मानव विकास

पिताओं के प्रवासन से घर में पीछे छूटे बच्चों की शिक्षा में लाभ होता है या उसमें बाधा आती है?

  • Blog Post Date 28 अगस्त, 2025
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Pintu Paul

Indian Social Institute (ISI)

pintupaul383@gmail.com

विभिन्न अध्ययनों ने पुरुषों के प्रवासन के चलते उनके पीछे घरों में रह रही महिलाओं पर पडने वाले प्रभाव का पता लगाया है, लेकिन बच्चों पर इसके प्रभावों के बारे में सीमित प्रमाण उपलब्ध हैं। इस लेख में पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के आँकड़ों का विश्लेषण करते हुए दर्शाया गया है कि जहाँ बेटों के मामले में पिताओं के प्रवासन और बच्चों की स्कूली शिक्षा के बीच का सम्बन्ध सन्दर्भ पर निर्भर करता है, वहीं बेटियों को बढ़ती ज़िम्मेदारियों और सुरक्षा संबंधी चिंताओं के कारण नुकसान उठाना पड़ता है।

भारत में प्रवासन एक महत्वपूर्ण सामाजिक-आर्थिक घटना है, जो गरीबी, बेरोज़गारी, कृषि संकट और बेहतर आजीविका की तलाश जैसे कई कारकों से प्रेरित है (श्रीवास्तव 2012)। भारत में श्रमिकों का प्रवासन, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों की ओर, फैला हुआ है, जिसके अंतर्गत लाखों लोग काम के लिए मौसमी तौर या स्था रूप से प्रवास करते हैं। ऐसा प्रवासन, विशेष रूप से कृषि और अनौपचारिक क्षेत्र के कार्यों में, ग्रामीण क्षेत्रों के बीच भी होता है (स्मिता 2008)। बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, झारखंड और ओडिशा जैसे राज्य गुजरात, महाराष्ट्र, केरल और कर्नाटक जैसे औद्योगिक और आर्थिक रूप से उन्नत राज्यों के लिए सस्ते श्रम के एक बड़े स्रोत के रूप में काम करते हैं (अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन, 2024)। मौसमी तौर पर श्रमिको का श्रमिक प्रवास (जिसे 'संकट प्रवास' भी कहा जाता है), विशेष रूप से निर्माण, ईंट भट्टों और गन्ना कटाई जैसे अनौपचारिक क्षेत्रों में, आर्थिक रूप से कमज़ोर ग्रामीण परिवारों के लिए जीवनयापन की एक रणनीति है (देशिंगकर और स्टार्ट 2003)। ये मौसमी प्रवासी मुख्यतः हाशिए के समुदायों के होते हैं और उनकी शिक्षा का स्तर कम होता है।

जब पुरुष सदस्य मौसमी तौर पर काम के लिए प्रवासन करते हैं, तो इसका उनके पीछे छूटे परिवारों, ख़ासकर महिलाओं और बच्चों पर दूरगामी प्रभाव पड़ सकता है। हालांकि ज़्यादातर अध्ययनों में पुरुषों के प्रवासन के चलते उनके पीछे घरों में रह रही महिलाओं पर पडने वाले प्रभाव का पता लगाया जाता है, गिने-चुने अध्ययनों नें अपना ध्यान बच्चों पर पड़ने वाले प्रभावों पर भी केंद्रित किया है। हालांकि पिता के प्रवासन से परिवारों को धन प्रेषण के माध्यम से आर्थिक लाभ मिल सकता है, लेकिन यह बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य और संज्ञानात्मक विकास पर भी प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है (लू 2014, गुयेन 2016)।

भारतीय सन्दर्भ में, पिताओं के प्रवासन का उनके पीछे छूटे बच्चों की स्कूली शिक्षा पर पड़ने वाले प्रभाव को समझने के लिए केवल कुछ ही अध्ययन किए गए हैं। इसके अलावा, मौजूदा शोध साहित्य में इन दोनों पहलुओं के बीच के सम्बन्ध को स्पष्ट रूप से दर्शाया नहीं गया है। शोध संबंधी इस महत्वपूर्ण अंतराल को कम करने के लिए, मैं इस अध्ययन में पूर्वी उत्तर प्रदेश (यूपी) और बिहार में पिताओं के प्रवासन और उनके पीछे छूटे बच्चों की स्कूल उपस्थिति के बीच संबंधों की जाँच करता हूँ।

पिताओं का प्रवासन और बच्चों की स्कूली शिक्षा

अध्ययनों में पिताओं के प्रवासन और उनके पीछे छूटे बच्चों की स्कूली शिक्षा के बीच के सम्बन्ध के बारे में मिश्रित प्रमाण मिले हैं। भारत मानव विकास सर्वेक्षण (आईएचडीएस) के आँकड़ों पर आधारित दो अध्ययनों (चक्रवर्ती और मुखर्जी 2023, विक्रम 2021) से पता चलता है कि पिताओं का प्रवासन उनके बच्चों के शैक्षिक परिणामों को सकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकता है। उदाहरण के लिए, पीछे छूटे बच्चों को गैर-प्रवासी पिताओं के बच्चों की तुलना में उपलब्धि परीक्षणों में अधिक अंक मिलने की सम्भावना होती है। हालांकि, प्रवासी पिताओं के बेटों को बेटियों की तुलना में शैक्षणिक गतिविधियों में समय बिताने से अधिक लाभ हो सकता है।

पिताओं के प्रवासन की स्थिति में, परिवार में माताओं के पास निर्णय लेने का अधिक अधिकार हो सकता है। पिता की अनुपस्थिति में, माताओं में बच्चों की स्कूली शिक्षा में निवेश करने और उसे प्राथमिकता देने की अधिक सम्भावना होती है (देसाई और बनर्जी 2008)। एकल परिवारों में महिलाओं में स्वायत्तता की सम्भावना अधिक देखी जा सकती है (देबनाथ 2015)। संयुक्त परिवारों में, ससुराल वाले और वरिष्ठ पुरुष सदस्य आमतौर पर पारिवारिक निर्णयों पर नियंत्रण बनाए रखते हैं (एलेंडॉर्फ 2012)। प्रवासी पिताओं द्वारा भेजे गए धन से घरेलू जीवन स्तर में सुधार भी हो सकता है (देशिंगकर एवं अन्य 2006)। अतिरिक्त वित्तीय संसाधन होने के कारण बच्चों को आजीविका के लिए मज़दूरी करने की आवश्यकता नहीं पड़ती है, जिससे वे स्कूल में अपनी पढ़ाई जारी रख सकते हैं। हालांकि, इस तरह के धन प्रेषण लड़कियों के लिए घरेलू कामों के बोझ को कम करने में मददगार नहीं हो सकते हैं (घिमिरे एवं अन्य 2021)। इसके अलावा, अधिकांश धन-प्रेषण दैनिक उपभोग, मकान की मरम्मत, भूमि और आभूषणों की खरीद, विवाह और अन्य अनुष्ठानों पर खर्च किया जाता है तथा बच्चों की शिक्षा के लिए बहुत कम राशि रखी जाती है।

दूसरी ओर, पिता की अनुपस्थिति के कारण परिवार की स्थिरता बाधित हो सकती है और परिवार के शेष सदस्यों, विशेषकर महिलाओं और बच्चों पर बोझ बढ़ सकता है। पिता की अनुपस्थिति के कारण उनके पीछे छूटे बच्चों को भावनात्मक और व्यवहार संबंधी चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है (शाह 2021)। पिताओं का प्रवासन उनके पीछे छूटे बच्चों, विशेषकर लड़कियों पर भाई-बहनों की देखभाल का अतिरिक्त बोझ डाल सकता है। अध्ययनों में पाया गया है कि पिताओं के प्रवासन के चलते उनके पीछे छूटे बच्चों की स्कूल में उपस्थिति अनियमित होती है और उनका शैक्षणिक प्रदर्शन खराब होता है (वर्मा 2023, आराध्या एवं अन्य 2019)। इसके अतिरिक्त, प्रचलित रूढ़िवादी सामाजिक मानदंडों के कारण प्रवासी परिवारों में लड़कियों को शिक्षा प्राप्त करने में अधिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। कुछ सन्दर्भों में, पुरुष सदस्यों का प्रवासन सम्मान और सुरक्षा के डर से लड़कियों की कम उम्र में शादी का कारण हो सकता है। कम उम्र में शादी की प्रथा स्कूल छोड़ने की प्रवृत्ति को और बढ़ा सकती है। ऐसे में, लड़कियों को अक्सर युवावस्था में पहुँचने पर स्कूल से निकाल दिया जाता है और आमतौर पर प्राथमिक स्तर की शिक्षा के बाद उन्हें स्कूल छोड़ना पड़ता है।

अध्ययन और प्रमुख निष्कर्ष

अंतर्राष्ट्रीय जनसंख्या विज्ञान संस्थान (आईआईपीएस) द्वारा वर्ष 2018-19 में किए गए मध्य गंगा मैदान (एमजीपी) सर्वेक्षण के क्रॉस-सेक्शनल आँकड़ों के आधार पर, मैंने पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में पिताओं के प्रवासन और उनके पीछे छूट गए बच्चों की स्कूल उपस्थिति के बीच के संबंधों का आकलन किया। मैंने विशेष रूप से बालिकाओं के सम्बन्ध का आकलन करके, आगे यह भी जांच की कि क्या यह सम्बन्ध लैंगिक आधार पर भिन्न होता है।

मैंने पाया कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में, पिताओं का प्रवास गैर-प्रवासी पिताओं के बच्चों की तुलना में उनके बच्चों की स्कूल उपस्थिति के साथ उल्लेखनीय रूप से जुड़ा हुआ है (आकृति-1)। पारिवारिक विशेषताओं (जाति, धर्म, भूमि-स्वामित्व और परिवार के प्रकार) को नियंत्रित करने वाले ‘प्रतिगमन विश्लेषण’ के ज़रिए इस निष्कर्ष की पुष्टि होती है- जिन बच्चों के पिता मौसमी रूप से प्रवास करते हैं, उनके स्कूल जाने की सम्भावना दोगुनी से अधिक होती है (ऑड्स या सम्भावना अनुपात- 2.23; 95% विश्वास अंतराल- 1.34-3.71)1। बिहार में, प्रवासी और गैर-प्रवासी पिताओं के बच्चों के बीच स्कूल उपस्थिति में कोई महत्वपूर्ण अंतर नहीं पाया गया (आकृति-1)। हालांकि, बिहार में पिताओं के प्रवासन और उनके पीछे छूटे बच्चों की स्कूली शिक्षा के बीच एक नकारात्मक सम्बन्ध का संकेत मिलता है (ऑड्स या सम्भावना अनुपात- 2.23; 95% विश्वास अंतराल- 1.34-3.71)। इसके अलावा, दोनों ही राज्यों में पिताओं के प्रवासन का स्कूल में बेटियों की उपस्थिति से कोई उल्लेखनीय सम्बन्ध नहीं है (आकृति-2)। ‘प्रतिगमन मॉडल’ में पारिवारिक विशेषताओं को शामिल करने के बाद भी यह सम्बन्ध समान बना रहता है।

आकृति-1. पिताओं के प्रवासन की स्थिति के अनुसार उनके बच्चों की स्कूल में उपस्थिति


आकृति-2. पिता की प्रवासन स्थिति के अनुसार उनकी बेटियों की स्कूल में उपस्थिति


विमर्श

प्राप्त निष्कर्ष पिताओं के प्रवासन और बच्चों की स्कूली शिक्षा के बीच एक ‘प्रसंग-विशिष्ट’ सम्बन्ध को उजागर करते हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश में, बच्चे, विशेषकर बेटे संभवतः परिवार की बेहतर आर्थिक स्थिति और उनकी शिक्षा के लिए निरंतर पारिवारिक सहयोग के कारण अपने पिताओं के प्रवासन से लाभान्वित होते प्रतीत होते हैं। इसके विपरीत, बिहार में ऐसा कोई लाभ नहीं देखा गया है बल्कि, प्रवासी पिताओं के बच्चों की स्कूल में उपस्थिति उन बच्चों की तुलना में थोड़ी कम है जिनके पिता प्रवासन पर नहीं गए हैं। उल्लेखनीय रूप से, पिताओं के प्रवासन का दोनों ही स्थितियों में बेटियों की स्कूली शिक्षा पर सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता है। यह उन सामाजिक-सांस्कृतिक मानदंडों को दर्शाता है जो लड़कियों की शिक्षा का अवमूल्यन करते आए हैं, क्योंकि बेटियों को अक्सर अपने पिता की अनुपस्थिति में बढ़ी हुई ज़िम्मेदारियों और सुरक्षा संबंधी मुद्दों का सामना करना पड़ता है। ये पैटर्न दर्शाते हैं कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में केवल बेटे ही पिताओं के प्रवासन से शैक्षिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं, जबकि बेटियाँ किसी भी सन्दर्भ में वंचित रहती हैं।

विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि पिताओं के प्रवासन का उनके बच्चों की शिक्षा पर हमेशा स्वतंत्र रूप से हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ता है। इस स्थिति में प्रवासन आमतौर पर अक्सर गरीबी, भूमिहीनता और आजीविका के अवसरों की कमी से उत्पन्न होने वाले संकट से प्रेरित होता है। यद्यपि बिहार में पिताओं के प्रवासन का उनके पीछे छूट गए बच्चों की स्कूली शिक्षा के साथ थोड़ा नकारात्मक सम्बन्ध है, फिर भी स्कूल न जाने और स्कूल छोड़ने के मूल कारण सामाजिक-सांस्कृतिक और संरचनात्मक बाधाओं में अधिक गहराई से अंतर्निहित हैं।

हालांकि बिहार में पिताओं के प्रवासन का उनके पीछे छूट गए बच्चों की स्कूली शिक्षा के साथ थोड़ा नकारात्मक सम्बन्ध है, फिर भी स्कूल में अनुपस्थिति और स्कूल छोड़ देने के मूल कारण सामाजिक-सांस्कृतिक और संरचनात्मक बाधाओं से अधिक गहराई से जुड़े हैं।

उदाहरण के लिए, मेरे विश्लेषण से पता चलता है कि जाति और धर्म स्कूल में उपस्थिति के प्रबल निर्धारक बने हुए हैं। लड़कियों के सन्दर्भ में गरीबी, लंबी यात्रा दूरी, विवाह और घरेलू काम जैसे कई कारक उनकी स्कूली शिक्षा में बड़ी बाधाएँ बने हुए हैं (पॉल और थापा 2024)।

पूर्व के अध्ययनों से संकेत मिला है कि प्रवासन के कारण पीछे छूटे बच्चों को अक्सर अधिक असुरक्षित महसूस होता है और उनके पास पर्याप्त पारिवारिक या संस्थागत सहायता प्रणाली (यूनिसेफ) का अभाव होता है। बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिमी ओडिशा जैसे अत्यधिक प्रवासन वाले क्षेत्रों में, ख़ासकर हाशिए पर रहने वाली आबादी में, बच्चों की शैक्षिक उपलब्धि कम है और उनके स्कूल छोड़ने की दर भी अधिक है। लड़कियों को अक्सर घर के काम सम्भालने, भाई-बहनों की देखभाल करने या कम उम्र में शादी करने के लिए स्कूल से निकाल दिया जाता है, जबकि लड़कों को परिवार का भरण-पोषण करने के लिए समय से पहले ही अनौपचारिक मज़दूरी में धकेल दिया जाता है (सेनगुप्ता और गुहा 2002, स्मिता 2008)। ये गतिशीलताएँ विशेष रूप से अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (एससी/एसटी) समुदायों में व्याप्त शैक्षिक असमानता के चक्र को मज़बूत करती है, जहाँ जातिगत भेदभाव और सामाजिक सुरक्षा-जाल तक पहुँच की कमी जैसी प्रणालीगत बाधाएँ, स्थिर आजीविका के अवसरों को सीमित करती हैं (ड्रेज़ और सेन 2013)।

जैसा कि गोविंदा और बंद्योपाध्याय (2010) उल्लेख करते हैं, आर्थिक अस्थिरता और सामाजिक बहिष्कार का अंतर्संबंध हाशिए पर पड़े बच्चों के लिए "दोहरा नुकसान" पैदा करता है, जिससे स्कूलों में दाखिला लेने की दर कम और स्कूल छोड़ने वालों की संख्या अधिक रहती है। पिता का प्रवासन अत्यधिक प्रवासित क्षेत्रों में इन पीछे छूटे बच्चों के लिए एक और असुरक्षित स्थिति पैदा कर सकता है। हालांकि, इस सम्बन्ध को बेहतर ढंग से समझने और साक्ष्य-आधारित समाधान प्रस्तुत करने के लिए ‘अनुदैर्ध्य आँकड़ों’ का उपयोग करते हुए विभिन्न सांस्कृतिक और भौगोलिक क्षेत्रों में अधिक ‘प्रसंग-विशिष्ट’ अध्ययन किए जाने की आवश्यकता है।

वर्ष 2009 में 6-14 वर्ष की आयु के बच्चों को कक्षा 8 तक मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा की गारंटी देने वाले शिक्षा का अधिकार अधिनियम (आरटीई) को लागू किए होने के बावजूद, भारत में प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमिकरण में स्कूल छोड़ने वालों की संख्या एक बड़ी बाधा बनी हुई है (पॉल और थापा 2024)। स्कूल छोड़ने की दर विशेष रूप से उन राज्यों में अधिक है जहाँ बाहरी प्रवासन अधिक है, और इसका लड़कियों, अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति की आबादी और प्रवासी परिवारों के बच्चों पर असमान रूप से प्रभाव पड़ रहा है (गोविंदा और बंद्योपाध्याय 2010)। अध्ययन इस बात पर ज़ोर देते हैं कि औपचारिक स्कूली शिक्षा प्रणाली इन बच्चों के मौसमी और प्रवासी पैटर्न (उनके मूल और गंतव्य दोनों क्षेत्रों में) के अनुरूप ढलने में काफी हद तक विफल रही है (रोगली एवं अन्य 2001)।

कार्रवाई की ज़रूरत

इस सतत चुनौती से निपटने के लिए लक्षित, समावेशी नीतियों और कार्यक्रमों की आवश्यकता है जो प्रवासी परिवारों के अत्यधिक कमज़ोर, पिछड़े बच्चों की विशिष्ट आवश्यकताओं के अनुरूप हों। राष्ट्रीय शिक्षा रणनीतियों में ‘प्रासंग-साक्षेप’ उपायों को अपनाना होगा जिसमें ‘ब्रिज पाठ्यक्रमों’ के माध्यम से अनौपचारिक शिक्षा, अनुकूल शिक्षण कार्यक्रम और समुदाय-आधारित हस्तक्षेप शामिल हैं। सभी के लिए समान शैक्षिक पहुँच सुनिश्चित करने के लिए आधारभूत साक्षरता और संख्यात्मकता, डिजिटल साक्षरता और बुनियादी मानवाधिकारों के बारे में जागरूकता पर भी ज़ोर दिया जाना चाहिए।

टिप्पणी:

  1. ऑड्स या सम्भावना अनुपात यह दर्शाता है कि किसी परिणाम (इस मामले में, स्कूल में उपस्थिति) की सम्भावना स्वतंत्र चर (पिता का प्रवास) में बदलाव होने पर कैसे बदलती है। 1 से अधिक ऑड्स अनुपात यह दर्शाता है कि प्रवासन नामांकन की उच्चतर सम्भावनाओं से जुड़ा है जबकि 1 से कम ऑड्स अनुपात कम सम्भावनाओं का संकेत देते हैं। 95% विश्वास अंतराल यह दर्शाता है कि यदि अध्ययन को कई बार दोहराया जाए, तो 95% मामलों में वास्तविक प्रभाव इसी सीमा के भीतर रहेगा।

अंग्रेज़ी के मूल लेख और संदर्भों की सूची के लिए कृपया यहां देखें।

लेखक परिचय : पिंटू पॉल भारतीय सामाजिक संस्थान (आईएसआई) नई दिल्ली में सहायक प्रोफेसर हैं। उनका शोध पारिवारिक जनसांख्यिकी, प्रवासन, शिक्षा, स्वास्थ्य और लैंगिक मुद्दों पर केंद्रित है। उन्होंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय नई दिल्ली के क्षेत्रीय विकास अध्ययन केंद्र से भूगोल में एमफिल और पीएचडी की उपाधियाँ अर्जित की हैं। आईएसआई से पहले उन्होंने अशोका विश्वविद्यालय, अंतर्राष्ट्रीय जनसंख्या विज्ञान संस्थान (आईआईपीएस) और टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान (टीआईएसएस) में कार्य किया है।

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