जलवायु परिवर्तन के अनेक प्रत्यक्ष रूपों में से एक है अत्यधिक बाढ़ का आना। वर्षाकाल में भारत के कई क्षेर्तों में बाढ़ और जलभराव की परिस्थितियाँ उत्पन्न होती रहती हैं। और फिर जलवायु परिवर्तन अब केवल एक पर्यावरणीय मुद्दा नहीं रह गया है, यह मानव स्वास्थ्य और कल्याण के लिए एक गंभीर खतरे के रूप में उभर रहा है। इस लेख में, चंद्रा, सेन गुप्ता और झेंग उन विविध और जटिल रास्तों पर चर्चा करते हैं जिनके माध्यम से जलवायु परिवर्तन स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। उनका तर्क है कि बुनियादी ढाँचे में निवेश करके, संवेदनशील आबादी को सशक्त बनाकर और साक्ष्य-आधारित नीतियों को लागू करके, हम बदलती जलवायु से उत्पन्न स्वास्थ्य जोखिमों को कम कर सकते हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार वैश्विक जनसंख्या का 50% जलवायु परिवर्तन के प्रति अत्यधिक संवेदनशील क्षेत्रों में रहता है और 2030 से 2050 के बीच जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप प्रतिवर्ष 2,50,000 अतिरिक्त जानें जाने की आशंका है। विश्व आर्थिक मंच और ओलिवर वायमन की अन्य रिपोर्टें और भी निराशाजनक परिदृश्य पेश करती हैं। इनमें वर्ष 2050 तक 1 करोड़ 45 लाख अतिरिक्त जानें जाने, 125 खरब अमेरिकी डॉलर के आर्थिक नुकसान और स्वास्थ्य सेवा प्रणालियों पर 11 खरब अमेरिकी डॉलर का अतिरिक्त खर्च उजागर होता है। संक्रामक रोगों के प्रसार से लेकर श्वसन संबंधी बीमारियों, गर्मी से संबंधित तनाव, खाद्य असुरक्षा और मानसिक स्वास्थ्य चुनौतियों तक, जलवायु परिवर्तन के स्वास्थ्य को प्रभावित करने के तरीके विविध और जटिल हैं। इस लेख में हम एशियन इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक (एआईआईबी) की एक नई रिपोर्ट से प्राप्त अंतर्दृष्टि पर चर्चा करते हैं।
जल और वेक्टर-जनित संक्रामक रोगों में वृद्धि
अत्यधिक वर्षा और बाढ़ प्रमुख ऐसी घटनाएँ हैं जिनके माध्यम से जलवायु परिवर्तन जल और वेक्टर-जनित रोगों (डब्ल्यूवीबीडी) के प्रसार को तेज़ करता है, जिसका मानव स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। अत्यधिक वर्षा या बाढ़ से भूमिगत गन्दे नालों या सुवेज का अत्यधिक प्रवाह हो सकता है जिससे पीने के पानी और स्वच्छता सुविधाओं को नुकसान पहुँच सकता है। इसके नतीजे में पीने का पानी दूषित हो सकता है और जिसके पीने से दस्त, हैजा, टाइफाइड और लेप्टोस्पायरोसिस जैसी बीमारियाँ फैल सकती हैं। बढ़ता वैश्विक तापमान अधिक वाष्पीकरण के कारण जल स्रोतों में दूषित पदार्थों की सांद्रता बढ़ाकर सतही जल और भूजल, दोनों की गुणवत्ता को प्रभावित करता है।
इंडोनेशिया में, बाढ़ से संबंधित आपदाओं की संख्या वर्ष 2008 के 492 से बढ़कर वर्ष 2023 में 1,299 हो गई। इसी तरह, बाढ़ के बाद जल जनित बीमारियों के संक्रमण की सम्भावना उन रिजेंसियों में 0.02% अधिक है। जल जनित बीमारी के इलाज की प्रति मामला औसत प्रत्यक्ष लागत लगभग 100 अमरीकी डॉलर होने से दस लाख की आबादी वाले शहर में प्रति बाढ़ प्रत्यक्ष लागत लगभग 20,000 अमरीकी डॉलर होगी। वर्ष 2022 में बाढ़ ने 405 रिजेंसियों को प्रभावित किया, जिनमें 22 करोड़ 50 लाख लोग बसते हैं। इसके परिणामस्वरूप जल जनित बीमारी के 2,89,093 अतिरिक्त मामले सामने आने का अनुमान है जिससे 2 करोड़ 87 लाख अमरीकी डॉलर की प्रत्यक्ष लागत आई। उत्पादकता में कमी, मृत्यु दर और अन्य दीर्घकालिक प्रभावों जैसे अप्रत्यक्ष प्रभावों को शामिल करने से यह लागत बहुत अधिक बढ़ जाएगी।
इसी तरह, श्रीलंका में बाढ़ प्रभावित जिलों में लेप्टोस्पायरोसिस की घटनाएं उन जिलों की तुलना में चार गुना अधिक है, जहाँ बाढ़ नहीं आई (आकृति-1)। हालांकि लेप्टोस्पायरोसिस के मामले कम ही रिपोर्ट किए जाते हैं, लेकिन तिमाही घरेलू आँकड़े दर्शाते हैं कि वर्षा में एक सेंटीमीटर की वृद्धि लेप्टोस्पायरोसिस के 0.04 अतिरिक्त मामलों से जुड़ी है।
आकृति-1. श्रीलंका में लेप्टोस्पायरोसिस और डेंगू की घटनाएँ
तापमान में वृद्धि और वर्षा के पैटर्न में बदलाव के कारण होने वाला जलवायु परिवर्तन मच्छरों और किलनी जैसे रोगाणुओं और रोग वाहकों के अस्तित्व, प्रजनन और विषाणुता को भी बढ़ाता है। यह मलेरिया, डेंगू बुखार और लाइम रोग जैसी वेक्टर जनित बीमारियों को नए क्षेत्रों में फैलने में मदद करता है। अध्ययनों से पता चलता है कि मलेरिया और डेंगू बुखार के मामले बदलती जलवायु परिस्थितियों के साथ बढ़ रहे हैं (क्लार्क और बेरी 2012)। बाढ़ इन चुनौतियों को और बढ़ा देती है। क्योंकि बाढ़ का जमा हुआ पानी मच्छरों का प्रजनन स्थल बन जाता है, जिससे वेक्टर जनित बीमारियों का प्रसार बढ़ जाता है।
श्रीलंका के अप्रभावित क्षेत्रों की तुलना में बाढ़ प्रभावित जिलों में डेंगू के 2.5 गुना अधिक मामले सामने आए हैं। विस्तृत घरेलू आँकड़े बताते हैं कि वर्षा में एक सेंटीमीटर की वृद्धि डेंगू के तीन अतिरिक्त मामलों से जुड़ी हुई है (आकृति-1)।
जलवायु परिवर्तन भारत में बच्चों के स्वास्थ्य और उनके कल्याण के मौलिक अधिकार को खतरे में डाल रहा है
पाँच साल से कम उम्र के बच्चे विशेष रूप से पानी और वेक्टर जनित रोगों, डब्ल्यूवीबीडी, के प्रति संवेदनशील होते हैं क्योंकि उनकी प्रतिरक्षा प्रणाली पूरी तरह से विकसित नहीं होती है, उनके पास सुरक्षित पानी और स्वच्छता तक पहुँच कम होती है और उन्हें समय पर इलाज नहीं मिल पाता है। संयुक्त राष्ट्र अंतर-एजेंसी समूह के बाल मृत्यु दर अनुमान (2019) के अनुसार, दस्त और मलेरिया क्रमशः 8% और 5% बाल मृत्यु के लिए ज़िम्मेदार हैं। जलवायु परिवर्तन, सतही जल और भूजल की गुणवत्ता को कम करके और आपदा की घटनाओं के जोखिम को बढ़ाकर, बच्चों में इन बीमारियों के प्रसार को प्रभावित करने की सम्भावना है।
2019 और 2021 के बीच किए गए सबसे हालिया राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आँकड़ों का उपयोग करते हुए हम कई कारकों का मूल्याँकन करते हैं जिनका भारत में बच्चों में मलेरिया और दस्त के प्रसार पर असर पड़ सकता है (आकृति-2)। इन रोगों के संक्रमण की सम्भावना व्यक्तिगत, घरेलू और सामुदायिक स्तर पर विभिन्न कारकों पर निर्भर करती है। एक साल के बच्चों में मलेरिया होने की सम्भावना शिशुओं की तुलना में ज़्यादा होती है, लेकिन बड़े बच्चों में मलेरिया और डायरिया दोनों का खतरा धीरे-धीरे कम होता जाता है। कुछ घरेलू कारक भी इस पर असर डालते हैं। उदाहरण के लिए, शिक्षित माताओं के बच्चों में अशिक्षित माताओं की तुलना में मलेरिया होने की सम्भावना कम होती है, जबकि जिन घरों में हाथों की सफ़ाई बेहतर होती है, वहाँ डायरिया होने की सम्भावना कम होती है (आकृति-3)। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि अमीर घरों के बच्चों में मलेरिया और डायरिया होने की सम्भावना कम होती है।
आकृति-2. मलेरिया की व्यापकता के प्रमुख कारक
आकृति-3. दस्त की व्यापकता के प्रमुख कारक
स्रोत : एआईआईबी स्टाफ द्वारा गणना
जल की गुणवत्ता भी दस्त की व्यापकता को प्रभावित करती है। अनुपयुक्त भूजल गुणवत्ता वाले क्षेत्रों में रहने वाले बच्चों में अच्छे भूजल वाले क्षेत्रों की तुलना में मलेरिया होने की सम्भावना 25.4% अधिक होती है। इन रोगों पर जल गुणवत्ता के प्रतिकूल प्रभाव को कम करने वाला एक कारक बेहतर जल तक पहुँच वाली आबादी के अनुपात में तेज वृद्धि हो सकती है। विश्व बैंक के अनुसार, भारत में 94% आबादी के पास पीने के पानी के बेहतर स्रोतों तक पहुँच है।
प्राकृतिक आपदाओं के सम्पर्क में आना भी दस्त और मलेरिया दोनों की अधिक सम्भावना से जुड़ा है। उदाहरण के लिए, आपदाओं के मध्यम सम्पर्क वाले जिलों के परिवारों में कम सम्पर्क वाले जिलों की तुलना में मलेरिया होने की सम्भावना 44.8% अधिक है। इसी तरह, आपदाओं के उच्च सम्पर्क वाले जिलों के परिवारों में मलेरिया से संक्रमित होने की सम्भावना 20.4% अधिक और दस्त होने की सम्भावना 32.4% अधिक है। एक हैरान करने वाला तथ्य यह है कि आपदाओं के उच्च जोखिम वाले जिलों की तुलना में मध्यम जोखिम वाले जिलों में मलेरिया होने की सम्भावना अपेक्षाकृत अधिक है। ऐसा इसलिए होगा कि उच्च जोखिम वाले जिलों ने समय के साथ मध्यम जोखिम वाले जिलों की तुलना में बेहतर आपदा तैयारी और लचीलापन विकसित किया होगा। इन अवलोकनों पर और अधिक शोध की आवश्यकता है।
समाधान और कार्रवाई का आह्वान
जलवायु परिवर्तन से जन स्वास्थ्य के समक्ष उत्पन्न चुनौतियाँ विकराल हैं, फिर भी समाधान मौजूद हैं। समन्वित कार्रवाई, सुदृढ़ नीतियाँ और स्वास्थ्य सेवा प्रणाली के भीतर और बाहर लक्षित निवेश इन स्वास्थ्य जोखिमों को कम कर सकते हैं। कुछ नीतिगत विकल्पों में निम्नलिखित शामिल हैं :
मज़बूत और जलवायु-प्रतिरोधी स्वास्थ्य प्रणालियों का विकास : समुदायों की सुरक्षा के लिए जन स्वास्थ्य प्रणालियों और तैयारियों में निवेश आवश्यक है। स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार, विशेष रूप से ग्रामीण और दूरदराज़ के क्षेत्रों में, संवेदनशील आबादी के लिए चिकित्सा सेवाओं तक बेहतर पहुँच सुनिश्चित करता है। वर्तमान आवश्यकताओं और भविष्य की चुनौतियों से निपटने के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा नेटवर्क को उन्नत करने से जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न स्वास्थ्य जोखिमों से निपटने में आवश्यक सहायता मिलेगी। संवेदनशील क्षेत्रों में संक्रामक रोग नियंत्रण इकाइयाँ स्थापित करने से शीघ्र निदान और उपचार सुनिश्चित होगा। स्वास्थ्य सेवा के बुनियादी ढाँचे में जलवायु-प्रतिरोधी डिज़ाइनों को शामिल करना जैसे बाढ़ से सुरक्षा के लिए ऊँची संरचनाएँ, मज़बूत छतें, निष्क्रिय शीतलन प्रणालियाँ, सौर ऊर्जा से चलने वाली स्वास्थ्य सेवाएँ और मोबाइल या मॉड्यूलर क्लीनिक आदि स्वास्थ्य सेवा प्रणाली को भविष्य के लिए तैयार करने तथा आपदाओं के दौरान मृत्यु दर और रुग्णता को कम करने में मदद कर सकते हैं।
कनेक्टिविटी में सुधार : बेहतर जलवायु-प्रतिरोधी सड़क अवसंरचना जैसे बेहतर जल निकासी और सुदृढ़ तटबंधों वाली सड़कें, भूस्खलन व कटाव-रोधी सड़कें और एलिवेटेड सड़कें व पुल आदि स्वास्थ्य सेवा सुविधाओं तक यात्रा के समय को महत्वपूर्ण रूप से कम कर सकते हैं तथा बाज़ारों एवं आवश्यक सेवाओं तक पहुँच में सुधार कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, भारत के ग्रामीण सड़क कार्यक्रम ने प्रजनन स्वास्थ्य सेवाओं और संस्थागत प्रसव के उपयोग को बढ़ाया है, विशेष रूप से आपदा के जोखिम वाले क्षेत्रों में।
लिंग-आधारित आपदा तैयारी : कठोर लिंग मानदंडों (जैसे घरेलू गतिविधियों के लिए पानी लाने की प्राथमिक ज़िम्मेदारी वहन करना), संस्थागत कारकों (चिकित्सा देखभाल और परिवहन तक असमान पहुँच) और व्यवसाय विकल्पों (जल-प्रधान क्षेत्र जैसे खेती, पशुपालन, घरेलू काम, आदि) के कारण महिलाएँ असमान रूप से डब्ल्यूवीबीडी के सम्पर्क में हैं। संसाधनों तक पहुँच और निर्णय लेने में असमानताओं को दूर करने से जलवायु संबंधी आपदाओं के दौरान महिलाओं की बेहतर सुरक्षा करने में मदद मिलेगी।
जलवायु परिवर्तन और स्वास्थ्य गहराई से आपस में जुड़े हुए हैं। संक्रामक रोगों से लेकर मानसिक स्वास्थ्य चुनौतियों तक, जलवायु परिवर्तन के सार्वजनिक स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव विविध और अत्यावश्यक हैं। बुनियादी ढाँचे में निवेश करके, कमज़ोर आबादी को सशक्त बनाकर और साक्ष्य-आधारित नीतियों को लागू करके हम बदलती जलवायु से उत्पन्न स्वास्थ्य जोखिमों को कम कर सकते हैं। अभी कार्रवाई करने का समय है। साथ मिलकर, हम सभी के लिए एक स्वस्थ और अधिक लचीला भविष्य सुनिश्चित कर सकते हैं।
यह लेख "एशियन इन्फ्रास्ट्रक्चर फाइनेंस 2025: इन्फ्रास्ट्रक्चर फॉर प्लैनेटरी हेल्थ" रिपोर्ट के अध्याय 3: “इन डीप वाटर - क्लाइमेट चेंज इम्पैटस ऑन वाटर सिस्टमज़ एंड ह्यूमन हेल्थ' से लिया गया है।
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लेखक परिचय : राकेश चंद्रा मुंबई के टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान में स्वास्थ्य नीति, योजना एवं प्रबंधन केंद्र में सहायक प्रोफेसर हैं। उन्होंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली से क्षेत्रीय विकास में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की है। उन्होंने सामाजिक एवं स्वास्थ्य हस्तक्षेप नीतियों और कार्यक्रमों के डिजाइन और मूल्याँकन पर ध्यान केंद्रित करते हुए विकास कार्यक्रमों और नीति परामर्श में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काम किया है। अभिजीत सेन गुप्ता एशियन इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक में वरिष्ठ अर्थशास्त्री हैं, जहाँ वे बुनियादी ढांचा परियोजनाओं की आर्थिक व्यवहार्यता पर शोध का नेतृत्व करते हैं। उन्होंने नेट-ज़ीरो ट्रांज़िशन, प्रकृति-आधारित समाधान और ग्रहीय स्वास्थ्य पर रिपोर्टों का नेतृत्व और योगदान भी दिया है। इससे पहले, वे एशियाई विकास बैंक, एडीबी, के दक्षिण एशिया क्षेत्रीय विभाग में वरिष्ठ अर्थशास्त्र अधिकारी थे। उन्होंने विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के साथ भी काम किया और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर रहे हैं। एडिथ झेंग एशियन इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक में आर्थिक सहयोगी हैं, जो भू-स्थानिक डेटा विकास, स्थानिक आर्थिक विश्लेषण और आर्थिक अनुसंधान में योगदान देकर परिचालन को सहायता प्रदान करती हैं। उन्होंने विश्व बैंक, जकार्ता कार्यालय में क्षेत्रीय आर्थिक सलाहकार के रूप में कार्य किया है। उन्होंने कॉर्नेल विश्वविद्यालय से क्षेत्रीय विज्ञान में स्नातकोत्तर और इंडोनेशिया विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में स्नातक की उपाधि प्राप्त की है।
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