स्वच्छ भारत मिशन से क्या बदलाव नहीं आए
- 24 अक्टूबर, 2019
- दृष्टिकोण
महात्मा गांधी की 150वीं जयंती और स्वच्छ भारत मिशन (एसबीएम) की 5वीं वर्षगांठ पर, कॉफ़ी और स्पीयर्स ने अपने एक फील्ड सर्वेक्षण के निष्कर्षों पर चर्चा की है। यह सर्वेक्षण पिछले पांच वर्षों में ग्रामीण उत्तर भारत में खुले में शौच करने वालों की संख्या में आए बदलाव पर है। ये बात तो सच है कि एसबीएम के तहत खुले में शौच करने वालों की संख्या में गिरावट आई है लेकिन ग्रामीण इलाकों में उन लोगों की संख्या में कमी नहीं आयी है जो घर में शौचालय होने के बावजूद शौच के लिए खुले में जाते हैं। खुले में शौच जाने वाले लोगों की संख्या में गिरावट ना आने की बड़ी वजह छूआछूत और सामाजिक असमानताओं में बदलाव ना आना है|
पिछले बुधवार को, मध्य प्रदेश के एक गांव में 10 साल और 12 साल के दो बच्चों की हत्या कर दी गयी। वो दोनो ही बच्चे दलित थे; पत्रकारों की मानें तो , हत्यारे ऊंची जाति के है। और जिस गाँव में ये घटना हुई उसे स्वच्छ भारत मिशन (एसबीएम) के तहत आधिकारिक रूप से खुले में शौच मुक्त (ओडीएफ) घोषित किया जा चुका है।
रिपोर्ट के मुताबिक, बच्चों को इसलिए मार दिया गया क्योंकि वो शौच के लिए खुले में गये थे ।
उत्तर भारत में रहने वाले बहुत से दूसरे परिवारों की तरह ही, उन बच्चों के परिवार के पास भी जो शौचालय है वो इस्तेमाल करने लायक नहीं हैं|। हाल ही में बहुत से भारतीय परिवारों को सरकार से शौचालय बनाने में मदद मिली है| पिछले कुछ वर्षों में दावा किया गया है कि सरकार ने लाखों-करोड़ों शौचालय बनवाए हैं। लेकिन बच्चों के पिता बताते हैं कि उन्हें स्थानीय अधिकारियों से शौचालय नहीं मिला है।
हमारी टीम ने 2014 और फिर 2018 में ग्रामीण भारत में हजारों लोगों से बात की, जिसमे हमें कई परिवारों ने अलग-अलग कहानियां बताई। कई बुजुर्गों ने, जो शौच के लिए खेतों तक जाने में असमर्थ थे, हमें बताया कि वो । सरकार से मिले शौचालय के लिए आभारी हैं। पर ग्रामीण भारत में कुछ लोग इस बात से नाराज़ भी थे कि स्थानीय सरकारी अधिकारी उन पर शौचालय बनाने का दबाव बना रहे थे| उनके मुताबिक़ शौचालय बनाने के लिए मिलने वाली 12,000 की सब्सिडी उसमें आने वाले कुल खर्च का एक छोटा हिस्सा ही थी| । कई बार, लोगों का रवईया उदासीन था – घर के सामने किसी ठेकेदार ने शौचालय तो बना दिया पर परिवार के लोग पहले भी खुले में शौच करते थे, और वो अब भी खुले में ही शौच करते हैं।
कुछ- मामलों में, लोगों ने बताया कि उन्हें शौचालय बनवाने के लिए मजबूर किया गया, धमकी दी गई, और इस वजह से कुछ लोगों ने हमें उनके डर, कुछ ने उनके गुस्से और कुछ लोगों ने हमें उनके अपमानित होने के बारे में बताया| - "शौचालय बनाओ नहीं तो राशन नहीं मिलेगा|” ", " शौचालय बनाओ नहीं तो बच्चों का नाम स्कूल से काट दिया जायेगा|” ", "अपने कान पकड़ कर उठक-बैठक करो, और खुले में शौच करने के लिए माफ़ी मांगो"। आंकड़े बताते हैं और शायद इस पर किसी को संदेह भी नहीं होगा कि अन्य सामाजिक समूहों के मुकाबले अधिक दलित और आदिवासी लोगों ने एसबीएम् द्वारा उनके साथ ऐसा बर्ताव होने के बारे में हमें बताया| ।
भारत के ग्रामीण इलाकों में जहां खुले में शौच करना आम है, वहां की दुर्भाग्यपूर्ण सच्चाई ये है कि एसबीएम के लागू होने से पहले भी उच्च-जाति के लोगों ने दलितों को नुकसान पहुंचाया है, उन्हें धमकाया है और कई मामलों में दलितों की हत्याएं भी की हैं। ऐसे में इस बात की काफी संभावना है की स्वच्छ भारत मिशन के न होने पर भी उन दलित बच्चों की हत्या होती|| इन सबके बीच किसी भी तरह का सबूत यह साबित नहीं कर सकता है कि स्वच्छ भारत मिशन जैसा जटिल और बहुआयामी राष्ट्रीय कार्यक्रम इस तरह के अपराध की वजह था। इसके अलावा, स्वच्छता मिशन पर काम करने वाले कई लोग भी उन बच्चों की हत्याओं से हैरान हैं।
स्वच्छ भारत मिशन ने भारत के गांवों की सामाजिक असमानता का इस्तेमाल किया और सामाजिक प्रभुत्व और ग्रामीण प्रशासन के बीच के बारीक फर्क का फायदा उठाया। कई स्थानों पर, संयोजको ने तेजी से बदलाव लाने के लिए सामाजिक मानकों का इस्तेमाल किया और इसके लिए स्थानीय संभ्रांत वर्ग के लोगों की भर्ती की। कुछ जगहों में जानबूझ कर स्वच्छाग्रही और निगरानी समीतियों को इस बात के लिए प्रोत्साहित किया कि वे सुबह-सुबह बाहर शौच के लिए जाने वाले गरीब और हाशिए पर रहने वाले लोगों को अपमानित और परेशान करें।
ग्रामीण उत्तर भारत खुले में शौच से मुक्त नहीं हुआ है। ऐसे लक्ष्य पांच साल में पूरे नहीं हो सकते। एक लोकप्रिय राजनीतिक नेता ने पूरे देश को एक ऐसे लक्ष्य के लिए जोश दिलाया जिसे इतने कम वक्त में हासिल करना मुमकिन नहीं था, इसके परिणाम क्या हुए?
यह कई बातों पर निर्भर करता है। सुनहरे नतीजों की कल्पना कर, उसे हासिल करने के तरीकों को जायज़ ठहराना आसान है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि ग्रामीण भारत में खुले में शौच करने वालों की संख्या में कमी लाना एक ज़रूरी लक्ष्य है। आसपास के लोगों का खुले में शौच जाना, बच्चों के लिए जानलेवा होता हैं| इसके बाद भी जो बच्चे जीवित बच जाते हैं यह उनके शारीरिक और मानसिक विकास को धीमा करता है। एसबीएम को करीब से जानने के दौरान, हमने अक्सर लोगों को कहते सुना है कि एक प्रेरणादायक लक्ष्य देश को एक उल्लेखनीय परिणाम प्राप्त करने के लिए प्रेरित कर सकता है। अगरलक्ष्य की घोषणा और शौचालय निर्माण की होड़ बिना किसी नकारात्मक परिणामों के खुले में शौच जाने वाले लोगों में तेज़ गिरावट ला सकती तो ऐसा करना वास्तव में एक अच्छी पहल होती|
लेकिन दुनिया भर में ताक़तवर राजनीतिक नेताओं की ओर से असंभव लक्ष्य रखे जाने के कई दूसरे परिणाम भी होते हैं।
इसका एक असर तो ये होता है कि शासन करने के लिए सरकारें सूचनाओं में छेड़छाड़ करके उसे अपने हक में इस्तेमाल करती हैं, और नागरिकों के सामने अपने दावों को सही साबित करती हैं। ज़मीनी स्थिति की जानकारी के लिए हमें मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से सिर्फ एक घंटे की दूरी पर ही जाना होगा| हम खुले में शौंच की ज़मीनी सच्चाई खुद-ब-खुद ही जान जाएंगे| पर अफ़सोस की बात है कि ज़्यादातर समीक्षक केवल आधिकारिक आंकड़ों पर ही ध्यान देते हैं। इस तरह के आधिकारिक आंकड़े सिर्फ सफलता ही दिखाते हैं, पिछले दिसंबर के संसदीय प्रश्न के जवाब में सरकार ने बताया कि मध्य प्रदेश 100% खुले में शौच मुक्त है।
भारत में आधिकारिक आकंड़ों की अविश्वसनीयता या उनका खोखलापन केवल स्वच्छता संबंधी आकंडों तक ही सीमित नहीं है। उदाहरण के लिए, सरकार लगातार इस बात का दावा करती रही है कि वायु प्रदूषण आम लोगों की मौत का कारण नहीं है। कहा यह भी जाता है कि नोट्बंदी के फैसले से पहले भी आर्थिक विशेषज्ञों के साथ परामर्श नहीं किया गया था। इसके अलावा महत्वपूर्ण आर्थिक सर्वेक्षणों को एकत्र करना और उनसे मिली जानकारी लोगों के बीच जारी करना भी बंद किया जा चुका है।
इसका एक असर यह भी हो सकता है कि भविष्य में बहुत बड़े लक्ष्यों को हासिल करने के लिए ज्यादतियों को वैध बना दिया जाए। ऐसे में भारत जैसे देश में, जहां लगभग एक तिहाई परिवार छुआछूत को मानते हैं (थोराट और जोशी 2015), ये आश्चर्य की बात नहीं होगी कि स्थानीय सरकारी अधिकारी जब स्वच्छ भारत के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए ज्यादातियों और धमकियों का इस्तेमाल करना जायज़ ठहराएंगे, इसका परिणाम पहले से ही वंचित परिवारों पर सबसे भारी पड़ेगा।
हमारे आंकड़े बताते हैं कि एसबीएम के तहत खुले में शौच जाने वाले लोगों के अनुपात में तेज़ गिरावट आयी है। लेकिन हैरानी की बात ये है कि 2014 और 2018 के बीच हमने जिन राज्यों के ग्रामीण इलाकों में सर्वेक्षण किया, वहां घर में शौचालय होने के बाद भी खुले में शौच के लिए जाने वालों की संख्या में कोई कमी नहीं आयी है। सांख्यिकीय आकंड़ों के मुताबिक खुले में शौच में गिरावट पूरी तरह से नए शौचालय बनाए जाने की वजह से ही आयी है।एक और चीज जो इस दौरान नहीं बदली है, वो ये कि छूआछूत और सामाजिक असमानता आज भी भारत में खुले में शौच की गंभीर समस्या की बड़ी वजह हैं। एसबीएम इन परस्पर चुनौतियों से एक साथ निपटने के लिए पांच साल चलने वाले एक महत्वाकांक्षी लक्ष्य की घोषणा कर सकता था, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया| इस अवसर को खोना ही, इस पूरे मिशन को हुआ सबसे बड़ा नुक्सान है।
लेखक परिचय: डाएन कॉफी अमेरिका के ऑस्टिन स्थित टेक्सास विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र और जनसंख्या अनुसंधान की असिस्टेंट प्रोफेसर और भारतीय सांख्यिकी संस्थान (आइएसआइ), दिल्ली में विजिटिंग रिसर्चर हैं। डीन स्पीयर्स अमेरिका के ऑस्टिन स्थित टेक्सास विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के असिस्टेंट प्रोफेसर और भारतीय सांख्यिकी संस्थान के दिल्ली केंद्र में विजिटिंग इकोनॉमिस्ट हैं।
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