शासन

शासन में सुधार के लिए मोबाइल का उपयोग

  • Blog Post Date 26 जून, 2019
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Karthik Muralidharan

University of California, San Diego

kamurali@ucsd.edu

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Paul Niehaus

University of California, San Diego

pniehaus@ucsd.edu

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Jeffrey Weaver

University of Southern California

jbweaver@usc.edu

मुख्य सार्वजनिक कार्यक्रमों का कितनी अच्छी तरह क्रियान्वयन हो रहा है इसे मापना शासन  की एक बड़ी चुनौती बनी हुई है। देश में मोबाइल-फोन की तेजी से बढ़ रही पहुंच को देखते, मुरलीधरन, नीहौस, सुखतंकर, और वीवर का मानना है की सार्वजनिक सेवा वितरण में सुधार के लिए इस सशक्त साधन का लाभ उठाना चाहिए। 

 

सरकारी दफ्तरों में बैठे हुए हाकिमों को ‘जमीनी हकीकत’ जानने में जो समस्या पेश आती है, वह कोई नई नहीं है। इतिहास बताता है कि अशोक से लेकर अकबर तक तमाम सम्राट सच जानने के लिए वेश बदलकर अपने राज्य में घूमा करते थे। आज भी हमारी सरकारों के लिए यह जानना एक बड़ी चुनौती है कि उनकी जन-हितकारी योजनाएं कैसी चल रही हैं? कनिष्ठ अधिकारी अक्सर  इन योजनाओं के क्रियान्वयन की समस्याओं को कम और अपने प्रदर्शन को बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं। इस कारण शीर्ष नेताओं और वरिष्ठ अधिकारियों तक ‘जमीनी हकीकत’ मुश्किल से पहुंच पाती है।

आज के जमाने में जमीनी हकीकत जानने के लिए वेश बदलकर घूमने की बजाय आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल किया जा सकता है। भारत में मोबाइल इस्तेमाल करने वालों की संख्या तेजी से बढ़ी है। साल 2002 में जहां प्रति 100 लोगों में एक मोबाइल था, वहीं 2017 में यह संख्या बढ़कर 62 हो चुकी है। हमारी जिंदगी को मोबाइल ने कई तरह से बदला है, फिर भी सेवा को सुधारने के लिए अब तक इसका इस्तेमाल नहीं किया गया। आज कई योजनाओं में शिकायतें दर्ज करने के लिए हॉटलाइन की सुविधा उपलब्ध है। मगर लाभार्थी शायद ही इनका इस्तेमाल करते हैं। ऐसे में, बेहतर यही होगा कि सरकार खुद संजीदगी के साथ लोगों को फोन करे और सार्वजनिक योजनाओं के बारे में उनके अनुभवों को जाने। इसे नियमित रूप से करने से हमें वास्तविक आंकडे़ मिल सकते हैं।

इसका परीक्षण हाल ही में तेलंगाना की एक महत्वपूर्ण योजना- रायथू बंधु (किसानों का मित्र) में किया गया। इस योजना में तेलंगाना सरकार ने किसानों को खेती के  हर सीजन में बीज और खाद जैसी महत्वपूर्ण लागत के भुगतान में मदद के लिए प्रति एकड़ 4,000 रुपये दिए। किसानों को पैसे का भुगतान मंडल (उप-जिला) कृषि अधिकारी के कार्यालय से चेक के रूप में किया गया। यह तेलंगाना सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता वाली योजना थी और इसकी  सावधानीपूर्वक निगरानी भी की गई। फिर भी, जैसा कि आमतौर पर होता है, इसके क्रियान्वयन में तमाम तरह की मुश्किलें आ सकती थीं। मसलन, चेक जारी न होना, उनका सही वितरण न होना, बांटने में देरी या फिर रिश्वत की मांग होना।

इस योजना के तहत दो सप्ताह के भीतर 20,000 से अधिक लाभार्थियों को फोन किया गया। हमने उनसे कुछ बुनियादी सवाल पूछे। जैसे - उन्हें चेक कब और कहां मिला? क्या उन्होंने इसे बैंक में जमा कर धन हासिल किया? और क्या उन्हें इसके लिए रिश्वत भी देनी पड़ी? लगभग 25 फीसदी मंडल कृषि अधिकारियों को यह सूचित किया गया था कि उनके मंडल में ऐसी निगरानी की जा रही है। उनको यह भी बताया गया कि इस निगरानी के आंकड़ों से उनकी व्यक्तिगत प्रदर्शन-रिपोर्ट बनाई जाएगी, जो उनको और उनके वरिष्ठ अधिकारियों को दी जाएगी। खास बात यह थी कि इन 25 फीसदी मंडल कृषि अधिकारियों का चयन लॉटरी के माध्यम से किया गया, जिससे हम फोन निगरानी वाले और बिना निगरानी वाले मंडलों की तुलना करके भरोसेमंद तरीके से निगरानी के प्रभाव का मूल्यांकन कर सकें। 

इस सामान्य सी घोषणा का सकारात्मक प्रभाव पड़ा। इस योजना को तेलंगाना राज्य सरकार ने प्राथमिकता दी थी। इसलिए जहां फोन आधारित निगरानी की कोई व्यवस्था नहीं थी, योजना उन इलाकों में भी अच्छी तरह से संचालित हुई। वहां 83 फीसदी किसानों को चेक मिले। हालांकि जहां फोन आधारित निगरानी व्यवस्था थी, वहां पर 1.5 फीसदी अधिक किसानों को चेक मिले। इस निगरानी से उन किसानों को कहीं ज्यादा फायदा पहुंचा, जो वंचित थे। इस वर्ग में निगरानी के कारण 3.3 फीसदी अधिक किसानों को चेक मिले। अच्छी बात यह भी थी कि जिन किसानों के पास फोन नहीं था, उन्हें भी ठीक उसी तरह इस फोन आधारित निगरानी का लाभ मिला, जितना कि फोन रखने वाले किसानों को मिला। यह स्थिति बता रही थी कि मंडल कृषि अधिकारी ने सिर्फ उन्हीं किसानों की सुध नहीं ली, जिनके पास फोन थे। हमने यह सब पता करने के लिए जिस कॉल सेंटर का इस्तेमाल किया, उस पर भी काफी कम खर्च आया। महज 25 लाख रुपये खर्च करके हमने किसानों के लिए अतिरिक्त सात करोड़ रुपये का वितरण पक्का किया। हमारे पास जितनी योजनाओं के आंकड़े हैं, उनमें से इसमें  सबसे कम प्रशासनिक लागत (3.6 फीसदी) है।

दूसरी तमाम योजनाओं में इस तरह की रणनीति काफी कारगर हो सकती है। खासतौर से, राशन योजना (पीडीएस) और मनरेगा जैसी प्रमुख योजनाओं में(जहां क्रियान्वयन में ज्यादा कमियां हैं) सुधार की गुजाइंश रायथू बंधु योजना से कहीं ज्यादा है। इनमें फोन से निगरानी के साथ-साथ योजनाओं को जमीन पर लागू करने वाले अधिकारियों को प्रोत्साहित करने के लिए पुरस्कार की घोषणा भी की जा सकती है (हालांकि तेलंगाना सरकार ने इस प्रयोग में ऐसा नहीं किया), और आंकड़ों को सार्वजनिक करके समाज में लोकतांत्रिक जवाबदेही की जड़ें मजबूत की जा सकती हैं। नियमित निगरानी से एक बड़ा असर यह भी होगा कि इन्क्रीमेंट (वेतन-वृद्धि), पदोन्नति और नियुक्ति जैसे कर्मियों के प्रबंधन के विषयों में वरिष्ठ अधिकारी कहीं अधिक निष्पक्ष बन सकते हैं। दुनिया भर के अध्ययन यही बताते हैं कि कर्मियों का प्रबंधन शासन का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा होता है।


भारत जब पहले से ही दुनिया को कॉल सेंटर की सेवाएं देने के मामले में सबसे आगे है, तो फिर स्थानीय प्रशासन को सुधारने में हम खुद इसका लाभ क्यों नहीं उठाते? आज दुर्गम इलाकों तक मोबाइल की पहुंच है, और मोबाइल फोन द्वारा कई सामाजिक कार्यक्रमों में लाभार्थियों के अनुभवों  से संबंधित आंकडे़ जमा किए जा सकते हैं। राशन वितरण से मनरेगा के काम और स्कूलों में शिक्षकों की उपस्थिति तक, सभी में कॉल सेंटर से आंकडे़ जमा किए जा सकते हैं। यह सही है कि दूसरे क्षेत्रों और राज्यों में इस तकनीक को अपनाने के लिए और ज्यदा परीक्षण करने की आवश्यकता है। लेकिन अध्ययन के नतीजे बताते हैं कि इससे शासन-प्रशासन में उल्लेखनीय सुधार की संभावना है।

ये लेखकों के अपने विचार हैं। 

यह लेख पहले हिंदुस्तान में प्रकाशित हुआ था। 

लेखक परिचय: कार्तिक मुरलीधरन यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया, सैन डीएगो में अर्थशास्त्र के टाटा चांसलर्स प्रोफेसर हैं।  पॉल नीहौस यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया, सैन डीएगो में अर्थशास्त्र के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। संदीप सुखतंकर यूनिवर्सिटी ऑफ़ वर्जिनिया में अर्थशास्त्र के एसोसिएट प्रोफेसर हैं। जेफरी  वीवर यूनिवर्सिटी ऑफ़ सदर्न  कैलिफोर्निया  में अर्थशास्त्र के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।

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