सामाजिक पहचान

मजदूरों का एक विभाजन: भारत में जाति की पहचान और कार्य कुशलता

  • Blog Post Date 10 जनवरी, 2023
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भारत में जातियाँ कुछ व्यवसायों से निकटता से सम्बद्ध हैं और ये लाखों लोगों द्वारा किए जाने वाले कार्यों का निर्धारण करती हैं। इस अध्ययन में एक नए डेटासेट का उपयोग यह दिखाने के लिए किया गया है कि अभी भी अत्यधिक मात्रा में श्रमिक अपनी जाति के पारंपरिक व्यवसाय में लगे हुए हैं। प्रतितथ्यों को देखते हुए इस अध्ययन ने पाया है कि व्यावसायिक संबंधों और जातियों के पदानुक्रम को हटाने से पारंपरिक व्यवसायों में श्रमिकों की हिस्सेदारी कम हो जाती है। तथापि जाति, अंतर-पीढ़ीगत शिक्षा और सामाजिक नेटवर्क के बीच की कड़ी को हटाने से उत्पादकता में कमी आती है और आर्थिक उत्पादों में भी भारी गिरावट होती है।

श्रमिकों की सामाजिक पहचान उनके व्यवसाय विकल्पों को प्रभावित करती हैं, और इसी कारण कुल अर्थव्यवस्था की संरचना और समृद्धि को भी। भारतीय जाति व्यवस्था में काम और पहचान विशेष रूप से आपस में जुड़े हुए हैं। आमतौर पर भारत की प्रत्येक जाति एक ही पारंपरिक व्यवसाय से जुड़ी होती है, जिसे परंपरागत रूप से उस जाति के सदस्यों के लिए उचित व्यवसाय (उनके 'धर्म') के रूप में देखा जाता था। जातियों का एक सामाजिक पदानुक्रम भी है जो विशेष रूप से शिक्षा और श्रम-बल में भागीदारी के दौरान भेदभाव पैदा करता है, और दोनों ही भारतीय अर्थव्यवस्था को सीधे प्रभावित करते हैं।

आज भी ये प्राचीन जाति परंपराएं लाखों भारतीय श्रमिकों की नौकरी के विकल्प का निर्धारण करती हैं। हाल के हमारे एक अध्ययन (कसान एवं अन्य, 2021) में हमने जातियों के व्यावसायिक संबंधों और श्रमिकों की आय पर सामाजिक पदानुक्रम और भारतीय अर्थव्यवस्था की कुल उत्पादकता और उत्पादन के प्रभावों की मात्रा निर्धारित करने हेतु एक संरचनात्मक (स्ट्रक्चरल) मॉडल का विकास किया और अनुमान लगाया है।

जातियों का उनके पारंपरिक व्यवसाय में अधिक प्रतिनिधित्व

हम प्रतितथ्यों से जातियों के पदानुक्रमित और व्यावसायिक संबंधों को हटाते हैं और पाते हैं कि उनके पारंपरिक व्यवसाय में कार्यरत श्रमिकों का हिस्सा काफी कम हो जाता है। तथापि, समग्र उत्पादन और उत्पादकता पर पडनेवाले प्रभाव अपेक्षाकृत कम रहते हैं क्योंकि व्यवसायों में मानव पूंजी के अधिक कुशल आवंटन से मिलने वाले लाभ कमजोर जाति-व्यवसाय नेटवर्क से उत्पादकता के नुकसान और पीढ़ियों में सीखने में कमी से ऑफसेट होते हैं।

हम एक नए डेटासेट का निर्माण करते हैं जो व्यक्तियों की जाति, व्यवसाय और मजदूरी के बारे में जानकारी को जातियों के पारंपरिक व्यवसायों और सामाजिक पदानुक्रम के ऐतिहासिक साक्ष्य के साथ जोड़ता है। हमारा विश्लेषण उप-जाति (या जाति) स्तर पर है, जो श्रमिकों की पहचान और सामाजिक नेटवर्क को परिभाषित करता है। जाति शब्द का प्रयोग हम सरलता के लिए करते हैं।

हम पाते हैं कि आधुनिक भारत में जातियों का उनके पारंपरिक व्यवसायों में अभी भी बहुत अधिक प्रतिनिधित्व है। आकृति 1 में हल्के भूरे रंग की पट्टियाँ प्रत्येक व्यवसाय में उन श्रमिकों की हिस्सेदारी दर्शाती हैं जो अपनी जाति के पारंपरिक व्यवसाय में लगे हुए हैं। व्यवसायों में बड़ी विषमता है कुछ व्यवसाय (जैसे नाई या कपड़े धोना) मुख्य रूप से पारंपरिक श्रमिकों द्वारा किए जाते हैं, जबकि अन्य व्यवसायों (जैसे वकीलों या होटल संचालकों) में लगभग कोई पारंपरिक श्रमिक नहीं होता है।

आकृति 1. अपने पारंपरिक या पिता के व्यवसाय का अनुसरण करनेवाले पुरुष (ऊपरी पैनल) और महिला श्रमिकों (निचला पैनल) का हिस्सा

यह निष्कर्ष एक महत्वपूर्ण बिंदु को दर्शाता है: जब कई 'आधुनिक' व्यवसाय अभी तक अस्तित्व में नहीं थे या अर्थव्यवस्था के केवल एक छोटे से हिस्से का प्रतिनिधित्व करते थे, तब पारंपरिक व्यवसायों को पूर्व-औद्योगिक समय में परिभाषित किया गया था। तकनीकी परिवर्तन और संरचनात्मक परिवर्तन के दौरान ये आधुनिक व्यवसाय अधिक महत्वपूर्ण हो गए हैं और अब अर्थव्यवस्था में सबसे अधिक उत्पादक और उच्चतम-लाभ वाले व्यवसाय बन गए हैं।

अतः श्रमिकों को उनकी जाति के पारंपरिक व्यवसायों में रखना उत्पादकता को दो तरीकों से कम कर सकता है: पहला, व्यक्ति उस व्यवसाय को स्वतंत्र रूप से नहीं चुन सकते हैं जिसमें वे सबसे अधिक उत्पादक हैं (अर्थात, वे तुलनात्मक लाभ के आधार पर अपने व्यवसायों का चयन नहीं करते हैं)। दूसरा, उच्च क्षमता वाले व्यक्ति अपने कम-लाभ वाले पारंपरिक व्यवसायों (जैसे कृषि, लॉन्डरिंग और मिट्टी के बर्तन बनाना) में काम करना जारी रखते हैं, जबकि जाति-व्यवसाय के मेल के अभाव में वे उच्च-लाभ वाले व्यवसायों में अपने कौशल को अधिक उत्पादक रूप से लागू कर सकते हैं (जैसे शिक्षण, इंजीनियरिंग और कानून)।

हालांकि जाति के पारंपरिक व्यवसायों में श्रमिकों की छँटाई भी जातियों को मजबूत जाति-व्यवसाय नेटवर्क में समन्वयित करके और पीढ़ियों में ज्ञान हस्तांतरण को सक्षम करके उत्पादकता पर सकारात्मक प्रभाव डाल सकती है। ये दो चैनल श्रमिकों की अपनी प्राथमिकताओं से परे 'पथ पर निर्भरता' बना सकते हैं: भले ही श्रमिक अब अपने पारंपरिक व्यवसायों से जुड़ाव महसूस न करते हों, वे मजबूत जाति नेटवर्क और अंतर-पीढ़ीगत शिक्षा का लाभ उठाने हेतु उनमें काम करते रह सकते हैं। आकृति 1 में गहरे भूरे रंग की पट्टियाँ दर्शाती हैं कि अपने पिता के समान व्यवसाय में काम करने वाले श्रमिकों का हिस्सा पारंपरिक श्रमिकों के व्यवसाय के हिस्से के साथ सह-संबद्ध है।

जातियों के व्यावसायिक संबंधों के समग्र प्रभावों की मात्रा निर्धारित करना

हम जातियों के पारंपरिक व्यवसायों के प्रभावों की मात्रा निर्धारित करने हेतु शैक्षिक और व्यावसायिक पसंद1 के एक संरचनात्मक सामान्य संतुलन रॉय मॉडल का विकास करऐसे अनुमान लगाते हैं जो कई चैनलों के माध्यम से जाति की पहचान को शामिल करता है: पारंपरिक व्यवसायों के लिए एक प्रत्यक्ष प्राथमिकता; जाति के आधार पर शिक्षा हेतु विभिन्न लागतों को लागू करने वाला सामाजिक पदानुक्रम; वेतन और व्यवसाय-स्तर का भेदभाव; किसी के अपने पिता के व्यवसाय में कार्य करने से उत्पादकता प्रभाव; और जाति-व्यवसाय स्तर पर नेटवर्क प्रभाव। जहां श्रमिकों को व्यवसायों में पुन: आवंटित किया जाता है और प्रत्येक व्यवसाय में मजदूरी समायोजित होती है, हम ऐसी अर्थव्यवस्था को सामान्य संतुलन में मानते हैं।

श्रमिक व्यवसाय-विशिष्ट उत्पादकता और सामान्य क्षमता में भिन्न होते हैं। विकृतियों के अभाव में श्रमिक अपने व्यवसायों का चयन तुलनात्मक लाभ के आधार पर करते हैं, और उच्च-क्षमता वाले श्रमिकों को 'आधुनिक' व्यवसायों की ओर खींचे जाते हैं, जहाँ क्षमता का प्रतिफल अधिक होता है। इसके अतिरिक्त, श्रमिकों के स्कूली शिक्षा के विकल्प शिक्षा की लागत और उनके भविष्य के व्यवसाय में प्राप्त होने वाले प्रतिफल पर निर्भर करते हैं। जिनकी अपने पारंपरिक कम-लाभ वाले व्यवसाय में प्रवेश करने की उम्मीद है, उन्हें शिक्षित होने के लिए कम प्रोत्साहन मिलता है।

जाति व्यवस्था एक पदानुक्रमित संरचना है, जिसमें कुछ समूहों को धार्मिक रूप से श्रेष्ठ और अन्य को 'अपवित्र' के रूप में देखा जाता है। पहचान और भेदभाव की भूमिका को एक साथ जोड़ने से बचने के लिए, हम पारंपरिक व्यवसायों, वेतन भेदभाव, और शिक्षा की लागत के लिए व्यावसायिक संबंधों का अनुमान लगाते हैं, जो पदानुक्रमित निचली जातियों के श्रमिकों और महिलाओं के लिए अलग-अलग हैं। हम परंपरागत रूप से उच्च जातियों से जुड़े व्यवसायों में निचली जातियों को दिए जानेवाले वेतन में अधिक भेदभाव पाते हैं। हम सामाजिक रैंकिंग के आधार पर पारंपरिक व्यवसाय से लगाव भी भिन्न-भिन्न पाते हैं, क्योंकि परंपरागत रूप से निचली जातियों से जुड़े व्यवसाय अप्रिय या अनुपयोगी हो सकते हैं। निचली रैंक वाली जातियों (जिन्हें 'धार्मिक रूप से अपवित्र' के रूप में देखा जाता है) से जुड़े व्यवसायों में काम करने के लिए उच्च जातियों की एक विशेष अनिच्छा हो सकती है, इसलिए हम व्यवसायों और व्यवसायों के बीच की सामाजिक दूरी के आधार पर किसी व्यवसाय में काम करने की जातियों की उपयोगिता को भिन्न होने देते हैं।

हम एक मॉडल का अनुमान लगाते हुए प्रतितथ्यात्मक अध्ययन करते हैं जो अर्थव्यवस्था की व्यावसायिक संरचना, उत्पादकता और आउटपुट (उत्पादन) के लिए जातियों के व्यावसायिक लिंक और जातियों के पदानुक्रम के महत्व को निर्धारित करते हैं।

जातियों की व्यावसायिक वरीयता के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रभाव

हमारे प्रतितथ्यात्मक अध्ययन में हम यह विश्लेषण करते हैं कि यदि हम जातियों के संबंधों को उनके पारंपरिक व्यवसायों, जातियों के पदानुक्रमित क्रम, या दोनों से हटा दें तो भारतीय अर्थव्यवस्था कैसे भिन्न होगी। प्रतितथ्यात्मक अध्ययन के प्रत्येक सेट में हम- i) जातियों के व्यावसायिक संबंधों, भेदभाव और पदानुक्रम के प्रत्यक्ष प्रभाव और ii) अंतर-पीढ़ीगत शिक्षा और जाति नेटवर्क के माध्यम से अप्रत्यक्ष प्रभाव का मूल्यांकन करते हैं।

प्रत्यक्ष प्रभावों का अध्ययन करते समय हम पिताओं के व्यवसायों और जाति-व्यवसायिक नेटवर्कों के वितरण को स्थिर रखते हैं। हम पाते हैं कि पारंपरिक व्यवसाय से संबंधों को हटाने के बहुत मामूली प्रत्यक्ष प्रभाव होते हैं: निश्चित शिक्षा-सहित बाजार उत्पादन में 0.2% की वृद्धि होती है, और अंतर्जात शिक्षा-सहित 0.3% की वृद्धि होती है। ये प्रभाव छोटे हैं क्योंकि अर्थव्यवस्था की मूल संरचना अपेक्षाकृत अपरिवर्तित बनी हुई है। मानव पूंजी के आवंटन में सुधार होता है क्योंकि श्रमिक अपने पारंपरिक व्यवसायों से बाहर निकलते हैं; हालाँकि कई पारंपरिक श्रमिकों को अन्य (समान) श्रमिकों द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया जाता है, जो व्यावसायिक संरचना और कुल उत्पादन को समान ही रखता है।

यदि जातियों के पदानुक्रम को हटाते हैं तो उसके बड़े प्रत्यक्ष प्रभाव हैं, निश्चित शिक्षा-सहित 0.3% और अंतर्जात शिक्षा-सहित 3.5% का उत्पादन लाभ पाया जाता है। हम शिक्षा की लागत में जाति के अंतर को समाप्त करते हैं तो स्कूली शिक्षा में 12% की वृद्धि होती है और उच्च रैंक वाले व्यवसायों में वेतन भेदभाव को हटाने के कारण स्कूली शिक्षा में अपेक्षित रिटर्न में भी वृद्धि होती है।

इसके अतिरिक्त हम पिता के व्यवसाय और पारंपरिक व्यवसायों के बीच के संबंध को समाप्त करके माता-पिता की शिक्षा के माध्यम से जातियों के व्यावसायिक संबंधों को हटा देते हैं। जातियों का उनके पारंपरिक व्यवसायों से संबंध हटा दिया जाता है तो जातिगत पदानुक्रम को हटाने पर 2.8% की छोटी गिरावट-सहित कुल उत्पादन में अब 7% की गिरावट मिलती है। समग्र प्रभाव नकारात्मक हैं क्योंकि श्रमिकों को या तो मजबूत जाति नेटवर्क (अपने पारंपरिक व्यवसाय में) या अंतर-पीढ़ीगत शिक्षा (अपने पिता के व्यवसाय में) से लाभान्वित होने में से किसी एक का चयन करना होगा।

जाति-व्यवसाय नेटवर्क को अंतर्जात रूप से समायोजित करते हुए उनके पारंपरिक व्यवसाय से जातियों के संबंधों को हटाने से कुल उत्पादन में 10% की बड़ी गिरावट आती है। इन नकारात्मक समग्र प्रभावों के बावजूद, श्रमिक अपनी व्यक्तिगत विशेषताओं के आधार पर व्यवसायों में अपने चयन में सुधार करते हैं: उच्च-क्षमता वाले श्रमिक उच्च-लाभ वाले व्यवसायों की ओर अधिक क्रमबद्ध होते हैं, शिक्षा बढ़ती है, और पारंपरिक श्रमिकों का कुल हिस्सा घटता है। इसके परिणामस्वरूप अर्थव्यवस्था की संरचना अधिक बदलती है, मानव-पूंजी विशिष्ट पारंपरिक व्यवसायों में कम संलिप्त होती है, लेकिन आधुनिक व्यवसायों में विस्तृत होती है।

हालांकि मानव-पूंजी का आवंटन बेहतर होने से मिलने वाले लाभ कम अंतर-पीढ़ीगत शिक्षा और कमजोर जाति नेटवर्क से होने वाले नुकसान की तुलना में कम हैं। यह निष्कर्ष उत्पादकता स्पिलओवर (प्लवन) को सक्षम बनानेवाली जातियों को मजबूत व्यवसाय नेटवर्क में व्यवस्थित करने में जाति की पहचान के महत्व पर जोर देता है। एक बार जब हम इस समन्वय तत्व को समाप्त कर देते हैं, तो जाति के स्तर पर व्यावसायिक नेटवर्क कम समूहबद्ध होते हैं, जिससे नेटवर्क प्रभाव कम हो जाता है और इसलिए यह समग्र उत्पादकता और आउटपुट (उत्पादन) को कम कर सकता है।

जातियों के व्यावसायिक बंधनों को हटाने से कम मानव-पूंजी वाले श्रमिकों पर सबसे मजबूत नकारात्मक प्रभाव पड़ता है क्योंकि यह उन्हें उच्च कौशल वाले व्यवसायों में जाने हेतु प्रेरित नहीं करता है, और वे कमजोर जाति नेटवर्क और कम अंतर-पीढ़ीगत शिक्षा से पीड़ित रहना जारी रखते हैं। मानव-पूंजी वितरण के बीच की कड़ी के श्रमिकों को सबसे अधिक लाभ होता है, क्योंकि वे अपनी शिक्षा में वृद्धि करते हैं और उन व्यवसायों की ओर बढ़ते हैं जो उनकी व्यक्तिगत प्रतिभा और क्षमता के साथ बेहतर रूप से मेल खाते हैं।

व्यावसायिक पहचान के सातत्य की गतिशील लागत

हमारा विश्लेषण देश की आर्थिक संरचना में गहरे परिवर्तनों के बावजूद भारत में जातियों की व्यावसायिक पहचान के उल्लेखनीय सातत्य के लिए संभावित स्पष्टीकरण को दर्शाता है। यदि स्थिर आर्थिक लागत हल्की है, लेकिन व्यक्तियों को सामाजिक मानदंडों के अनुरूप पर्याप्त उपयोगिता प्राप्त होती है, तो ये मानदंड लंबे समय तक बने रहते हैं। हमारे निष्कर्ष दर्शाते हैं कि पहचान संबंधी संघर्षों की मुख्य लागत परिवर्तनीय हो सकती है और यह संरचनात्मक परिवर्तन के दौरान बदल सकती है।

टिप्पणी:

  1. रॉय मॉडल तुलनात्मक लाभ के विश्लेषण हेतु एक रूपरेखा है। मूल मॉडल ने विषम कौशल स्तरों के साथ व्यावसायिक पसंद का विश्लेषण किया। 

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लेखक परिचय: गिएम कसान नमुर यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के असोसिएट प्रोफेसर हैं। डैनियल केनिस्टन लुईजियाना स्टेट यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के असोसिएट प्रोफेसर हैं। टाट्याना क्लेइनबर्ग वर्ल्ड बैंक के अनुसंधान विभाग की मैक्रोइकॉनॉमिक्स और ग्रोथ टीम में एक अर्थशास्त्री हैं।

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