इस वर्ष अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी और एस्थर डुफ्लो ने 20 वर्षों से भी अधिक समयतक भारत में शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाले गैर सरकारी संस्थान ‘प्रथम’ के साथ कार्य किया है।समय के साथ-साथ शोध एवं अभ्यास की इस अद्भुत साझेदारी के परिणामस्वरूप एकअनुदेशात्मक दृष्टिकोण विकसित हुई है जो वर्तमान युग की शिक्षा पद्धति मेंमुख्य चुनौतियों का समाधान कर सकता है। इस आलेख में, ‘प्रथम’ की मुख्य कार्यकारी अधिकारी रुकमणि बैनर्जी उस शानदार सफर की व्यावसायिक और वैयक्तिक झलकियाँ प्रस्तुत कर रही हैं।
साझेदारी की शुरुआत
हम, अभिजीत और एस्थर से 1999 के आस-पास पहली बार मिले थे।मुंबई ग्रांड रोड के समीप नाना चौक में हमारा कार्यालय बहुत छोटा और सीमित था। नीचे गली में हो रहे शोरगुल और दौड़-धूप को दरकिनार करते हुए हम पहली मंजिल के कक्ष में मिले थे। मैं हैरान थीऔर मन में थोड़ा संदेह भी था।एमआईटी से अर्थशास्त्र का यह प्रोफेसर हमारे काम में दिलचस्पी क्यों ले रहा है? उनके साथ एक महिला थी जो किसी स्कूल की छात्रा जैसी दिख रही थी। उन्हें देखकर यह मानना कठिन था कि उन्होंने पीएचडी की हुई है और वे भी प्रोफेसर हैं। ये लोग कौन हैं? ये विकिपीडिया और सेल फोन के दिनों से पहले की बात है। उनके बारे में फटाफट जानकारी हासिल करने का कोई तरीका नहीं था। माधव1मुझसे ज्यादा खुले विचारों का था और आज भी है। वह जिज्ञासुक था। जैसे-जैसे वार्तालाप बढ़ता गया हमने पाया कि उन दोनों प्रोफेसरों की बातों में माधव की दिलचस्पी बढ़ने लगी। दूसरी ओर, मेरे लिए यह समझ पाना कठिन था कि यह हो क्या रहा है। अभिजीत बुदबुदा रहा था। एस्थर की बोली में बहुत हद तक फ्रेंच लहज़ा था। मुझे यह पूरी तरह से समझ में ही नहीं आया कि हम किस बात पर सहमति जता रहे हैं। काफी चर्चाओं के बाद यह स्पष्ट हुआ कि वे लोग हमारे द्वारा उस समय मुंबई और वडोदरा के नगरपालिका के विद्यालयों में किए जा रहे कार्यों का अध्ययन करने के इच्छुक थे। विद्यालयों का नामांकन पहले ही ज्यादा था और बढ़ भी रहा था। फिर भी, कई वर्षों तक स्कूल में रहने के बावजूद कई बच्चों को पढ़ने या गणित के आसान सवालों को हल करने में मशक्कत करनी पढ़ती थी। नगरपालिका के विद्यालयों के साथ गठबंधन में हम दोनों शहरों में नगरपालिका के विद्यालयों के लिए स्वेच्छा आधारित सुधारात्मक शिक्षा कार्यक्रम चला रहे थे। हमारी ओर से, मैं वह व्यक्ति थी जिसे इन दोनों प्रोफेसरों के साथ मिलकर काम करना था। उस समय हमें इस बात का जरा सा भी अंदाजा नहीं था कि हम किस यात्रा की शुरूआत करने जा रहे थे।
‘बालसखी’ कार्यक्रम, कुछ मुख्य तत्वों को ध्यान में रखते हुए तैयार किया गया था। एक स्थानीय समुदाय का स्वयंसेवक- बालसखी (शब्द का अर्थ है बच्चे का मित्र)- अड़ोस-पड़ोस के विद्यालय में बच्चों के साथ काम करेगा। इस काम के लिए उन्हें बहुत अल्प मेहनताना मिलता था। इन ‘बालसखियों’ का मुख्य कार्य उन बच्चों को पढ़ाना था जिन्हें विद्यालय में दाखिला लिए कुछ वर्ष हो चुके हैं परंतु आज भी वे बुनियादी गणित को हल करने या आसान से पाठ को पढ़ने में कठिनाइयों का सामना कर रहे हैं। बच्चे स्कूल में आएं और उचित पठन-पाठन क्रियाकलापों में भाग लें, इस बात को सुनिश्चित करने के लिए हम कुछ बुनियादी प्रशिक्षण एवं सतत् सहचर सहयोग देते थे। उस समय, किसी भी प्रकार की सुधारात्मक सहायता बहुत कम प्राथमिक पाठशालाओं में उपलब्ध थी। इस तरह से, मुंबई नगरी समय से आगे चल रही थी। नगर-पालिका के प्रशासकों ने हमारे स्वयं-सेवकों को पढ़ाई में पिछड़े हुए बच्चों के लिए ‘उपचारी’ कक्षाएं आयोजित करने की अनुमति दी। मक्सद यह था कि बच्चों को समानांतर स्तर पर लाने में उनकी मदद की जाए। यह कार्यक्रम मुंबई नगर पालिका के सभी विद्यालयों में चल रहा था। हम इस बात से आश्वस्त थे कि यह सुधारात्मक प्रयास बदलाव ला रहे हैं। फिर भी, कभी ऐसा नहीं हुआ कि कोई तीसरा पक्ष आकर करीब से इसका मुआयना करे कि क्या हो रहा है।
इस पर विचार करते हुए, ‘उपचार’ (मध्यस्थता) के यादृच्छिकीकृत (अनियमित) आबंटन को समझना कठिन नहीं था। हम सबने चिकित्सकीय शोध में उसके प्रयोग के बारे में सुना था, परंतु व्यावहारिक रूप से वास्तव में यादृच्छिकीकरण एक कठिन कार्य था। पाठशालाएं, ऐसे कार्यक्रमों की अभ्यस्त थीं जो सार्वभौमिक रूप से लागू हों। यह सुनिश्चित करने के लिए कि सभी इस कार्यक्रम का हिस्सा बनें और साथ ही संभवत: लाभ उठाएं, यह निर्णय लिया गया कि पहले साल आधे विद्यालयोंकी तीसरी कक्षा मध्यस्थता प्राप्त करेंगे। उसी विद्यालय में चौथी कक्षा, दूसरे साल इसमें भाग लेगा। अन्य विद्यालयों में इस क्रम को उलट दिया गया कि चौथी कक्षा पहले साल प्रवेश लेगी और तीसरी कक्षा दूसरे साल। इस चरणबद्ध डिजाइन से यह सुनिश्चित होगा कि सभी विद्यालय इस मध्यस्थता में भाग लेंगे (बैनर्जीऔर अन्य 2007)। मुंबई में, इस अध्ययन में नगर पालिका के एक वॉर्ड (एल-वॉर्ड) के विद्यालयों को शामिल किया गया और वडोदरा में पूरे शहर के विद्यालयों को शामिल किया गया।
मुंबई के एल-वॉर्ड के कुर्ला में नगरपालिका की प्राथमिक पाठशालाओं में मूलभूत आकलन की बातें मुझे बहुत अच्छे से याद हैं। विद्यालय की विशाल इमारतऔरकक्षाओंमें तेज़ी से बढ़ती भीड़, उछलते-कूदते हल्ला कर रहे बच्चे जो बाहरी व्यक्तियों के आगमन से बहुत जोशपूर्ण थे। एक लिखित परीक्षा का आयोजन किया गया। कुछ आसान से कार्य (जैसे - चित्रों से शब्दों का मिलान, किसी दिए हुए अक्षर से शुरू होने वाले शब्द लिखना इत्यादि) और कुछ मुश्किल कार्य (जैसे - उचित शब्दों से रिक्त स्थान की पूर्ति, दिए गए शब्द से वाक्य संरचना, इत्यादि) करने के लिए दिए गए। जैसे ही प्रश्न-पत्र वितरित किए गए बच्चों ने सवालों की बौछार शुरू कर दी। कुछ यह पूछना चाहते थे कि क्या लिखा जाए। कुछ केवल प्रश्न-पत्र को निहारते हुए खाली बैठे थे और असमंजस में थे कि क्या करना है। अधिकतर बच्चे अपनी डेस्क पर आगे झुककर झांक रहे थे कि उनके साथी क्या लिख रहे हैं और साथ ही अपने पास वालों से पूछ रहे थे कि क्या करना है। अभिजीत और एस्थर के शोध-सहायक भी युवा थे और भारत में नए थे। मुझे, इन परीक्षाओं के दिनों में एक बार परीक्षा के पश्चात गुस्से के मारे अपना झटकना याद है। लेकिन एक बात तो तय थी कि यह आंकड़े एकत्र करने का कार्य बंद करना होगा। मैंने अभिजीत और एस्थर को फोन किया। उन दिनों हमारे पास लैंडलाइन और कॉर्डलेस फोन थे। हमारी छोटी सी बातचीत हुई। उन्होंने ध्यान से मेरी बात सुनी। यह साफ था कि इस मूलभूत आंकड़ों का प्रयोग नहीं किया जा सकता था। तो इस तरीके को पूरी तरह से खारिज कर दिया गया और एक नई कोशिश कर इस संदर्भ में एक बेहतर पद्धति तैयार की गई और अगले कुछ हफ्तों में उसे लागू किया गया।
अंतिम परिणामों ने दोनों शहरों के बच्चों में सार्थक सकारात्मक ज्ञानवर्धक लाभ दर्शाए। सबसे कमजोर विद्यार्थियों को ज्यादा लाभ हुआ। सारांश रिपोर्ट यह उल्लेख करती है कि:
‘शोधकर्ता यह मानते हैं कि कार्यक्रम का पूरा प्रभाव, सुधारात्मक शिक्षा हेतु भेजे गए बच्चों की परीक्षा के औसत अंकों में अत्यधिक सुधार (0.6 मानक विचलनों) के कारण था। जबकि इसके विपरीत, सुधारात्मक शिक्षण नहीं प्राप्त करने वाले उनकी कक्षा के साथियों में कोई खास फरक नहीं पड़ा, परंतु उनके साथ छोटे आकार की तथा अधिक संरूप कक्षाओं में यह प्रयोग किया गया’।
आगामी कुछ वर्षों में, हमने इस बात पर बहुत से प्रयोग किए कि बच्चों को कैसे सिखाया जाए ताकि वे वाचन और गणित को आसानी से सीख लें। यदि एक बच्चा कुछ वर्षों से विद्यालय में है और अब तक उसने पढ़ने और अंकगणित की बुनियादी दक्षता हासिल नहीं की है, तो उस बच्चे की क्षमताओं का तेज़ी से विकास में मदद करना बहुत ज़रूरी हो जाता है ताकि वह वहाँ तक पहुँच सके जहाँ तक उसेउस कक्षा के संबंध में होना चाहिए। 2003 तक हमने अपनी ‘पढ़ना-सीखना’ नामक पद्धति विकसित कर ली थी जो आशाजनक परिणाम दर्शा रही थी। आसान आकलन का प्रयोग करते हुए, बच्चों को अक्षर पहचानने, शब्द, पैराग्राफ या आसान कहानी पढ़ने के लिए कहना, हम बच्चों के स्तर का पता लगा सके। उसके बाद बच्चों को उनके मौजूदा स्तर के अनुसार वर्गीकृत किया गया बजाय उनके ग्रेड के। प्रत्येक समूह को उनके मौजूदा स्तर के अनुसार यथोचित गतिविधियां एवं सामग्री दी गई और इससे उनको अगले स्तर पर जाने में मदद मिली। बहुत तीव्रता से बच्चे अपने समूह से अगले समूह की ओर बढ़े। लगभग एक माह की अल्पावधि में कई बच्चे धारा प्रवाह पढ़ने लगे थे। उस समय हम उस पद्धति को पढ्न-सीखना या एल2आर (लर्न टू रीड) कह रहे थे। कुछ वर्षों के बाद हमने इस पद्धति को हिंदी में कमाल (CAMaL) का नाम दिया, जिसका अभिप्राय है अद्भुत या शानदार2। इस नए अभिनव को अपनाते हुए, हम यह जानने के लिए बहुत उत्सुक थे कि क्या लोग इसे अपनाएंगे और क्या अन्य लोगों द्वारा प्रयोग किए जाने पर यह प्रभावी होगा।
जिन शहरों में हम अब तक काम कर रहे थे, वहाँ से हमने यात्राएं करना और गाँवों में संभावनाएं तलाशना शुरू किया। नए स्थानों पर, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में यह कोशिश करना और पता लगाना अर्थपूर्ण था कि क्या बच्चों को पढ़नासीखने या बुनियादी अंकगणित में हमारी मदद की जरूरत है या नहीं। हमने स्थानीय ग्रामीणों और सामुदायिक लोगों के साथ काम करना शुरू किया और हमने एक ‘ग्रामीण रिपोर्ट कार्ड’ तैयार किया। हमने हर बच्चे से पूछा कि क्या वह स्कूल जाता है और उसके बाद उसे आसान सी कहानी पढ़ने तथा कुछ बुनियादी अंकगणित हल करने के लिए दिए3। यह खेड़े से खेड़े और पास-पड़ोस से पास-पड़ोस तक किया गया। पड़ोसी, मित्र, भाई-बहन-सभी ने सहायता की। आकलन गतिविधियों के दौरान कई बार जोरदार बहस हो जाते,विशेषकर, जब कोई बच्चा पढ़ नहीं पाता या सवालों को हल नहीं कर पाता तब। रिपोर्टकार्ड बनाने की प्रक्रिया में मगर्दर्शन के अलावा, प्रथम का दल (1-2 लोग) गाँव के खुले मैदान में कुछ न कुछ गतिविधियां आयोजित करते थे ताकि खेलों का प्रदर्शन हो सके और यह बात भी दर्शाई जा सके कि बच्चों को सीखने में मदद कैसे की जा सकती है। कुछ दिनों के पश्चात रिपोर्ट कार्ड पर चर्चा करने के लिए गाँव की बैठक होती थी। बहुत सी चर्चाएँ, बहस, वाद-विवाद- कुछ सामान्य और कुछ गरमा-गरमी वाले। ऐसा क्यों था कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं, पर सीख नहीं रहे? किसको दोष दिया जाए? क्या किया जा सकता है? अंतत:, चर्चाओं का रुख समाधान खोजने की तरफ हो जाता था। हम मदद करने का प्रस्ताव रखते थे। गाँवगाँव में यदि कोई बच्चों को पढ़ने और गणित हल करने में मदद करना चाहता था तो हम उसे प्रशिक्षित करते और उसका सहयोग करते। कभी-कभार सरपंच या प्रधान (गाँवगाँव प्रमुख) या अन्य बुजुर्ग या प्रभावशाली लोग नामों का सुझाव देते हैं। अंतत:, एक या दो या अधिक ग्रामीण स्वयं-सेवक बच्चों को पढ़ाना शुरू कर देते थे। स्वयं-सेवक वास्तव में स्वयं-सेवक थे- ऐसे लोग जिन्होंने बच्चों के लिए काम करने के लिए अपना समय तो दिया पर बदले में कुछ नहीं लिया।
2005 तक, अभिजीत, एस्थर एवं अन्य ने एक शोध केंद्र बना लिया था जिसे गरीबी पर कार्रवाई की प्रयोगशाला (जेपीएएल, आगे से जे-पाल) कहा गया। मूलत: एमआईटी के अर्थशास्त्र विभाग में रहते हुए, उन्होंने गरीबी से निपटने के लिए सटीक साक्ष्य उपलब्ध कराने के लिए प्रभाव मूल्यांकन करना जारी रखा। इस समय तक, हम नई चर्चाएं छेड़ चुके थे जो इस बात पर आधारित थी कि हमारा काम कहाँ तक पहुँचा है। अब भारत के कई भागों में नामांकन स्तर उन्नत पर थे और बढ़ भी रहे थे, ऐसा क्या करना होगा कि लोग अपने बच्चों के लिए अच्छी सिक्षा की मांग करें? विद्यालयों को इन मांगों को पूरा करने के लिए क्या करना होगा?
हमारे बालसखी कार्यक्रम पर अभिजीत एवं एस्थर का शोध एक सतत्, प्रसिद्ध एवं सफल मध्यस्थता पर आधारित था। उनके साथ काम करके और यह देखकर कि यह प्रक्रिया कितनी प्रभावी हो सकती है, हम विश्वस्त और साथ ही साथ आशावादी हो गए थे। प्रथम की ओर से, हम नई मध्यस्थता आरंभ करने के इच्छुक थे और खुशी-खुशी यह भी चाहते थे कि जे-पाल ही इसका मूल्यांकन करे चूंकि यह स्थापना से कार्यान्वयन की ओर बढ़ चला था।
बच्चों के शिक्षण में सुधार लाने के लिए गाँवोंगांवों की एकजुटता : सूचना की भूमिका
अपनी अगली परियोजना के लिए पूर्वी उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले को चुना गया। यह शैक्षणिक रूप से पिछड़ा हुआ क्षेत्र था, जिसमें जनसंख्या घनत्व अधिक थी और सरकारी स्कूलों की हालत खस्ता। शिक्षण में सुधार हेतु सामुदायिक कार्य कैसे सार्थक रूप से गति दे सकते हैं, इस प्रयोजन हेतु हमने दो बड़े सवालों पर लक्ष्य साधा। पहला यह की क्याकार्रवाई शुरू करने के लिए सूचना पर्याप्त है? अगर हाँ, तो किस प्रकार की जानकारी?और दूसरा, क्या लोग स्वयं कार्रवाई शुरू करने से पहले ठोस समाधान देखना चाहते हैं? हमने मिलकर दिमाग लगाया और तीन तरह की उपचार विधाओं की संकल्पना की गई। एक समूह के गाँवोंगांवों में शिक्षा की स्थिति पर सामान्य चर्चा होगी; शिक्षा में सुधार कैसे किया जाए इस बात का हल गाँव में ही वहाँ के लोगों द्वारा निकाला जाएगा। दूसरे समूह के गाँवों में, हम स्थानीय लोगों के साथ मिलकर ग्रामीण रिपोर्ट कार्ड (वाचन एवं अंकगणित) पर काम करेंगे और फिर स्थिति की रिपोर्ट जानने के लिएसमूहों को साथ लाएंगे और विचार करेंगे कि क्या किया जा सकता है। तीसरे समूह में, पहले दो उपचारों की गतिविधियों को शामिल किया जाएगा और इसके अतिरक्ति बच्चों को पढ़ाने के लिए गाँव के स्वयं-सेवकों का संग्रहण किया जाएगा। हमने उतने स्वयं-सेवक खोजने की कोशिश की जितनेग्रामीण रिपोर्ट कार्ड के सुझावानुसार आवश्यक थे। (प्रत्येक स्वयं-सेवक कम से कम 15 बच्चों के साथ काम करेगा)। हमने स्वयं-सेवकों को प्रशिक्षित किया और साथ ही व्यवहारिक कार्य के दौरान उनकी सहायता भी की। स्वयं-सेवकों ने बच्चों को स्कूल के पश्चात की कक्षाओं में पढ़ाया जो 3-4 महीने चलीं। इन तीन उपचार विधाओं को यादृच्छिक रूप से अलग-अलग गाँवों में लागू किया गया और,जैसा की इस शोध प्रक्रिया का नीयम है,हमारे नियंत्रण में गाँवों का एक समूह ऐसा भी था जहाँ हमने कुछ नहीं किया। जे-पाल टीम ने मध्यस्थता आरंभ होने से पूर्व बच्चों के शिक्षण स्तर को दर्ज किया। अंतिम माप, कक्षाओं के पूर्ण होने के कई माह पश्चात किया गया।
2005 या 2006 के आस-पास जे-पाल टीम ने जौनपुर का दौरा किया। हमारी स्थानीय टीम बहुत चिंतित थी। जौनपुरजिले में मुश्किल से कोई अच्छा होटल था। वो कहाँरहेंगे? हमने जिले के विभिन्न हिस्सों में अपनी टीमों के लिए किराए पर मकान लिए थे। गर्मियों में हम छत पर मच्छरदानी लगाकर सोते थे। हम अभिजीत और एस्थर और उनकी टीम के लिए रहने की उचित व्यवस्था कैसे करें? अंतत:, जब समय आया, तो हमें लगा कि हमें चिंता नहीं करनी चाहिए थी।
एस्थर का मेरे साथ गाँव से गाँव में जाना मुझे अच्छे से याद है। हमने माताओं और अन्य लोगों से बात की। कुछ वार्ताएं तो प्रत्येक के साथ अलग-अलग हुईं और कुछ महिलाओं के समूह में। हम समझना चाह रहे थे कि माता-पिता अपने बच्चों के लिए क्या चाह रहे हैं। एक गाँव में, एक बुजुर्ग महिला, किसी की दादी ने मुझे अलग से बुलाया। वे एस्थर की ओर इशारा करते हुए मुझे डॉटने लगी।एस्थर की चूढ़ीदारउसके घुटने से पिंडली तक फट रखी थी। दादीमा चाहती थी कि हम घूमना छोड़ें और अगले गाँवमें जाने से पहले एस्थर की फटी पायजामी को सिल लें।
जौनपुरअध्ययन के परिणाम बहुत कुछ बयां करते थे (बैनर्जीऔर अन्य 2010)। तीन मध्यस्थताओं में से केवल एक के कारण ही बच्चों के शिक्षण में सुधार दिखे। ऐसे गाँवों में कुछ नहीं हुआ जहाँ केवल बैठकें आयोजित हुई, बावजूद इस बात के कि बहुत बड़ी संख्या में लोग बैठकों में आए और इस बात पर बहुत देर तक चर्चा की कि समस्या क्या है और इसका समाधान कैसे करना चाहिए। अफसोस, कि रिपोर्ट कार्ड वाले गाँवों में स्कूली शिक्षा और शिक्षण पर तैयार किए गए नए ऑकड़ों ने भी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचाया। केवल उन्हीं गाँवों में जहाँ गतिविधियों का प्रदर्शन किया गया और जहाँ स्वयं-सेवक आगे आए, वहाँ बच्चों के शिक्षण में सुधार आया। यहाँ तक कि जहाँ अत्यधिक भागीदारी, वाद-विवाद और चर्चाएं थी, वहाँ भी कोई सामूहिक कार्रवाई नहीं हुई। मात्र उपाय बताने, अपने विचार रखने या फिर गरमा-गरमी से बहस करना बच्चों की प्रगति को बढ़ावा नहीं दे सका।लेकिन उन मामलों में भी जहाँ स्वयं-सेवकों के कार्य के कारण बच्चों के शिक्षण स्तर में सार्थक वृद्धि हुई थी, वहाँ भी कक्षाओं में अध्यापन में या विद्यालय की कार्यशैली में कोई महत्वपूर्ण बदलाव नहीं हुआ। विद्यालय, बड़े पैमाने पर सामुदायिक कार्रवाई के प्रति प्रतिरक्षित दिखे।5
स्पष्टत:, वास्तविक अनुदेशात्मक डिजाइन प्रभावी था, यह तब भी प्रभावी था जब इसेकम संरचनागत माहौल (जैसे विद्यालय के पश्चात समुदाय-आधारित कक्षाओं) में भी किया गया और ऐसे प्रशिक्षकों द्वारा किया गया जो बहुत ज्यादा अर्हता प्राप्त नहीं थे (जैसे शहरी इलाकों में बालसखियां या ग्रामीण क्षेत्रों में गाँव के स्वयं-सेवक)। बालसखी अध्ययन और अब जौनपुरमें प्रभाव आकलन ने अपने पास-पड़ोस में सुधार लाने के लिए कार्यरत सामान्य लोगों के प्रति हमारी श्रद्धा को पुन: सुदृढ़ किया। हमने गाँव के स्वयं-सेवकों के साथ कई राज्यों में अपना कार्य जारी रखा क्योंकि वह रास्ता हमें सपष्ट और प्रभावशाली दिखा। 2005 तक, हमारी ग्रामीण रिपोर्ट प्रक्रिया का एक नपा-तुला एवं संशोधित संस्करण एएसईआर अभ्यास में लिया गया।6 लेकिन सवाल यह था कि हम अपनी सोच, जिसे हम अब भी एल2आर कह रहे थे, को सरकारी विद्यालय प्रणालियों की खस्ता कार्यशैली में कैसे डालेंगे।
विद्यालयों के अंदर शिक्षण को बढ़ावा : शिक्षकों के साथ काम करना
राज्य सरकारों के साथ सहयोग की हमारी प्रारंभिक छापामारी 2002-2003 में ग्रामीण महाराष्ट्र में थी। सरकार हमारे अध्यापन-शिक्षण दृष्टिकोण को ठाने जिला के शैक्षणिक रूप से पिछड़े दो ब्लॉकों – मोखड़ा एवं जवाहर में आजमाने के लिए तैयार हो गई7। प्रथम से एक छोटी टीम ने इन ब्लॉकों मेंशिक्षकों और बाकियों के साथ काम किया और बहुत कम समय में आशावादी परिणाम दर्शाने में सक्षम रहे।वर्ष 2004 में, बिहार में एक अवसर आया। सरकार लगभग 75,000 नए पारा-शिक्षकों की भर्ती करने वाली थी। इस बड़े समावेश की तैयारी हेतु सरकार को एक साथ 6,000 मास्टर प्रशिक्षकों का दल मिल रहा था। विभिन्न प्रथम कार्यक्रमों से 300 से अधिक लोगों की एक बड़ी टीम इस दृष्टिकोण को दर्शाने और पारा-शिक्षकों हेतु व्यापक शिक्षक-प्रशिक्षण कार्यक्रम हेतु मास्टर प्रशिक्षकों की तैयारी में इसे शामिल करवाने के लिए बिहार गई। शिक्षा में सुधार के लिए उसके बाद के गठबंधन मध्य-प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ सरकारों के साथ थे। बिहार में, नितिश कुमार का शासन आ जाने से स्कूली शिक्षा को उच्च प्राथमिकता दी जा रही थी। इस कार्यसूची के अंतर्गत प्रथम की टीमों ने सरकारी साथियों के साथ मिलकर बच्चों को सकूल में लाने और उन्हें उचित कक्षाओं में मुख्यधारा में लाने के कार्य को संपन्न किया।
वर्ष 2008 के मध्य तकहम ग्रीष्मावकाश के दौरान व्यापक एल2आर अभियान को अंजाम देने की तैयारी कर रहे थे। इसमें अधिकतर स्वयंसेवक ही भाग लेने वाले थे परंतु कुछ मामलों में राज्य सरकारें भी शामिल हो रही थीं। जौनपुरके मामले से ही हम इस बात पर ध्यान देते थे कि स्कूल में कौन सी गतिविधि शिक्षण में सुधार लाएगी। अभिजीत और एस्थर के साथ चल रहे हमारे वार्तालाप में यह चिंता उजागर होती थी। हमने मिलकर, एक योजना, प्रथम और राज्य सरकार द्वारा मिलकर आयोजित किए जाने वाला विद्यालयों एवं समुदायों की गतिविधियों का एक समूह, पर काम किया।अब तक इन सभी प्रयासों को ‘पढ़ो भारत’ के नाम से पुकारा जा रहा था। यह स्थान बिहार के उत्तर पश्चिमी कोने में पश्चिमी चंपारन जिला में था। जे-पाल इस बात का मूल्यांकन करता था कि ग्रेड 3, 4 एवं 5 के बच्चों के पढ़ने और अंकगणित कौशल में सुधार लाने के लिए यह प्रयास सार्थक होगा या नहीं और अगर होगा तो कितना।
माइकल वॉल्टन जो हार्वर्ड केनेडी स्कूल में एक प्रोफेसर हैं वे भी बिहारमें पढ़ो भारत शोध अध्ययन हेतु जे-पाल टीम का हिस्सा बने। माइकल इसदौरान दिल्ली में रहे। एक दिन गर्मी की शाम को अभिजीत, माइकल और मैं आराम सेबैठ कर अपनी आगामी परियोजना के बारे में बात कर रहे थे। मैंने उल्लेख कियाकि बिहार सरकार ने समर कैंप प्रयास में शामिल होने का निर्णय लिया है औरवह 3 से 5 ग्रेड के बच्चों की आधारभूत वाचन एवं अंकगणित कौशल पर कार्य करनेके लिए गर्मी के महीनों में प्रत्येक स्कूल में 2 शिक्षकों को नियुक्तकरेंगे। अचानक हमें एहसास हुआ किबहुत ध्यान से बनाया हुआ हमारा शोधडिजाइन अस्त-व्यस्त हो जाएगा। यदि ग्रीष्म शिविर सार्वभौमिक होता तो वहांकोई भी नियंत्रण समूह नहीं होता। लगभग तुरंत, माइकल और मैं बिहार गए औरहबड़ा-दबड़ी में बेतिया गए। यह मई के आखिर की बात है। विद्यालयग्रीष्मावकाश के लिए बंद हो ही रहे थे। जून में होने वाले ग्रीष्म शिविरोंके लिए व्यवस्थाएं की जा रही थीं।
मानसून के आने से पहले वह बहुत ही खतरनाक गर्म और नम मौसम था। मैं औरमाइकल,लौरिया,मझौलिया और नरकटियागंज में समूह समन्वयक तथा शिक्षकों के झुंडको संबोधित करते हुए एक-एक समूह में गए। चाय के अनगिनत कप पीते-पीते हरकोई बहुत ध्यान से माइकल को सुनता, उसके शानदार अंग्रेजी लहजे और सब्र वशांतचित्त की तारीफ करता। मैं बड़ी मशक्कत कर अनुवाद करते हुए शोध डिजाइन का विवरण देती थी कि उपचार समूहों का यादृच्छिकीकरण महत्वपूर्ण क्यों है और नियंत्रक समूह का होनाइतना अनिवार्य क्यों है। और नियंत्रक समूह वाले गांवों में ग्रीष्म शिविरना करना क्यों महत्वपूर्ण था। मुझे एक शिक्षिका की बहुत ही हास्यास्पदटिप्पणी याद है कि ‘यूँ तो सरकार हमारे पीछे पड़ी रहती है कि हम कुछ करें औरआप हमें रुकने को कह रही हैं’। आज तक मैं इस बात को मानती हूं कि यह माइकलके अंग्रेजी लहजे का ही कमाल था कि हम उस दिन बच गए,यदि हम इतनी मशक्कतकरके नियंत्रक गांव को एक माह के शिविर से बचा नहीं पाते तो शायद हम इसअध्ययन की मुख्य सीख को खो चुके होते।
2008 के ग्रीष्म शिविर से शुरू करते हुए पढ़ो भारत प्रभाव अध्ययन 2 वर्षों तकचला। जुलाई 2008 में सरकारी स्कूल के 2 शिक्षक हर सरकारी प्राथमिक स्कूल केप्रभारी बनाए गए। कक्षा अनुसार पाठ्यक्रम को बिना ध्यान में रखे, उस महीनेउन्होंने कक्षा 3 से 5 के विद्यार्थियों के बुनियादी वाचन एवं अंक गणितकौशल के निर्माण पर ही विशेष रुप से ध्यान दिया। स्कूल के वर्ष के दौरानउन्होंने उस कक्षा के लिए निर्धारित पाठ्यपुस्तक से पढ़ाया जो प्रथमप्रशिक्षण के दौरान सीखी गई अधिक चर्चामय पद्धतियों के माध्यम से था। इसीदौरान शिक्षकों ने ऐसे बच्चों का चयन किया जिन्हें अतिरिक्त मदद कीआवश्यकता थी और फिर उन्हें अतिरिक्त जानकारी के लिए स्कूल के बाद स्थानीयगांव के स्वयं सेवकों को सौंपा। प्रथम ने शिक्षकों एवं स्वयंसेवकों कोप्रशिक्षित किया और उन्हें सहयोग दिया। यह सब शैक्षणिक वर्ष के दौरान कियागया।
जैसे-जैसे गतिविधियां आती गई वैसे-वैसे चरणबद्ध तरीके से शोधकर्ताओं नेअध्ययन से प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण किया। चार मुख्य प्राप्तियां उभरीजिसने इस दृष्टिकोण के विकास को आकार दिया। पहला, ग्रीष्म शिविर के 4 सप्ताह से भी कम अवधि के होने के बावजूद बच्चों के लिए महत्वपूर्ण शिक्षण लाभदेने वाले साबित हुए। हालांकि कभी-कभार उपस्थिति की दिक्कत थी लेकिनजिन्होंने भाग लिया उन्हें अत्यधिक लाभ मिला। इससे हमने सीखा कि इस उम्र केबच्चों में बुनियादी कौशल के निर्माण के लिए अल्पावधि की गतिविधियां भीप्रभावी हो सकती हैं। दूसरा, ग्रीष्म शिविरों से मिलने वाला शिक्षण बच्चोंको संपूर्ण स्कूली वर्ष के दौरान मिलने वाली सीख से ज्यादा बड़ा था। इस नेइस बात को रेखांकित किया कि पाठ्यक्रम को अच्छे से पढ़ाने से ज्यादा लाभनहीं होता अगर आप जो पढ़ा रहे हो वह बच्चे के मौजूदा स्तर से बहुत ऊपर है।तीसरा, जबकि शिक्षकों को प्रथम द्वारा बहुत ही व्यवहारिक कार्यशालाओं मेंप्रशिक्षित किया गया और वे 2 सालों में कई बार एक साथ आए जबकि सरकारी तंत्रके अन्य लोग (जैसे समूह समन्वयक, ब्लॉक संसाधन अधिकारी, जिला स्तरीय मास्टरप्रशिक्षक, इत्यादि) शामिल नहीं हुए और शिक्षकों को परामर्श या शैक्षणिकसहयोग उपलब्ध कराने में कोई भूमिका नहीं निभाई। चौथा उपचार विधाओं में सेएक में केवल सामग्रियां थी जो विद्यालयों को उपलब्ध कराई गई। विद्यालयों केइस समूह में नियंत्रक विद्यालयों की तुलना में कोई अंतर नहीं था। हमनेमहसूस किया कि बस शिक्षकों को सामग्री मात्र उपलब्ध कराना और कोई व्यवहारिकसहयोग ना देना किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं लाएगा। अंततः जैसा कि पहलेबालसखी अध्ययन से और जौनपुर से प्राप्त परिणामों में साबित हुआ था, बच्चों कीप्रगति में सहायता करने के लिए स्वयंसेवक बहुत महत्वपूर्ण थे।
शोध परिणामों को नीति निर्माताओं और अभ्यास करताओं को संप्रेषित करने मेंसक्षम होना इस पूरी प्रक्रिया का एक अनिवार्य हिस्सा था। साक्ष्य आधारितनिर्णय लेने की पूरी कहानी यही है। सवाल यह है कि इसे कैसे किया जाए ताकिहर कोई गंभीर होकर सोचे और जिन अनुमानों पर वे काम कर रहे हैं उस पर सवालकर सके। जैसा कि पढ़ो भारत अध्ययन से परिणाम उपलब्ध हुए,हम जे-पाल के साथ मिलकर हिंदी में छोटी-छोटी टिप्पणियां लेकर आते थे जिसे जिला और राज्य स्तर परआसानी से प्रस्तुत किया जा सके और उस पर चर्चा की जा सके।
मुख्य प्राप्तियां हमारे हाथ में थी। संजय कुमार (बिहार में प्रथम टीम केलीडर) और यामिनी अय्यर (जिसने अध्ययन हेतु कुछ गुणवत्तापूर्ण कार्य कियाथा) के साथ माइकल और मैं पटना में सचिवालय भवन गए। सभी संबंधित लोग शिक्षामंत्री के कक्ष में बैठे थे– मंत्री, प्रधान शिक्षा सचिव और उनकी टीम केमुख्य सदस्य, सभी के सभी वहां थे। पहले ही शाम हो चुकी थी। कोरिडोर की भीड़कम हो चुकी थी। कोई परेशान चपरासी कक्ष में फाइलें नहीं ला रहा था। कोईआवेदक स्थानांतरण हेतु प्रार्थना करने कक्ष में नहीं आ रहा था। यह असामान्यतौर पर शांतिपूर्ण था। फिर कमरे में चाय लाई गई। शिक्षा मंत्री श्री पी केशाही शिक्षा मंत्री बनने से पूर्व राज्य के महाधिवक्ता रह चुके थे।व्यावसायिक रूप से एक वकील और तीव्र विश्लेषण क्षमता वाला मस्तिष्क था उनका, और उन्होंने राज्य में आजमाए गए शिक्षा सुधारों का बहुत ध्यान से और उत्सुकतासे जायजा लिया। श्री शाही, माइकल की ओर मुड़े और कहा-‘डॉक्टर, निदान क्या है?’बिना पलक झपके माइकल ने उत्तर दिया की ‘एक खुशखबरी है और एक बुरी खबर है’।अगलेकरीब1 घंटे में हम अध्ययन की चार मुख्य प्राप्तियों पर चर्चा करनेमें सफल हुए। मजे की बात यह है कि सालों बाद बैठक में भाग लेने वाले कुछ लोगों के साथचर्चा के दौरान मैंने पाया कि मुख्य प्राप्तियों को अपना लिया गया है।
व्यवहारिक नेतृत्व का विकास:सरकारी स्कूलों में कार्य
हमकैंब्रिज में नदी के किनारे-किनारे चल रहे थे वह बहुत ही प्यारी दोपहर थी।एस्थरके पास एक पाउच था जिसमें उसका बच्चा उसके सामने छाती से चिपका हुआथा। वह मुझसे ज्यादा दृढ़ विश्वास और तेजी के साथ चल रही थी। हम साथ मेंमिलकर किए गए अपने कार्य के बारे में और भविष्य की योजनाओं के बारे में बातकर रहे थे। मुझे याद है वह कह रही थी कि "बिहार के ग्रीष्म शिविर ने शिक्षकों में मेरा विश्वास दोबारा जिंदा कर दिया"। हम इस बारे में चर्चाकरने लगे कि सरकारी स्कूलों में और भी प्रभावी रूप से "सही स्तर परशिक्षण (टेयचिंग ऐट राइट लेवेल)" को कैसे कार्यान्वित किया जाए। इस समय तक हम सब अपनी इस पद्धति कोटीएआरएल10के नाम से बुला रहे थे।
बिहारमें जहानाबाद जिले में हमने युवा जिला अधिकारी के साथ काम करना अभी शुरूही किया था। टीएआरएल के नए संस्करण में हमने इस बात पर जोर दिया किसरकारी तंत्र में शिक्षकों के ऊपर के स्तर जिन्हें बिहार में समूह समन्वयककहा जाता था, को पहले 15-20 दिनों तक हमारी पद्धति का 'अभ्यास' करना चाहिए।परंतु यह प्रक्रिया बिहार में पहले ही शुरू हो चुकी थी और इसलिए एक कड़ेप्रभाव आकलन को स्थापित करना संभव नहीं था। सवाल ये था कि "व्यवहारिकनेतृत्व" के तत्वों को शामिल करते हुए एक स्थान में सरकारी स्कूलों के अंदरटीएआरएल के नए संस्करण का कार्यान्वयन और मूल्यांकन कैसे किया जाए। जे-पाल और हरियाणा सरकार,राज्य के कई नीतिगत अभिक्रमों के मूल्यांकन परविचार विमर्श कर कर रहे थे। टीएआरएल को इस सूची में शामिल किया गया था।जब तक हम टहल कर वापस आए यह निर्णय हो चुका था। एस्थर और मैंने पूर्ण सहमतिजताई। उनके ऊपर की मंजिल के मकान में आरामदायक किचन में अब हम उसस्वादिष्ट भोजन का आनंद ले सकते थे जो हमारी अनुपस्थिति में अभिजीत नेबनाया था।
हरियाणा में चुने गए दो स्थल – महेंद्रगढ़ और कुरूक्षेत्र, दूर-दूर थे। स्कूल के दिन में वाचन सुधारने के लिए एक पीरियड निश्चित कर दिया गया था। हरियाणा में सरकारी शिक्षा प्रणाली में समूह-समन्वयक स्तर के संवर्ग को एबीआरसी कहते थे। प्रतीकात्मक रूप से प्रत्येक एबीआरसी के पास 12-15 विद्यालय होते थे जिन्हें वे सहयोग देते थे। विचार यह था कि इस समूह के लोग 15-20 दिनों के लिए विद्यालय में हर दिन पहले स्वयं पर टीएआरएल पद्धति का प्रयोग करेंगे। एक बार वे शिक्षा-शिक्षण पद्धति से अभ्यस्त हो जाएं तो वे अपनी देखरेख में स्कूल के शिक्षकों को प्रशिक्षित करेंगे और व्यवहारिक एवं कार्यस्थल पर सहयोग प्रदान करेंगे। ‘अभ्यास कक्षा’ से उन्हें इस बात का प्रारंभिक अंदाजा होगा कि यदि बच्चों को उनके ग्रेड की बजाय उनके मौजूदा स्तर के आधार पर आनुदेशिक कार्य दिए जाएं तो बच्चे कितनी जल्दी प्रगति कर सकते हैं।
शोध ने दर्शाया कि टीएआरएल पद्धति का प्रयोग करने वाले स्कूलों में विद्यार्थियों के हिंदी के अंकों11 पर अत्यधिक एवं सांख्यिक रूप से संतोषजनक प्रभाव पड़ा। तुल्नात्मक समूह की तुलना में, एलईपी12 विद्यालयों में विद्यार्थियों ने हिंदी की वाचन परीक्षा में 0.15 मानक उच्चतर विचलन वाले अंक हासिल किए और हिंदी की लिखित परीक्षा में 0.35 मानक उच्चतर विचलन वाले अंक हासिल किए। अधिकतम लाभ उन विद्यार्थियों को मिला जो आधाररेखा पर केवल अक्षरों को पहचान पाते थे। (डुफ्लो एट अल. 2014, बैनर्जी एट अल. 2016) बिहार में हामरी पूर्व की मध्यस्थता एवं मूल्यांकन से मिली सीख हरियाणा में एक बार फिर से पुख्ता हुई। सरकारी स्कूल के जिन शिक्षकों ने स्कूल वर्ष के दौरान स्कूल के समय में टीएआरएल का प्रयोग किया वे बच्चों को बुनियादी वाचन में सार्थक लाभ देने में कामयाब रहे। उनके कार्यनिष्पादन को उनके समूह-स्तरीय अधिकारियों,एक ऐसा संवर्ग जिसे बिहार की पूर्व की मध्यस्थता में शामिल नहीं किया गया था, ने समर्थन दिया। हरियाणा मध्यस्थता-प्रभाव मूल्यांकन ने टीएआरएल पद्धति को सुदृढि़कृत करने के लिए अतिरिक्त साक्ष्य उपलब्ध कराए।
शिक्षण शिविर एवं उसके आगे
शिक्षा का अधिकार अधिनियम संसद में पारित हुआ और 2010 में लागू हुआ। आगामी कुछ वर्षों तक अधिकतर राज्य सरकारें उसका अनुपालन करने के लिए पूर्व में ही व्यस्त हो गई। अधिनियम ने जानकारी संबंधी मुद्दों पर बल दिया जैसे विद्यालय की आधारभूत संरचना, शिक्षक की अर्हता, एवं विद्यार्थी-शिक्षक अनुपात। अधिक ध्यान यह सुनिश्चित करने पर दिया गया कि सभी बच्चे के पास निर्धारित न्यूनतम जानकारी की उपलब्धता थी।
दिए गए समग्र परिवेश में, हमारी रणनीति के दो भाग थे: पहला, कि हम अभी भी हरियाणा सरकार के साथ साझेदारी में थे जिसका मूल्यांकन जे-पाल द्वारा किया जा रहा था और दूसरा, हमें इस बात का यह भी महत्व नजर आ रहा था कि हम विद्यालयों और समुदायों में बच्चों के साथ सीधे तौर पर कार्य करके अपनी शिक्षा-शिक्षण प्रक्रिया को सुधारने के लिए भी साथ-साथ ध्यान दें रहे थें। बच्चों के शिक्षण स्तर को बढ़ाने के लिए कई वर्षों तक पूरी तरह स्वयंसेवकों पर निर्भर रहने के पश्चातशायद हम भी अपनी स्वयंसेवक आधारित रणनीति की हद तक पहुंच रहे थे। अब तक, स्वंयसेवकों के साथ काम करना बड़े पैमाने परकार्य करने, हालांकि स्थानीय स्तर, का एक जरिया था। तथापि, इस बात पर फिर से एक नजर डालने की आवश्यकता थी कि कितने प्रभावी रूप से और कितने समय में हम बच्चों को धारा-प्रवाह पढ़ना शुरू करने में मदद कर सकते थे। बिहार में हमारे पिछले कार्य पर आधारित शोध ने दर्शाया था कि गहन गतिविधि की एक छोटी सी लहर भी स्थायी परिणाम दे सकती थी। तो वो सवाल जिससे हम जूझ रहे थे वो था : यदि प्रथम के एक व्यक्ति को कई गाँवों में काम करना है तो बच्चे के बुनियादी शिक्षण में स्थायी परिवर्तन लाने के लिए उसे प्रत्येक गाँव में कितना समय बिताना चाहिए?
2012 तकसंपूर्ण प्रथम में, दल के सदस्य सीधे तौर पर सरकारी विद्यालयों में कार्य करने लग गए। कुछ महीनों में, ‘शिक्षण शिविर’ का प्रारूप उभरने लगा। जबकि कुछ तत्व समान थे (सामान्य आकलन, बच्चों को ग्रेड की बजाय उनके स्तर के अनुसार वर्गीकृत करना), प्रत्येक विद्यालय में हमने 6-10 दिनों का समय दिया। इस अवधि को ‘शिक्षण शिविर’ कहा गया। एक बार में दो या तीन विद्यालयों में कार्य किया जाता था ताकि प्रथम टीम के सदस्यएक के बाद एक शिविर आयोजित करते हुए विद्यालयों के इन समूहों में अदला-बदली कर सकें। मजे की बात यह है कि शिविर, शिक्षण लाभों में बाधा डालने की बजाय लगातार सहायक नजर नहीं आ रहे थे। हम उत्साहित थे कि कैसे शिक्षण शिविर उभर रहे थे और हम उनका अध्ययन करने के लिए उत्सुक थे। इस दौरान, यूएसएआईडी विकास अभिनव उपक्रम ने ऐसे प्रस्तावों का अनुरोध किया जहॉ बड़े पैमाने के विचारों का मूल्यांकन किया जा सके। यह प्रथम-जे-पाल की संयुक्त परियोजना के लिए बिल्कुल सटीक लगा। शैक्षणिक रूप से पिछड़े हुए भारत के राज्यों में से एक उत्तर प्रदेश के दो जिले, सीतापुर और उन्नाव को चुना गया और वर्ष 2013-14 के स्कूली वर्ष में सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में मध्यस्थता आयोजित की गई।
सीतापुर और उन्नाव में विद्यालयों को यादृच्छिक रूप से चारों में से एक-एक समूह में डाल दिया गया, जिसमें प्रत्येक समूह में लगभग 120 विद्यालय थे। प्रथम उपचार समूह में 10 दिवसीय शिविरों का आयोजन किया गया। इन विद्यालयों को चार 10 दिवसीय शिविरों की पाली उपलब्ध कराई गई और साथ में गरमी के मौसम के दौरान एक अतिरिक्त 10 दिवसीय शिविर भी मिला। उपचार की एक अन्य विधा में 20 दिवसीय शिक्षण शिविरों का आयोजन किया गया। इन विद्यालयों को दो 20 दिवसीय शिविरों की पाली प्राप्त हुई और साथ में गरमी के मौसम में एक अतिरिक्त 10 दिवसीय शिविर मिला। तीसरे मामले में, हमारे पास केवल सामग्री थी। प्रथम ने विद्यालयों को टीएआरएल शिक्षण सामग्री उपलब्ध कराई लेकिन कोई शैक्षणिक सहयोग नहीं। और अंतत:, एक तुलनात्मक समूह था जहाँ विद्यालयों को कोई शिविर या सामग्री नहीं मिली।
इस वर्ष के दौरान उत्तर प्रदेश शिक्षा विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी सर्वेंद्र विक्रम सिंह ने शिक्षण शिविरों का दौरा किया। विद्यालयों में दौरा करके लौटने के बाद उनकी टिप्पणियों ने काफी कुछ उजागर किया। उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश में प्राथमिक विद्यालयों की सामान्य स्थिति एक त्रिकोण की तरह होती है- जहाँ निचले स्तर पर बहुत से बच्चे होते हैं और शीर्ष पर बहुत कम। लेकिन बहुत समय के बाद इन शिक्षण शिविरों मेंउन्हें उल्टा त्रिकोण देखने को मिला,जहाँ पिरामिड के निचले हिस्से में बहुत कम बच्चे थे। अधिकतर बच्चे पिरामिड के शीर्ष पर थे, सभी पढ़ रहे थे और आनंद उठा रहे थे।
जे-पाल के मूल्यांकन का सारांश उल्लेख करता है कि ‘प्रथम के शिक्षण शिविर प्रारूप का प्रभाव मूल्यांकित किए गए किसी भी टीएआरएल प्रारूप में सबसे ज्यादा है’। (बैनर्जी एट अल, 2010) 10 दिवसीय एवं 20 दिवसीय शिविरों का प्रभाव समान है जिन्होंने इस विचार को पुन:सुदृढ़ किया कि अंतराल सहित गहन गतिविधि की लहर बच्चों के शिक्षण में सुधार के लिए बहुत लाभदायक हो सकती है। शिविरों के बीच अंतराल के दिनों में शिक्षक और माता-पिता, दोनों, और शायद खुद बच्चों ने भी कुछ गतिविधियां और खेल-कूद जारी रखा। जैसा कि शोधकर्ता बताते हैं, "आधार रेखा पर 39 प्रतिशत बच्चे अक्षरों को नहीं पहचान सके और 15 प्रतिशत पैराग्राफ या कहानी नहीं पढ़ सके। अंतिम पढ़ाव में नियंत्रक समूह में थोड़ी प्रगति थी: 24 प्रतिशत बच्चे अक्षर नहीं पहचान सके और 24 प्रतिशत बच्चे पैराग्राफ या कहानी नहीं पढ़ सके। इसके विपरीत 8% ऐसे विद्यार्थी जिन्होंने शिक्षण शिविर में भाग लिया था, अक्षर नहीं पहचान सके और 49% पैराग्राफ या कहानी पढ़ सके। इसका आशय यह है कि शिक्षण शिविर विद्यार्थियों को पैराग्राफ पढ़ना सिखाने में नियमित अनुदेशकों की तुलना में दुगुने प्रभावी थे। इसे संदर्भगत बनाने के लिए शिविर वाले स्कूलों में शिक्षण स्तर भारत में न्यूनतम उपलब्धि स्तर के आसपास से देश के तृतीय सर्वाधिक उपलब्धि वाले शिक्षण स्तर राज्य (हरियाणा)तक पहुंचा।" (बैनर्जी एवं अन्य 2010)
पीछे मुड़कर देखना
पीछे मुड़कर जब मैं पिछले 20 वर्षों पर नजर डालती हूँ13 तो यह स्पष्ट हो जाता है के इस पूरे सफर के दौरान कर्म और शिक्षा के दो सिरे एक दूसरे में कितने ज्यादा उलझे हुए रहे हैं। उपायों और कार्यान्वयन एवं अध्ययन प्रभाव को जोड़ने के हमारे संयुक्त प्रयासों से हमारे दृष्टिकोण के विकास को अत्यधिक लाभ हुआ है। अभिजीत, एस्थर और जे-पाल टीम समय-समय पर आती रही तथा अपने कामों पर और गहरी, पुख्ताएवं अधिक सधी हुई नजर डालने के लिए उन्होंने हमारी मदद की। उनके द्वारा किए गए यादृच्छिकीकृत नियंत्रित परीक्षणों की श्रृंखला के परिणामों से मौजूदा टीएआरएल दृष्टिकोण को प्रभावी बनाने वाले मुख्यतत्वों पर हमारा अपना विश्वास बढ़ा है एवं पुनः सुदृढ़ हुआ है। यह वही महत्वपूर्ण तत्व थे जिन्होंने हमें भारत और अन्य स्थानों पर नए संदर्भों एवं भूभागों के अन्वेषण के दौरान लचीला एवं अनुकूल रहने में सक्षम बनाया।
जे-पाल की उपस्थिति विश्व भर में है। उनके शोधकर्ता एवं संबद्ध विश्व के विभिन्न हिस्सों में कई क्षेत्रों में सभी प्रकार के कार्यक्रमों और परियोजनाओं का अध्ययन करते हैं। परंतु जहां कहीं भी उनसे पूछा जाता है कि बच्चों के शिक्षण में सुधार के लिए क्या चीज काम की है तो वे प्रथम की टीएआरएल पद्धति की प्रभावशीलता के बारे में बात करते हैं। भारत से बाहर के देशों में इन चर्चाओं और प्रसारण ने उप-सहारा अफ्रीका में दो संगठनों के बीच नई साझेदारी उत्पन्न की है। आज प्रथम और जे-पाल एक साथ मिलकर तथा जांबिया, नाइजीरिया, बोत्सवाना, मेडागास्कर, नाइजर कोट-डेल्वर सहित अन्यस्थानों पर सरकारों एवं संगठनों के सहयोग से कार्य कर रहे हैं।14
लेकिन दोबारा एस्थर और अभिजीत की बात करें तो मेरे लिए व्यक्तिगत रूप से और संगठन के रूप में प्रथम के लिए उनके साथ काम करने के हमारे अनुभव किसी भी अध्ययन से प्राप्त परिणामों से ज्यादा मूल्यवान रहे हैं। मेरे लिए हमारी साझेदारी की दो मुख्य विशेषताएं महत्वपूर्ण हैं जो अन्य किसी के साथ भी कामकरने की तुलना में हमेशा ही अलग रही हैं। पहला की प्रारंभिक बालसखी अध्ययन से ही हम वास्तव में बराबर के साझेदार थे। अन्य शोधकर्ताओं और अन्य साझेदारों के साथ काम करने के बाद ही मुझे यह समझ में आया और मैं इस बात को महत्व देने लगी की सचमुच बराबर का और एक वास्तविक साझेदार होना क्या होता है। जो आदर सम्मान हम एक दूसरे के प्रति महसूस करते थे और जो विश्वास हमारे बीच में क्रमिक रूप से बढ़ा, उसने हमारे साझेदारी की नींव को मजबूत किया था। दूसरा, हमारे रिश्तों के बीच हमेशा से एक पैनी बुद्धिजीवी जिज्ञासा रही है जिसका एक व्यवहारिक आयाम भी है। एक साथ मिलकर, हमारे कार्य की दिशा केवल यह जानना ही नहीं था कि कौन सी चीज लाभदायक होगी बल्कि उसका एक उद्देश्य यह जानना भी था कि अब नया सवाल क्या है जिसे हमें खोजना है, ताकि हम हमारा मौजूदा कार्य और भी मजबूत बना सकें। पीछे मुड़कर जब मैं सोचती हूं, तो मुझे मिली हुई कई सारी सीखों को मैं देख सकती हूँ। हमने ना केवल विचारों का बल्कि अभ्यास का भी अनुशासन सीखा। हमने सीखा कि प्रश्न कैसे पूछे जाएं और उनके उत्तर कैसे खोजे जाएं। जबकि हर अध्ययन ने हमारे कुछ सवालों का जवाब दिया, हम नए सवालों को खोजने की महत्ता को समझने लगे। हमने सीखा की प्रयोग करना एक अनवरत प्रयास है। यह समझना कि कौन सी चीज काम की है और कौन सी चीज काम की नहीं है एक सतत गतिविधि है। मानवीय स्तर पर भी हमने कई महत्वपूर्ण सबक सीखें: सोच में, सीख में और कर्म में कैसे बराबर के साझेदार बनें; एक दूसरे पर विश्वास कैसे करें;सत्य-निष्ठ कैसे रहें; असफलताओं का सामना कैसे करें; जीवन में उतार-चढ़ाव से कैसे जूझें। इनसब चीज की बुनियाद में हमारी मित्रता थी जो समय के साथ-साथ और गहरी हुई।
क्या स्कूल जाना, पढ़ना सीखना, बुनियादी अंकगणित को हल करना, बच्चों के जीवन में कोई महत्वपूर्ण फर्क डालेगा? इसका जवाब स्पष्ट रूप से 'हाँ' है। क्या इन सब से गरीबी का उन्मूलन होगा? इसका जवाब इतना सीधा ‘नहीं’ है। हमारा विश्वास है कि बिना मजबूत नींव का निर्माण किए कोई बच्चा अपनी पूर्ण क्षमता पर पहुंचने में सक्षम नहीं होगा। इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि बच्चों को बुनियादी कौशल हासिल करने की प्रक्रिया को यथासंभव तीव्र, स्थायी और किफायती बनाया जाए। बेइंतेहा सब्र, दृढ़ता और व्यवहारिकता ने हमें वहां पहुंचाया जहां आज हम खड़े हैं। यह यात्रा उतनी लाभदायक नहीं होती और निश्चित रूपसे इतनी उत्साह पूर्ण भी नहीं होती यदि अभिजीत और एस्थर पूरे-पूरे दिन हमारे साथ सफर ना करते।
नोट्स:
- माधव चव्वाण और फरीदा लांबे प्रथम के सह-संस्थापक हैं।
- सीएएमएएल के अक्षरों का अभिप्राय है अधिकतम शिक्षण के लिए संयुक्त क्रिया-कलाप। अनुदेशात्मक दृष्टिकोण सहित समय के साथ-साथ इस पद्धति का नाम भी विकसित हुआ। वाचन और अंकगणित जैसे बच्चों के बुनियादी कौशल में सुधार लाने के समग्र दृष्टिकोण, प्रथम ने पिछले दो दशकों के दौरान जिसकी अगुआई की और विकास किया है, को अब ‘सही स्तर पर शिक्षण’ कहा जाता है। इसमें केवल अनुदेशात्मक अभ्यास ही शामिल नहीं है बल्कि वह तरीका भी है जिससे इन प्रयासों को तैयार, व्यवस्थित, समर्थित और सुपुर्द किया जाता है। टीएआरएल का यह नाम लगभग 7-8 वर्षों से प्रयोग किया जा रहा है। मूल पद्धति का जन्म 2002 के उत्तरार्ध में हुआ था और दिसंबर, 2002- जनवरी, 2003 में इसकी प्रभावशीलता का परीक्षण किया गया था। उस समय, इस पद्धति को ‘वाचन का शिक्षण’ या एल2आर के नाम से जाना जाता था। 2001-2004 के दौरान शिक्षण पद्धति की उत्पत्ति के विवरण हेतु https://www.india-seminar.com/semframe.html देखें।
- इस परीक्षण का विडियो https://www.youtube.com/watch?v=xerHw5NskZc&t=22s पर उपलब्ध है, जिसमें अंत में पर्यवेक्षक का प्रमाणपत्र भी शामिल है। शिक्षा रिपोर्टों की वार्षिक स्थिति द्वारा दर्शाए गए शैक्षणिक संकट के प्रत्युत्तर में जब हमने वर्ष 2007-2008 में बच्चों के शिक्षण में सुधार लाने का अभियान शुरू किया तो प्रथम के इस संपूर्ण प्रयास को ‘पढ़ो भारत’ का नाम दिया गया। भारत में, हम अध्ययन-अध्यापन क्रियाकलापों के समूह को सीएएमएएल के नाम से ही संबोधित करते हैं।
- बाद में इस युक्ति को भी एएसईआर उपकरण के नाम से जाना जाने लगा। एएसईआर अभ्यास में इसका प्रयोग व्यापक रूप से और कई वर्षों तक हुआ।
- इस परियोजना पर जे-पाल के शोध सहायक डैन केनिस्टन को शायद कई अन्य मापदंड याद हों कि आखिर जौनपुर को क्यों चुना गया।
- जौनपुर के अनुभवों को दर्शाती एक लघु फिल्म ‘भोर’ https://youtu.be/TJpBIEhcPEU पर उपलब्ध है।
- ग्रामीण रिपोर्ट कार्ड प्रक्रिया से मिली सीख से एएसईआर तक पहुँचने की यात्रा को समझने के लिए देखें: http://img.asercentre.org/docs/Publications/External%20publications/banerji_p85_birthofaser_learningcurvexxaug2013.pdf
- मोखड़ा टेल - इस अनुभव पर एक लघु फिल्म https://youtu.be/lhEJZGWTaBc पर देखें।
- ‘चलो बिहार’ – इस रोचक प्रसंग का सचित्र ग्राफिक दस्तावेजीकरण देखें (अनुरोध पर उपलब्ध)।
- इसी प्रकार का एक मध्यस्थता-प्रभाव आकलन उत्तराखंड में भी आयोजित किया गया जहां प्रथम और सरकार ने साथ में काम किया।
- यह कभी समझ में आ ही नही सका कि कब टीएआरएल एक पारिभाषिक शब्द बन गया। हमें लगता है कि जे-पाल ने यह सूक्ति बनाई थी लेकिन हमें इस बात की पक्की जानकारी नहीं है कि कब और किसने यह किया।
- हरियाणा में टीएआरएल की मध्यस्थता के रूप को एलईपी - शिक्षण वृद्धि कार्यक्रम कहा गया।
- फूटनोट 8 देखें।
- सही स्तर पर शिक्षण की प्रभावशीलता विषय पर दिनांक 22 जनवरी, 2015 के इंडियन एक्सप्रेस में एसथर डुफ्लो और रुकमणि बैनर्जी के संपादकीय पृष्ठ का आलेख देखें: https://indianexpress.com/article/opinion/columns/lets-remake-the-classroom/. अधिक शैक्षणिक जानकारी के लिए देखें बैनर्जी एट अल. (2016, 2017)।.
- जनवरी 2019 में, प्रथम और जेपीएएल ने टीएआरएल को उप-सहारीय अफ्रीका में ले जाने के लिए सह-प्रभाव नामक नया सहयोजित निधिकरण सहयोग प्रापत किया। देखें https://co-impact.org/program-partners/teaching-at-the-right-level-africa/
लेखक परिचय: डॉ. रुक्मिणी बनर्जी प्रथम एजुकेशन फाउंडेशन की सीईओ हैं।
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