने हेतु स्थानीय आरएंडडी (अनुसंधान और विकास) प्रयास आरंभ कर दिए गए और यहां तक ​​कि प्लाज्मा थेरेपी जैसे उन्नत तकनीकी प्रयास भी शुरू कर दिए गए थे।

यह विशेष रूप से ध्यान दिया जाना चाहिए कि लगभग 450 प्रभावित लोगों के उपचार का लगभग पूरा बोझ सरकारी स्वास्थ्य तंत्र पर पड़ा। विश्लेषणों में अक्सर उपचार की उस सफलता का जिक्र नहीं हो पाता है जिसमें एक 93 वर्षीय व्यक्ति और 80 वर्ष से अधिक आयु के दो व्यक्ति उपचार के बाद ठीक और स्वस्थ हो जाते हैं। यह एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें कोविड-19 के बाद एक पेशेवर अध्ययन किया जाना चाहिए। केरल के अलाप्पुला (ऐलेप्पी) में स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी परीक्षण की एक मात्र सुविधा थी, परंतु मामलों की संख्या में वृद्धि के साथ, एक महीने की छोटी अवधि में हीं इनकी संख्‍या को बढ़ा कर 14 कर दिया गया। यह अत्‍यंत कम समय में पूर्ण रूप से सुसज्जित कोविड वार्ड और अस्पताल भी स्थापित कर सकता है।

प्रसार का प्रबंधन

केरल कोविड-19 समस्या से निपटने के लिए एक अलग कानून बनाने वाला पहला राज्‍य था। राज्य ने प्रसार को कम करने के लिए लॉकडाउन का भी सहारा लिया। जनता तक पहुंचने वाले निर्देश नियमित रूप से जारी किए गए और इसे यथासंभव मानवोचित बनाने के लिए पुलिस को संवेदनशील किया गया था।

सामाजिक सुरक्षा

मार्च की शुरुआत में ही, राज्य 20,000 करोड़ रुपये का राहत पैकेज लेकर आया। गरीबों के हाथों में नकदी देने के लिए, सामाजिक सुरक्षा पेंशन वितरित की गई, कल्याण कोष से सहायता जारी की गई और एसएचजी के सदस्यों को ब्याज मुक्त ऋण प्रदान किए गए। सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) को सक्रिय किया गया और हर कार्ड धारक को मुफ्त चावल प्रदान किया गया, भले ही वह कोई भी कार्ड धारक हो। इसके अलावा, पीडीएस आउटलेट के माध्यम से आवश्यक मसालों वाले किट भी प्रदान किए जा रहे हैं।

आंगनवाडिय़ों (चाइल्डकेयर सेंटर्स) के लाभार्थियों के लिए उनके हिस्‍से का भोजन सप्ताह में एक बार उनके घर तक पहुंचाया जाता है, जिनमें किशोर लड़कियां, गर्भवती महिलाएं, स्तनपान कराने वाली माताएं, तीन साल तक के शिशु और तीन से पांच साल तक के बच्‍चे शामिल हैं।

चूंकि केरल में बड़ी संख्या में लगभग 25 लाख प्रवासी हैं, इसलिए उन्हें उनकी पसंद के अनुसार पकाया हुआ भोजन या खाद्य सामग्री प्रदान करने के लिए विशेष व्यवस्था की गई। इस तरह के लगभग 20,000 शिविर काम कर रहे हैं जो देश के अन्य किसी भी राज्य से बड़ी संख्या है। इसके अलावा, जो शिविर काफी संकरे हैं उनकी स्वच्छता सुनिश्चित करने और स्वास्थ्य संबंधी दुर्घटनाओं से बचने के लिए लगातार निगरानी की जाती है।

कुडुम्बश्री के सदस्यों के सहयोग से स्थानीय सरकारों द्वारा सभी लोगों को मुफ्त पका हुआ भोजन उपलब्ध कराया जा रहा है। इसके अलावा, बुजुर्गों के लिए हेल्प लाइन उपलब्ध हैं जो स्वयंसेवकों के माध्यम से अपनी दवा या खाद्य सामग्री प्राप्‍त कर सकते हैं। इस प्रकार, 'कोई भी वंचित न रह जाए' की नीति क्रियान्वित की गई है।

केरल ने यह कैसे किया

केरल ने स्थानीय सरकारों, विशेषकर ग्राम पंचायतों, नगरपालिकाओं और नगर निगमों के नेतृत्व में समुदाय आधारित दृष्टिकोण अपनाया। स्थानीय सरकारों ने कुडुम्बश्री का समर्थन जुटाया। इसके अलावा, वर्तमान में 3,30,000 से अधिक स्वयंसेवकों को पंजीकृत किया गया है। निर्वाचित वार्ड सदस्य के नेतृत्व में, आउटरीच एवं प्रतिक्रिया के लिए दस्तों का गठन किया गया। इसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव बहुत सकारात्मक रहा है। लोगों ने महसूस किया कि मदद उनके बिल्‍कुल नजदीक है और उन्‍हें आश्वासन दिया गया है कि मदद के लिए प्रत्‍येक आवाज सुनी जाएगी और उस पर कार्रवाई की जाएगी। इससे चिंता को कम करने में काफी हद तक सफलता मिली है, विशेष रूप से उन लोगों के लिए जो अपने घरों में सीमित हैं और क्‍वारंटीन किए गए हैं। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों से लेकर मेडिकल कॉलेजों तक सभी स्तरों के सरकारी अस्पतालों को स्पष्ट जिम्मेदारियां दी गईं। आशा (मान्यता प्राप्त सामाजिक स्‍वास्‍थ्‍य कार्यकर्ता) कार्यकर्ताओं सहित फील्ड-स्तरीय कर्मचारियों ने स्पष्ट प्रोटोकॉल और नियमित निर्देशों के साथ टीमों के रूप में कार्य किया है।

निर्वाचित प्रतिनिधियों और कुडुम्बश्री सदस्यों के लिए, सरल मैनुअल और इलेक्ट्रॉनिक कक्षाओं के माध्यम से क्षमता निर्माण सुनिश्चित किया गया था। मध्यम स्तर पर समन्वय मुख्य रूप से जिला कलेक्टरों द्वारा जिला चिकित्सा अधिकारियों और पुलिस के जिला-स्तर के प्रमुखों के साथ मिलकर किया गया है। इन टीमों ने सरकार और क्षेत्र में कार्यरत लोगों के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी की भूमिका निभाई और समस्या निवारण का कार्य किया।

शीर्ष स्तर पर, एक वार-रूम स्‍थापित किया गया जिसमें महत्‍वपूर्ण अधिकारी कार्य करते हैं। मार्च महीने के मध्य से खुद मुख्यमंत्री ने इसका नेतृत्व किया। सरकार की सबसे दृष्टिगत और सराहनीय पहल यह रही कि मुख्‍यमंत्री स्‍वयं प्रतिदिन लोगों के साथ संवाद करते हैं और उसके बाद एक प्रेस कॉन्फ्रेंस करते हैं। यह संवाद तथ्यों पर केंद्रित होता है, इसमें कुछ भी छुपाया नहीं जाता है, सभी समस्याओं को बताया जाता है, खतरनाक स्थिति पर विशेष जोर दिया जाता है, और विशिष्ट आश्वासनों के साथ लोगों को दिलासा दिया जाता है। दिन भर में उत्पन्न होने वाले प्रत्येक प्रमुख मुद्दे को इन संचारों में उजागर किया जाता है, साथ ही इनमें सरकार द्वारा किए गए या किए जाने वाले उपायों की जानकारी भी दी जाती है। अच्छे कार्यों की प्रशंसा की जाती है और बुरे व्यवहार की हल्की निंदा भी की जाती है। इसने जमीनी स्‍तर पर की गई पहल के साथ बेहतरीन पूरक का कार्य किया है।  

केरल यह कैसे कर पाया? केरल का विकास मॉडल

केरल में सार्वजनिक कार्यों का एक लंबा इतिहास रहा है जो अविश्वसनीय जातिवादी युग के दौरान भी दृष्टिगोचर था और इसी के कारण स्वामी विवेकानंद ने केरल को "पागलों के शरणस्‍थल" के रूप में वर्णित किया था। 19वीं शताब्दी के मध्य से, राजशाही के दिनों में भी, स्वास्थ्य और शिक्षा को प्रधानता दी गई थी। विशेष रूप से 20वीं शताब्दी के शुरुआत में सामाजिक सुधार आंदोलनों ने पिछड़े वर्गों और दलितों को इन सरकारी पहलों से लाभान्वित करने में सक्षम बनाया। यह ध्यान रखना दिलचस्प है कि देश में सबसे आक्रामक जाति व्यवस्था से लड़ते हुए; सभी सामाजिक सुधार आंदोलनों ने मानव विकास, अर्थात् स्वास्थ्य एवं शिक्षा के माध्यम से मुक्ति की मांग की।

राज्य की प्रकृति भी काफी भिन्न थी। यह स्वतंत्रता से पहले के भारत में भी सबसे कम दमनकारी था और अक्सर जनता की मांगों को एक समायोजित स्‍वरूप में पूरा करने की कोशिश करता था।

स्वतंत्रता के बाद, और 1956 में केरल राज्य के गठन के बाद, सरकारें सामाजिक और विकासात्‍मक रूप से प्रगतिशील हुईं। भूमि सुधार, और प्रभावी सार्वजनिक वितरण प्रणाली (एक ऐसे राज्य में महत्वपूर्ण जो अपनी खाद्य आवश्यकताओं के लगभग एक तिहाई का उत्पादन करता है) को आक्रामक रूप से लागू किया गया। एक व्यापक सामाजिक-सुरक्षा नेटवर्क विकसित किया गया जो अब 47.4 लाख लोगों तक पहुंच रहा है। इसी समय, मानव विकास पर और भी अधिक बल दिया गया है, जबकि अंतर-राज्य क्षेत्रीय और सामाजिक असमानताओं को कम करने के लिए जागरूक और सफल प्रयास किए गए। इन सभी को 'केरल के विकास मॉडल' के रूप में जाना जाता है।

1970 के दशक में, केरल ने विकास के विभिन्न क्षेत्रों में उत्कृष्ट संस्थानों के निर्माण के साथ नवाचार किए, जिनमें से अधिकांश ने राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्‍तर पर ख्‍याति प्राप्‍त की, इनमें से सर्वश्रेष्‍ठ ज्ञात केंद्र सेंटर फॉर डेव्लपमेंट स्टडीस है। इस तरह के दो अन्य संस्थान हैं श्री चित्रा तिरुनल इंस्टीट्यूट फॉर मेडिकल साइंसेज एंड टेक्नोलॉजी, त्रिवेंद्रम और राजीव गांधी सेंटर फॉर बायोटेक्नोलॉजी, त्रिवेंद्रम (1990 के दशक में स्थापित)। इन्‍होंने कोविड-19 से निपटने के लिए स्‍वयं ही उच्च गुणवत्ता वाले शीघ्र अनुसंधान कार्य करना आरंभ कर दिया है।

केरल के विकास की एक महत्‍वपूर्ण पहचान साक्षरता आंदोलन था, जिसके अंतर्गत 1990 के दशक की शुरुआत में रचनात्मक और स्वैच्छिक जन सेवा के साथ सार्वजनिक कार्रवाई का एक नया आयाम देखा गया था। इस जमीनी स्तर की पहल से उत्पन्न गति की पराकाष्‍ठा स्‍वरूप 1990 के दशक के मध्य में ‘बिग बैंग’ विकेन्द्रीकरण हुआ और अब प्रसिद्ध 'जन योजना' का आरंभ हुआ। स्थानीय विकास के लिए सत्ता और अधिकार स्थानीय सरकारों को हस्तांतरित कर दिए गए, जिन्हें लगभग एक-तिहाई योजना निधि प्राप्त हुई, जिसमें से एक-चौथाई को व्यावहारिक रूप से स्थानीय जरूरतों के अनुसार स्थानीय स्तर पर निर्णय लेने की स्वतंत्रता के साथ खुले प्रकार से दिया गया था।

विकेंद्रीकरण के अंतर्गत, मानव विकास के सार्वजनिक संस्थानों, अर्थात्, आंगनवाड़ियों, माध्यमिक स्तर तक के स्कूलों तथा अस्पतालों को स्थानीय सरकारों के नियंत्रण में लाया गया। इसी समय के आसपास, कुडुम्बश्री आंदोलन शुरू किया गया था। जब एसएचजी ने बाकी देश में बचत, क्रेडिट और आजीविका पर ध्यान केंद्रित किया, तब केरल ने इसकी पारंपरिक भूमिकाओं के अलावा इसके माध्‍यम से सभी प्रकार के पिछड़े लोगों के सशक्तिकरण और विकास पर जोर दिया। इसे लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण के अगले कदम के रूप में देखा गया, जिससे विशेषत: समाज के सबसे गरीब वर्गों के बीच सामाजिक पूंजी का निर्माण हुआ। यह कुडुम्बश्री नेटवर्क की अद्वितीय ताकत को स्पष्ट करता है।

शुरू से ही एक जागरूक नीतिगत निर्णय लिया गया था कि एसएसजी और स्थानीय सरकारें, दो स्वायत्त संस्थाओं के बीच एक समान संबंध के तहत काम करेंगे, इनमें से एक संस्‍था सामाजिक लोकतंत्र का प्रतिनिधित्व करती है और दूसरी संस्‍था राजनीतिक लोकतंत्र का। एक मायने में, इसने अंबेडकर के सामाजिक और राजनीतिक लोकतंत्र की अविभाज्यता के विचार को काफी हद तक समझने में मदद की।

स्थानीय सरकारों द्वारा समुदाय-आधारित महिला संगठनों के साथ मिलकर काम करते हुए कई विकासात्मक प्रयोग शुरू किए गए हैं। उदाहरण के लिए, स्थानीय सरकारों को दिए गए धन का 10% लिंग आधारित योजनाओं पर खर्च किया जाना चाहिए, और बुजुर्गों, बच्चों एवं दिव्‍यांगो जैसे समूहों के लिए अन्य 10% राशि खर्च की जानी चाहिए। इसने केरल मॉडल के नए चरण की शुरुआत की जिसके अंतर्गत देखभाल और करुणा पर ध्यान केंद्रित करते हुए राज्‍य को 21वीं सदी में देखभाल करने वाले ऐसे राज्यों की श्रेणी में ला कर खड़ा कर दिया जहां केरल गर्व से दावा कर सकता है कि वह एक कल्‍याणकारी राज्‍य है। केरल को देखभाल करने वाले राज्‍य के रूप में मानने का सबसे अच्छा और सबसे सफल उदाहरण वह उपशामक देखभाल आंदोलन है जो वोटों और धन पर आधारित सामान्‍य राजनीतिक गणनाओं से ऊपर उठ कर स्थानीय सरकारों के नेतृत्‍व में चलाया जाता है और जिसके अंतर्गत पेशेवरों और नागरिक समाज का सामूहिक अनुग्रह और करुणा के साथ पोषण किया जाता है। पिछले 12 वर्षों में विकसित इस मॉडल ने अंतरराष्ट्रीय पहचान हासिल की है।

हालाँकि स्थानीय सरकारों ने शुरुआती दौर में बुनियादी ढांचों पर ज्यादा ध्यान दिया और सार्वजनिक सेवा वितरण संस्थानों को चलाने में कई गलतियाँ कीं, लेकिन पिछले 10 से 15 वर्षों में स्थितियां काफी बदल गई हैं। यह अनुमान लगाया गया है कि पिछले पांच वर्षों में 5,00,000 से अधिक छात्र सरकारी स्कूलों में लौट आए हैं जो इनके पक्ष में एक तरह का सकारात्मक ‘मत जाहिर करना’ है। हाल ही में, प्राथमिक स्वास्थ्य तंत्र ने गैर-संचारी रोगों का मुकाबला करने के लिए प्रभावी आउटरीच के माध्यम से अपनी भूमिका को फिर से हासिल कर लिया है, जो कि केरल के लिए अनिष्‍टकारी हैं और नए संचारी रोग जिनमें कोविड -19 सबसे अधिक डरावना है।

केरल मॉडल की एक महत्वपूर्ण विशेषता प्रवास है। प्राचीन काल से केरल का मध्य पूर्व और दक्षिणी यूरोप के साथ व्‍यापारिक संबंध रहा है, और 20वीं शताब्दी के मध्य से, केरलवासी विभिन्न देशों में प्रवासित हो चुके हैं तथा 1970 के दशक के मध्य से बेहतर नौकरियों की तलाश में गल्फ देशों में जा रहे हैं। यह अनुमान है कि 25 लाख से अधिक केरलवासी देश के बाहर काम करते हैं, और भारत के अन्य हिस्सों से इतने ही प्रवासी केरल में काम करते हैं। प्रवासी जीवन की कठोर परिस्थितियों को अधिकांश केरलवासी भली-भांति जानते हैं, इसलिए इनके मन में यहाँ आने वाले प्रवासियों के प्रति एक उचित सम्मान भी रहता है। बल्कि यहां उन्हें ‘अतिथि मजदूर’ कहा जाता है।

बेशक, यह भी उल्लेख करने की आवश्यकता है कि बहुत सारी चिंताओं पर तत्काल कार्रवाई भी की जानी चाहिए। इनमें विशेष रूप से शराब, मादक द्रव्यों का सेवन, महिलाओं और बच्चों के खिलाफ अपराध आदि शामिल हैं। बल्कि यह शर्मनाक बात है कि आदिवासी और पारंपरिक मछुआरे समाज को बहिष्कृत माना जाता है। इसके अलावा, पारिस्थितिकी संबंधी चिंताओं पर भी ज्‍यादा ध्‍यान नहीं दिया गया है।

निष्कर्ष

कोविड-19 के प्रबंधन के लिए केरल की रणनीति के सभी पहलुओं को भारत के किसी भी राज्य द्वारा आपातकालीन स्थिति में अनुकूलित किया जा सकता है। ऐसी कार्रवाइयों को व्‍यावहारिक और स्थायी बनाने के लिए, देखभाल और कल्याण पर ध्यान देते हुए राज्य के व्‍यवहार को बदलने की आवश्यकता है। राष्ट्रीय स्तर पर आपातकालीन चरण में अपनाई जाने वाली सबसे बड़ी सीख है प्राथमिक स्वास्थ्य प्रणाली को कम समय के भीतर मजबूत करना। इसके लिए निजी हस्तक्षेप या स्वास्थ्य बीमा जैसे बाजार आधारित उत्पादों के अलावा कोई विकल्प नहीं हो सकता है। केरल के अनुभव से एक और महत्वपूर्ण बात यह सीखी जा सकती है कि स्थानीय सरकारों के रूप में संस्थागत मजबूत स्थानीय लोकतंत्र अत्‍यंत महत्वपूर्ण और जिसे एसएचजी के साथ साझेदारी से मजबूती मिलती है। इसे भारत में आसानी से अपनाया जा सकता है क्योंकि यहां 25 करोड़ ग्राम पंचायतें हैं जिनमें 30 लाख से अधिक निर्वाचित प्रतिनिधि हैं और उनमें से 40% से अधिक महिलाएं हैं, और 60 लाख से अधिक महिलाओं के एसएचजी हैं। मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम)1 और केंद्रीय वित्त आयोग अनुदान के माध्यम से धनराशि उपलब्‍ध होती है। यहाँ केवल वह प्रेरणा प्रदान करने की जरूरत है जो केवल राजनीतिक हो सकती है। इसके लिए गंभीर चिंतन और सावधानी की जरूरत है। यह याद रखने योग्य है कि 24 अप्रैल को ग्रामीण और शहरी भारत में स्थानीय स्वशासन की शुरुआत करने के लिए भारतीय संविधान के 73वें और 74वें संशोधन की 27वीं वर्षगांठ के रूप में चिह्नित किया गया है जिसे संसद में सर्वसम्मति से पारित किया गया था और एक वर्ष के भीतर क्रियान्वित करने हेतु राष्ट्रपति की स्वीकृति प्रदान की गई थी।

नोट्स:

  1. मनरेगा ग्रामीण ऐसे परिवार को एक वर्ष में 100 दिन की मजदूरी-रोजगार की गारंटी देता है जिसके वयस्‍क सदस्‍य राज्‍य स्‍तरीय विधान की न्‍यूनतम मजदूरी पर अकुशल मैनुअल कार्य करना चाहते हैं।

लेखक परिचय: एस.एम. विजयानंद केरल सरकार के पूर्व मुख्य सचिव हैं।

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