सामाजिक पहचान

भारतीय महिलाओं की श्रमशक्ति में संलग्नता : स्मार्ट दृष्टिकोण का समय

  • Blog Post Date 14 दिसंबर, 2018
  • दृष्टिकोण
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इस आलेख में प्रोफेसर रोहिणी पांडे का दावा है कि भारत में महिला श्रमशक्ति की भागीदारी की अत्यंत निम्न दर को बढ़ाने के लिए व्यवहारमूलक हस्तक्षेप करना और सामाजिक प्रचलनों पर काम करना आवश्यक है।



वर्ष 1990 से 2015 के बीच भारत का वास्तविक प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 375 अमेरिकी डॉलर से बढ़कर 1,572 अमेरिकी डॉलर हो गया लेकिन महिला श्रमशक्ति सहभागिता दर 37 प्रतिशत से घटकर 28 प्रतिशत रह गई। यह बात सुलझाने के लिए एक पहेली प्रस्तुत करती है: भारत उसी रास्ते पर क्यों नहीं चल रहा है जिस पर भारत के समान स्तर के विकास वाले अध्किांश अन्य देश चल रहे हैं जहां सकल घरेलू उत्पाद बढ़ने के साथ-साथ महिला श्रमशक्ति सहभागिता भी बढ़ती है? इसकी दर को बढ़ाना महिलाओं की बढ़ी आर्थिक स्वायत्तता से होने वाले अनेक लाभों के कारण ही नहीं, इस कारण भी उच्च प्राथमिकता है कि विकास तभी सुदृढ़ होगा जब काम करने की उम्र वाले सभी नागरिक काम में लगेंगे।

निम्न महिला श्रमशक्ति सहभागिता के मिथक का जवाब यह नहीं है कि महिलाओं में ही काम करने की कम दिलचस्पी है। वर्ष 2011 का वार्षिक प्रतिदर्श सर्वेक्षण (एनएसएस) दर्शाता है कि मुख्यतः घर के काम में लगी एक-तिहाई से भी अधिक महिलाओं ने कहा कि वे कोई नौकरी करना पसंद करेंगी। ग्रामीण भारत की सबसे शिक्षित महिलाओं के मामले में यह संख्या बढ़कर लगभग आधी तक पहुंच जाती है। हालांकि इसका जवाब राजनीतिक इच्छा की स्पष्ट कमी भी नहीं है। भारत सरकार ने लड़कियों की शिक्षा के लिए अच्छे-खासे संसाध्न उपलब्ध् कराए हैं लेकिन यह प्रयास उच्च महिला श्रमशक्ति सहभागिता में रूपांतरित नहीं हुआ है जैसा कि अन्य देशों में हुआ है। स्किल इंडिया और मेक इन इंडिया जैसी पहलकदमियों में महिलाओं को शामिल करने के लिए कोटा तय है लेकिन तब भी उनमें महिलाओं की भर्ती करने, उन्हें काम में लगाने और नियुक्त होने के बाद उन्हें काम में लगाए रखने में अपेक्षित सपफलता नहीं मिल रही है।

इसके बजाय अनेक शोधकार्यों का सुझाव है कि मुख्य रूप से इसका जवाब महिलाओं के उपयुक्त व्यवहार के प्रति सामाजिक प्रथाओं और महिलाओं के माता-पिता, पति और ससुराल वालों द्वारा उन प्रथाओं को लागू करने में निहित है। वर्ष 2011 का भारतीय मानव विकास सर्वेक्षण (आइडीएचएस) दर्शाता है कि भारतीय महिलाओं के अच्छे-खासे हिस्से के अनुसार स्थानीय बाजार और स्वास्थ्य केंद्र जाने के लिए भी उन्हें परिवार के सदस्यों की अनुमति लेने की जरूरत पड़ती है। अगर आप अकेले घर से बाहर नहीं निकल सकते तो काम ढूंढना भी अंततः काफी मुश्किल हो जाता है। कौशल प्रशिक्षण कार्यक्रमों में भाग लेने वाले पुरुषों और महिलाओं का एक सर्वेक्षण दर्शाता है कि महिलाओं द्वारा नौकरी नहीं स्वीकार करने या छोड़ देने के निश्चित तौर पर सबसे आम कारण परिवार के दबाव और दायित्व हैं जबकि पुरुषों के लिए मुख्य कारण कम वेतन होना है।

जब बाधा संसाधनों की कमी या मानव पूंजी के बजाय सामाजिक प्रथाएं हों, तो हम जिस तरह से प्रगति कर सकते हैं वह बदल जाता है और अधिक स्मार्ट नीतिगत प्रतिक्रिया की मांग करता है।

नीतियों को दुरुस्त करना

जब प्रथाएं महिलाओं के काम करने के प्रतिकूल हों तो महिलाओं को हम आर्थिक अवसर कैसे उपलब्ध् करा सकते हैं? अपने साथियों के साथ मिलकर किए गए हाल के काम के आधार पर मैं दो विचारों को सामने रखूंगी जिसमें संकेत मौजूद हैं कि महिलाओं का व्यवहार कैसे बदला जा सकता है और महिलाओं को श्रमशक्ति में कैसे शामिल किया जा सकता है।

महिलाएं जो भी कमाई करती हैं उसका नियंत्रण उनके हाथ में देना

भारत के ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम मनरेगा (महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना) में महिलाओं को लक्षित करने में कुछ सफलता हासिल हुई है जिसका आंशिक कारण यह है कि इसमें उन्हें घर के समीप रोजगार मिलता है। लेकिन हाल तक परिवार के मुखिया के बैंक खाते में वेतन भुगतान करने की व्यवस्था थी जो आम तौर पर पुरुष होते थे। मैंने और मेरे साथियों ने हस्तक्षेपों के अनेक संयोजनों का प्रभाव जांचने के लिए मध्य प्रदेश में बड़े पैमाने का प्रयोग संचालित किया। ये संयोजन थे: उनका बैंक खाता खुलवाना, मनरेगा का भुगतान सीधे उनके खाते में भेजना, और उन्हें बुनियादी वित्तीय साक्षरता का प्रशिक्षण देना जिससे कि वे जान सकें कि खाता का उपयोग कैसे किया जाता है। अध्ययन अभी चल ही रहा है लेकिन कुछ उल्लेखनीय परिणाम हमें अभी ही प्राप्त हो चुके हैं।

हमलोगों को विभिन्न हस्तक्षेपों से अनेक प्रकार के वित्तीय लाभों की जानकारी मिली लेकिन तीनों हस्तक्षेपों को पाने वाली महिलाओं में सबसे बड़ा परिवर्तन दिखा: मनरेगा में और मनरेगा के बाहर, दोनो स्थिति में उनके काम करने की संभावना अधिक थी; उनलोगों ने 25 प्रतिशत अधिक उपार्जन करने और बैंकों में 60 प्रतिशत अधिक बचत होने की जानकारी दी और उनके द्वारा अपने रुपए से घरेलू सामानों की अधिक खरीदारी करने की संभावना थी।

महिलाओं के सामाजिक नेटवर्कों को बढ़ावा

हाल के एक अध्ययन में मैंने और मेरे सह-लेखकों ने भारत में महिलाओं के सबसे बड़े बैंक स्वनियोजित महिला संघ (सेवा) बैंक के साथ काम किया है। यह बैंक महिला ग्राहकों के लिए व्यावसायिक कौशल और लक्ष्य निर्धारण के तरीके बताने के लिहाज से दो-दिवसीय पाठ्यक्रम चलाता है। ट्रीटमेंट समूह में (जिन्हें इस पाठ्यक्रम की पेशकश की गई थी) आधी महिलाओं को अकेले आने की पेशकश की गई और आधी को किसी मित्रा के साथ आने के लिए आमंत्रित किया गया। हमने पाया कि दोनो सेट की महिलाओं द्वारा ऋण लेने की संभावना उन महिलाओं की अपेक्षा अधिक थी जिनलोगों ने कोर्स नहीं किया। किसी मित्रा के साथ शामिल होने वाली महिलाओं के मामले में यह संभावना और भी अधिक थी। इसके अलावा किसी मित्रा के साथ आने वाली महिलाओं द्वारा अपने ऋणों का, खास कर व्यावसायिक प्रयोजनों के लिए उपयोग करने की संभावना अधिक थी। वहीं, जिन महिलाओं को अकेले आमंत्रित किया गया था उनलोगों ने ऋणों का उपयोग अधिकांशतः घरों की मरम्मत के लिए किया जिसका मुख्यतः उनके व्यवसायों से कोई संबंध् नहीं था।

सबसे आकर्षक बात यह है कि जिन महिलाओं को किसी मित्रा के साथ आमंत्रित किया गया था, चार महीने बाद उनलोगों की घरेलू आय और खपत का स्तर काफी अधिक था और उनलोगों के द्वारा गृहिणी को अपना पेशा बताने की कम आशंका थी।

जब घर में महिलाओं की मोलतोल की क्षमता कम हो, तो बदलाव लाने के लिए उन्हें अन्य महिलाओं के नेटवर्क की ओर मोड़ देने की जरूरत है। जिन जगहों पर पति शराब पीते हैं वहां हमलोगों ने आत्मसंयम आंदोलन (टेंपरेंस मूवमेंट) में ऐसा होते देखा है जहां घरेलू फैसलों को प्रभावित करने में महिलाएं सहयोग करती हैं। किस तरह का निवेश किया जाय और काम करना चाहिए या नहीं जैसे अन्य घरेलू पफैसलों को प्रभावित करने में भी महिलाएं उस ताकत का उपयोग कर सकती हैं।

लेखक परिचय : रोहिणी पांडे हार्वर्ड कैनेडी स्कूल में मोहम्मद कमाल प्रोफेसर ऑफ़ पब्लिक पॉलिसी, और एविडेंस फॉर पालिसी डिज़ाइन (ईपॉड) की सह-निदेशक हैं।

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