ग़ैर-संचारी रोगों के कारण मृत्यु दर में हो रही वृद्धि के चलते महिलाओं के लिए बदलते स्वास्थ्य देखभाल बोझ को देखते हुए, भान और शुक्ला पिछले दो दशकों में विभिन्न भारतीय राज्यों में हुई बीमारियों की घटनाओं और स्वास्थ्य देखभाल तक पहुँच में आने वाली बाधाओं को कम करने के लिए पीएमजेएवाई कार्यक्रम की भूमिका की रूपरेखा प्रस्तुत करते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर प्रस्तुत इस शोध आलेख में भान और शुक्ला सार्वजनिक वित्त-पोषित स्वास्थ्य देखभाल कार्यक्रमों के उपयोग में पुरुष पूर्वाग्रह पर, जैसा कि राज्य की बीमा योजनाओं से पता चलता है, ध्यान देते हैं और महिलाओं की पहुँच और उपयोगकर्ता अनुभव में आने वाली बाधाओं को समझने की आवश्यकता पर रौशनी डालते हैं।
सितंबर 2023 में, भारत के राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा कार्यक्रम, प्रधान मंत्री जन आरोग्य योजना, पीएमजेएवाई, के पाँच साल पूरे हुए। यह पीएमजेएवाई के अनुभव को प्रतिबिंबित करने का एक महत्वपूर्ण क्षण है, जो दुनिया के सबसे बड़े सार्वजनिक वित्त-पोषित स्वास्थ्य बीमा कार्यक्रमों में से एक है और राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति चर्चा का मुख्य आधार बनने के साथ-साथ सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज का मार्ग माना जाता है। भले ही राज्यों में लाभार्थियों की पात्रता के, लक्षित से सार्वभौमिक तक के, मानदंड भिन्न-भिन्न हैं, पीएमजेएवाई गरीब परिवारों के लिए स्वास्थ्य पहुँच की सुविधा प्रदान करता है और यह इसके कार्यान्वयन के भविष्य के लिए एक महत्वपूर्ण फ्लैश प्वाइंट बन गया है। चाहे लिंग और उम्र कोई भी हो, यह सभी सदस्यों के लिए लागू है और यह परिवार को 5,00,000 रुपये तक का कवरेज प्रदान करता है। इसका उपयोग सूचीबद्ध माध्यमिक और तृतीयक स्वास्थ्य सुविधाओं में किया जा सकता है और इसमें सार्वजनिक सुविधाओं के साथ निजी स्वास्थ्य सुविधाएं भी शामिल हैं।
महिलाओं के स्वास्थ्य देखभाल का बदलता बोझ
पीएमजेएवाई की स्थापना भारत में महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ के साथ मेल खाती है। भारत में महिलाओं के लिए स्वास्थ्य देखभाल तक पहुँच मुख्य रूप से उच्च मातृ, नवजात और शिशु मृत्यु दर के समाधान के लिए, मातृ एवं शिशु देखभाल सेवाओं के प्रावधान पर केन्द्रित है। इन दरों में गिरावट और संक्रामक से ग़ैर-संचारी रोगों (एनसीडी) में विशाल महामारी स्तर के परिवर्तन से, यह तस्वीर वैश्विक स्तर के साथ-साथ भारत में भी बदल रही है और महिलाओं की बदलती स्वास्थ्य देखभाल आवश्यकताओं की ओर इशारा कर रही है (आकृति-1 देखें)। इंडिया स्टेट लेवल बर्डन ऑफ डिज़ीज़ (2017) के आँकड़ों के अनुसार, हृदय रोग (सीवीडी), पुरानी श्वसन स्थिति, कैंसर, मधुमेह और किडनी से संबंधित स्वास्थ्य समस्याएं जैसे ग़ैर-संचारी रोग वर्ष 2018 में महिलाओं की मृत्यु दर- 2 में से 1 (53.5%) के लिए कारण हैं, जो वर्ष 2000 में 3 में से 1 (33%) थी।
आकृति-1. भारत में ग़ैर-संचारी रोगों से महिलाओं की मृत्यु दर
नोट : यह ग्राफ़ उस वर्ष महिलाओं की कुल मृत्यु दर के अनुपात के रूप में, ग़ैर-संचारी रोगों से मृत्यु दर को दर्शाता है। स्रोत : इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च, पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया और इंस्टीट्यूट फॉर हेल्थ मेट्रिक्स एंड इवैल्यूएशन, जीबीडी इंडिया कंपेयर डेटा विज़ुअलाइज़ेशन (2017)।
विशिष्ट स्वास्थ्य स्थितियों के आधार पर इस वर्गीकरण से पता चलता है कि वर्ष 2018 में सीवीडी (कोरोनरी हृदय रोग, स्ट्रोक और कार्डियोमायोपैथी) के कारण भारत में महिलाओं में 4 में से 1 (25.7%) मौत हुई। वर्ष 2018 में पंजाब, केरल, पश्चिम बंगाल और गोवा में सीवीडी के कारण मृत्यु दर सबसे अधिक रही। हालांकि परिवर्तन के सन्दर्भ में, वर्ष 2000 के बाद से जिन राज्यों में सीवीडी मृत्यु दर में सबसे तेज़ वृद्धि दर्ज हुई, उनमें पंजाब, तेलंगाना और महाराष्ट्र शामिल हैं। पंजाब में महिलाओं में सीवीडी की घटनाएं 29% से बढ़कर 41% हो गईं, तेलंगाना में सीवीडी के कारण मौतें उल्लेखनीय रूप से 19% से बढ़कर 30% हो गईं, जबकि महाराष्ट्र में ये 21% से बढ़कर 32% हो गईं।
पुरानी श्वसन-संबंधी स्थितियाँ (क्रोनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिज़ीज़- सीओपीडी, अस्थमा, व्यवसाय से जुड़े फेफड़ों के रोग और पल्मोनरी उच्च रक्तचाप) के बाद सीवीडी मौतों का प्रमुख कारण बन गया। मृत्यु दर वर्ष 2000 में 8.1% थी, जो वर्ष 2018 में बढ़कर 12.4% हो गई- यानी इसमें 50% की वृद्धि हुई। हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में क्रोनिक श्वसन स्थितियों के कारण महिलाओं की मृत्यु दर 13% से बढ़कर 19% हो गई है, जो सम्भवतः महिलाओं के घरेलू काम- जैसे चूल्हे पे खाना पकाने के लिए लकड़ी का इस्तेमाल से जुड़ी है, जिससे उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
उत्तर-पूर्वी राज्यों में वर्ष 2000 और 2018 के बीच, महिलाओं में कैंसर से संबंधित मृत्यु दर मिजोरम में 13.3% से बढ़कर 20.2%, सिक्किम में 8.7% से 15.2% और मेघालय में 8.1% से 14.2% हो गई, जिसमें सबसे अधिक मृत्यु स्तन और सर्वाइकल कैंसर के कारण हुई। तमिलनाडु, गोवा, पंजाब और केरल में मधुमेह और किडनी विकारों से मरने वाली महिलाओं की संख्या भी वर्ष 2000 और 2018 के बीच दोगुनी होकर 6.3% से 12% हो गई। इन स्थितियों से होने वाली रुग्णता आजीवन और अपरिवर्तनीय भी हो सकती है, जो जीवन की गुणवत्ता और परिवार द्वारा जेब से किए जाने वाले खर्च पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालती है। एनसीडी में ये रुझान महिलाओं की स्वास्थ्य आवश्यकताओं पर तत्काल ध्यान देने और राज्य के सन्दर्भों में उनके निर्धारकों को समझने की आवश्यकता का संकेत देते हैं।
स्वास्थ्य देखभाल के उपयोग में लैंगिक बाधाएँ
महिलाओं की स्वास्थ्य आवश्यकताओं को अक्सर 'थ्री डिले फ्रेमवर्क' (थैडियस और मेन 1994) का उपयोग करके समझा जाता है, जैसा कि मातृ-स्वास्थ्य के मामले में होता है। ‘थ्री डिले’ में शामिल हैं- i) परिवार में महिलाओं की स्वास्थ्य आवश्यकताओं की पहचान और प्राथमिकता की कमी के कारण देखभाल में देरी ii) सीमित या निम्न-गुणवत्ता वाली स्वास्थ्य सेवाओं एवं स्वास्थ्य सेवा-प्रदाताओं के कारण, एनसीडी से जुड़े जोखिमों, कमज़ोरियों की समय पर पहचान सुनिश्चित कर सकने वाली पर्याप्त स्वास्थ्य-सुविधा तक पहुँचने में देरी और iii) विशेषज्ञता वाली सेवाओं की तलाश में अनुभव की गई वित्तीय बाधाओं के चलते सस्ती देखभाल सेवाएँ प्राप्त करने में देरी।
भारत के सार्वजनिक वित्त-पोषित स्वास्थ्य बीमा कार्यक्रम उपरोक्त ‘तीसरी देरी’ का हल कर सकते हैं और राष्ट्रीय व राज्य स्तर पर लाखों महिलाओं के लिए सामर्थ्य और जोखिम सुरक्षा में सुधार कर सकते हैं। पीएमजेएवाई के नामांकन के बारे में उपलब्ध डेटा उत्साहजनक है और स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ उठाने के लिए महिलाओं और पुरुषों की समान दर की दिशा में हो रही प्रगति को दर्शाता है। लेकिन बीमा तक पहुँच और उपयोग में लैंगिक असमानताओं को पूरी तरह से समझा नहीं गया है और राज्य की बीमा योजनाओं के साक्ष्य उपयोग में पुरुष-समर्थक पूर्वाग्रह का संकेत देते हैं। यह पूर्वाग्रह राजस्थान में दौरे और खर्च के सन्दर्भ में स्वास्थ्य देखभाल के उपयोग की आवृत्ति (डुपास और जैन 2021), साथ ही आंध्र प्रदेश में अस्पताल में भर्ती होने पर किए गए खर्च के आधार (शेख एवं अन्य 2018) के सन्दर्भ में देखा गया है। यह लैंगिक पूर्वाग्रह परिवार में स्वास्थ्य देखभाल के लिए महिलाओं के सीमित अधिकार (एजेंसी) और परिवहन और सहायता के लिए पुरुषों पर उनकी निर्भरता, स्वास्थ्य देखभाल तक पहुँच के लिए परिवार के सदस्यों से आवश्यक मंज़ूरी, और निदान व दवाओं से जुड़े अतिरिक्त खर्च बढ़ने पर महिलाओं की स्वास्थ्य आवश्यकताओं की उपेक्षा करने की प्रवृत्ति के कारण मौजूद है। इसके अलावा, बीमा कार्यक्रमों का उपयोग और स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँचने में बाधाएं महिलाओं को देखभाल की मांग करने से रोकती है और उपचार पर निर्णय लेने, बीमा एजेंटों के साथ बातचीत करने और उपचार के लिए प्रतीक्षा समय के दौरान समर्थन की कमी जैसी चुनौतियाँ पेश करती है। इन दूरियों को समझने के लिए स्वास्थ्य बीमा तक पहुँच और उसके बाद स्वास्थ्य-प्राप्ति की लैंगिक समझ की आवश्यकता है।
भविष्य की राह
तो सार्वजनिक-वित्त पोषित बीमा के अगले चरण में क्या नया हो सकता है, विशेष रूप से उपरोक्त चुनौतियों में से कुछ का समाधान करने के लिए? सबसे पहले, हमें लिंग के आधार पर सार्वजनिक-वित्त-पोषित कार्यक्रमों के उपयोगकर्ता अनुभव- विशेष रूप से इस के उपयोग में आने वाली बाधाओं और स्वास्थ्य देखभाल इंटरैक्शन में रोगी-केन्द्रितता को समझने की तत्काल आवश्यकता है। मातृ के साथ-साथ यौन और प्रजनन स्वास्थ्य अनुसंधान (जैसे डायमंड-स्मिथ एवं अन्य 2018, श्रीवास्तव एवं अन्य 2018) से मिली सीख ने महिलाओं के स्वास्थ्य की तलाश में सम्मानजनक देखभाल और रोगी-केन्द्रित प्रथाओं के महत्व को दर्शाया है और यह महिलाओं के एनसीडी जोखिम मूल्यांकन (उदाहरण के लिए, प्रजनन कैंसर स्क्रीनिंग में) के लिए प्रोटोकॉल स्थापित करते समय एक गेम-चेंजर साबित हो सकता है।
दूसरा, भले ही अधिक से अधिक अस्पताल सार्वजनिक रूप से वित्त-पोषित कार्यक्रमों में शामिल हो रहे हों, हमें यह समझने की जरूरत है कि स्वास्थ्य देखभाल की गुणवत्ता और प्रथाएं महिलाओं के स्वास्थ्य उपयोग को किस तरह से प्रभावित करती हैं। यदि महिलाओं को स्वास्थ्य बीमा से सुरक्षा मिलती है तो क्या वे स्वास्थ्य सेवा तक अधिक स्वतंत्र रूप से पहुँच पा रही हैं? जब हम लैंगिक आधार पर अधिक अनुकूल और उत्तरदायी स्वास्थ्य नीतियों और कार्यक्रमों को डिज़ाइन करते हैं तो हमें कार्यान्वयन के किन पहलुओं पर विचार करने की आवश्यकता है? अन्य सन्दर्भों के साहित्य से पता चला है कि यदि निदान और दवाओं की बिना-बीमा लागत अधिक हो तो परिवारों द्वारा महिलाओं के लिए स्वास्थ्य बीमा का उपयोग करने की संभावना कम होती है (करपागम एवं अन्य 2016, रामप्रकाश और लिंगम 2021)। स्वास्थ्य उपयोग की गतिशीलता और महिलाओं की अपनी आवश्यक स्वास्थ्य देखभाल को छोड़ने की इच्छा को अच्छी तरह से नहीं समझा गया है और यह उनकी आत्म-जागरूकता की कमी के साथ-साथ कम आत्म-मूल्य, दोनों से संबंधित हो सकता है।
अंततः एनसीडी से निपटने के लिए कार्यक्रम की योजना में महिला सशक्तिकरण को केन्द्रीय माना जाना चाहिए। साथ ही कार्यक्रम आत्म-देखभाल के मूल्यों को बढ़ाने वाले हों ताकि महिलाओं को परिवारों और स्वास्थ्य प्रणालियों के भीतर उनकी स्वास्थ्य आवश्यकताओं को प्राथमिकता देने की मांग करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके।
अंग्रेज़ी के मूल लेख और संदर्भों की सूची के लिए कृपया यहां देखें।
लेखक परिचय : नंदिता भान जिंदल स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ एंड ह्यूमन डेवलपमेंट, ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी में पढ़ाती हैं। वह सेंटर फॉर सोशल एंड इकोनॉमिक प्रोग्रेस (सीएसईपी) में विजिटिंग फेलो के रूप में भी संबद्ध हैं। प्राजक्ता प्रदीप शुक्ला भी सेंटर फॉर सोशल एंड इकोनॉमिक प्रोग्रेस में रिसर्च एसोसिएट के रूप में काम करती हैं।
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